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गांधी अंग्रेजी भूल गया है

राजेन्द्र मिश्र

प्रकाशक : कल्याणी शिक्षा परिषद् प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5647
आईएसबीएन :81-88457-42-6

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लालित्य की मादक गंध से गमकते लेखों का यह संग्रह साहित्य, समालोचना एवं सम्पादन, तीनों विधा-क्षेत्रों के तपोनिष्ठ साधक डॉ. राजेन्द्र मिश्र की ओर से प्रस्तुत एक दुर्लभ दस्तावेज है।

Gandhi Angreji Bhool Gaya Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

लालित्य की मादक गंध से गमकते लेखों का यह संग्रह साहित्य, समालोचना एवं सम्पादन, तीनों विधा-क्षेत्रों के तपोनिष्ठ साधक डा. राजेन्द्र मिश्र की ओर से प्रस्तुत एक दुर्लभ दस्तावेज है।
इनमें अनेक पढ़े, सुने और भोगे, यथार्थ के अनुपम स्मृति चित्र हैं। अनेक मूर्द्धन्य, ज्येष्ठ कवियों साहित्यकारों से लेकर समकालीन साधनारत नवोदित साहित्यकारों तक लेखक की परखी दृष्टि ने बहुत कुछ देखा-दिखाया है जो अक्सर उपेक्षित ही रहा। इसमें उन्होंने अपने अनेक मित्रों को याद किया है तो अनेक इतिहास पुरुषों का तर्पण भी।
इसमें देवता, ईश्वर और अध्यात्म भी है, झकझोरने वाली चिंताएं हैं, नई चिंतन-दृष्टि है और आवश्यक हस्तक्षेप भी।
विश्वास है कि आधुनिक पीढ़ी इस बहुमूल्य दस्तावेज का भरपूर स्वागत करेगी।

इस पुस्तक के बहाने

हिन्दी साहित्य में डाक्टर राजेन्द्र मिश्र के अवदान पर अधिकारपूर्वक कुछ भी लिखने का अधिकारी मैं नहीं हूं। हां, इतना अवश्य है कि उनके इस संकलन ‘गांधी अंग्रेजी भूल गया है !’ के कुछ आलेखों को यदाकदा पढ़ने और काट-छांटकर दैनिक समाचार-पत्र के एक स्तम्ब की शब्द-सीमा में बांधने का कार्य अवश्य किया है। राजेंद्रजी हिंदी की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में विचार-प्रधान लेखन करते हैं। इस संकलन के अधिकतर लेखों का प्रकाशन नागपुर के प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक ‘लोकमत समाचार’ के लोकप्रिय स्तंभ ‘ढाई आखर’ में हुआ है। राजेन्द्रजी साहित्य, समालोचना और सम्पादन-तीनों विधाओं के संगम हैं। इन लेखों में उन्होंने पत्रकारिता के बेहड़ को लालित्य की मादक गंध से महकाने का काम किया है। साहित्य से संस्कारित शैली और पत्रकारिता की अंतर्धारा से जुड़े ये शब्द-चित्र बांधते हैं। इसमें इतिहास और समकालीनता साथ-साथ है। उन्होंने अपने वरिष्ठों, कनिष्ठों और समकालीनों पर भी दुविधा-रहित होकर लिखा है। राजेन्द्रजी रूठे या उदास देवताओं को मनाने की अभ्यर्थना नहीं करते, मित्रों के उज्जवल पक्ष का अतिरंजित वर्णन भी नहीं करते। अपने मोहभंग को सृजन का आलंबन बना लेने का कौशल और धैर्य भी उनमें भरपूर है।

डाक्टर राजेन्द्र मिश्र का यह संग्रह अपनी समग्रता में एक बड़े सामाजिक दायित्व का विस्तार है। इनमें संस्कृति और साहित्य के प्रश्न हैं, सामाजिक चिंताएं हैं। अपनी विचार-दृष्टि को अपने पाठकों तक पहुंचा देने का संकल्प भी है। नागपुर, रायपुर या काशी उनके प्रिय शहर हैं। एक काशी उनके कल्पना-लोक में भी है जिसे वे प्रयाग शुक्ल, कुमार गंधर्व और केदारनाथ सिंह के माध्यम से उद्घाटित करते हैं। रायपुर में अचानक राजधानी बन जाने से उत्पन्न त्रासदी का वर्णन करते हुए उनकी पीड़ा उभरती है- ‘कभी इस शहर में अंग्रेजी हटाओ आंदोलन हुआ करता था, अब बगैर किसी शोर के अंग्रेजी पढ़ाओ आंदोलन हो रहा है।’ यह दु:ख केवल रायपुर ही नहीं, हर बड़े शहर का है। अपनी पीड़ा में वे गांधी को भी जोड़ते हैं- ‘उनके स्वराज्य की कल्पना में बाहरी भीतरी द्वैत के लिए रत्ती-भर जगह नहीं थी। भाषा का सवाल उनके लिए केवल माध्यम का सवाल नहीं था। वह दरअसल मनुष्य के अस्तित्व का एक बड़ा सवाल था। पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालिस की रात बीबीसी के एक पत्रकार ने अंग्रेजी में आजादी पर उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही। गांधीजी ने सिर्फ इतना ही कहा-‘कृपया दुनिया को खबर कर दें कि गांधी अंग्रेजी भूल गया है।’

कालजयी रचनाकारों के साथ अपने दौर के प्रतिष्ठित कवियों, कथाकारों, व्यंग्यकारों, लोक-इतिहास के गायकों, संपादकों को भी राजेन्द्र मिश्र ने इस संकलन में अत्यंत सुदूर ढंग से याद किया है। इसमें अगर कबीर, तुलसी और रहीम हैं, तो तालस्ताय, निराला, प्रेमचंद्र, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, गजानन माधव मुक्तिबोध, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, जैनेंद्र कुमार और सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन जैसे साहित्य-मनीषी भी हैं। जिनको पढ़ा, सुना और रू-ब-रू हुए उनमें श्रीकांत वर्मा, शमशेर बहादुर सिंह, नेमिचन्द्र जैन, हरिशंकर परसाई, विनोद कुमार शुक्ल, बाबा कारंत, कोमल कोठारी, विजयदान देथा, शिवमंगल सिंह सुमन, विद्यानिवास मिश्र, निर्मल वर्मा, रामकुमार, अशोक वाजपेयी, मायाराम सुरजन, पुरुषोत्तम अग्रवाल और अनंतमूर्ति भी शामिल हैं।

उन्होंने एक ओर सागर विश्वविद्यालय के अपने प्रिय चंद्रभूषण तिवारी को याद किया है तो अपने प्रिय कथाकार जयशंकर की भरपूर याद भी उन्हें है, जिनके कथा-संग्रह का लोकार्पण करने वे स्वयं नागपुर आए थे। अध्यात्म को लेकर श्री राजेन्द्र मिश्र की चिंतन-धारा कुछ अलग है। अपने पहले आलेख ‘देवता उदास हैं’ में वे विस्मित होकर पूछते हैं- ‘अचरज तो यह है कि इनकी (देवताओं की) उपस्थिति के बावजूद पवित्रता का अवकाश धीरे-धीरे क्यों सिमटता जा रहा है ?’ फ्रांस की फैशन डिजाइनर एलीना को कबीर समझाते हुए कहते हैं कि ‘यदि कोई ईश्वर है तो वह इसीलिए ईश्वर है कि उसका न आदि है, न अंत। ईश्वर का कोई इतिहास नहीं होता। राम जन्म नहीं लेते प्रकट होते हैं। कहीं भी प्रकट होते हैं, हो सकते हैं।’ इसी तरह ‘तुलसी का कवित्व’ में- ‘तुलसी अपने राम से संवाद करते हैं। राम के बहाने वे मनुष्य और सृष्टि से संवाद करते हैं। उनका राम केवल उनका न होकर सबका राम बन जाता है।’ दो समकालीन श्रेष्ठ कवियों मुक्तिबोध और अज्ञेय का अंत बताते हुए वे लिखते हैं कि ‘मुक्तिबोध रची गई कविता उस अनुभूति की तरह व्यक्त होती थी जो निष्पन्न हो चुकी है।’ श्रीकांत वर्मा के साथ अपने अंतरंग रिश्तों को याद करते हुए राजेन्द्रजी कहते हैं- ‘उन्होंने समकालीन हिन्दी कविता को एक नया मुहावरा, पारदर्शी संक्षिप्तता, चुस्त शैली और एक नई शब्द-संपदा दी है।’

इस संकलन में शामिल लेख डा. राजेन्द्र मिश्र के पढ़े, सुने, देखे और भोगे यथार्थ के स्मृति-चित्र हैं। अपने अनुभवों के विशाल कैनवास में उन्होंने अपने अनेक मित्रों को बड़ी शिद्दत से याद किया है साथ ही कई इतिहास-पुरुषों का तर्पण भी किया है। इसमें झकझोरने वाली चिंताएं भी हैं, नई दृष्टि भी है और यथासंभव हस्तक्षेप भी। इसका प्रकाशन एक ऐसे दौर का दस्तावेज हैं जिसका भरपूर स्वागत होगा।

अच्युतानंद मिश्र

अपनी बात

यह पुस्तक देश-काल के बीचोबीच फंसे मनुष्य को संबोधित टिप्पणियों का एक ऐसा चयन है, जिन्हें मैं कुछ बरसों से लगातार पत्रों में लिखता रहा हूं। ये ऊपरी विन्यास में एक-दूसरे से असंबद्ध होने के बावजूद, अपनी समाहित व्यंजना विन्यास में एक-दूसरे से असंबद्ध होने के बावजूद, अपनी समाहित व्यंजना में- व्यक्ति, समाज, सृष्टि, संस्कृति और साहित्य को लेकर मेरे मनोभाव को भी व्यक्त करती हैं। प्रत्यक्ष और तत्काल, ठिठककर देखने पर निरे प्रत्यक्ष और तत्काल नहीं रह जाते। उनमें भी निरंतरता की गूंज-अनुगूंज होती है। उम्मीद है कि पाठकों के द्वारा वह अनसुनी-अलक्षित नहीं रह जाएगी। दुर्भाग्य से जटिल और कठिन हो रहे हमारे अभागे समय में परस्पर संवाद की जमीन धीरे-धीरे सिमटती-सिकुड़ती और उजाड़ होती जा रही है। अब यह बात भुलाई जा रही है कि अतीत में भविष्य के कई प्रत्यक्ष शामिल हैं: और भविष्य को गढ़ने-रचने में अतीत के प्रेरक और चालक सूत्र मौजूद हैं। वर्तमान भी अतीत और भविष्य की निर्मिति के अलावा और क्या है ?

लेखक ‘लोकमत समाचार’, नागपुर, और ‘जनसत्ता’, दिल्ली, के प्रति आभार व्यक्त करता है- जहां ये टिप्पणियां प्रकाशित हुईं। यदि अच्युतानंदजी की सतर्क पहल नहीं होती तो यह पुस्तक शायद ही इस रूप में प्रकाशित हो पाती। इसके लिए कृतज्ञता एक छोटा शब्द है : औपचारिक और अधूरा।

राजेन्द्र मिश्र

देवता उदास हैं

पिछले कुछ दिनों से मैं एक दिलचस्प काम में जुटा हूं- नगर में प्रतिष्ठित देव-मूर्तियों की गिनती का काम। यह काम निरापद तो है नहीं। कभी महर्षि व्यास ने कालातीत को काल और देशातीत को देश में बांधने के लिए पाश्चाताप किया था। गणनातीत को गणना में जानने के लिए आरंभ से मैं उनसे क्षमा-प्रार्थी हूं। अब क्या किया जाए ? पढ़ने देखने की लोकप्रिय और आधुनिक पद्धति यही है कि पहले हम आँकड़े बटोरें और फिर उनके आधार पर वांछित विश्लेषण आदि की दिशा में आगे बढ़ें।

लगभग छ: लाख की आबादी वाले हमारे नगर में मित्रों के सहयोग और सक्रियता से अब तक तीन हजार पांच सौ साठ के करीब प्रतिष्ठित देवताओं की जानकारी मिली है। जाहिर है कि यह गिनती अधूरी है। हम अधूरी गिनतियों में ही तो मनुष्य और उसके संसार को छूने-बूझने के आदी हैं। अधूरे आंकड़े के इस घेरे में घरों में विराजे देवता शामिल नहीं हैं। हम केवल उन्हीं मूर्तियों को गिन रहें हैं जो छोटे-बड़े मंदिरों में, जलाश्यों के किनारे, सड़कों और गलियों के दाएं-बाएं, बरगद और पीपल के विशाल वृक्षों के नीचे और चौराहों के आसपास हैं। पुराने मंदिरों के साथ शहर के इतिहास की मार्मिक स्मृतियां हैं। उनकी संरचना पर मध्यकालीन स्थापत्य का गहरा असर है। वह बस्ती जहां पुरानी देव-प्रतिमाएं हैं, अब भी ‘पुरानी-बस्ती’ कही जाती है। और लगातार अपने सिकुड़ते भूगोल के बावजूद उनके पास का तालाब कम-से-कम नाम से तो अब भी बूढ़ा तालाब है। नए बने मंदिर, आधुनिक समृद्धि के उजले वृत्तांत हैं : उनकी प्रसन्न मूर्तियां अनिमेष दृष्टि से मनुष्य की लीला को चुपचाप देख रही हैं। सबसे अधिक संख्या उन प्रतिमाओं की है जो सड़क के आजू-बाजू स्थापित हैं। वे जहां भी हैं, जैसे भी हैं, देवभूमि में हैं। उन पर भला मनुष्य के बनाए विधि-विधान कैसे लागू हो सकते हैं ?

हमारी इस देव-गणना से पता चलता है कि सबसे अधिक मूर्तियां हनुमानजी की हैं- लगभग दो हजार। वे पवनसुत हैं, महावीर हैं, आंजनेय हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे राम और शिव से जुड़ी अनगिनत कथाओं-उपकथाओं के बीच आज भी अपने भक्तों के संकट-मोचन हैं। भीड़भरी सड़कों से गुजरता राहगीर-चाहे वह कितना भी गतिशील-प्रगतिशील क्यों न हो-कुछ देर ठहरकर या मन ही मन उन्हें प्रणाम कर ही आगे जाता है। दिन दूने, रात चौगुने संकटों से घिरी दुनिया में सर्वसुलभ हनुमान सबका संकट दूर करते हैं। दूर करते-से दीखते हैं। फाउस्ट और हेलमेट को पश्चिमी सभ्यता के केंद्रीय प्रतीक-पात्रों के रूप में प्रस्तुत करते हुए वात्स्यायनजी के एक विदेशी बंधु ने कभी उनसे इस तरह के भारतीय पात्रों को लेकर जिज्ञासा व्यक्त की थी। वात्स्यायन ने तुरंत हनुमान और नारद का नाम लिया था। आराध्य के प्रति अशेष समर्पण और विनय के निष्कंप बोध ने ही तो राम से अधिक गौरव राम के इस दास को दिया है !

हनुमान के बाद, हमारी गिनती में आशुतोष, महाकालेश्वर, नटराज, नीलकंठ, महादेव आदि नामों से पुकारे जाने वाले शिव हैं। छोटे बड़े मंदिरों में या फिर खुले चबूतरों में लोहे की तिपाई पर टिका घड़ा और शिवलिंग पर उससे बूंद-बूंद टपकता जल शिव- उपासना का पवित्र हिस्सा है। यहां के मारवाड़ी श्मशान में शिव अपने अदृश्य गुणों के साथ, जलती चिता में जैसे मृत्यु को जीवन के उत्सव के रूप में देखते हैं। महादेव घाट के शिवालय में भक्तों की भीड़ रहती है। आशुतोष बिना बोले बहुत कुछ देते हैं। नारायण, नर की व्यथा जानते हैं, लेकिन यह भी सच है कि नर की अनझिप आंखों में ‘नारायण की व्यथा’ भी जब-तब डोलती है।

तीसरे देवता शनि महाराज हैं। गोलबाजार के बीच उनका एक मंदिर है, लेकिन आप चाहें तो वहां भी न जाएं। शनिवार के दिन विभिन्न सार्वजनिक जगहों में ही नहीं, मुहल्ले-मुहल्ले में छोटी-सी तेल-भरी पीतल की बाल्टी में डूबे शनि महाराज को लेकर घूमने वाले बाबाओं की तो कोई कमी नहीं है। हमारे घर में पिछले बारह बरसों से शनिवार को नियत समय में शनिबाबा, शनि महाराज को लेकर आते हैं। संस्कार और अभ्यासवश अर्चना एक-दो सिक्के बाल्टी में जरूर डालती हैं। पहले बाबा पैदल आते थे। बाद में साइकिल-सवार हो गए। शनि महाराज की कृपा से अब उन्हें लूना मिल गई है।
इधर दो महीनों से उनका कोई अता-पता नहीं।

कल अचानक एक युवक आया। बिलकुल उसी सजधज के साथ।
उससे पता चला कि बाबा अब कभी नहीं आएंगे। उन्होंने परचून की एक दुकान खोल ली है। इस युवक को उन्होंने एवजी शनिबाबा बनाकर अपने वार्ड को उसी के सुपुर्द कर दिया गया। अपने साढ़े साती दूसरे पर उतार दी है !
हजारों मूर्तियों में पूजित इन तीनों देवताओं के अलावा हमारी सूची के देव-मंडल में अभी कई प्रतिष्ठित देवता और देवियां हैं। अचरज तो यह है कि इनकी उपस्थिति के बावजूद पवित्रता का अवकाश धीरे-धीरे सिमटता जा रहा है। जलहरी सूख रही है। देवता उदास हैं। आपके शहर में भी शायद ऐसा कुछ हो रहा हो।

ईश्वर का कोई इतिहास नहीं होता

पिछले साल एलीना फ्रांस से हिंदुस्तान आईं।
पेरिस में वह फैशन डिजाइनर हैं लेकिन इधर कई वर्षो से कबीर की कविता का अध्ययन कर रहीं हैं। छत्तीसगढ़ के कुछ कबीर केंद्रों के अध्ययन की सामग्री जुटाने के सिलसिले में वे रायपुर भी आईं। अनौपचारिक बातचीत में उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या जहां पर बाबरी मस्जिद थी ठीक उसी जगह भगवान राम का जन्म हुआ था ? मैंने तुरंत कोई उत्तर न देते हुए एलीना से जानना चाहा कि वे यह मुझसे क्यों पूछ रही हैं ? किचिंत् विनोद के साथ उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान तो करोड़ों देवी-देवताओं का देश है, यदि सबके जन्म-स्थान को चिह्नित कर भव्य मंदिरों का निर्माण किया जाए तो फिर यहां के मनुष्य कहां रहेंगे ?

सहज विनोद में कहीं-कहीं यह बात प्रकारांतर से ही सही, अपनी संभावित व्यंजना में मिथक और इतिहास के आपसी रिश्तों और उनके सीमांतों की पहचान का दिलचस्प जरिया भी बन सकती है। मिथक और पुराण-प्रतीक अपनी सनातनता में बार-बार जन्म लेते हैं। वे नष्ट नहीं होते, बल्कि अपनी लीला की हर आवृत्ति में नया रूप धारण करते हैं। इतिहास तो देश और काल के बीच अपने तर्क फैलाता है। उसमें आरंभ और अंत के दृश्य होते हैं। उसकी गति हमेशा आगे जाती है। काल की एक रैखिक कल्पना में पीछे लौटना संभव नहीं। राम, कृष्ण, शिव आदि पुराण-प्रतीक निरंतरता में वास करते हैं। उनके सभी मानव-रूप लीलाएं हैं। कवि की कल्पसृष्टियां हैं।

ऋग्वेद में तैंतीस देवता उपस्थित हैं, पर तीन में वे समाविष्ट हो जाते हैं और जरा गौर से देखें तो वे सब भी एक में ही एकाग्र दीखते हैं।
यदि कोई ईश्वर है तो वह इसीलिए है कि उसका न आदि है, न अन्त। ईश्वर का कोई इतिहास नहीं होता। राम जन्म नहीं लेते, प्रकट होते हैं। वे किसी निश्चित स्थान में नहीं, कही भी प्रकट होते हैं, हो सकते हैं।
‘मिथ’ और ‘फेथ’ को इतिहास के तुर्कों में पढ़ते हुए हम एक ऐसी ट्रेजडी रच रहें हैं जहां न तो ‘फेथ’ की पवित्रता सुरक्षित रह सकती और न ही इतिहास की तार्किकता।

कृपा है महाकाल की

दो साल पहले भी इस प्रतिमा को देखने मैं ताला आया था। नामवर सिंह, अशोक वाजपेयी, विनोद कुमार शुक्ल आदि कवि-लेखक भी साथ थे। बिलासपुर से लगभग तीस किलोमीटर दूर मनियारी नदी के तट पर, पंद्रह बरस पहले उत्खनन में मिली यह प्रतिमा अपना रहस्य आप कहती है। अद्भुत है यह नौ फीट ऊंची देव-काया, जिसके अंग-अंग में अनगिनत पशु-पक्षी विन्यस्त हैं। शीश पर सांपों का संजाल। भौहों में छिपकली, मूछों में मत्स्य, कानों में मयूर, ठुड्डी में केवड़ा, छाती से लेकर घुटनों के ऊपर तक सात मनुष्य-मुख, घुटनों में सिंह-मुख, कमर को लपेटे सांप ! जाहिर हैं कि छिपकली, सांप, मकड़ी, मछली, कछुआ, शेर आदि के साथ सात मनुष्य-मुखों को धारण करने वाली यह प्रतिमा अपनी उपस्थिति में कई तरह के पाठों को आमंत्रित करती है। यह जानते हुए भी एक ही देवता के सहस्त्र नाम हैं, हम उन्हें एक नाम के भीतर देखने-पाने की हड़बड़ी में होते हैं। देवता का देवत्व नामों के अतिक्रमण में होता है; मनुष्य का मनुष्यत्व नाम देने में। नामकरण मनुष्य का संस्कार है।
प्रतिमा के सामने खड़े नामवर सिंह कर रहे थे - ‘अब समझ में आता है कि शिव को पशुपति क्यों कहा जाता है।’

अशोक वाजपेयी को श्रीकांतजी की एक पंक्ति याद आई-
‘कृपा है महाकाल की।’
विनोद कुमार शुक्ल की आंखों में तब एक कविता डोल रही थी।
इतिहासविद इस मूर्ति को इतिहास के सामने तर्क में बांधने का उद्यम कर रहें हैं। वे जानना चाहते हैं- यह कब बनी ? उत्तर भी देते हैं- शायद छठी शताब्दी के मध्य में। किस परंपरा की है ? शायद शैव परंपरा की। संभावना के इस सिलसिले में उस प्राचीन सामाजिक भूगोल का स्मरण आना भी स्वाभाविक है, जिसमें स्थपति, नगर-संरचना में इस बात पर भी विचार करते थे कि किस दिशा में कौन-से देवता का वास है। उनकी कल्पना में अलग-अलग गुण-धर्म से मंडित देवता और दिग्पाल की प्रतिष्ठा के देश निर्धारित थे। और भी प्रश्न हैं। उनके ठिठकते-से उत्तर के आगे भी ‘शायद’ लिखा हुआ है। मूर्ति के उत्खनन के समय उपस्थित भारतीय कला-इतिहास के मर्मज्ञ प्रो. प्रमोदचंद्र तो यहां तक कहते हैं कि ‘इस मूर्ति को समझने के लिए पूरी एक शताब्दी चाहिए।’

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