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आयुर्वेद विभिन्न पहलू

शरदिनी डहाणूकर एवं उर्मिला थत्ते

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :129
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5654
आईएसबीएन :81-237-2852-2

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आयुर्वेद चिकित्सा एवं उपचार...

Aaurveda Vibhinn Pahalu a hindi book by Sharadini Dahanukar Urmila Thatte - आयुर्वेद विभिन्न पहलू - शरदिनी डहाणूकर एवं उर्मिला थत्ते

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आयुर्वेद नाम से लंबे बाल वाले मनीषियों के बिंब उभरकर सामने आते हैं जो जड़ी-बूटी वाली ‘सर्वरोगहर’ औषधियाँ वितरित करते हैं। रहस्यों से घिरे इस चिकित्सा विज्ञान ने विभिन्न प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया है-रोमानी पुनर्जागरणवाद से लेकर पश्चिमोन्मुखी अस्वीकार तक तथा पूर्ण स्वीकृति से लेकर समग्र खंडन तक। आखिर यह चिकित्सा विज्ञान क्या है ? यह पुस्तक ‘दोश-धातु-मल’ की अवधारणा के उन रहस्यों से पर्दा हटाती है जो आयुर्वेद का आधार है। मूलभूत सिद्धान्तों की इस ढंग से व्यख्या की गई है कि लगभग चमत्कारिक ढंग से ‘दोष’ शरीर की शासन परिषद के रूप में सामने आते हैं तो ‘धातु’ (ऊतक) शासित रूप में और ‘मल’ उनके उत्पादकों के रूप में है। पुस्तक में सरल जड़ी–बूटीय उपचार भी सुझाए गए हैं जिन्हें बाल्यावस्था, प्रौढ़ावस्था, और वृद्धावस्था के दौरान रोगों का उपचार करने के लिए घरों में रखा जा सकता है।

शरदिनी डहाणूकर (डॉ.) सेठ जी. एस. मेडिकल कॉलेज एवं के ई. एस. अस्पताल मुम्बई में भेषजविज्ञान की प्रोफेसर हैं। उन्होंने आयुर्वेद में विशद अनुसंधान किया है। मराठी में लिखी उनकी एक पुस्तक ‘फुलवा’ महाराष्ट सरकार द्वारा पुरस्कृत है।

उर्मिला थत्ते (डॉ.) सेठ जी. एस. मेडिकल कॉलेज एवं के ई. एस. अस्पताल मुम्बई में भेषजविज्ञान की एसोसिएट प्रोफेसर हैं। नैदानिक भेषजविज्ञान एवं आयुर्वेद की उत्साही छात्रा रही हैं। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं मे उनके बहुत से लेख प्रकाशित हो चुके हैं।
लक्ष्मीनारायण गर्ग (डॉ.) तकनीकी पुस्तकों के अनुवादक के रूप में एक परिचित नाम है।

प्राक्कथन


मानव प्रकृति की अनूठी कृति है। जड़ और चेतन सभी पदार्थ प्रकृति के विधान का पालन करते हैं। प्रकृति के साथ तादाम्य स्थापित करके रहना सीख लेने पर ही उनका अस्तित्व अथवा जीवन निर्भर करता है। कभी, पुनर्जागरण काल के दौरान, प्रकृति को समझने और उस पर विजय प्राप्त करने के प्रयास में मनुष्य में प्रकृति के समग्र से दूर की जाने की प्रवृत्तियाँ विकसित हो गयी। तीव्र वैज्ञानिक प्रगति ने पशु, पक्षियों, वृक्षों और फूलों जैसे तथ्यों की उपेक्षा करते हुए हमारा ध्यान उस ओर से हटा दिया। हमारी प्रवृत्ति इस तथ्य की उपेक्षा करने की हो गई है कि मानव शरीर प्रकृति के सतत परिवर्तनशील समाज के प्रति प्रतिक्रिया करता है, अतः हम कष्ट उठाते हैं। काल जैविकी, ऋतुपरिवर्तन, पर्यावरणी परिवर्तन तथा उद्योगीकरण के फल स्वरूप परिवर्तित होती जीवनशैली आदि सभी कारकों का इसमें योगदान है।

आधुनिक वैज्ञानिक चिकित्सा शास्त्र ने काफी हद तक अपने आप को उपचारात्मक अथवा कार्य-प्रणाली नियमन औषधियों पर संकेंद्रित कर लिया है। निरोधी चिकित्साविज्ञान क्षेत्र में गिने चुने टीकों, पेयजल की गुणवत्ता में सुधार, स्वास्थ्य और मूलभूत स्वच्छता को छोड़कर अधिक प्रगति नहीं हुई है। इस प्रसंग में, हमारे लिए यह अनिवार्य है कि हम आयुर्वेद की ओर मुखातिब हों। निरोग काया विज्ञान के रूप में आयुर्वेद उन विविध कारकों पर विचार करता है जो स्वस्थ रहने में मनुष्य की सहायता करते हैं। आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिकों ने जो विशलेषणात्मक आँकड़े सामने रखे हैं, हो सकता है कि वे आयुर्वेद ग्रंथों में उपलब्ध, युक्तियुक्त उक्तिपरक संकल्पनाएँ हजारों वर्षों से समय की कसौटी पर खरी उतरी हैं। प्रकृति रूप से प्राप्त वनस्पति और खनिजों का उपयोग, मानव के उद्भव और अस्तित्व पर धरती के चेतन और अचेतन घटकों के पारास्पिक हित साधन के प्रभाव के दर्शन की ओर इंगित करता है।

समय की मांग है कि इस निरोग कायाविज्ञान के विभिन्न पहलुओं को देखा-परखा जाए और सिद्धान्तों की पुनः पुष्टि की जाए। आधुनिक चिकित्सा विज्ञानियों को चाहिए कि वे आयुर्वेद के विज्ञान सम्मत सिद्धांतों की जांच करें, उन्हें सामने लाएँ और उन्हें सार्वभौम भाषा में प्रस्तुत करें। आधुनिक वैज्ञानिक चिकित्सा विज्ञान एवं अन्य चिकित्सा प्रणालियों के बीच की अदृश्य दीवार को, विशेषकर बीसवीं शदी में पर्यावरण तथा जीवन शैली में होने वाले परिवर्तन तथा जीवन के तनावों के कारण भी हटाना अनिवार्य हो गया है।
सरल संवाद शैली में लिखी गयी इस पुस्तक में आयुर्वेद के उन विविध पहलुओं का वर्णन किया गया है जिनसे लगभग सभी भारतीय–चाहे अपने प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अथवा दादी, नानी से अर्जित ज्ञान के आधार पर परिचित हैं। लेखकों ने आयुर्वेद के मूलभूत सिद्धांतों की सरल और बोधगम्य भाषा में व्यख्या की है। इस प्रकार ‘दोष’ जादुई तौर पर संगठन अर्थात शरीर की शासन परिषद अथवा प्रबंध संवर्ग जितने महत्त्वपूर्ण हैं तो ‘धातुओं’ (ऊतकों) का स्थान शासितों अथवा आम व्यक्तियों जैसा है और ‘मल’ मानो उनका उत्पाद है। मानव शरीर भी लोकतंत्र को स्वरूप को पसंद करता है। लेखकों ने ऐसी ही उपमाओं की सहायता से, व्यक्तिगत घटकों के बीच विद्यमान जटिल और पेचीदा संबंधों को खूबसूरती से समझाया है। उन्होंने ‘सामंजस्य ही स्वास्थ्य है’ जैसी लोकोक्ति पर बल दिया है।

अत्यंत पठनीय इस पुस्तक का सर्वाधिक रोचक अंश वह है जिसके माध्यम से आप अपनी शरीर-संरचना के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं और ऐसा होने के पश्चात दूसरे अध्यायों से आपकों ऋतुओं के अनुरूप अपनी जीवनशैली अथवा/ एवं आहार का चयन करने और स्वस्थ रहने में मदद मिलेगी।
पुस्तक में यह बताने का भी प्रयास किया गया है कि विभिन्न वनस्पतियों का उपयोग करते हुए ‘घरेलू-उपचार पेटी’ (होम रेमेडीज़ किट) कैसे बनाएँ। हालाँकि संक्षेप में, किंतु आयुर्वेद के कतिपय अन्यस्थानिक पहलुओं जैसे, ‘पंचकर्म’ तथा आयुर्वेदिक औषधियों के अनुसार परिवर्तनी सामान्य रोगों का भी उल्लेख किया है।

इस तरह की एक पुस्तक अनिवार्य थी। आयुर्वेद एक परम्परा है जो हमें विरासत में मिली है और इसके विज्ञानपरक विमर्शों में निहित तर्कों के संबंध में व्यापक स्तर पर जागरूकता लाना आवाश्यक है। आयुर्वेद को वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति मानकर चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में इसकी उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए, बल्कि परंपरागत चिकित्सा पद्धति के साथ समाहित किया जाना चाहिए ताकि एक नूतन तथा सबको अपने में समाहित किए हुए एक भारतीय संघटित चिकित्सा प्रणाली विकसित हो सके। निश्चय ही यह पुस्तक घोर अविश्वासी लोगों की जिज्ञासा को भी शांत करेगी।

के. ई. एम. अस्पताल, मुम्बई
1 सितम्बर, 1995

(प्रो.) आर. डी. बापट


1
भूमिका


तो यात्रा प्रारम्भ होती है...
‘‘मेरे मित्र की माँ गुर्दे के कैंसर से पीड़ित हैं। वस्तुतः यह उनके रोग की पुनरावृत्ति है। लगभग तीन वर्ष पहले उनका आपरेशन हुआ था और ट्यूमर सहित उनका गुर्दा निकाल दिया गया था। चार महीने पहले खाँसी और पीठ दर्द होने तक वह ठीक थीं। छाती के एक्स-रे और अस्थि-स्कैन ने अंतिम झटका दिया। शरीर के व्यापक हिस्से में रोग-व्याप्ति के कारण उन्हें अधिक से अधिक केवल चार महीने का समय दिया गया है। मुझे बताइए, क्या ऐसे में आयुर्वेद कुछ कर सकता है ? हम किसके पास जा सकते हैं ?’’

जब जब कुछ असफल सिद्ध होता है और जीवन के छोर पर अंधकार ही नजर आता है तब रोगी अथवा उसके संबंधी इस चिकित्सा विज्ञान (आयुर्वेद) से इस प्रकार चिपकते हैं मानो यही उनका अंतिम सहारा हो। केवल कैंसर ही ऐसा रोग नहीं है जो रोगियों को वैद्यों (आयुर्वेदिक चिकित्सक) तक पहुँचने के लिए बाध्य करता है; इन आयुर्वेदिक चिकित्सकों ने क्लीनिकों के बाहर श्वसनी (ब्रोंकियल) दमा से सेरिएसिस और पीलिया से लेकर मिर्गी तक के रोगियों तक की भीड़ देखी जा सकती है।
ऐहिक जगत में हम सब अपने रोजमर्रा के जीवन में आयुर्वेद के सिद्धांत अपनाते हैं। जब हम आहार में दही की जगह छाछ के उपयोग का सुझाव देते हैं या बवासीर के रोगियों को अपने आहार में जिमीकंद शामिल करने की सलाह देते हैं अथवा नयी जच्चा में दुग्धस्रवण की वृद्धि के लिए ‘अहलिव’ से बने लड्डू देते हैं तो हम उन्हीं बातों पर अमल करते हैं जो आयुर्वेद में बतायी गयी हैं।

आयुर्वेद अधिकतर भारतीयों की घुट्टी में शामिल है-हम इसी चिकित्सा प्रणाली के साथ बड़े होते हैं। व्यक्तिगत अनुभव हममें से बहुतों को आयुर्वेद का परम सार्थक बनाता है और दादी, नानी की गठरी में लिखे रखे कुछ नुस्खे तो चमत्कारी प्रतीत होते हैं। तथापि बहुत सी शंकाएँ भी हैं- वैज्ञानिक ढंग की सोच वालों के मन में, ‘कैसे’, ‘कब’, ‘क्यों’ जैसे प्रश्न घुमड़ते हैं। और चूँकि स्वीकार्य उत्तरों का अभाव या कमी है, अतः ऐसी चिकित्सा प्रणाली जो वास्तव में तर्क और प्रेक्षण में श्रेष्ठ रूप से व्यवहारीय है उस लोक चिकित्सा का दर्जा दे दिया जाता है।

आयुर्वेद समय की कसौटी पर खरा सिद्ध हुआ है। इस चिकित्सा विज्ञान ने अपनी सचाई पर हुए आक्रमणों पर विजय प्राप्त की है और राजीनीति झंझावातों से बचते हुए देश में फला-फूला है। आयुर्वेद दुनिया की प्राचीनतम चिकित्सा प्रणालियों में से एक है-यह अथर्ववेद’ का विस्तार है; यह विज्ञान कला और दर्शन का मिश्रण है। ‘आयुर्वेद’ नाम का अर्थ है, ‘जीवन का ज्ञान’-और यही संक्षेप में आयुर्वेद का सार है। यह चिकित्सा प्रणाली केवल रोगोपचार के नुस्खे ही उपलब्ध नहीं कराती, बल्कि रोगों की रोकथाम के उपायों के विषय में भी विस्तार से चर्चा करती है। यह बात सुधी पाठकों को घिसी-पिटी लग सकती है किंतु वास्तविकता यह है कि इसके श्लोक इतने स्पष्ट, विदग्ध किंतु संक्षिप्त हैं कि किसी के भी आत्मसंतोष को झकझोर को रख दें।

ऐसी मान्यता है कि आरंभिक यूनानी और अरबी चिकित्सा प्रणालियों ने कुछ विचार आयुर्वेद से लेकर आत्मसात किए। आयुर्वेद के इन विचारों से आरंभिक पाश्चात्य चिकित्साप्रणाली भी प्रभावित हुई थी क्योंकि प्रगण्डिका (विषाद भाव शून्यता और पित्त अथवा यकृत जन्य रोग) की संकल्पनाएँ तत्कालीन लेखों में वर्णित हैं। विभिन्न कारणों से निरोग शरीर विज्ञान संबंधी उपागम का स्थान रोग को कम करने के प्रयास ने ले लिया और इससे संस्थापित पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान का जन्म हुआ। भारत में, एक के बाद एक, मुगलों और अंग्रेजों के आक्रमणों से आयुर्वेद को पृष्ठभूमि में डाल दिया गया। जैसे –जैसे उद्योगीकरण और शहरीकरण में वृद्धि हुई और भौतिक सुख हमारे जीवन पर हावी होते गए, हम आयुर्वेद के सिद्धांतों से (जो मूलतः प्रकृति के अनुकूल और सख्त अनुशासन से युक्त थे) विमुख हो गए। इस प्रकार रोगी की ओर उन्मुख निरोग शरीर विज्ञान का स्थान, रोग-निदान आधारित रोगोन्मुखी अनुशीलन ने ले लिया।

इतिहास के परिप्रेक्ष्य में देखकर शिक्षा ग्रहण करते समय ऐसा महसूस होता है कि अब समय आ गया है कि हम आयुर्वेद की कतिपय शिक्षा को पुनः अपनाएँ और पश्चिम का अंधानुसरण न करें। संभवतः अनुभव ही विश्व में उत्तम शिक्षक है। देखना ही विश्वास का आधार है या नहीं ? जब हम अपने चारों ओर देखते हैं तो हमें अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं कि पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान अनेक समस्याओं का हल ढूँढ़ने में असमर्थ और असफल सिद्ध हुआ है। ऐसी स्थिति में हमारे मन में पूर्ण आदर्श स्वास्थ्य परिचर्या प्रणाली के प्रति संदेह उत्पन्न होने लगते हैं। भोजन में घी के उपयोग के बारे में भ्रामक धारणाएँ इसका उदाहरण हैं: क्या आपको कोई ऐसा दिन याद है जब आपके दादाजी की रोटी पर घी (जिसे पश्चिम के लोग ‘क्लैरिफाइड बटर’ कहते हैं) न लगा हो ? हमें बताया जाता है कि घी अच्छे स्वास्थ्य के लिए अभिशाप है जबकि आपके दादाजी संभवतः 80 या 90 वर्ष तक स्वस्थ रह कर जीवित रहे ! और आज की पीढ़ी उन विदेशी जीवन दर्शनों के सहारे जी रही है जो उनके लिए उतने ही विदेशी हैं जितनी की वह संस्कृति जिससे वे प्रादुर्भूत हुए हैं।

और यदि यह पीढ़ी मृत्यु नहीं तो भी अकाल रुग्णता को जन्म देने वाले कौलेस्ट्राल से संबंधित रोगों से ग्रस्त है—वह भी यदाकदा ऐसी गरमा-गरम घी से चुपड़ी खाए बिना ही, जिसे देखकर मुँह में पानी आ जाए ! वस्तुतः आयुर्वेद हमें बताता है कि मक्कन से घी बेहतर है क्योंकि परिवर्तन की प्रक्रिया में इसके गुण परिवर्तित होते हैं। जब मक्खन को गर्म करके छाना जाता है तब उससे प्राप्त पदार्थ (घी) न केवल हानिरहित होता है बल्कि समुचित विधि से उपयोग करने पर लाभदायक होता है। वास्तव में घी अनेक औषधियों के लिए माध्यम है। आश्चर्य की बात है कि आयुर्वेद में घी को रक्त-वाहिकाओं के लिए स्नेहक बताया गया है और ऐलोपैथी की मान्यता के सर्वथा विपरीत, जरावस्था आने में विलम्ब का कारण बताया गया है ! हमारी विरासत का सर्वाधिक रोचक पहलू यह है कि हमने विश्व को आयुर्वेद से समृद्ध किया है। और हम हैं कि इसका लाभ उठाने की बजाए उपचार की तलाश में पश्चिम का मुँह देखते हैं। हालांकि हमारा ध्येय ऐलोपैथी को नीचा दिखाना नहीं है, फिर भी आयुर्वेद के कुछ सिद्धांतों का अध्ययन करना, उन्हें प्रमाणित करना और अपनाना लाभप्रद है। आखिर, हमारी शरीर-रचना, कालक्रम औषध विज्ञान और व्यक्तिपरक रोगोपचार की संकलपनाएँ, जो आयुर्वेदिक चिकित्साविज्ञान की रीढ़ हैं, आज उन्हें आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में लागू किया जा रहा है। क्या थोड़ा रुककर इस विषय पर चिंतन करना आवश्यक नहीं है ?

इस पुस्तक में आम आदमी को यह समझाने का प्रयास किया गया है कि आयुर्वेद ‘लोक चिकित्सा प्रणाली’ नहीं है और न ही ऐसी चिकित्सा प्रणाली है जिसे सब ओर से असफल होने के बाद अपनाया जाए। यह तो अच्छे स्वास्थ्य हेतु एक जीवन शैली है।
अब हम आयुर्वेद के रहस्यों का अन्वेषण करेंगे और उन सिद्धांतों का अन्वेषण करेंगे जिन पर यह विज्ञान आधारित है। हम उन उपायों की खोज करेंगे जिनके माध्यम से हम अपने दैनिक जीवन में आयुर्वेद का समावेश कर सकते हैं। वह भी अपनी मूल जीवन शैली में परिवर्तन किए बिना ताकि हम निरपेक्ष स्वास्थ्य के साथ जीवन जी सकें। आखिर चिकित्साविज्ञान की प्रत्येक पद्धति इसी बात को तो बढ़ावा देती है कि, ‘उपचार से रोकथाम बेहतर है।’ आयुर्वेद बीमारी की रोकथाम करके स्वस्थ जीवन जीने में हमारी सहायता कर सकता है। इस पुस्तक में, सरल शब्दों में आप यही पढ़ेंगे कि यह कैसे संभव है ?
हम रोमानी पुनर्जागरणवाद को बढ़ावा नहीं देना चाहते और न ही किसी को अपनी राय बदलने के लिए विवश करना चाहते हैं। हम केवल आयुर्वेद के विभिन्न ग्रंथों में उपलब्ध तथ्यों को प्रस्तुत करना चाहते हैं। आशा है कि हमारे साथ यात्रा के दौरान, ये तथ्य आपको अपने शरीर के रहस्यों को खोजने में सहायता करेंगे।



2
विहंगम-दृष्टि



सत्त्वमात्मा शरीरं च भयमेतत्भिदण्डवत।
लोकस्तिष्ठित संयोगात्तत्र सर्वं प्रतिष्ठितम्।।
-चरक सू. अ. 7/46

चरक कहते हैं, ‘‘मन, आत्मा और शरीर ऐसे तीन स्तंभ हैं जिन पर न केवल मानव जाति का बल्कि विश्व का अस्तित्व टिका हुआ है।’’
आयुर्वेद जीवन का ज्ञान है जो बताता है कि स्वस्थ जीवन कैसे जिएँ। इस विषय में चर्चा करने से पूर्व हम ‘रोग-मुक्त’ और ‘स्वस्थ’ के अंतर समझ लें।

‘स्वस्थ्य का विलोम है ‘ अस्वस्थ’ और ‘अस्वस्थ’ ‘रोग ग्रस्त’ का समरूप नहीं है। क्या कभी-कभी ऐसा नहीं होता कि आप अनियमित नींद सोकर सुबह उठे हैं और अस्वस्थ महसूस कर रहे है ? आपकी आँखों के नीचे सूजन है और उनकी चमक नदारत है। आपको पूरी तरह मल त्याग न होने का अहसास हो रहा है। सारा दिन आप कुछ अनिश्चित सा दर्द महसूस करते हैं, बच्चों पर जरूरत से ज्यादा चिल्लाते हैं, बेवजह बहस करते हैं और कुल मिलाकर अप्रसन्न रहते हैं। ऐसे लक्षणों का आज की चिकित्सा प्रणाली में, किसी भी ज्ञान रोग के संलक्षणों में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता। इसके बावजूद इतना तय है कि आप ठीक नहीं हैं और आपकी स्थिति ‘सकारात्मक’ स्वास्थ्य की नहीं है।
जब रोगी ऐसी शिकायतें लेकर आते हैं तो ऐलोपैथिक डाक्टरों के पास देने के लिए क्या होता है ? विगत में, इसके लिए कुछ विटामिन और टॉनिक होते थे जबकि आज की प्रवृत्ति तनाव-शमन की लोकप्रिय औषधियां हैं। क्या आपको मालूम है कि ‘आवश्यकतानुरूप निर्मित’ हमारे अपने स्वदेशी चिकित्सा विज्ञान आयुर्वेद में ऐसे अनेक नुस्खे हैं जो हमें अस्वस्थ होने से बचाने के लिए हैं ?



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