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भारत के संकटग्रस्त वन्य प्राणी और उनका संरक्षण

एस.एम. नायर

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :93
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5664
आईएसबीएन :81-237-1290-1

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संकटग्रस्त और दुर्लभ वन्य प्राणियों तथा उनके संरक्षण के लिए किए जा रहे प्रयासों की जानकारी...

Bharat Ke Sankatgrast Vanya Prani Aur Unka Sanraks a hindi book by S. M. Nayar - भारत के संकटग्रस्त वन्य प्राणी और उनका संरक्षण -एस.एम. नायर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत पुस्तक ‘भारत के संकटग्रस्त वन्य प्राणी और उनका संरक्षण’ जनसाधाराण में दुर्लभ और संकटग्रस्त वन्य प्राणियों के प्रति जागरूकता बढ़ाने तथा इनके संरक्षण की आवश्यकता की ओर ध्यान आकर्षित करने के प्रयोजन से लिखी गयी है। इस जानकारी को लोकप्रिय शैली में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। कहीं-कहीं प्राणिवैज्ञानिक विवरण टाला नहीं जा सका है, विशेष रूप से अध्याय 3 में, जो संकटग्रस्त प्राणियों की जातियों से संबंधित है। फिर भी, इस अध्याय में प्राणियों के सामान्य लक्षण ही दिये गये हैं जो प्राणियों की पहचान में उपयोग के लिए नहीं हैं।

वन्य जीवन संरक्षण के संबंध में बढ़ती हुई जागरूकता तथा पेड़-पौधों प्राणियों और पारिस्थितिक तंत्रों को बचाने के लिए प्रकृति संरक्षित क्षेत्रों की स्थापना, संकटग्रस्त प्राणियों के संरक्षण के लिए विशेष परियोजनाएं प्रारंभ करने तथा कानून बनाने और संस्थाओं की स्थापना करने जैसे सरकारी प्रयासों के बावजूद जनसाधारण में वन्य जीवों के संरक्षण के प्रति जागरूकता एवं जनचेतना बढ़ाने के लिए अभी बहुत कुछ कहना बाकी है। आशा है कि इस संदर्भ में इस पुस्तक में दी गयी जानकारी लाभप्रद सिद्ध होगी।

नयी दिल्ली स्थित राष्ट्रीय प्राकृतिक विज्ञान संग्रहालय (एन.एम.एन.एच.) व इसके संरक्षण शिक्षा संबंधी कार्यकलापों और इस कार्य हेतु संग्रहालय में संसाधनों के विकास में मेरी भागीदारी इस कार्य में विशेष उपयोगी सिद्ध हुई है। मैं इस संग्रहालय के श्री वी.जी. गोगटे का आभारी हूं जिन्होंने एक अनुभवी प्रकृति वैज्ञानिक होने के नाते संकटग्रस्त वन्य प्राणियों के विषय में मुझे उपयोगी जानकारी प्रदान की। पर्यावरण शिक्षा केंद्र सेंटर फार एन्वायरनमेंट एजूकेशन (सी.ई.ई) अहमदाबाद में कार्यरत श्री ई. के नरेश्वर ने पांडुलिपि को पढ़कर और महत्त्वपूर्ण सुझाव देकर अपना सहयोग दिया है। मैं नेशनल बुक ट्रस्ट में सेवारत सुश्री मंजु गुप्ता का भी आभारी हूं, जिन्होंने पांडुलिपि में वांछित संपादकीय संशोधन किये।
चित्रों के लिए मैं सी.ई.ई. अहमदाबाद के डिजाइन एंड ग्राफिक्स विभाग में कार्यरत श्री धुन करकरिया और उनके सहयोगियों का विशेष आभारी हूं। पुस्तक में प्रकाशित छायाचित्र राष्ट्रीय प्राकृतिक विज्ञान संग्रहालय के वन्य जीवन स्लाइड संग्रह में से तैयार किये गये हैं जो भारत के विख्यात प्रकृति वैज्ञानिकों व फोटोग्राफरों के सहयोग से बन सका। मुझे अपनी पत्नी लीला तथा पुत्रियों मीना व दिव्या से इस पुस्तक को लिखने में जो प्रोत्साहन और सहयोग मिला, उसी के कारण यह कार्य पूरा हो सका।

नयी दिल्ली
अक्तूबर 1992

एस.एम.नायर

वन्य प्राणियों की विरासत


एक ऐसे संसार की कल्पना करें जिसमें हमारे परिवेश की शोभा बढ़ाने वाला कोई जानवर न हो-न कुत्ता, न बिल्ली, न मवेशी, न पक्षी, और न तितलियां। न ही हिरण, तेंदुआ, चीता आदि वन्य प्राणी। क्या आप समझते हैं कि हम निपट अकेले ही जी सकते थे ? नहीं, क्योंकि पृथ्वी पर संपूर्ण जीवन किसी न किसी रूप में परस्पर संबंधित और जुड़ा हुआ है। सभी जीव अपने भौतिक वातावरण अर्थात् भूमि जल और वायु पर निर्भर हैं। पौधों, प्राणियों और वातावरण के परस्पर संबंध का अध्ययन पारिस्थितिकी (ईकोलाजी) कहलाता है। पौधों और प्राणी, प्राणी और प्राणी तथा पौधों, प्राणी और मनुष्यों के आपसी संबंधों को समझने में हमें इनकी भोजन की आवश्यकताओं से मदद मिलती है। यह पारिस्थितिकी का एक मूलभूत पहलू है।
हम सभी जानते हैं, मूल रूप से हरे पौधे भोजन बनाते हैं। ये सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का प्रयोग करके कार्बन डाईआक्साइड और जल की सहायता से ‘प्रकाश संश्लेषण’ की प्रक्रिया के दौरान साधारण कार्बोहाइड्रेट बनाते हैं। शाकाहारी प्राणी इन पौधों को खाकर ऊर्जा प्राप्त करते हैं। मांसाहारी प्राणी इन प्राणियों को खाकर अपनी जीवनचर्या के लिए आवश्यक ऊर्जा प्राप्त करते हैं। इसे ‘भोजन श्रृंखला’ कहते हैं।
उदाहरण के लिए घास-टिड्ढा-मेंढ़क। यह एक साधारण भोजन श्रृंखला है। यदि मेंढ़क को सांप और सांप को चील खा ले तो यह एक जटिल भोजन श्रृंखला बन जाती है। प्रकृति में प्रकार की कई भोजन श्रृंखलाएँ हैं। किसी विशेष प्राकृतिक आवास के निवासियों की विभिन्न भोजन श्रृंखलाओं का जाल ‘भोजन जाल’ (फूड वैब) कहलाता है।

भोजन जाल उन सम्मिलित जातियों के परस्पर संबंधों का एक नाजुक जाल है जो एक संतुलित और आत्मनिर्भर जीवन प्रणाली का प्रतिनिधित्व करता है। इस भोजन जाल की एक भी कड़ी के टूटने से दूसरी या संपूर्ण प्रणाली पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए यदि बाघ तथा तेंदुआ जैसे मांसाहारी प्राणी नष्ट कर दिये जायें तो हिरणों की संख्या बेरोक-टोक बढ़ती जायेगी जिसके कारण वनस्पतियां बहुत जल्दी नष्ट हो जायेंगी और पुनः पनप नहीं सकेंगी।

प्रकृति में परस्पर संबंध कई प्रकार के होते हैं : पौधे और वनस्पतियां प्राणियों को आश्रय देती हैं; कीट और पक्षी फूलों का परागण करते हैं; प्राणी पौधों के बीजों के प्रसार में मदद करते हैं और परजीवी पौधों और प्राणियों को ग्रसित करते हैं। जीवों के मध्य कुछ संबंध लाभदायक होते हैं (सहजीवन या सिम्बायोसिस) और कुछ नहीं। प्रकृति के कुछ सफाई कर्मचारी भी हैं, जैसे कौआ, चील लकड़बग्घा और कई अन्य मुर्दाखोर प्राणी। जीवाणु मरे हुए जीवों के सड़ने गलने में मदद करते हैं और इस तरह मृत प्राणियों और पौधों के कार्बनिक तथा अकार्बनिक अंश को दोबारा प्रकृति में लौटा देते हैं जिसका उपयोग नये जीव करते हैं।
प्रकृति पौधों और प्राणियों के बीच बहुत जटिल लेकिन संतुलित संबंध बनाये रखती है। जल चक्र, कार्बन चक्र, नाइट्रोजन चक्र, खनिज चक्र आदि जैव भू रासायनिक चक्रों से जीवित प्राणियों और वातावरण के बीच आवश्यक तत्वों के लेन देन का चक्र निरंतर चलता रहता है। इस तरह पृथ्वी पर संपूर्ण जीवन आपस में जुड़ा हुआ है। प्रकृति ने हमारी पृथ्वी को जो प्राणी, पौधे व भौतिक संसाधन प्रदान किये हैं, उनके संरक्षण के महत्व पर विचार करने के लिए इन वातावरण संबंधी परिस्थितियों का ज्ञान होना आवश्यक है।


जीवन की विविधता


पृथ्वी पर जीवन का आरंभ लगभग 600 करोड़ वर्ष पहले हुआ माना जाता है। इसमें पांच लाख से अधिक प्रकार के पौधे तथा दस लाख विभिन्न प्रकार के प्राणी हैं। संपूर्ण जीवन पृथ्वी की एक पतली पर्त तक सीमित है जिसे जीव मंडल (बायोस्फियर) कहते हैं। पृथ्वी के जीव मंडल को विशेष प्रकार की जलवायु तथा भौगोलिक विशेषता वाले कई प्राकृतिक आवासों या बायोम में विभाजित किया जा सकता है, जिनमें क्षेत्र विशेष के अनुरूप अनेक प्रकार के पौधों और प्राणियों को जीवित रहने में मदद मिलती है।

प्राकृतिक आवास (बायोम) जीवों के समुदायों से बनता है जो किसी विशेष जीवन क्षेत्र में एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं। उदाहरण के लिए, उष्ण कटिबंधी बर्षावन विविध प्रकार के ऐसे पौधों तथा प्राणियों का बायोम है, जो वर्षावन को जन्म देने वाली परिस्थितियों में रहने के आदी हैं।
पेड़ों की ऊंची घनी शाखाओं में बंदर, उड़न गिलहरियां तथा पक्षी रहते हैं। घने वन के धरातल पर बाध, हिरण, सांप, कीट मिलीपीड (गोजर) आदि रहते हैं। वर्षावन की विशेषता काफी अधिक वर्षा और उष्ण तथा नम जलवायु है। इसी प्रकार समुद्र, झील, घास के मैदान, नम भूमि, शंकुधारी वृक्षों के वन, पतझड़ी वन, रेगिस्तान और तटवर्टी क्षेत्र विभिन्न प्रकार के बायोम या विशेष वातावरण के उदाहरण हैं, जिनमें इन आवासों में जीवित रहने योग्य पौधे और प्राणी पाये जाते हैं।

इस प्रकार प्रकृति हमारे ग्रह पर विभिन्न जलवायु वाले और भौगोलिक क्षेत्रों में संतुलित ढंग से रहने के अभ्यस्त जीवित प्राणियों का अत्यंत जटिल तथा विषम जाल प्रस्तुत करती है। यह हमारी प्राकृतिक विरासत है: एक ऐसी विरासत जिसमें हम स्वयं प्राणियों की कई जातियों में से एक हैं जो अपना निर्वाह तथा जीवित रहने के लिए संपूर्ण प्रणाली पर निर्भर करती हैं।


भारत में प्राणियों की जातियां


भारत में विभिन्न प्रकार के प्राणी बड़ी संख्या में पाये जाते हैं। यहां प्राणियों की लगभग 75,000 जातियां पायी जाती हैं जिनमें 340 स्तनधारी, 1200 पक्षी, 420 सरीसृप, 140 उभयचर, 2000 मछलियां, 50,000 कीट, 4,000 मोलस्क तथा अन्य बिना रीढ़वाले प्राणी हैं।
हाथी स्तनधारी प्राणियों में से एक है जो भारत में प्राचीन समय से पौराणिक तथा शाही समारोहों की शान रहा है। अन्य हैं-गौर या भारतीय बाइसन, भारतीय भैंस, नील गाय, चौसिंगा (भारत का अनूठा प्राणी), काला हिरण, गोरखुर या भारतीय जंगली गधा और एक सींग वाला गैंडा। यहां हिरण की भी कई जातियां पायी जाती हैं जैसे हंगल, स्वेम्प (दलदली) हिरण, चीतल कस्तूपी मृग, थामिन तथा पिसूरी।



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