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भला आदमी

देवेश तांती

प्रकाशक : इतिहास शोध-संस्थान प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5665
आईएसबीएन :00000

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एक राजनीतिक उपन्यास...

Bhala Aadami a hindi book by Devesh Tanti - भला आदमी - देवेश तांती

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

स्वरूप विशुनगढ़ गाँव का एक पढ़ा-लिखा नवयुवक है। उसके दिल में गांव और अपने राज्य के लिए कुछ कर दिखाने की तमन्ना है। गाँव में भला आदमी के नाम से मशहूर है। वह राजनीति में जाना चाहता है। जब उसको पता चला है कि राजनीति भले आदमी का काम नहीं है, तब वह बुरा आदमी बनने की कोशिश करता है। किसी प्रकार से वह एम.एल.ए. बन जाता है। वह बिहार के भ्रष्टाचारा और भ्रष्ट व्यक्ति का समूल नाश कर देता है। जब उसे पता चलता है कि राजनीति में स्वच्छता की जरूरत नहीं है, तब वह अपने गाँव वापस लौटने का मन बना लेता है।


भला आदमी

‘‘पाय लागूँ चाचा।’’
‘‘!!जीते रहो बेटा। अरे तुम रामस्वरूप कब आये उड़ीसा से ?’’
‘‘कल रात ही आया हूं चाचा। सोचा आपसे भी आशीर्वाद ले लूँ।’’
‘‘बहुत अच्छा किया बेटा। एक तुम ही तो हो इस गाँव का नाम रोशन करने वाले और कौन है इस विशुनगढ़ में तुम्हारे जैसा पढा लिखा। और सुनाओ, पढ़ाई खत्म हो गई क्या ?’’
‘‘हाँ चाचा पढ़ाई-लिखाई खत्म करने के बाद ही वापस लौटा हूँ।’’

‘‘चलो अच्छा हुआ। अब रामदीन भैया के दुःख के बादल छँट जाएँगे। बेचारे ने रात-दिन एक करके तुम्हें पढ़ाया है। रात-रात भर पत्थर तोड़-तोड़कर, शरीर गला-गलाकर तुम्हें इस लायक बना पाया है वह। अब शहर जाकर जल्दी से कोई नौकरी ढूँढ़ लो और उसे आराम की जिन्दगी बिताने दो। जो कष्ट उसने उठाया है, अब उसे सुख भी भोग लेने दो।’’
हाँ चाचा, बात तो आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। लेकिन बाबूजी हैं न पुराने ख्यालात के, गाँव को छोड़ना ही नहीं चाहते हैं। उन्हें इस गाँव से इतना मोह है कि बाकी की जिन्दगी भी वे यहीं बिताना चाहते हैं। कहते हैं, ‘जिस मिट्टी में बचपन से बुढ़ापे तक का साथ है, उस मिट्टी में शरीर को भी विलीन कर दूँगा।’ मैंने भी सोच रखा है चाचा जब तक पिता जी जिन्दा हैं, मुझे भी इस गाँव में रहते हुए ही उनकी सेवा करनी है। जमीन-जायदाद भी भगवान की दया से खाने-भर को है, चाचा। खेती-बाड़ी से दोनों का गुजर-बसर तो हो ही जायगा।
बस एक ही बात की चिन्ता लगी हुई है, कि वे कमजोर हो गए हैं। पूछने पर कुछ बताते भी नहीं हैं कि बीमारी क्या है ? कहते हैं, ‘‘बुढ़ापा तो स्वयं एक बीमारी है। आप ही कुछ बताइये चाचा, आपका तो उनके साथ उठना-बैठना भी है।’’
‘‘हां बेटा, आओ बैठो। यूँ खड़े-खड़े कितनी बातें होंगी ?’’

दोनों आँगन में पड़ी एक चौकी पर बैठ गए।
‘‘हाँ रामस्वरूप, अब मैं तुम्हें तुम्हारे पिताजी की बीमारी का हाल विस्तार से सुनाता हूँ।’’
‘तुम तो जानते ही हो, कि तुम्हारे पिताजी रामदीन मेरे बड़े भाई समान हैं। मैं उनका बहुत आदर करता हूँ। जब कभी कोई समस्या आ खड़ी होती है, तो मैं फौरन तुम्हारे घर जाता हूँ। जब कोई समस्या आ खड़ी होती है तो मैं तुम्हारे घर जाकर रामदीन भैया से उचित सलाह लेता हूँ। तुम्हें तो मालूम ही है कि मैं ठहरा अगूठा छाप और तुम्हारे पिताजी गाँव के स्कूल तक पढ़े हैं। उनकी राय मैं हमेशा मानता आया हूँ। तुम्हारी खातिर वह बहुत परेशान रहा करते थे, तुम्हें तो मालूम ही है कि जब तुम बहुत छोटे थे, उसी समय तुम्हारी मां तुम दोनों बाप-बेटे को अकेले छोड़कर चल बसी। उस भरी जवानी में भी रामदीन भैया ने दूसरी शादी नहीं की। उनके विचार से सौतेली माँ बेटे के लिए कदम-कदम पर रुकावट ही बनती रहेगी। बाप के साथ-साथ माँ का भी प्यार देकर तुम्हें पाला-पोसा। शहर में वह भी दूसरे प्रदेश में। एक मामूली किसान को अपने बेटे को पढ़ाने के लिए आज के युग में बहुत रुपयों की आवश्यकता पड़ती है बेटा।

मैंने तो बहुत बार कहा कि रामदीन भैया, जैसे स्वरूप तुम्हारा बेटा है वैसे मेरा भी तो भतीजा है। उसे पढ़ाने के लिए जो भी खर्चा हुआ करे मुझसे लिया करो, और जब जी आये वापस करना या समझ लेना मैंने अपने बेटे पर खर्च किया। लेकिन तुम्हारे बाप का यही कहना था कि, ‘एक ही तो बेटा है, और मेरे बाजुओं में इतनी ताकत है, कि बेटे का खर्च उठा सकता हूँ।’ दिन-भर अपने खेतों में काम करते थे और रात को पहाड़ी में जाकर पत्थर तोड़ते थे। ये गाँव के चारों तरफ नाली देख रहे हो न, उसमें जो पत्थर लगा हुआ है, वह सब तुम्हारे बाप का ही तोड़ा हुआ पत्थर है। और तो और बगल के गाँव में जो सड़क, प्रखण्ड, ऑफिस तक बनी है, उसमें जो पत्थर इस्तेमाल हुआ है, वह भी तुम्हारे बाप का ही तोड़ा हुआ है। एक बार तो वह पत्थर तोड़ते-तोड़ते बेहोश होकर लुढ़क गये थे। दूसरे दिन सुबह हम ब्लॉक जाकर डॉक्टर बुला लाये। डॉक्टर का कहना थ कि पत्थर तोड़ने से जो डस्ट उड़ता है, वह फेफड़ों में जाकर जम गया है यह टी.बी. का निशानी है। उस समय तो यह बीमारी नहीं थी। लेकिन खान-पान की कमी के कारण भी यह बीमारी हो सकती है।

मेरी राय मानो तो तुम कल ही शहर जाकर किसी अच्छे से डॉक्टर को दिखा कर दवा-दारू करवाओ। समय रहते इलाज करवाना जरूरी है, वर्ना बाद में मौका ही न मिले। रुपये-पैसे की फिक्र मत करना, हम सारा इन्तजाम कर देंगे। तुम्हारे बाप ने तो तुम्हें पढ़ाने के लिए हमसे कभी रुपया-पैसा नहीं लिया कम-से-कम तुम तो इनकार मत करना। तुम तो जानते ही हो कि गांव में उनके जैसा चालाक, बुद्धिमान और नेक सलाह देने वाला एक भी व्यक्ति नहीं है।’’
‘‘ठीक है चाचा। मैं कल ही पिताजी को लेकर शहर जाता हूं और आपका रुपया भी मैं पाई-पाई चुका दूँगा चाचा।’’

‘‘देखो रामस्वरूप, तुम मुझे एक तरफ तो चाचा कहते हो और दूसरी तरफ रूपया चुकाने की बात करते हो ? क्या तुमने मुझे सूदखोर महाजन समझ रखा है ? अरे ! तुम्हारे बाप पर तो मेरा भी अधिकार है। मेरा भी तो कुछ हक बनता है उसके लिए कुछ करने का, और हम कुछ उनके मौज-मस्ती के लिए तो नहीं दे रहे हैं ? उनके इलाज के लिए ही तो दे रहे हैं न ! मेरा तो खर्च करने की कोई जगह नहीं। दोनों बेटे पढ़-लिख तो नहीं पाए, लेकिन ऊपरवाले की दया से दोनों का कारखाना खूब चल रहा है। अच्छा-खासा पैसा कमा रहे है दोनों। रोजाना कोई-न-कोई मंत्री दोनों के यहाँ आते ही रहते हैं। मंत्रियों के साथ भी साँठ-गाँठ दोनों बेटों ने कर रखी है। जमाना ही ऐसा है बिना साँठ-गाँठ के कारखाना चलाना मुश्किल है। फैक्टरी में जो भी माल तैयार होता है, आधा से ज्यादा माल तो सरकार ही खरीद लेती है और वह भी दुगुने-तिगुने दाम में। कच्चा माल भी तो सस्ते में ही मिल जाता है और साथ में गवर्मेन्ट का सब्सीडी भी लाखों कमाते हैं दोनों। उनका खर्च भी वैसे ही होता है। इलेक्शन के समय में चंदा भी लाखों देते हैं। मंत्रीगण भी जी खोलकर उनकी मदद करते हैं।

ये हैं बबन सेठ, विशुनगढ़ गाँव और विशुनगढ़ पंचायत का मुखिया। पुरखों ने जमीन-जायदाद इतनी छोड़ रखी थी कि सात पीढ़ी तक बैठे-बैठे खा सकता था। फिर भी बबन सेठ पैसे कमाने में एक नंबर का धूर्त और चालाक व्यक्तियों में गिना जाता है। था तो वह बिल्कुल अनपढ-गँवार। लेकिन पैसे कमाने में वह पढ़े-लिखे का भी कान काट लेता था। उसकी तिजोरी एक विशाल समुन्दर की तरह थी, फर्क सिर्फ इतना था कि समन्दर में पानी भरा हुआ रहता है, और उसकी तिजोरी आधी खाली रहती थी, जिसे वह रुपयों से भरने की ताक में रहता था। उसका एक ही सपना था, उसकी तिजोरी भी समुन्दर के नोटों की तरह लबालब भर जाए और कोई भी व्यक्ति लोटा लेकर निकालता रहे और तिजोरी खानी न हो। एक नंबर का काँइयाँ होते हुए भी उसमें कुछ खूबी जरूर थी, गाँव के गरीब-जरूरतमन्द लोगों की मदद हमेशा करता था।

रोजाना कोई-न-कोई जरूरतमन्द व्यक्ति उसके पास आता मदद के लिए पहुँच ही जाता था और बबन सेठ दिलखोलकर उसकी मदद करता था। उसका आवारापन एक मासूम लड़की के साथ बालात्कार से शुरू हुआ था। आसपास में अगर कोई जवान लड़की दिखाई पड़ती, तो उसे वह अगुवा करा लेता था और उसका अन्जाम बलात्कार से अन्त होता था। था तो वह ठिगने कद का, लेकिन शरीर से बहुत ही हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ था। इतना बुरा आदमी होने के बावजूद भी उसमें एक खास गुण था। उसने अपने गाँव की किसी लड़की की जिन्दगी बर्बाद नहीं किया था। उसके बिचार से शादी-शुदा लड़की एक जूठे बेर की तरह थी और उसे फल चखने की आदत नहीं थी, उसे तो फल खाने में विश्वास था। उसी में वह बड़पप्न समझता था। इस कुकर्म के लिए वह किसी का सहारा नहीं लेता था। उसके शरीर में इतनी ताकत थी, और उसी के बदौलत वह जैसा चाहता था, वैसा ही करता था।

यही वजह थी, कि आसपास के गाँवों में लड़कियों के जवान होने से पहले ही जबरन डोली में बिठा दिया जाता था। अक्सर लड़कियाँ खेलने कूदने के दिन को भूलकर ससुराल में ही दहलीज पार करती थीं। अगर रुपये-पैसे का बन्दोबस्त किसी कारण नहीं हो सका या फिर कोई योग्य वर के अभाव में जवान हो गई तो उसकी जवानी बबन सेठ के हवश की बलि चढ़ जाती थी। उसके सुडौल शरीर को देखकर किसी को उसके इस घृणित कार्य को रोकने की हिम्मत नहीं थी। इस अवगुण के अलावा उसके पास एक और गुण भी मौजूद था, वह एक अव्वल दर्जे का लठैत भी था। लाठी भाँजने में शोहरत और माहरत दोनों ही गुण उसके पास मौजूद थे। उसके हाथ में बाँस की बनी हुई एक सात फुट की मजबूत लाठी हमेशा रहती थी। प्रतिदिन सुबह उठने के बाद उस लाठी को वह आधा सेर सरसों का तेल आधा घंटा तक मालिश करके पिलाता था। तेल पी-पीकर वह लाठी लोहा बन चुकी थी। एक लाठी जिस पर पड़ी, वही ढेर हो जाता था। शायद उसी लाठी के डर से-उससे जूझने की कोई सोचता नहीं था।

एक बार की बात है वह किसी गाँव से विशुनगढ़ की ओर जा रहा था। रास्ते में उसे चारों तरफ पन्द्रह-बीस लठैतों ने घेर लिया था। उसने आव देखा न ताव लगा लाठी भाँजने। सब के सब दुम दबाकर भाग गए। इसके बावजूद भी गांव के लोग उसे घृणा की दृष्टि से ही देखते थे। बच्चे, बूढे, और औरतें सभी घृणा करते थे। सीधे मुंह कोई बात तक नहीं करता था। सबके दिल में एक हदस बना रहता था कि कब किसकी इज्जत उतार ले डर से कोई उसका विरोध नहीं कर पाता था।, इतना साहस किसी के पास नहीं था। उसका नाम सुनते ही सब डरपोक बन जाते थे।

यही वजह थी कि वह सब पर हावी रहता था। और प्रायः कोई-न-कोई लड़की नितदिन उसकी हवस का शिकार बन जाती थी। लड़कियाँ छटपटाकर रह जाती थीं, लेकिन वे अपने बचाव के लिए कुछ नहीं कर पाती थीं। बाप-भाई या गाँव के अन्य लोग कभी बदला लेने की सोचते भी नहीं थे। यहाँ तक कि कोई भी व्यक्ति भगवान् से भी उसकी बद्दुआ की विनती नहीं करता था। वे सभी सिर्फ अपनी किस्मत को ही दोष देते थे। सब अपने-अपने भाग्य का ही रोना रोते थे। इस तरह कब तक चलता रहेगा, कब इसका अन्त होगा। कोई व्यक्ति तो पैदा होगा, जो उनके दुःखों का अन्त करेगा। न जाने कब तक उसके लिए इन्तजार करना पड़े। शायद भगवान् ही मनुष्य का रूप लेकर उस पापी का नाश करने के लिए धरती पर अवतार ले। मनुष्य के वश की तो बात है नहीं और भगवान है कि सब कुछ देखते हुए भी आँखें मूँदे हुए है।

आखिर भगवान की आँखें खुल ही गईं। एक बार ऐसी घटना घटी कि बबन सेठ बबन शेर बन गया। अचानक जो लोग उससे घृणा करते थे, जो लोग उससे डरते थे, आज उससे प्यार करने लगे।

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