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मुझे और अभी कहना है

गिरिजा कुमार माथुर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1991
पृष्ठ :382
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5692
आईएसबीएन :000000

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गिरिजा कुमार माथुर की चुनी हुई कविताएँ...

Mujhe Aur Abhi Kahna Hai

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

किसी कवि से पचास साल की लम्बी रचना यात्रा के बाद यदि यह अपेक्षा की जाए कि वह अपनी कविता के बारे में कुछ लिखे, यह बात ही मुझको बेमानी-सी लगने लगी है। इतने लम्बे समय में कवि ने जो कुछ लिखा है वह सबके सामने होता है। वह जिस सोपान तक पहुँच सकता था वहाँ लगभग पहुँच चुका होता है। उसकी सफलता और विफलता का मूल्याकंन आलोचक कर चुकते हैं। उसे जो स्थान प्राप्त हुआ या नहीं हुआ वह हो चुका होता है। वह स्वयं अपनी रचनाधर्मी कमियों, कमजोरियों, सामर्थ्य और सीमाओं, सफलता या विफलता से अच्छी तरह परिचित हो जाता है।

जो लिख सकता था और जो नहीं लिख सका वह भी उसके सामने होता है। उसके जीवन, कार्य-क्षेत्र की सामाजिक स्थिति, उसकी रूचि, लोगों के साथ उसके संबंध, व्यक्तिगत चरित्र, स्वभाव, रूचियाँ, परिवार, मित्र, समाज, पास-पड़ोस, परिवेश, राजनीति तथा तमाम जिन्दगी के बारे में उसका दृष्टिकोण समाने आ चुका होता है या कम से कम लोग अपनी धारणाएं बना चुके होते हैं।

यह बात विशेष रूप से मैं अपने बारे में इसलिए भी कह रहा हूँ कि मेरे जैसे कवि ने जिसने शुरू से ही अपनी रचना यात्रा की कठिन राह अलग से बनाना तय कर लिया था और जिसने कभी अपने कटु से कटु विरोध में किसी भी टिप्पणी या आलोचना का न जवाब दिया, न अपने सम्बन्ध में कोई बड़े दावे या स्पष्टीकरण प्रस्तुत किए, वह अपने बारे में इतने दशकों के बाद अब क्या कहे ?

 अपने बारे में कुछ कहना आत्मश्लाघा-सा लगता है जिससे हमेशा मुझे अरूचि रही है लेकिन जो कवि अब भी यह समझता है कि अभी और बहुत कुछ लिखना बाकी रह गया है तथा उसकी कविता के पीछे ऐसी संस्कार भूमियां और जीवन की प्रेरक चीजें रही हैं जो सामने नहीं आ सकीं, तब उन अपरिचित, अनभिव्यक्त बातों को सामने रखना अपनी कविता की पहचान के लिए ज़रूरी हो जाता है।

मेरी यह मान्यता नहीं है कि कोई भी कविता कवि के जीवन की मात्र प्रतिछाया होती है। यों कविता कवि के अनुभव जगत की प्रक्षेपण (प्रोजेक्शन) अवश्य होती है लेकिन वह कृति की ऐसी आलोक काया है जो समय की सीमा में होते हुए भी प्रेरणा के उन्मेष बिन्दु पर पहुँच कर उसके व्यक्तित्व, उसके समय की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती है। इसीलिए कृति का मूल्यांकन उसकी साहित्यिक श्रेष्ठता, मानवीय संवेदना और कृति में निहित सर्वांग जीवन दृष्टि के आधार पर ही किया जाना चाहिए। कविता में जिन केन्द्रीय मूल्यों को कवि ने उभारा है, जिस कोण से दुनिया देखी है, जिस भाषा और शैली शिल्प में अनुभव जगत की स्थितियां व्यक्त की हैं, उसके बारीक और विस्तृत अध्ययन के बाद ही कवि का समग्र काव्य व्यक्तित्व समझा जा सकता है।

कविता लिखना कवि की विवशता है। जिन्दगी को जितनी अधिक गहरी और विस्तारपूर्ण दृष्टि से देखने पर वह आन्दोलित होता है, उतना ही मन से लेकर शरीर के रोम-रोम तक वह अनुभव उसको झंकृत कर देता है। यही स्थिति उसकी रचनात्मकता को जन्म देती है। बाहर और भीतर की सच्चाई को निसंगता से व्यक्त करना उसकी साधना है और वही उसकी सिद्धि है। वह चुनौती है और जोखिम भी। कवि इन दोनों स्थितियों को झेलता है। कविता सिर्फ मन के आन्तरिक केन्द्र पर घूमने वाला आत्म-मंथन नहीं होता, न वह दैहिक स्तर पर अनुभव भोग का ही व्यापार है। वह वास्तविकता की सीधी सपाट अभिव्यक्ति भी नहीं होती, न किसी सिद्धांतवाद का आरोप या प्रचार, न ही अपने आंतरिक संवेगों को वाणी देने तक सीमित रहती है। यथार्थ और अंतरंग कोई सर्वथा पृथक वस्तुएँ नहीं हैं। विचारधारा के बिना कोई भी स्पष्ट जीवन-दृष्टि नहीं बन सकती बशर्ते कि वह विचारधारा समानता तथा जन-मुक्ति के लिये हो।

कविता सामाजिक, वस्तुगत और व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों को फिर से जीने, पहचानने और बृहत्तर जोड़ने की प्रक्रिया होती है। उस बिन्दु पर पहुँच कर कवि के स्थूल व्यक्तित्व का विसर्जन हो जाता है।
व्यक्तिगत जीवन नितांत निजी बातें, प्रेम, ममता, दाम्पत्य, जीवन, दिनचर्या, आपसी संबंध, व्यवहार, परिवार, घर बाहर की घटनाएँ, दुःख, रोग, संताप, संघर्ष, जीवन के आर्थिक और कर्म के क्षेत्र के उतार-चढ़ाव, समाज, इतिहास, पंरपरा, राजनीति, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय समस्याएँ, समकालीन घटना चक्र का बहुत बड़ा अनुभवफलक किस प्रकार उसके व्यक्तित्व को पूरी तरह झिंझोड़ कर कवि की अन्तरंग भाव सत्ता बन जाता है, यह बड़ी जटिल प्रक्रिया है।

कविता यथार्थ जीवन और व्यवस्था के तमाम संघर्ष, संताप और अन्याय, विकृति, पाप और विरोधाभासों पर पड़े पर्दों को हटाती है। आदमी के जीवन को जो शक्तियाँ कुंठित, दमित और शोषित करती हैं, मानवीय गरिमा और उसके सांस्कृतिक अधिकारों को छीनती है उन्हें हटाने में कविता की सक्रिय और सशक्त भूमिका होती है। अपने समय को बदलने में कवि का यह हस्तक्षेप ही उसे सार्थकता प्रदान करता है लेकिन यह प्रचार के स्तर पर नहीं, आदमी के गहरे मनोभावों और संवेदनाओं को परिवर्तन में साझेदारी की प्रेरणा देती है। यथार्थ की इस विवेकपूर्ण पहचान के साथ कवि उन कोमल, कमनीय, प्रेम और ममत्व की सूक्ष्म भावनाओं के साथ भी संगति बैठाता है, जो आदमी के मन को अधिक मर्मशील बनाते हैं, समृद्धि और संस्कार देते हैं। इन दोनों की बातों में कोई विरोध नहीं है क्योंकि आदमी बाहर और भीतर, वास्तविकता और भावना, यथार्थ और सौन्दर्य के सभी आयामों को एक-साथ जीता है। यह प्रक्रिया कवि के व्यक्तिगत अनुभव को आगे बढ़कर उसके परिवेश, समाज, यथार्थ के स्थूल धरातल से होती हुई उन अज्ञात दिशाओं में प्रवेश कर जाती है जो वर्तमान सन्दर्भों से भी आगे के होते हैं।

कविता का संसार कवि का अत्यंत अंतरंग संसार होता है लेकिन उसका यह रचना संसार बहिरंग जीवन की क्रिया-प्रतिक्रिया से ही बनता है, जहाँ संवेग और विचार, बिम्ब और कथ्य, अर्थ और अर्थातीत की समस्त प्रतीतियां एक-साथ मिल जाती हैं। कविता कवि के अतीत और वर्तमान के बीच एक ऐसा सेतु है जिस पर से होकर उसकी समस्त आंतरिक और बाह्य संवेदना भविष्य की ओर यात्रा करती है। कविता और कला की एक समानांतर सत्ता होती है जो यथार्थ जीवन के संचरण के साथ उनके प्रभाव को आत्मसात करती है और न सिर्फ अभिव्यक्त देती है बल्कि संवेदना के सूक्ष्म स्तर पर संस्कार और परिष्कार भी करती है। इस प्रकार कविता राजनीति और यथार्थ के धरातलीय समानांतर संचरण के साथ ही मानवीय जीवन को एक उच्चातर सांस्कृतिक संचरण प्रदान करती है।

वस्तुतः कविता एक अत्यंत सूक्ष्म-जटिल द्वन्द्वात्मक प्रक्रिया की टकराहट से जन्म लेती है। यह टकराहट कवि की रूचि और समझ, भावना और विचार, सांस्कृतिक परम्परा और समकालीन यथार्थ, तर्क और फेन्टेसी, कथ्य और कला, अनुभव की अमूर्त जटिलता और भाषा यानी संप्रेषण के बीच होती है। कविता की रचना में यह सभी तत्व निरंतर द्वन्द्वात्मक स्थिति में रहते हैं। इनमें से किसी एक को लेकर और दूसरे पक्ष को छोड़कर कोई भी कृति कविता नहीं बन सकती। न तो सिर्फ विचार या कथ्य ही कविता कहला सकते न कोरी भावना या कला। कवि की प्रातिभ दृष्टि और कलात्मक क्षमता इस नाजुक संतुलन को तय करती है कि कौन-सा पक्ष कितनी मात्रा में कविता में रहेगा। इस गहरी द्वन्द्वात्मक टकराहट के कठिन किन्तु अनिवार्य रास्ते से गुजरे बिना कोई भी श्रेष्ठ कलात्मक रचना हो ही नहीं सकती।

इन दिनों चुनौतियों से आगे बढ़कर एक उच्चतर समस्या कवि के सामने आती है, यानी उसकी कविता की सार्थकता क्या है ? मैं पहले कह चुका हूँ कि कविता सिर्फ आत्मभिव्यक्ति नहीं है। वह मानसिक क्रिया नहीं है न आत्मनिष्ठ कल्पना विलास ही है-उसका सरोकार एक वृहत्तर दुनिया से, एक पूरे जीवन ब्रह्ममांड से है। जो है, उसकी पहचान, उसे पूरी तरह वाणी दे सकना और जो नहीं है-होना चाहिए-उसकी तलाश। यही मेरी मूल दिशा रही है।

कवि की प्रेरणा भूमि को समझाने के लिए उसकी प्रारंभिक पीठिका से लेकर बाद की तमाम अनुभव भूमियों का अध्ययन करना आवश्यक होता है। इसीलिए जब भी मैं अपनी कविता के बारे में सोचता हूँ तो मैं यानी पूरा ‘मैं’ मेरा समय और मेरी कविता की रचना की यात्रा का समस्त वातावरण आंखों के सामने से ही एक-साथ पलक झपकते दिख जाता है। उसके पीछे एक पूरा मनोसामाजिक भावात्मक संसार है जो जिस तेजी से बदला है, उससे टकराने की प्रतिध्वनियाँ मेरी कविता में व्यक्त हुई है।

मेरा जन्म मध्य भारत के जिस पिछड़े देहाती क्षेत्र में हुआ और जो दुनिया अपने आसपास मैंने देखी है वह और भी पीछे की 19 वीं सदी के धुंधलके से भरी दुनिया थी। मालव-प्लेटों की उत्तरी सीमा पर फैली लाल पठार की ऊँची भूमि है जहाँ विंध्याचल की पहाड़ियां कहीं विरल और कहीं सघन होती चली गई हैं। मीलों दूर तक विस्तीर्ण लाल पठार है और उसके साथ ही काली मिट्टी के सांवले खेत आरम्भ हो जाते हैं। इमली, सेमल, नीम खजूरों के झुरमुट, पलाक्ष, खिरनी, जामुन, आम, महुवे, चिरौंजी और ताड़ के वृक्षों से छाया हुआ यह प्रदेश है, जहाँ के ढूहों, टीलों के घुमावदार कटावों के बीच से चट्टानी नदियाँ बहती हैं।

अनेक जंगली बरसाती नाले और छोटी-छोटी बल-खाती खजूर के झुरमुटों के बीच बहती ये वही अनहोनी रम्य नदियां हैं जो दक्षिण से उत्तर की ओर बहकर जमुना में मिलती हैं, वर्ना इस देश की ज्यादातर नदियां या तो उत्तर से दक्षिण या पश्चिम से पूर्व की ओर बहती हैं। यह वही भूमि खंड है जिसके पूर्व में बेतवा और पश्चिम में निकट ही ‘सिन्धु नदी’ बहती है जिसे कालीदास ने मेघदूत में निर्विध्या कहा है। यहाँ के लोग ‘सिन्धु’ के एक गहरे दह को ‘पिड़ी  घटा’ कहते हैं, यानी ‘पीली घटा। उस नदी के आसपास पेड़ों के बड़े बड़े झुरमुट हैं जिनके पत्ते पीले हो-होकर पानी में बहते रहते हैं।


‘‘वेणी भूत प्रतनु सलिला ऽ सावतीतस्य सिन्धुः
पाण्डुच्छाया        तटरूहतरूभ्रंशिभिर्जीर्णपणैः।
सौभाग्यं ते सुभग विरहावस्थया व्यज्जयन्ती
कार्श्यं येन त्यजति विधिना स त्वयैवोपपाद्यः।।


(पूर्व मेधः 31)

वह शहर और कस्बों की सुविधा और सभ्यता से सैकड़ों मील दूर अंधेरे में डूबी और मिट्टी के तेल की कुप्पियों से टिमटिमाती एक नितान्त सुनसान बस्ती थी। बीना-कोटा ब्रांच रेल लाईन पर उसका पुराना नाम ‘पछार’ और स्टेशन का नाम ‘टकनेरी’ था जो आज अशोक नगर के नाम से एक संपन्न व्यापरिक केन्द्र है। आसपास कई ऐतिहासिक स्थान थे। महाभारतकालीन चंदेरी, थोबोन के प्राचीन जैन मन्दिर और कुछ मील दूर ‘तूमैन’ नाम का गाँव था। जनश्रुति के अनुसार यहाँ मालव क्षत्रप गंधर्वसेन, जिन्हें गर्धभिल्ल भी कहते थे, शकों से पराजित होकर इसी जगह छिपने आए थे। कहतें हैं कि ‘तूमैन’ राजा मोरध्वज की राजधानी थी जिसका नाम ताम्रसेन था।

विक्रमादित्य का जन्म यहां होना बताया जाता है। एक जोगी इकतारे पर वीर विक्रम की गाथाएँ गाता आता था जिसे मैंने बचपन में सुना था। कुछ मील दूर नल-दमयंती की कथा से सम्बन्धित ‘ढाकोनी’ गाँव का बहुत बड़ा ताल है और पश्चिम में ‘दियाधरी’ नाम का गाँव है जहाँ एक ऊँचा टीला है। इन दोनों लोक सन्दर्भों पर मेरी ‘ढाकवानी’ तथा ‘दियाधरी’ नाम लम्बी कविताएं हैं। बस्ती में पुराना 19 वीं सदी का वातावरण था। वह हर बाहरी प्रभाव से एकदम पूरी कटी तरह हुई रियासती दुनिया थी जिसमें पुरानी रूढ़ियों और रीति-रिवाजों में समय रूका हुआ था। चारों ओर सन्नाटा था। दूर तक सुनसान पठार था। बस्ती में विपन्नता, दुःख, रोग, अभाव की निष्क्रिय चुप्पी छाई रहती थी। फसलें आने पर और त्यौहारों पर ही चहल-पहल होती थी या तब जबकि दिन में एक रेलगाड़ी आती थी, जिसकी सीटी इंजन की भकभक और डिब्बों की खटखट से ही वह सुनसान टूटता था। वहाँ कुछ ही लोग पढ़े-लिखे थे। बाकी अधिकतर लोग निरक्षर थे। इस सन्नाटे-भरी दुनिया में मेरा परिवार गिने-चुने घरों में काफी पढ़ा-लिखा था। वहाँ शिक्षा का आलोक था इसलिए सारी बस्ती में नामी था।

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