राजनैतिक >> मुट्ठी में बंद सवेरा मुट्ठी में बंद सवेराविश्वंभर शर्मा
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पंजाब की शस्य-श्यामला भूमि जब उग्रवादियों की गोलियों से थर्रा रही थी, हिन्दू-सिख के नाम पर जब दो भाइयों के बीच दीवार खड़ी की जा रही थी, तब भी मानवता का सोता वहाँ सूख नहीं गया था।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
धर्म-स्थान में सेना-प्रवेश के बाद आतंकवादी का मनोबल तो टूटा, किन्तु
हिंदू-सिख दो धाराओं में बँटना शुरू हो गए। राजनीति ने उस जलती आग में घी
का काम किया। इसी बीच एक दिन सुबह सारे शहर में एक ही समाचार था कि
प्रधानमंत्री के रक्षक एक सिख ने उनकी हत्या कर दी। चारों ओर एक
प्रकार की बेचैनी का वातावरण बनता चला गया। शाम होते-होते हजारों लोग
दिवंगत प्रधानमंत्री के दर्शनों के लिए उमड़ पड़े। हिंदू समाज के दो सशक्त
बाजू संदेह और नफरत की आग में फड़कने लगे। दंगे फैलते चले गए। विकास को जब
पता चला तो वह सीधा प्रियंका के घर की ओर भागा। वहाँ जाकर उसने देखा, सारा
घर घेरे में है। उसने साहस किया और भीड़ के सामने खड़ा हो गया। प्रियंका
तीसरी मंजिल की खिड़की से देख रही थी। लोगों के हाथों में लाठियाँ,
गँड़ासे आदि थे। भीड़ चिल्लाई और उसने विकास को दूर हटने की चेतावनी दी।
लेकिन विकास ने पुरजोर आवाज में कहा, ‘‘ऐसा नहीं हो सकता।
भाई-भाई का खून करे, यह उचित नहीं। यह नफरत की आग देश को जलाकर राख कर देगी।’’
-इसी उपन्यास से
पंजाब की शस्य-श्यामला भूमि जब उग्रवादियों की गोलियों से थर्रा रही थी,
हिन्दू-सिख के नाम पर जब दो भाइयों के बीच दीवार खड़ी की जा रही थी, तब भी
मानवता का सोता वहाँ सूख नहीं गया था। उसी मानवता की रक्षा हेतु उपन्यास
का नायक शहीद हो गया। इसी समस्या को केन्द्र में रखकर इस उपन्यास का
ताना-बाना बुना गया है।
1
हलकी-हलकी बूँदें पड़ रही थीं। तेज हवा की लहरें शरीर में तीर के समान घुस
रही थीं। बेशुमार गाड़ियाँ इधर से उधर दौड़ रही थीं। विजय चौक के ट्रैफिक
के गोल चबूतरे पर खड़ा सिपाही चुस्ती से आने-जाने वाली गाड़ियों को रास्ता
दिखा रहा था। वह जब दाएँ से बाएँ घूमता तो उसके हाथ और पैर दोनों एक साथ
इतनी तीव्र गति से घूमते कि देखते ही बनता था। उसने अपने आप को एक अलग ही
एक आकर्षण का केन्द्र बना रखा था। शाम के पाँच बज रहे थे। दफ्तरों से
आनेवाले बाबुओं के झुंड उसकी उन मुद्राओं को देखकर आपस में चर्चा करते
हुए, कुछ एक नजर डालकर निकल रहे थे और कुछ बाकायदा एक ही आनंद ले रहे थे।
सामने राष्ट्रपति भवन की ऊँची और विशाल गुंबदोंवाली इमारत भारतीय गणतंत्र का अभिवादन कर रही थी। गाड़ी खड़ी करनेवाला उसका विशाल स्थान लगभग भर चुका था। बाकी आनेवाली गाड़ियों को बड़ी कठिनाई से स्थान मिल पा रहा था। राष्ट्रपति भवन के ‘मुगल-उद्यान’ में विशेष चहल-पहल थी। इस ऐतिहासिक उद्यान में आज हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के प्रतीक के रूप में दो किसानों को प्रशस्ति-पत्र दिए जाने थे। मुख्यमंत्री के साथ वे दोनों किसान-प्रीतम सिंह और फौजा सिंह-आ चुके थे। प्रधानमंत्री और मंत्रीमण्डल के सभी सदस्य, संसद सदस्य और कई प्रांतों के मुख्यमंत्री भी आए थे। सभी राजनेता अपनी-अपनी समस्याओं के प्रति एक-दूसरे से चर्चा कर रहे थे। सबकी अलग-अलग समस्याएं थीं। कोई महँगाई से दु:खी था तो कोई कानून और व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति से निबटने के लिए किस प्रकार के कारगर कदम उठाए जा सकते हैं, इसकी चर्चा कर रहा था। उसी समय बिगुल-वादक ने बिगुल बजाए और सभी सावधान की मुद्रा में खड़े हो गए। यह इस बात का संकेत था कि महामहिम राष्ट्रपति महोदय पहुँच रहे हैं। उनके आने का समय पाँच बजकर तीस मिनट था और उसमें अभी एक मिनट का समय बाकी था। राष्ट्रपति के पहुँचते ही भारतीय राष्ट्रगान की धुन का रिकार्ड बज उठा और जो जहाँ, जिस मुद्रा में खड़ा था, खड़ा रहा। राष्ट्रपति के आसन ग्रहण करते ही सभी लोग अपने-अपने स्थान पर बैठ गए।
उसी समय उद्घोषक ने घोषणा की-‘‘भारत कृषि-प्रधान देश है। इस देश की अस्सी प्रतिशत जनता कृषि पर ही निर्भर करती है। हमें यह घोषणा करते हुए हर्ष हो रहा है कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् पहली बार, पहली हरित क्रांति और श्वेत क्रांति का प्रथम पुरस्कार पंजाब को दिया जा रहा है।’’
पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री पुरस्कार लेने के लिए जब मंच की ओर बढ़े, तो जोधपुरी लाल रंग का साफा पहने राष्ट्रपति के दो अंगरक्षक उनके आगे तथा दो पीछे चल रहे थे। पुरस्कार जब दिया गया, सभी ने करतल-ध्वनि की।
उद्घोषक की आवाज फिर सुनाई दी-‘‘इस हरित क्रांति में धरती-पुत्र श्री फौजा सिंह ने एक एकड़ में बीस क्विंटल गेहूँ पैदा करके यह सर्वोच्च सम्मान प्राप्त किया है। उन्हें राष्ट्रपति महोदय एक स्वर्ण-पदक और प्रशस्ति-पत्र प्रदान कर रहे हैं।’’ सभा में तालियों की गड़गड़ाहट हो उठी। फौजा सिंह की कुरसी के पास दोनों ओर वही सैनिक आकर खड़े हो गए। फौजा सिंह उठा और उनके बीच में आ गया। उस समय उस नौजवान का सीना गर्व से फूल उठा था। उसके जाने और आने तक तालियाँ बजती रहीं।
इस बाद की घोषणा में बताया गया कि श्वेत क्रांति का प्रथम पुरस्कार पंजाब के श्री प्रीतम सिंह को मिला है। उन्होंने एक गाय से चालीस लीटर दूध निकालकर एक कीर्तिमान स्थापित किया है। प्रीतम सिंह जब श्वेत क्रांति का स्वर्ण-पदक लेकर आया तो फौजा सिंह और वह-दोनों उठकर गले मिले। उस समय वातावरण में एकाएक ताजगी का झोंका आ गया।
उद्घोषक फिर घोषणा कर रहा था-‘‘यंत्र-क्रांति में पंजाब के श्री राजकुमार ने ऐसी छोटी-छोटी मशीनें, जो गृह उद्योग में काम आती हैं तथा जो काफी सस्ती और उपयोगी साबित हुई हैं, बनाकर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। राष्ट्रपति उन्हें प्रशस्ति-पत्र और स्वर्ण-पदक से सम्मानित करते हैं।’’ सभाभवन एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। इसके बाद राष्ट्रपति की ओर से सबको चायपान के लिए आमंत्रित किया गया। सभा का स्वरूप एकदम से अनौपचारिक हो गया।
अनेक प्रातों के मुख्यमंत्रियों ने पंजाब के मुख्यमंत्री को बधाई दी। उसी समय मुख्यमंत्री फौजासिंह, प्रीतम सिंह और राजकुमार को साथ लेकर प्रधानमंत्री ने भी उन्हें बधाई दी। उसके बाद अनेक मंत्री और सांसदों के बीच यही तीनों आकर्षण का केन्द्र बने रहे। चायपान के बाद सभी अपने-अपने वाहनों की तलाश में बाहर आने लगे। रास्ते में चलते हुए कोई ‘इतना गेहूँ कैसे पैदा किया’-इसकी विधि पूछ रहे थे, तो कोई ‘आपने गाय को किस प्रकार का चारा खिलाया’- इसकी जानकारी प्राप्त कर रहे थे। कुछ राजकुमार द्वारा बनाई गई छोटी मशीनों की उपयोगिता की जानकारी प्राप्त कर रहे थे। प्रतिस्पर्द्धा बढ़ने की बात की जा रही थी।
फौजा सिंह और प्रीतम सिंह का गाँव अमृतसर के उत्तर में पाकिस्तान की सीमा के साथ लगता हुआ था, जिनका नाम था-मीरांवाली। इस गाँव के एक किलोमीटर की दूरी पर भारतीय सेना की चौकी थी। वहाँ एक ऊँचा टावर बना था, जहाँ से चौबीस घंटे सेना का जवान दूरबीन से पाक सैनिकों की गतिविधियों पर नजर रखता था। पाकिस्तान के साथ हुए दोनों युद्धों में इस गाँव को खाली करने का आदेश मिला था; किन्तु गाँव के लोगों ने स्त्री-बच्चों को अपने रिश्तेदारों के पास भेज दिया था, बाकी सब लोग वहीं रह गए थे। गाँव की आबादी लगभग पाँच हजार थी। प्रत्येक घर से कम-से-कम एक जवान फौज में था। मिली-जुली आबादी का अनुपात लगभग बराबर था; जिसमें हिन्दू, सिख, हरिजन सभी जातियों के लोग थे। यह गाँव आपस में भाई चारे की एक मिशाल था। जब गाँव में यह पता चला कि फौजा सिंह और प्रीतम सिंह को राष्ट्रपति का प्रथम राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है, तो सारा गाँव मस्ती में झूम उठा। वे दोनों सगे भाई थे। फौजा सिंह बड़ा था और प्रीतम सिंह छोटा। उनके पिता केशधारी थे। उन्होंने बड़े बेटे को केशधारी बनाया था। उनसे छोटे निरंजन सिंह और हुकूमत सिंह थे। वे दोनों फौज में थे। दोनों बी.ए.पास करके सैकिंड लैफ्टिनेंट भरती हुए थे और जब लैफ्टिनेंट बन चुके थे। जिस समय वे दोनों गाँव में पहुँचे, सारे गाँव ने इकट्ठा होकर उनका स्वागत किया था। सारी रात भाँगड़ा होता रहा। महिलाओं ने उनकी आरती उतारी। उसके बाद तो कभी तहसील, जिला और उसके बाद राज्य सरकार ने भी उन्हें इनाम दिया।
एक दिन शाम को दीनू हरिजन ने बताया कि पाकिस्तानी उसकी भैंस ले गए। वह उनकी सीमा के पास घास चर रही थी। उस समय लड़के ने, जो भैंस के साथ था, उनका विरोध किया तो उसे उन्होंने काफी पीटा। सारे गांव में उत्तेजना फैल गई। पंचायत हुई। सबने मिलकर फैसला किया कि इसका बदला लिया जाएगा। दूसरे ही दिन वह अवसर हाथ आ गया। वे पाकिस्तानी सीमा में घुसकर उनकी चार भैंसे पकड़कर ले आए। मामला सैनिक अवसरों तक गया तो अंत में यह समझौता किया गया कि आगे से किसी ओर से भी ऐसी हरकत नहीं की जाएगी। परिणाम यह हुआ कि वे दीनू की भैंस वापस दे गए और इधर से उनकी चारों भैंस लौटा दी गईं। उसके बाद कभी भी पाकिस्तानियों की यह हिम्मत नहीं हुई कि उस गाँव के किसी जानवर को हाथ लगा सकें।
फौजा सिंह का विवाह मोनों (गैर केशधारी सिखों) में हुआ था। उसकी एक लड़की थी, जो दसवीं कक्षा पास कर चुकी थी और अब अमृतसर जाकर पढ़ने की तैयारी कर रही थी। उसका नाम था, प्रियंका। इस पूरे परिवार में वहीं एक लड़की थी, इसलिए सबको अत्यन्त प्रिय थी। इस समय वह सोलह साल की हो चुकी थी। छरहरा और सुगठित शरीर, सुंदर नक्श, मोटी-मोटी कजरारी आँखें, बिंबाफल के समान होंठ, तोते की-सी नाक, हाथों की लंबी और कलात्मक उँगलियाँ, द्वितीया के चाँद की तरह माथा, मोती की तरह चमकते दाँत। ऐसा लगता था, विधाता ने उसे बड़ी फुरसत के क्षणों में बनाया है। पढ़ाई में वह सामान्य थी। दसवीं कक्षा उसने द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की थी।
सामने राष्ट्रपति भवन की ऊँची और विशाल गुंबदोंवाली इमारत भारतीय गणतंत्र का अभिवादन कर रही थी। गाड़ी खड़ी करनेवाला उसका विशाल स्थान लगभग भर चुका था। बाकी आनेवाली गाड़ियों को बड़ी कठिनाई से स्थान मिल पा रहा था। राष्ट्रपति भवन के ‘मुगल-उद्यान’ में विशेष चहल-पहल थी। इस ऐतिहासिक उद्यान में आज हरित क्रांति और श्वेत क्रांति के प्रतीक के रूप में दो किसानों को प्रशस्ति-पत्र दिए जाने थे। मुख्यमंत्री के साथ वे दोनों किसान-प्रीतम सिंह और फौजा सिंह-आ चुके थे। प्रधानमंत्री और मंत्रीमण्डल के सभी सदस्य, संसद सदस्य और कई प्रांतों के मुख्यमंत्री भी आए थे। सभी राजनेता अपनी-अपनी समस्याओं के प्रति एक-दूसरे से चर्चा कर रहे थे। सबकी अलग-अलग समस्याएं थीं। कोई महँगाई से दु:खी था तो कोई कानून और व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति से निबटने के लिए किस प्रकार के कारगर कदम उठाए जा सकते हैं, इसकी चर्चा कर रहा था। उसी समय बिगुल-वादक ने बिगुल बजाए और सभी सावधान की मुद्रा में खड़े हो गए। यह इस बात का संकेत था कि महामहिम राष्ट्रपति महोदय पहुँच रहे हैं। उनके आने का समय पाँच बजकर तीस मिनट था और उसमें अभी एक मिनट का समय बाकी था। राष्ट्रपति के पहुँचते ही भारतीय राष्ट्रगान की धुन का रिकार्ड बज उठा और जो जहाँ, जिस मुद्रा में खड़ा था, खड़ा रहा। राष्ट्रपति के आसन ग्रहण करते ही सभी लोग अपने-अपने स्थान पर बैठ गए।
उसी समय उद्घोषक ने घोषणा की-‘‘भारत कृषि-प्रधान देश है। इस देश की अस्सी प्रतिशत जनता कृषि पर ही निर्भर करती है। हमें यह घोषणा करते हुए हर्ष हो रहा है कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् पहली बार, पहली हरित क्रांति और श्वेत क्रांति का प्रथम पुरस्कार पंजाब को दिया जा रहा है।’’
पंजाब प्रांत के मुख्यमंत्री पुरस्कार लेने के लिए जब मंच की ओर बढ़े, तो जोधपुरी लाल रंग का साफा पहने राष्ट्रपति के दो अंगरक्षक उनके आगे तथा दो पीछे चल रहे थे। पुरस्कार जब दिया गया, सभी ने करतल-ध्वनि की।
उद्घोषक की आवाज फिर सुनाई दी-‘‘इस हरित क्रांति में धरती-पुत्र श्री फौजा सिंह ने एक एकड़ में बीस क्विंटल गेहूँ पैदा करके यह सर्वोच्च सम्मान प्राप्त किया है। उन्हें राष्ट्रपति महोदय एक स्वर्ण-पदक और प्रशस्ति-पत्र प्रदान कर रहे हैं।’’ सभा में तालियों की गड़गड़ाहट हो उठी। फौजा सिंह की कुरसी के पास दोनों ओर वही सैनिक आकर खड़े हो गए। फौजा सिंह उठा और उनके बीच में आ गया। उस समय उस नौजवान का सीना गर्व से फूल उठा था। उसके जाने और आने तक तालियाँ बजती रहीं।
इस बाद की घोषणा में बताया गया कि श्वेत क्रांति का प्रथम पुरस्कार पंजाब के श्री प्रीतम सिंह को मिला है। उन्होंने एक गाय से चालीस लीटर दूध निकालकर एक कीर्तिमान स्थापित किया है। प्रीतम सिंह जब श्वेत क्रांति का स्वर्ण-पदक लेकर आया तो फौजा सिंह और वह-दोनों उठकर गले मिले। उस समय वातावरण में एकाएक ताजगी का झोंका आ गया।
उद्घोषक फिर घोषणा कर रहा था-‘‘यंत्र-क्रांति में पंजाब के श्री राजकुमार ने ऐसी छोटी-छोटी मशीनें, जो गृह उद्योग में काम आती हैं तथा जो काफी सस्ती और उपयोगी साबित हुई हैं, बनाकर एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। राष्ट्रपति उन्हें प्रशस्ति-पत्र और स्वर्ण-पदक से सम्मानित करते हैं।’’ सभाभवन एक बार फिर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। इसके बाद राष्ट्रपति की ओर से सबको चायपान के लिए आमंत्रित किया गया। सभा का स्वरूप एकदम से अनौपचारिक हो गया।
अनेक प्रातों के मुख्यमंत्रियों ने पंजाब के मुख्यमंत्री को बधाई दी। उसी समय मुख्यमंत्री फौजासिंह, प्रीतम सिंह और राजकुमार को साथ लेकर प्रधानमंत्री ने भी उन्हें बधाई दी। उसके बाद अनेक मंत्री और सांसदों के बीच यही तीनों आकर्षण का केन्द्र बने रहे। चायपान के बाद सभी अपने-अपने वाहनों की तलाश में बाहर आने लगे। रास्ते में चलते हुए कोई ‘इतना गेहूँ कैसे पैदा किया’-इसकी विधि पूछ रहे थे, तो कोई ‘आपने गाय को किस प्रकार का चारा खिलाया’- इसकी जानकारी प्राप्त कर रहे थे। कुछ राजकुमार द्वारा बनाई गई छोटी मशीनों की उपयोगिता की जानकारी प्राप्त कर रहे थे। प्रतिस्पर्द्धा बढ़ने की बात की जा रही थी।
फौजा सिंह और प्रीतम सिंह का गाँव अमृतसर के उत्तर में पाकिस्तान की सीमा के साथ लगता हुआ था, जिनका नाम था-मीरांवाली। इस गाँव के एक किलोमीटर की दूरी पर भारतीय सेना की चौकी थी। वहाँ एक ऊँचा टावर बना था, जहाँ से चौबीस घंटे सेना का जवान दूरबीन से पाक सैनिकों की गतिविधियों पर नजर रखता था। पाकिस्तान के साथ हुए दोनों युद्धों में इस गाँव को खाली करने का आदेश मिला था; किन्तु गाँव के लोगों ने स्त्री-बच्चों को अपने रिश्तेदारों के पास भेज दिया था, बाकी सब लोग वहीं रह गए थे। गाँव की आबादी लगभग पाँच हजार थी। प्रत्येक घर से कम-से-कम एक जवान फौज में था। मिली-जुली आबादी का अनुपात लगभग बराबर था; जिसमें हिन्दू, सिख, हरिजन सभी जातियों के लोग थे। यह गाँव आपस में भाई चारे की एक मिशाल था। जब गाँव में यह पता चला कि फौजा सिंह और प्रीतम सिंह को राष्ट्रपति का प्रथम राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है, तो सारा गाँव मस्ती में झूम उठा। वे दोनों सगे भाई थे। फौजा सिंह बड़ा था और प्रीतम सिंह छोटा। उनके पिता केशधारी थे। उन्होंने बड़े बेटे को केशधारी बनाया था। उनसे छोटे निरंजन सिंह और हुकूमत सिंह थे। वे दोनों फौज में थे। दोनों बी.ए.पास करके सैकिंड लैफ्टिनेंट भरती हुए थे और जब लैफ्टिनेंट बन चुके थे। जिस समय वे दोनों गाँव में पहुँचे, सारे गाँव ने इकट्ठा होकर उनका स्वागत किया था। सारी रात भाँगड़ा होता रहा। महिलाओं ने उनकी आरती उतारी। उसके बाद तो कभी तहसील, जिला और उसके बाद राज्य सरकार ने भी उन्हें इनाम दिया।
एक दिन शाम को दीनू हरिजन ने बताया कि पाकिस्तानी उसकी भैंस ले गए। वह उनकी सीमा के पास घास चर रही थी। उस समय लड़के ने, जो भैंस के साथ था, उनका विरोध किया तो उसे उन्होंने काफी पीटा। सारे गांव में उत्तेजना फैल गई। पंचायत हुई। सबने मिलकर फैसला किया कि इसका बदला लिया जाएगा। दूसरे ही दिन वह अवसर हाथ आ गया। वे पाकिस्तानी सीमा में घुसकर उनकी चार भैंसे पकड़कर ले आए। मामला सैनिक अवसरों तक गया तो अंत में यह समझौता किया गया कि आगे से किसी ओर से भी ऐसी हरकत नहीं की जाएगी। परिणाम यह हुआ कि वे दीनू की भैंस वापस दे गए और इधर से उनकी चारों भैंस लौटा दी गईं। उसके बाद कभी भी पाकिस्तानियों की यह हिम्मत नहीं हुई कि उस गाँव के किसी जानवर को हाथ लगा सकें।
फौजा सिंह का विवाह मोनों (गैर केशधारी सिखों) में हुआ था। उसकी एक लड़की थी, जो दसवीं कक्षा पास कर चुकी थी और अब अमृतसर जाकर पढ़ने की तैयारी कर रही थी। उसका नाम था, प्रियंका। इस पूरे परिवार में वहीं एक लड़की थी, इसलिए सबको अत्यन्त प्रिय थी। इस समय वह सोलह साल की हो चुकी थी। छरहरा और सुगठित शरीर, सुंदर नक्श, मोटी-मोटी कजरारी आँखें, बिंबाफल के समान होंठ, तोते की-सी नाक, हाथों की लंबी और कलात्मक उँगलियाँ, द्वितीया के चाँद की तरह माथा, मोती की तरह चमकते दाँत। ऐसा लगता था, विधाता ने उसे बड़ी फुरसत के क्षणों में बनाया है। पढ़ाई में वह सामान्य थी। दसवीं कक्षा उसने द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की थी।
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लोगों की राय
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