लोगों की राय

समाजवादी >> मेरी तेरी उसकी बात

मेरी तेरी उसकी बात

यशपाल

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :570
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5701
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

309 पाठक हैं

1942 भारत छोड़ो अंदोलन की पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास...

Meri teri uski bat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इस उपन्यास की पृष्ठभूमि अगस्त 1942 का ‘भारत छोड़ों’ आन्दोलन का विस्फोट है। परन्तु यह कहानी दो पीड़ियों से क्रान्ति की वेदना को अदम्य बनाते वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक और साम्रप्रदायिक विषमताओं का स्पष्टीकरण भी है। यशपाल की दृष्टि में क्रांति का अर्थ केवल शासकों के वर्ण-पोशाक का बदल जाना ही नहीं परन्तु जीवन में जीर्ण रूढ़ियों की सड़ांध से उत्पन्न व्याधियों और सभी प्रकार की असह्य बातों का विरोध भी हैं।

यशपाल अपनी आरम्भिक रचनाओं से ही नारी विषमताओं के मुखरतम विरोधी और उसकी पूर्ण स्वतंत्रता के समर्थक रहे हैं। इस रचना में यह बात उन्होंने और सबल तथा निश्शंक स्वर में कही है। उपन्यास का कथा विस्तार राजनैतिक विस्फोट से ब्रिटिश शासन से मुक्त तक ही नहीं बल्कि देश को अवश रखने के लिए विदेशी नीति द्वारा बोये विष-बीजों के अविशिष्ट प्रभावों पर्यन्त भी है, जिनके बिना भारतीय नर-नारी की मुक्ति असम्भव है।

अन्ततः वह कथा केवल क्रान्ति की मशीन नर-नारियों की नहीं बल्कि उन पात्रों की मानवीय समस्याओं, जीवन की नैसर्गिक उमंगों आवश्यकताओं और संस्कारों के द्वन्द्वों की भी है।
पूरा उपन्यास आदि से अन्त तक रोचक है। आगामी पचासों वर्षों तक यह उपन्यास भारतीय कथाकारों के लिए मार्ग दर्शक रहेगा।

सूचना


हमारे समाज के यथार्थ को प्रतिबिम्बित करने के  लिए इस रचना की पृष्ठभूमि हमारे निकट अतीत की कुछ घटनायें हैं परन्तु यह पुस्तक इतिहास नहीं, उपन्यास-कहानी ही है। व्यक्तियों के अतिरिक्त इस रचना के सभी पात्र कल्पित हैं। यथार्थ का आभास प्रस्तुत कर सकने के प्रयत्न में यदि कुछ प्रसंगों में अति सादृश्य आ सका है तो किसी व्यक्ति की ओर संकेत न समझा जाये।
यशपाल

समर्पण

मैं तुम वो स्वत्रंता के लिये जूझ कर, अपने विचार में स्वत्रंत होकर भी छटपटा और सिसक रहे हैं, यही तेरी उसकी बात अपनी सहायक संगिनी प्रकाशवती के सहयोग में मेरे तेरे उसके विचार के लिये।

यशपाल

कृतज्ञता


इस पुस्तक के लिए आवश्यक जानकारी मैंने अनेक व्यक्तियों और सूत्रों की सहायता से पायी है, उन सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ। विशेषताः श्री जगन्नाथ उपाध्याय और श्री रामप्रवेश शास्त्री ने, लिपि के कुछ अंशों के संशोधन और पुस्तक के प्रूफ देखने में भी जो उदार सहयोग-सहायता दी है, उसके लिए अति आभारी हूं।

यशपाल

मेरी तेरी उसकी बात


बात पिछली पीढ़ी की है। डाक्टर अमरनाथ सेठ की फाइनल परीक्षा थी। रतनलाल सेठ को पुत्र के परामर्श और सहायता की जरूरत पड़ गयी। पिता ने झिझकते-सकुचाते हुए अनुरोध किया, ‘‘बेटे, जानते हैं, तुम्हारा इम्तिहान है। पर जैसे भी हो थोड़ा वक्त निकाल कर हमारे साथ चलो। अब्दुल लतीफ के यहाँ मरीज को देख लो। फिर तुम्हारे कालेज के बड़े डाक्टर को, या जो डाक्टर मुनासिब समझो, मरीजा को दिखा दिया जाये।’’
अमर पिता के साथ इक्के पर नख्खास गया था। साईस की पुकार पर ऊपर की मंजिल की खिड़की से एक लड़की ने झांका। जीने के किवाड़ तुरन्त खुल गये।

एक युवती ज़ीने के ऊपर दरवाजे तक बढ़ आयी, ‘‘चच्चा जान, आदाब अर्ज़ है।’’ युवती ने गर्दन झुका कर, सविनय एक हाथ की उँगली से सलाम किया। चेहरे पर आत्मीय के स्वागत का भाव। पुकार पर झाँकने नौ-दस बरस की लड़की भी सलाम के लिए आ गयी। युवती अमर को देखकर पलांश ठिठकी, फिर जैसे अनुमान से पहचान कर आदाब अर्ज़ कर दिया वह दिसम्बर की सर्दी में गहरे कत्थई रंग का अलवान ओढ़े थी। अलवान सिर पर माथे तक, घूँघट नहीं। काले कपड़े का कुर्ता, लाल छींटे का तंग पायजामा। कत्थई अलगाव से घिरा गोरा चेहरा, बड़ी-बड़ी आँखें, सौम्य संतुष्ट।
‘‘‘खुश रहो बेटी, बड़ी उम्र हो।’’ आशीर्वाद देकर सेठ जी ने पूछा ‘‘लतीफ नहीं आये अभी ?’’

अमर अपने मित्र अहमद रज़ा के घर जब भी गया बैठक में ही बैठता था। रज़ा की अनुपस्थिति में  उसकी मां या अन्य प्रौढ़ा बैठक के दरवाज़े पर लटके पर्दें की आड़ से बात कर लेती। घर की लड़कियां-स्त्रियां सदा पर्दे में रहतीं। अस्पताल में इलाज के लिए आने वाली मुस्मिल स्त्रियाँ डाक्टरों को आंख-कान, नाक-जुबान-गला दिखाने की मजबूरी में भी बुरका हटाते झिझिकती थीं। यहाँ वैसा संकोच न था। घर में छोटे बच्चे के अतिरिक्त कोई मर्द मौजूद न था।
लड़की ने दूसरे कमरे के दरवाज़े की ओर बढ़ कर सूचना दी, ‘‘अम्मा चच्चाजान और अमर भाई साहब आये हैं।’’ मरीज़ा उसी कमरे में पलंग पर थी।

प्रौढ़ा रोगी की धुँधली आंखें दरवाजे की ओर घूम गयीं। रोगी की बांह आशीर्वीद के संकेत में उठ गयी। अमर को ऐसी आत्मीयता की आशा न थी। उसने आगे बढ़कर प्रौढ़ा के आशार्वाद के लिए सिर झुका दिया। प्रौढ़ा ने उसके सिर पर हाथ रख कर ओठों-ओठों में लम्बी दुआ दी, ‘‘कितने बरस बाद देखा।’’ प्रौढ़ा का बोल सांस कष्ट के कारण अटक रहा था। अमर को युवती की नज़र अपनी ओर होने का आभास। लड़की और छोटा लड़का भी उसे कौतुहल से देख रहे थे। अमर ने अनुमान कर लियाः लतीफ भाई का परिवार है। उसके बारे में जानते हैं।

लड़की ने अमर के लिए मरीज़ा के पलंग के समीप मोढ़ा रख दिया। अमर ने जानना चाहाः क्या तकलीफ है, कहां दरद, कब से ? क्या दवा दी गयी ? प्रश्न पर युवती अमर की ओर देख कर नज़र झुकाये उत्तर देती।
 अमर ने प्रौढ़ा की नब्ज़ देखी। स्टैथकोप से सीना, पीठ, पसलियां जांचे। साईस के हाथ दवा भिजवा देने का अश्वासन दिया।

सेठ जी कमरे के बाहर आंगन में मोढ़े पर बैठे थे। मरीज़ा को देख लेने के बाद छोटी लड़की अमर के हाथ चिरमची में धुलवा रही थी। उसी समय एक लड़का सिर पर चूहे की दुम जैसी पतली लम्बी चुटिया लटकाये दोने में पान-सुपारी चूना-जर्दा लिए आ गया। युवती के अनुरोध पर सेठ जी ने पान लिया। अमर ने भी एक बीड़ा पान लेकर शुक्रिया कहा।
लौटने से पूर्व प्रौढ़ा ने फिर अमर के सिर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया, ‘‘बेटे कभी तो अपनी बुढ़िया खाला को देख जाया करो।’’ युवती ने जीने तक आकर, अदब से झुक कर सेठ जी को खुदा हाफिज़ कहा। अमर की ओर देख मुस्कराई, ‘‘खुदा हाफिज़ भाई। खुदा नेमते बख्शे। तूल उम्र हो।’’

पिता के साथ इक्के पर नख्खास की ओर जाते समय अमर को अब्दुल लतीफ और अपने परिवारों में इतनी घनिष्ठता का अनुमान न था। अब्दुल लतीफ उनके भट्ठे का काम सम्भालता था, सेठ जी का बहुत विश्वस्त था। ख़याल आयाः लतीफ से पहले उसके पिता भी सेठ जी के मित्र रहे होंगे। उस परिवार में कष्ट के प्रति सेठ जी की चिन्ता स्वाभाविक।
नख्खास से लौटते समय अमर के कान में बार-बार प्रौढ़ा के शब्द गूंज जाते... कभी तो अपनी बुढ़िया खाला को देख जाया करो ! उसे लगा, जैसे भूला स्वप्न याद आ रहा हो बचपन में पिता की उँगली पकड़े उस मकान में आया हो। मस्तिष्क में सहसा कौंधा: क्या इसी मौसी ने मेरे जन्म पर सोने के कंगन दिये होंगे ! लतीफ की माँ और मेरी माँ सहेलियाँ रहीं होगी। अमर प्रगतिवादी था। माँ की  मुसलमान सहेली ! उसे अच्छा लगा। फिर लड़कपन की यादें ऐसी बात पर दीपचन्द ने मारपीट दीपचंद की ताई इसी मौसी के दिये कंगनों को रंडी के दिये कंगन कहती थी ?

सोने के कंगनों की बात हर दीपावली पर ताज़ा हो जाती। पड़ोसी मास्टर जी के प्रभाव से अमर को लड़कपन से ही देवी-मंदिर पूजा में विश्वास या आस्था न रही थी। कालेज में पढ़ते समय पक्का भौतिकवादी-समाजवादी था परन्तु पिता और बुआ का मन रखने के लिए दीवाली की संध्या लक्ष्मी-पूजा के समय गणेश-लक्ष्मी की मूर्ति के सम्मुख प्रणाम मुद्रा में हाथ जोड़ देता, चरणामृत लेता। पूजा के लिए हट्डी और चाँदी के थाल में रखे जड़ाऊ गहनों-गिन्ननियों के साथ सोने के बहुत छोटे कंगनों की जोड़ी भी रहती। लड़कपन में उतने छोटे कंगन के प्रति कौतूहल से अमर पूछ लेता, ‘‘बुआ ये कैसे कंगन ?’’

बुआ मुस्कराती, ‘‘तुम्हारे जनम पर तुम्हारी एक मौसी ने दिए थे। तुम्हारी माँ उन्हें पूजा में रखती थी, सो हम भी रखते हैं। हम बने रहे तो तुम्हारे बेटे को पहनायेगे।’’
बुआ ने मौसी के बारे में कभी कुछ न बताया था। कंगनों की वह जोड़ी, जो अब उनके पाँव के अगूँठे पर आ सके, याद दिला देतीः उसकी एक मौसी थी। मौसी से अचानक भेंट से स्मृति में अटकी कटुता सुलझ गयी।

उन दिनों मेडिकल कालेज के मैडिसन के बड़े प्रोफेसर डाक्टर व्यास नगर और प्रदेश के मसीहा माने जाते थे। व्यास बहुत व्यस्त डाक्टर, बड़ी फीस, उनसे समय पाना कठिन। अपने विद्यार्थी के अनुरोध पर दूसरे दिन सांझ पांच बजे का समय दिया। अमर ने सईस गुन्ने के हाथ लतीफ को संदेश भिजवा दिया था। डाक्टर व्यास की मोटर को मार्ग दिखाने के लिये अमर अपनी मोटर साइकिल पर पाईलेट की तरह आगे-आगे गया। डाक्टर व्यास ने मरीज़ा की परीक्षा कर अपने विद्यार्थी के निदान पर संतोष प्रकट किया। उन दिनों आजकल की अचूक जादुई एंटीबायोटिक औषधियों का अविष्कार न हो पाया था डाक्टर ने छः दिन सुई लगाने और तीन पुड़िया रोज के लिये नुसखा लिखवा दिया।

डाक्टर व्यास के लौट जाने पर अमर अब्दुल लतीफ को मोटर साइकिल पर पीछे बैठाकर गोल। दरवाजे ले गया। लतीफ जब तक दवाइयां खरीद कर मकान लौटा, अमर अस्पताल से सुई लगाने का सामान लेकर आ गया। उसने मरीजों को सुई लगाकर आश्वासन दियाः रोजाना सुई लगाने आएगा और मरीज की हालत भी देख जाएगा।
अगर लौटने को था कि हिन्दुत्व का चिन्ह लम्बी चुटिया लटकाये ताम्बोली का लड़का दोने में पान लेकर आ गया।
‘‘अमर भाई, शौक फरमाइये।’’ लतीफ ने पान के दोने की ओर संकेत किया।
अमर के लिए बाजार से पाँन मँगवाने का मतलब ज़ाहिर था- हिन्दू से मुसलमान परिवार का पान स्वीकार करने की आशा नहीं।

अब्दुल लतीफ का व्यवहार का कारण था। सेठ जी के यहाँ मुसलमान मेहमान के लिए एक अलमारी में काँच के दो-तीन गिलास रहते थे। उन दिनों ब्राह्मण, खत्री बनिया, ठाकुर परिवारों में शीशे-चीनी के बर्तनों का उपयोग बहुत कम होता था। अमर को पान का शौक न था पान अस्वीकार करना मेज़बान का निरादर माना जाता। अमर ने गिलौरी लेकर शुक्रिया कह दिया।

अमर दूसरी सांझ सुई लगाने गया। लतीफ अभी लौटा न था। बुढ़िया को पिछली सांझ की दवा से लाभ हुआ था। सुविधा से बोल पा रही थी मरीजा की स्थिति में सुधार से युवती भी प्रसन्न थी। अमर ने हाल चाल पूछ कर सुई लगा दी। और लौटने को था, तब तक ताम्बोली का लड़का पान का दोना लिए हाज़िर।
‘‘अमर भाई युवती ने अनुरोध किया, ‘‘हम और किस खातिर के काबिल ! ये ही कबूल फर्माइये।’’
छुआछूत का वहमी समझा जाना अमर को असह्य, बोला, ‘‘भाभी आप हमें भाई पुकारें और पान बाजार का खिलायें ! खातिर करना है तो कायदे से कीजिए।’’

‘‘सदके भाईजान ! ज़हे किस्मत !’’ युवती का चेहरा खिल गया। वह किलक कर प्रौढ़ा की ओर घूम गई, ‘‘अम्मा अमर भाई हमें भाभी कह रहे हैं।’’ हँसी छिपाने के लिए हाथ होठों के सामने किए थी।
प्रौढ़ा के चेहरे पर मुस्कान आ गयी, ‘‘हाय तो इन्हें क्या याद। इत्ते से थे, जब आते थे।’’ उसने कोहनी से बाँह उठा दी, ‘‘बेटे’’ हम तुम्हारी खाला हैं, रतनी तुम्हारी बहिन, अब्दुल लतीफ तुम्हारे जीजा। तुम आते थे तो इसे आपा-आपा पुकारते थे। यह तुम्हें बहुत दुलरातीं, अपनी पीठ पर लिये फिरती थीं।’’


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai