उपन्यास >> मैं और वह मैं और वहआशा प्रभात
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आशा प्रभात का यह उपन्यास एक औरत का खुद को पहचानने और अपनी खुदी को बरकरार रखने की अद्भुत संघर्ष-गाथा है। इसमें बाहरी और अंदरूनी स्तर पर घटनाएँ कुछ इस कदर शाइस्तगी से घटती हैं पाठक चौंकता है और ठहर कर सोचने पर विवश हो जाता है।
Main aur wah
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आशा प्रभात का यह उपन्यास एक औरत का खुद को पहचानने और अपनी खुदी को बरकरार रखने की
अद्भुत संघर्ष-गाथा है।
इसमें बाहरी और अंदरूनी स्तर पर घटनाएँ कुछ इस कदर शाइस्तगी से घटती हैं पाठक चौंकता है और ठहर कर सोचने पर विवश हो जाता है।
इस उपन्यास में सदियों से प्रतीक्षारत इस सवाल का उत्तर तलाशने की एक पुरजोर कोशिश की गई है कि पति, पत्नी और वह के प्रेम त्रिकोण वाले सम्बन्धों में सबसे कमजोर स्थिति किसकी होती है।
अपने स्वत्व की तलाश में जुटी स्त्रियों के भटकाव की परिणति से अवगत कराता यह उपन्यास स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की बारीकी से पड़ताल करता है। लेखिका ने औरत से व्यक्ति बन जाने की जद्दोजहद को बहुत ही सहज भाषा में अभिव्यक्ति करने का उपक्रम किया है। कथा प्रवाह और पठनीयता की दृष्टि से भी यह उल्लेखनीय कृति है।
अद्भुत संघर्ष-गाथा है।
इसमें बाहरी और अंदरूनी स्तर पर घटनाएँ कुछ इस कदर शाइस्तगी से घटती हैं पाठक चौंकता है और ठहर कर सोचने पर विवश हो जाता है।
इस उपन्यास में सदियों से प्रतीक्षारत इस सवाल का उत्तर तलाशने की एक पुरजोर कोशिश की गई है कि पति, पत्नी और वह के प्रेम त्रिकोण वाले सम्बन्धों में सबसे कमजोर स्थिति किसकी होती है।
अपने स्वत्व की तलाश में जुटी स्त्रियों के भटकाव की परिणति से अवगत कराता यह उपन्यास स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की बारीकी से पड़ताल करता है। लेखिका ने औरत से व्यक्ति बन जाने की जद्दोजहद को बहुत ही सहज भाषा में अभिव्यक्ति करने का उपक्रम किया है। कथा प्रवाह और पठनीयता की दृष्टि से भी यह उल्लेखनीय कृति है।
मैं और वह
1
प्रतीक्षा किसी इनसान की हो या वस्तु की, होती है बेहद ऊबाऊ। थम और जम-सा जाता है सब कुछ वक्त के काँटे पर नज़रें दौड़ाते-दौड़ाते पस्त हो जाता है दिलो-दिमाग। जिससे बचकर भागना भी मुश्किल होता है और बरदास्त करना भी दुश्वार। हमारी गाड़ी चार घंटे लेट है। प्रतीक्षा के उसी कांटे पर अटके घंटों से बैठे हैं हम। हम यानी मैं और मेरी
प्यारी-प्यारी बच्चियाँ-रितु और मोनू। गर्मी से बेचैन देख रहे हैं बनारस के इस प्लेटफार्म को, जो हमेशा की तरह हलचल और शोर-गुल से अटा पड़ा है। हर तरफ़ चढ़ने-उतरने की अफरा-तफरी। सामानों की रेल-पेल। बक्सों, होल्डालों के साथ यात्रियों की भागम-भाग। साथ में गंगाजल से भरी बोंतलें, प्लास्टिक के डिब्बे, पीतल की गंगाजली। काशी-बनारस। बाबा विश्वनाथ की नगरी। वेदों में वर्णित तीसरी दुनिया। कभी बहती थी। जहाँ वरूणा और अस्सी। अब बह रही है पवित्र, मोक्षदायिनी, उत्तर वाहिनी गंगा।
रेतीला तल की वजह से यहाँ का जल बेहद साफ़-सफ्फाक है। जैसे-जैसे गंगा सागर की तरफ़ बढ़ती जाती है, उसका पानी भी गँदला होता जाता है इसलिए यहाँ से वापसी पर हर यात्री गंगाजल ले जाना नहीं भूलता। ख़ासकर दशाश्वमेघ घाट का जल जो वर्षों-वर्ष रखने के बावजूद भी खराब नहीं होता। गंगाजल के बगैर हिन्दुओं का कोई भी अनुष्ठान पूर्ण नहीं होता, ऐसी मान्यता है।
प्रतीक्षा से उकताकर बच्चियाँ तरबूज खरीद लाई हैं। और उसे खाने में व्यस्त हो गई हैं। मैं पत्रिका उठाती हूँ और उसके पन्ने पलटने लगती हूँ। पढ़ नहीं पाती सामानों की रखवाली, गाड़ी की प्रतीक्षा, सफ़र, भविष्य की फिक्र....दिमाग केन्द्रित नहीं कर पाती।
‘‘बहनजी, कहाँ तक का सफ़र है आपका ?’’
करीब खड़ी एक औरत पूछ रही है।
‘‘पटना तक !’’ अचानक मेरे मुँह से फिसल पड़ता है। हाँलाकि इधर के वर्षों में लोग किसी यात्री से अपना गंतव्य बताने से हिचक रहे हैं। सफ़र में सतर्कता बढ़ गई है। लोग औपचारिकतावश भी किसी से हमप्याला, हमनिवाला बनने का आग्रह नहीं कर रहे...... एक अनजान खौफ, अनजानी दहशत और बेयकीनी कैक्टस की भाँति जाने कहाँ से उग आई है लोगों के अन्दर।
‘‘हम लोग भी पटना जा रहे हैं।’’ वह औरत कन्धे से लटका बैग उतार कर एक तरफ़ डालती है और साथ खड़े पुरुष से शायद उसका पति है, कुछ कहती है, फिर बास्केट से चादर निकालकर बिछाने के बाद धम से उस पर बैठ जाती है। पुरुष बेहद चुस्त और फुर्तीला है। जल्दी-जल्दी सामानों को व्यवस्थित कर रहा है। उसके सामने औरत मोटी और ढीली लग रही है। वह पर्स से रुमाल निकालकर गर्मी को कोसते हुए चेहरे पर फूट आए पसीने को पोंछने लगती है।
गाड़ी आने की इत्तला होती है। कुली लपकता हुआ आता है। बोगी का नम्बर उसे पता है। वह सामानों को उठाता है। कुछ हल्के-फुल्के सामानों को उठाकर हम लोग भी सजग हो जाते हैं। शेष सामानों की देखभाल अपने सहयात्री के ज़िम्मे करती हूँ। उन लोगों के पास भी काफ़ी सामान है।
डिब्बे में कुछ ज्यादा ही चिल्ल-पों मची हैं। सामानों की उठापटक। सीटों को पहचानने की होड़। कुलियों की हाय-तौबा। भीड़ से सरकते हुए किसी तरह हम लोग अपनी सीट तक पहुँचते हैं। कुली सामान रखकर चला जाता है। मैं सामानों को व्यवस्थित करने लगती हूँ। बच्चियाँ खिड़की के करीब बैठकर प्लेटफार्म की गहमा-गहमी का नजारा देखने लगती हैं। गाड़ी चलने में अभी कुछ देर है।
रात की स्याही ने धीरे-धीरे उजाले का अस्तित्व को पूरी तरह अपने आँचल में समेट लिया है। स्टेशन पर टयूब लाइटे रौशन हो गई हैं। प्लेटफार्म पर भीड़ का रेला खत्म ही नहीं हो रहा। अभी कोई गाड़ी यात्रियों को पहाड़ की धुंध की तरह बुहारकर बढ़ती है कि फौरन दूसरी गाड़ी आकर यात्रियों के बगुले को उगल जाती है। फिर वही अफरा-तफरी ...वही हलचल...
बोगी में हलचल कुछ कम होती है। मैं अपने सहयात्रियों पर उचटती-सी नज़र डालती हूँ। सामने की बर्थ पर एक नौजवान जोड़ा बैठा है। लड़की बेहद खूबसूरत है।
और गर्भवती भी। शायद पूरा महीना है। गर्मी से परेशान वह बार-बार कलाई घड़ी देख रही कि कब गाड़ी खुले और राहत मयस्सर हो जून के आखिरी हफ्ते की गर्मी अपने पूरे शबाब पर है। गर्मी से तंग आकर वह लड़के से स्टेशन के स्टॉल पर लटक रहे प्लास्टिक के पंखे खरीद लाने को कहती है। लड़का आज्ञाकारी बच्चे की तरह फौरन नीचे उतरकर स्टॉल की तरफ़ बढ़ जाता है।
साईडवाले बर्थ पर अधेड़ उम्र का एक पुरुष बैठा सिगरेट का पैकेट खोल रहा है। खिलता गोरा रंग, अच्छी सेहत, मुस्कराती हल्की नीली आँखें और छँटी हुई घनी मूँछे....। चेहरे से अगर मूँछे अलग कर दी जाएं तो बिल्कुल सैमुअल लगेगा। कुछ कौधना है पर फौरन इस ख्याल को दिमाग के झटक देना चाहती हूँ यह जानते हुए भी कि ख्वाबों से पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता।
बीते वर्षों में इस अनुभव से बारहाँ दो-चार होती रही हूँ मैं। दिमाग को कहीं और वयस्त करने के इरादे से थर्मस उठाकर ठंडा पानी लाने नीचे उतर जाती हूँ। दिमाग भी किसी मासूम बच्चे की तरह होता है, उसे कहीं और उलझाकर बरगलाया नहीं जा सकता है।
थर्मस कील में लटकाकर सामानों की तरफ़ देखती हूं। सब व्यवस्थित है। खाने के टिफिन पर नज़र डालती हूँ और आश्वस्त हो बैठ जाती हूँ। राँची पहुँचने तक रितु-मोनू के खाने लायक खाना पर्याप्त है। ठंडा पानी तो बीच के स्टेशनों से भी लिया जा सकता है। थैले से पत्रिका निकालती हूँ। सफ़र का बेहतरीन साथी।
‘‘आप मायके जा रही हैं ?’’ अचानक लड़की पूछती है। पलभर को मैं अचकचा जाती हूँ फिर फौरन कहती हूँ -‘‘नहीं।’’
‘‘तो फिर ससुराल जा रही हैं, है न ?’ वह फिर पूछती है। स्वर में जिज्ञासा और भी ‘न’ में सिर हिलाती हूँ और उसके सवालों से बचने के लिए पत्रिका के पन्ने पलटने लगती हूँ।
क्या कहती उससे। क्या जवाब देती उसके सवालों का। सच को फौरन कह देना सम्भव हुआ है कभी किसी के लिए। और अगर सच कह भी दूँ तो क्या यह लड़की जो जीवन के पहले पायदान पर खड़ी है विश्वास कर पाएगी कि औरत के मायके और ससुराल के बीच में कोई नो मेन्स लैण्ड भी होता है
जो इन दोनों से हटकर उसका आश्रम स्थल हो। जो इनसान कभी किसी तूफान से दो-चार नहीं हुआ होता, उसे तूफान की भयानकता का अन्दाजा क्या होगा। किसी तूफान या लहरों का वर्णन सुनना और बात है और दो-चार होना अलग बात। मेरी बेरुखी पर लड़की बुरा-सा मुँह बनाकर लड़के से बुदबुदाकर कुछ कहती है। उसके चेहरे नागवारी का भाव स्पष्ट झलक रहा है।
गाड़ी सीटी देकर सरकने लगी है। पत्रिका से नज़रें हटाकर तेज़ी से पीछे छूट रहे शहर को भरपूर नज़रों से देखती हूँ जो मेरे लिए अब अजनबी बनने जा रहा है। पर ताज्जुब होता है नज़रों से ओझल हो रहे शहर को देख मुझे वैसा कोई एहसास क्यों नहीं हो रहा जैसा कई दिनों से सोच रही थी। न कोई कसक, न खालीपन, न चटपटाहट और न बेचैनी। जबकि इस शहर ने बहुत कुछ निगल लिया मेरा।
बहुत कुछ टूटा और यहाँ आस्था, विश्वास और भ्रम भी। एक दौर ऐसा भी आया है जब मैं खुद से भी बेगानी हो गई। ऐसी बेबसी.....कि याद कर आश्चर्य हो रहा है अभी। यह आश्चर्य कुछ वैसा ही है जैसे भयानक भँवर से उबरे किसी इनसान को होता है। भँवर में हाथ-पाँव मारते, साँसों को बचाए रखने के संघर्ष में उसे याद नहीं रहता, वह कौन है, कहाँ से आया या क्या है। याद रहती तो सिर्फ किनारे पर आने और होश भर जूझने की बात। और जिस वक्त वह किसी तरह किनारे तक पहुँचता है तो बीती स्थिति पर गौर कर चकित रह जाता है कि वह बच कैसे गया ?
गाड़ी कब की रफ्तार पकड़ चुकी है। बनारस कहीं अँधेरे में गुम हो चुका है। बीच के कई छोटे-छोटे स्टेशन गुजर चुके हैं और यह कोई बड़ा स्टेशन है। जहाँ गाड़ी रुकी है। लोग चढ़ रहे हैं। उतर रहे हैं। बिछड़ रहे हैं। बिछड़े रहे हैं। अचानक मुझे ऐसा अहसास होता है जैसे वर्षों से मैं इसी तरह रेल के डिब्बे में बैठी निरन्तर सफ़र कर रही हूँ कुछ पड़ाव इन स्टेशनों की भाँति ही आ-आकर मेरी जिन्दगी में उथल-पुथल मचाते रहे हैं। इन्हीं मुसाफिरों की तरह मेरे चेहरे पर भी कभी पाने की खुशी झलकी है, फिर बिछड़ने का गम व्याप गया है लेकिन सफ़र सदा जारी है......
कलाई घड़ी देखती हूँ। ग्यारह बज रहे हैं। सभी यात्री खाने-पीने से निबटकर अपनी-अपनी बर्थ पर चले गए हैं। रितु-मोनू को खिलाकर लिटाने के बाद खिड़की सलाखों से सर टेके मैं स्याह रात के सन्नाटे में अतीत के फड़फड़ाते पन्ने पलटने लगी हूँ, जहाँ मेरे दर-ब-दर होने की कहानियाँ जुगनुओं की भाँति चमक रही हैं....
जिसमें मेरे छह साल डूब गये हैं... गुजस्ता छह साल। टीसते जख्म की तरह। जख्म भी ऐसा जिसे जितना सहलाती हूँ पीड़ा और बढ़ती जाती है। याद आ रहे हैं वे वक्त, वे पल जब ये खरोंच लगे थे......। ‘‘यादें सुखद, हों या दुखद, होती हैं बहुत ही जिद्दी। उन्हें लाख भूलने की कोशिश करो। दिमाग के पट खोल ताकने-झांकने से बाज नहीं आती।’’ कहा था कभी सुमीता ने। आज उसका शिद्दत से अनुभव हो रहा है। लाख चाह रही हूँ जेहन का पट बन्द कर लूँ....शान्ति से इन मुसाफिरों की तरह सो जाऊँ। नाकामी किसी नटकट बच्चे की तरह मुँह चिढ़ाकर भाग रही है.... छह साल जख्म....टीस रहा है...पल डूब-उभर रहे हैं...
प्यारी-प्यारी बच्चियाँ-रितु और मोनू। गर्मी से बेचैन देख रहे हैं बनारस के इस प्लेटफार्म को, जो हमेशा की तरह हलचल और शोर-गुल से अटा पड़ा है। हर तरफ़ चढ़ने-उतरने की अफरा-तफरी। सामानों की रेल-पेल। बक्सों, होल्डालों के साथ यात्रियों की भागम-भाग। साथ में गंगाजल से भरी बोंतलें, प्लास्टिक के डिब्बे, पीतल की गंगाजली। काशी-बनारस। बाबा विश्वनाथ की नगरी। वेदों में वर्णित तीसरी दुनिया। कभी बहती थी। जहाँ वरूणा और अस्सी। अब बह रही है पवित्र, मोक्षदायिनी, उत्तर वाहिनी गंगा।
रेतीला तल की वजह से यहाँ का जल बेहद साफ़-सफ्फाक है। जैसे-जैसे गंगा सागर की तरफ़ बढ़ती जाती है, उसका पानी भी गँदला होता जाता है इसलिए यहाँ से वापसी पर हर यात्री गंगाजल ले जाना नहीं भूलता। ख़ासकर दशाश्वमेघ घाट का जल जो वर्षों-वर्ष रखने के बावजूद भी खराब नहीं होता। गंगाजल के बगैर हिन्दुओं का कोई भी अनुष्ठान पूर्ण नहीं होता, ऐसी मान्यता है।
प्रतीक्षा से उकताकर बच्चियाँ तरबूज खरीद लाई हैं। और उसे खाने में व्यस्त हो गई हैं। मैं पत्रिका उठाती हूँ और उसके पन्ने पलटने लगती हूँ। पढ़ नहीं पाती सामानों की रखवाली, गाड़ी की प्रतीक्षा, सफ़र, भविष्य की फिक्र....दिमाग केन्द्रित नहीं कर पाती।
‘‘बहनजी, कहाँ तक का सफ़र है आपका ?’’
करीब खड़ी एक औरत पूछ रही है।
‘‘पटना तक !’’ अचानक मेरे मुँह से फिसल पड़ता है। हाँलाकि इधर के वर्षों में लोग किसी यात्री से अपना गंतव्य बताने से हिचक रहे हैं। सफ़र में सतर्कता बढ़ गई है। लोग औपचारिकतावश भी किसी से हमप्याला, हमनिवाला बनने का आग्रह नहीं कर रहे...... एक अनजान खौफ, अनजानी दहशत और बेयकीनी कैक्टस की भाँति जाने कहाँ से उग आई है लोगों के अन्दर।
‘‘हम लोग भी पटना जा रहे हैं।’’ वह औरत कन्धे से लटका बैग उतार कर एक तरफ़ डालती है और साथ खड़े पुरुष से शायद उसका पति है, कुछ कहती है, फिर बास्केट से चादर निकालकर बिछाने के बाद धम से उस पर बैठ जाती है। पुरुष बेहद चुस्त और फुर्तीला है। जल्दी-जल्दी सामानों को व्यवस्थित कर रहा है। उसके सामने औरत मोटी और ढीली लग रही है। वह पर्स से रुमाल निकालकर गर्मी को कोसते हुए चेहरे पर फूट आए पसीने को पोंछने लगती है।
गाड़ी आने की इत्तला होती है। कुली लपकता हुआ आता है। बोगी का नम्बर उसे पता है। वह सामानों को उठाता है। कुछ हल्के-फुल्के सामानों को उठाकर हम लोग भी सजग हो जाते हैं। शेष सामानों की देखभाल अपने सहयात्री के ज़िम्मे करती हूँ। उन लोगों के पास भी काफ़ी सामान है।
डिब्बे में कुछ ज्यादा ही चिल्ल-पों मची हैं। सामानों की उठापटक। सीटों को पहचानने की होड़। कुलियों की हाय-तौबा। भीड़ से सरकते हुए किसी तरह हम लोग अपनी सीट तक पहुँचते हैं। कुली सामान रखकर चला जाता है। मैं सामानों को व्यवस्थित करने लगती हूँ। बच्चियाँ खिड़की के करीब बैठकर प्लेटफार्म की गहमा-गहमी का नजारा देखने लगती हैं। गाड़ी चलने में अभी कुछ देर है।
रात की स्याही ने धीरे-धीरे उजाले का अस्तित्व को पूरी तरह अपने आँचल में समेट लिया है। स्टेशन पर टयूब लाइटे रौशन हो गई हैं। प्लेटफार्म पर भीड़ का रेला खत्म ही नहीं हो रहा। अभी कोई गाड़ी यात्रियों को पहाड़ की धुंध की तरह बुहारकर बढ़ती है कि फौरन दूसरी गाड़ी आकर यात्रियों के बगुले को उगल जाती है। फिर वही अफरा-तफरी ...वही हलचल...
बोगी में हलचल कुछ कम होती है। मैं अपने सहयात्रियों पर उचटती-सी नज़र डालती हूँ। सामने की बर्थ पर एक नौजवान जोड़ा बैठा है। लड़की बेहद खूबसूरत है।
और गर्भवती भी। शायद पूरा महीना है। गर्मी से परेशान वह बार-बार कलाई घड़ी देख रही कि कब गाड़ी खुले और राहत मयस्सर हो जून के आखिरी हफ्ते की गर्मी अपने पूरे शबाब पर है। गर्मी से तंग आकर वह लड़के से स्टेशन के स्टॉल पर लटक रहे प्लास्टिक के पंखे खरीद लाने को कहती है। लड़का आज्ञाकारी बच्चे की तरह फौरन नीचे उतरकर स्टॉल की तरफ़ बढ़ जाता है।
साईडवाले बर्थ पर अधेड़ उम्र का एक पुरुष बैठा सिगरेट का पैकेट खोल रहा है। खिलता गोरा रंग, अच्छी सेहत, मुस्कराती हल्की नीली आँखें और छँटी हुई घनी मूँछे....। चेहरे से अगर मूँछे अलग कर दी जाएं तो बिल्कुल सैमुअल लगेगा। कुछ कौधना है पर फौरन इस ख्याल को दिमाग के झटक देना चाहती हूँ यह जानते हुए भी कि ख्वाबों से पीछा छुड़ाना आसान नहीं होता।
बीते वर्षों में इस अनुभव से बारहाँ दो-चार होती रही हूँ मैं। दिमाग को कहीं और वयस्त करने के इरादे से थर्मस उठाकर ठंडा पानी लाने नीचे उतर जाती हूँ। दिमाग भी किसी मासूम बच्चे की तरह होता है, उसे कहीं और उलझाकर बरगलाया नहीं जा सकता है।
थर्मस कील में लटकाकर सामानों की तरफ़ देखती हूं। सब व्यवस्थित है। खाने के टिफिन पर नज़र डालती हूँ और आश्वस्त हो बैठ जाती हूँ। राँची पहुँचने तक रितु-मोनू के खाने लायक खाना पर्याप्त है। ठंडा पानी तो बीच के स्टेशनों से भी लिया जा सकता है। थैले से पत्रिका निकालती हूँ। सफ़र का बेहतरीन साथी।
‘‘आप मायके जा रही हैं ?’’ अचानक लड़की पूछती है। पलभर को मैं अचकचा जाती हूँ फिर फौरन कहती हूँ -‘‘नहीं।’’
‘‘तो फिर ससुराल जा रही हैं, है न ?’ वह फिर पूछती है। स्वर में जिज्ञासा और भी ‘न’ में सिर हिलाती हूँ और उसके सवालों से बचने के लिए पत्रिका के पन्ने पलटने लगती हूँ।
क्या कहती उससे। क्या जवाब देती उसके सवालों का। सच को फौरन कह देना सम्भव हुआ है कभी किसी के लिए। और अगर सच कह भी दूँ तो क्या यह लड़की जो जीवन के पहले पायदान पर खड़ी है विश्वास कर पाएगी कि औरत के मायके और ससुराल के बीच में कोई नो मेन्स लैण्ड भी होता है
जो इन दोनों से हटकर उसका आश्रम स्थल हो। जो इनसान कभी किसी तूफान से दो-चार नहीं हुआ होता, उसे तूफान की भयानकता का अन्दाजा क्या होगा। किसी तूफान या लहरों का वर्णन सुनना और बात है और दो-चार होना अलग बात। मेरी बेरुखी पर लड़की बुरा-सा मुँह बनाकर लड़के से बुदबुदाकर कुछ कहती है। उसके चेहरे नागवारी का भाव स्पष्ट झलक रहा है।
गाड़ी सीटी देकर सरकने लगी है। पत्रिका से नज़रें हटाकर तेज़ी से पीछे छूट रहे शहर को भरपूर नज़रों से देखती हूँ जो मेरे लिए अब अजनबी बनने जा रहा है। पर ताज्जुब होता है नज़रों से ओझल हो रहे शहर को देख मुझे वैसा कोई एहसास क्यों नहीं हो रहा जैसा कई दिनों से सोच रही थी। न कोई कसक, न खालीपन, न चटपटाहट और न बेचैनी। जबकि इस शहर ने बहुत कुछ निगल लिया मेरा।
बहुत कुछ टूटा और यहाँ आस्था, विश्वास और भ्रम भी। एक दौर ऐसा भी आया है जब मैं खुद से भी बेगानी हो गई। ऐसी बेबसी.....कि याद कर आश्चर्य हो रहा है अभी। यह आश्चर्य कुछ वैसा ही है जैसे भयानक भँवर से उबरे किसी इनसान को होता है। भँवर में हाथ-पाँव मारते, साँसों को बचाए रखने के संघर्ष में उसे याद नहीं रहता, वह कौन है, कहाँ से आया या क्या है। याद रहती तो सिर्फ किनारे पर आने और होश भर जूझने की बात। और जिस वक्त वह किसी तरह किनारे तक पहुँचता है तो बीती स्थिति पर गौर कर चकित रह जाता है कि वह बच कैसे गया ?
गाड़ी कब की रफ्तार पकड़ चुकी है। बनारस कहीं अँधेरे में गुम हो चुका है। बीच के कई छोटे-छोटे स्टेशन गुजर चुके हैं और यह कोई बड़ा स्टेशन है। जहाँ गाड़ी रुकी है। लोग चढ़ रहे हैं। उतर रहे हैं। बिछड़ रहे हैं। बिछड़े रहे हैं। अचानक मुझे ऐसा अहसास होता है जैसे वर्षों से मैं इसी तरह रेल के डिब्बे में बैठी निरन्तर सफ़र कर रही हूँ कुछ पड़ाव इन स्टेशनों की भाँति ही आ-आकर मेरी जिन्दगी में उथल-पुथल मचाते रहे हैं। इन्हीं मुसाफिरों की तरह मेरे चेहरे पर भी कभी पाने की खुशी झलकी है, फिर बिछड़ने का गम व्याप गया है लेकिन सफ़र सदा जारी है......
कलाई घड़ी देखती हूँ। ग्यारह बज रहे हैं। सभी यात्री खाने-पीने से निबटकर अपनी-अपनी बर्थ पर चले गए हैं। रितु-मोनू को खिलाकर लिटाने के बाद खिड़की सलाखों से सर टेके मैं स्याह रात के सन्नाटे में अतीत के फड़फड़ाते पन्ने पलटने लगी हूँ, जहाँ मेरे दर-ब-दर होने की कहानियाँ जुगनुओं की भाँति चमक रही हैं....
जिसमें मेरे छह साल डूब गये हैं... गुजस्ता छह साल। टीसते जख्म की तरह। जख्म भी ऐसा जिसे जितना सहलाती हूँ पीड़ा और बढ़ती जाती है। याद आ रहे हैं वे वक्त, वे पल जब ये खरोंच लगे थे......। ‘‘यादें सुखद, हों या दुखद, होती हैं बहुत ही जिद्दी। उन्हें लाख भूलने की कोशिश करो। दिमाग के पट खोल ताकने-झांकने से बाज नहीं आती।’’ कहा था कभी सुमीता ने। आज उसका शिद्दत से अनुभव हो रहा है। लाख चाह रही हूँ जेहन का पट बन्द कर लूँ....शान्ति से इन मुसाफिरों की तरह सो जाऊँ। नाकामी किसी नटकट बच्चे की तरह मुँह चिढ़ाकर भाग रही है.... छह साल जख्म....टीस रहा है...पल डूब-उभर रहे हैं...
2
उस साल दिसम्बर कुछ ज्यादा ही ठण्ड लेकर आया था। दस-ग्यारह बजे तक तो सारा शहर कोहरे की चादर से ढँका रहता था। बारह-एक बजे जाकर कहीं धूप निकलती। पीली मीठी धूप या तपिश विहीन। और चार बजते-बजते बूढ़ा उदास सूरज शाम की स्याह चादर में मुँह छिपाकर आराम करने चल देता। इसी के साथ ही ठिठुर जाता शहर भी। लोगों का कहना था- ‘‘विगत बीस वर्षों बाद जाड़े के आरम्भ में ही ऐसी ठंड पड़ रही है।’’
आज कुछ जल्दी धुंध छँट गई है और गुनगुनाती धूप चारों तरफ़ पसर गई है। बहुत दिनों से स्वेटर अधूरे पड़े हैं। नाश्ता से निबटकर मशीन पर बैठ गई हूँ यह ठानकर कि आज स्वेटरों को तैयार कर लेना है। ग्राहकों के तगादे बढ़ गए हैं। चाहते हुए भी पिछले दिनों कुछ नहीं कर पाई हूँ। जैसे ज्यादा गर्मी में काम नहीं हो पाता वैसे ही ज्यादा ठंड भी आलसी बना देती है इनसान को। बच्चियाँ स्कूल चली गई हैं। जब तक वे आएँगे मैं भी काम से फारिग हो जाऊँगी।
‘‘मेमसाहब चाय !’’ सुमीरन खड़ा है, चाय की ट्रे लिए। उसे पता है ठंढ़े मौसम में मुझे चाय बेहद अच्छी लगती है। और दिन या रात के खाने के बाद अगर एक प्याला कॉफी मिल जाए तो मेरा मूड फ्रेस हो जाता है। चार वर्षों के साथ ने सुमीरन को मेरी पसन्द और मिजाज से वाकिफ करा दिया है और वह अपनी ड्यूटी के प्रति सजग भी है।
‘‘रख दो !’’ मैं स्टूल की तरफ़ इशारा करती हूँ।
‘‘मेम साहब बगलवाले फ्लैट में नया किरायेदार आया है।’’ वह उत्साह से कहता है। सुनकर मुझे ताज्जुब नहीं होता। चुलबुले सुमीरन को जाने मोहल्ले भर की खबर कैसे मिल जाती है ? किसके घर में क्या हो रहा है ? कौन कब कहाँ गया ? किसके घर कौन आया ? कौन क्या कर रहा है ?
इसलिए यह भी मेरे लिए मात्र एक सूचना है। हाँ, बच्चियाँ इस ख़बर से जरूर खुशी होगी। महीनों से वह फ्लैट खाली पड़ा है। इससे पहले इसमें जो किरायेदार थे, उनके बच्चों से रितु मोनू की काफ़ी दोस्ती थी। उनके यहाँ से जाने के बाद दोनों अकेली पड़ गई हैं। सामनेवाला फ्लैट सुमीता है। सुमीता मेरी इकलौती सहेली। उसका इकलौता बेटा सोनू भी पिलानी में पढ़ता है। रितु-मोनू अक्सर सुमीता से झगड़ती रहती हैं।
चिढ़कर कहती हैं- ‘‘आंटी आप भी ग़जब हो, इतने छोटे सोनू को इतनी दूर भेज दिया ! उसका एडमीशन भी यहीं करवा दो न।’’ सोनू उन दोनों का प्यारा दोस्त है। उन लोगों की बातें सुन सुमीता हँस देती है। उन्हें आश्वासन देती है कि जल्दी ही सोनू यहाँ आ जाएगा। तब दोनों उनकी जान छोड़ती हैं।
‘‘ठीक है, जाओ। खाना जल्दी बना लो।’’ सुमीरन को भेज चाय का प्याला उठाती हूँ और चुस्की लेने लगती हूँ। आराम से चुस्की लेते हुए चाय पीने का आनन्द ही कुछ और है लेकिन मेरी इस आदत से कभी-कभी सुमीता झल्लाकर कहती है-‘‘चाय पीते वक्त तुम्हें समय का भान ही नहीं रहता, जितनी देर में तुम चाय पीती हो उतनी देर में कितना काम निबटाया जा सकता है।’’ उसकी झल्लाहट पर मुझे हँसी आ जाती है। उसे चिढ़ाते हुए कहती हूँ-
आज कुछ जल्दी धुंध छँट गई है और गुनगुनाती धूप चारों तरफ़ पसर गई है। बहुत दिनों से स्वेटर अधूरे पड़े हैं। नाश्ता से निबटकर मशीन पर बैठ गई हूँ यह ठानकर कि आज स्वेटरों को तैयार कर लेना है। ग्राहकों के तगादे बढ़ गए हैं। चाहते हुए भी पिछले दिनों कुछ नहीं कर पाई हूँ। जैसे ज्यादा गर्मी में काम नहीं हो पाता वैसे ही ज्यादा ठंड भी आलसी बना देती है इनसान को। बच्चियाँ स्कूल चली गई हैं। जब तक वे आएँगे मैं भी काम से फारिग हो जाऊँगी।
‘‘मेमसाहब चाय !’’ सुमीरन खड़ा है, चाय की ट्रे लिए। उसे पता है ठंढ़े मौसम में मुझे चाय बेहद अच्छी लगती है। और दिन या रात के खाने के बाद अगर एक प्याला कॉफी मिल जाए तो मेरा मूड फ्रेस हो जाता है। चार वर्षों के साथ ने सुमीरन को मेरी पसन्द और मिजाज से वाकिफ करा दिया है और वह अपनी ड्यूटी के प्रति सजग भी है।
‘‘रख दो !’’ मैं स्टूल की तरफ़ इशारा करती हूँ।
‘‘मेम साहब बगलवाले फ्लैट में नया किरायेदार आया है।’’ वह उत्साह से कहता है। सुनकर मुझे ताज्जुब नहीं होता। चुलबुले सुमीरन को जाने मोहल्ले भर की खबर कैसे मिल जाती है ? किसके घर में क्या हो रहा है ? कौन कब कहाँ गया ? किसके घर कौन आया ? कौन क्या कर रहा है ?
इसलिए यह भी मेरे लिए मात्र एक सूचना है। हाँ, बच्चियाँ इस ख़बर से जरूर खुशी होगी। महीनों से वह फ्लैट खाली पड़ा है। इससे पहले इसमें जो किरायेदार थे, उनके बच्चों से रितु मोनू की काफ़ी दोस्ती थी। उनके यहाँ से जाने के बाद दोनों अकेली पड़ गई हैं। सामनेवाला फ्लैट सुमीता है। सुमीता मेरी इकलौती सहेली। उसका इकलौता बेटा सोनू भी पिलानी में पढ़ता है। रितु-मोनू अक्सर सुमीता से झगड़ती रहती हैं।
चिढ़कर कहती हैं- ‘‘आंटी आप भी ग़जब हो, इतने छोटे सोनू को इतनी दूर भेज दिया ! उसका एडमीशन भी यहीं करवा दो न।’’ सोनू उन दोनों का प्यारा दोस्त है। उन लोगों की बातें सुन सुमीता हँस देती है। उन्हें आश्वासन देती है कि जल्दी ही सोनू यहाँ आ जाएगा। तब दोनों उनकी जान छोड़ती हैं।
‘‘ठीक है, जाओ। खाना जल्दी बना लो।’’ सुमीरन को भेज चाय का प्याला उठाती हूँ और चुस्की लेने लगती हूँ। आराम से चुस्की लेते हुए चाय पीने का आनन्द ही कुछ और है लेकिन मेरी इस आदत से कभी-कभी सुमीता झल्लाकर कहती है-‘‘चाय पीते वक्त तुम्हें समय का भान ही नहीं रहता, जितनी देर में तुम चाय पीती हो उतनी देर में कितना काम निबटाया जा सकता है।’’ उसकी झल्लाहट पर मुझे हँसी आ जाती है। उसे चिढ़ाते हुए कहती हूँ-
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