कविता संग्रह >> अधर के द्वार पर अधर के द्वार परबाल गोविन्द द्विवेदी
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इस संकलन में कवि डॉ. बालगोविन्द द्विवेदी की इक्यावन कवितायें संग्रहीत हैं। प्रत्येक कविता कवि की परिवेश के प्रति संवेदनशीलता और जीवन्तता का सकारात्मक पक्ष प्रस्तुत करती है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत संग्रह में इक्यावन कवितायें हैं। सन् 94 ई. तक, मैंने जितनी
कवितायें लिखी हैं, हिन्दी प्रचारिणी समिति, कानपुर उन्हें चार संग्रहों
(आने दो शब्दों को, अधर के द्वार, आस्था के फूलों से, पराग रंग भरने दो)
में प्रकाशित कर रही है। मैं अपनी रचनाओं का कालक्रम बता सकने में स्वयं
को असमर्थ पा रहा हूं। किन्तु इतना जरूर याद है कि मेरे लेखन का प्रारम्भ
सन् 1962 ई. की शिशिर ऋतु है। रोचक घटना है—मैंने गुप्त जी की
‘भारत-भारती’ आद्योपान्त पढ़ी, प्रभावित हुआ और अंतस
से कविता
फूट पड़ी। मेरे अग्रज डॉ. शिवगोविन्द जी ने पढ़कर पिताजी को सुनाया !
उन्होंने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया। पूज्य पिता श्री रामप्यारे जी के
साहित्य, दर्शन और आयुर्वेद प्रिय विषय हैं। मेरे पितामाह श्री शिवसागर जी
संस्कृत, आयुर्वेद के विद्वान एवं साहित्य-मर्मज्ञ थे। यही कारण था कि
मुझे घर में ही अनेक ग्रन्थ पढ़ने को मिलने लगे और विज्ञान के विद्यार्थी
की रगों में साहित्य की भूमिका बनती रही।
मेरा स्फुट लेखन कार्य, विद्यार्थी-जीवन में सतत चलता रहा। किन्तु यथेष्ठ मार्ग-दर्शन मिला-डॉ. हरि प्रसाद जी शुक्ल ‘अकिंचन’ से और परवान चढ़ाया डॉ. श्याम नारायण पाण्डेय ने। जहाँ मैं डॉ. मुंशीराम शर्मा ‘सोम’, डॉ. प्रेमनारायण शुक्ल और डॉ. बैजनाथ गुप्त की प्रेरणाओं का ऋणी हूँ, वहीं मैं, डॉ. बृजलाल वर्मा, डॉ. लक्ष्मीशंकर मिश्र ‘निशंक’, प्रो. सेवक वात्स्यायन, डॉ. रामस्वरूप त्रिपाठी, डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित, डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय, डॉ. प्रतीक मिश्र, डॉ. विष्णुदत्त, द्विवेदी, डॉ. कपिल देव पाण्डेय और डॉ. महेश मिश्र ‘विधु’ जैसे सुधी समीक्षकों और विद्वानों द्वारा सृजन को दिशा देने के लिए आभारी रहूँगा।
अंत में, मैं अपने जन्म स्थल रारी ग्राम की सोंधी माटी और ग्रामीण परिवेश को नमन करता हूँ, जिसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि (रामलीला, नाटक, नौटंकी आर्य-समाजी जलसा, मोहर्रम और उर्स) ने मुझे साहित्यकार बनने की प्रेरणा दी।
मेरा स्फुट लेखन कार्य, विद्यार्थी-जीवन में सतत चलता रहा। किन्तु यथेष्ठ मार्ग-दर्शन मिला-डॉ. हरि प्रसाद जी शुक्ल ‘अकिंचन’ से और परवान चढ़ाया डॉ. श्याम नारायण पाण्डेय ने। जहाँ मैं डॉ. मुंशीराम शर्मा ‘सोम’, डॉ. प्रेमनारायण शुक्ल और डॉ. बैजनाथ गुप्त की प्रेरणाओं का ऋणी हूँ, वहीं मैं, डॉ. बृजलाल वर्मा, डॉ. लक्ष्मीशंकर मिश्र ‘निशंक’, प्रो. सेवक वात्स्यायन, डॉ. रामस्वरूप त्रिपाठी, डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित, डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय, डॉ. प्रतीक मिश्र, डॉ. विष्णुदत्त, द्विवेदी, डॉ. कपिल देव पाण्डेय और डॉ. महेश मिश्र ‘विधु’ जैसे सुधी समीक्षकों और विद्वानों द्वारा सृजन को दिशा देने के लिए आभारी रहूँगा।
अंत में, मैं अपने जन्म स्थल रारी ग्राम की सोंधी माटी और ग्रामीण परिवेश को नमन करता हूँ, जिसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि (रामलीला, नाटक, नौटंकी आर्य-समाजी जलसा, मोहर्रम और उर्स) ने मुझे साहित्यकार बनने की प्रेरणा दी।
बालगोविन्द द्विवेदी
प्रकाशकीय
प्रस्तुत काव्य-संकलन का प्रकाशन ‘हिन्दी प्रचारिणी समिति,
कानपुर
कर रही है। इस संकलन में कवि डॉ. बालगोविन्द द्विवेदी की इक्यावन कवितायें
संग्रहीत हैं। प्रत्येक कविता कवि की परिवेश के प्रति संवेदनशीलता और
जीवन्तता का सकारात्मक पक्ष प्रस्तुत करती है। कवि ने निजी प्रेरणाओं,
भावावेगों और कल्पनाओं की भूमि पर जो काव्य-चित्र प्रस्तुत किये हैं वे
कथ्य और शिल्प की दृष्टि से उच्च्कोटि के हैं। डॉ. द्विवेदी की कवितायें
सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना का स्त्रोत हैं।
मैं मानवतावादी दृष्टि को बल प्रदान करने वाली इस कृति और सारस्वत-साधना के लिए कवि को साधुवाद देते हुये हार्दिक कामना करता हूँ कि वह अपने सतत सृजन से हिन्दी-साहित्य का भण्डार भरते रहेंगे। जय हिन्दी, जय देवनागरी।
मैं मानवतावादी दृष्टि को बल प्रदान करने वाली इस कृति और सारस्वत-साधना के लिए कवि को साधुवाद देते हुये हार्दिक कामना करता हूँ कि वह अपने सतत सृजन से हिन्दी-साहित्य का भण्डार भरते रहेंगे। जय हिन्दी, जय देवनागरी।
डॉ. राजीव रंजन पाण्डेय
प्ररोचना
विचार धारा की दृष्टि से हिन्दी कविता का वर्तमान समकालीन कविता के नाम से
अभिधेय है। समकालीन कविता अर्थात् ऐसी कविता जो परम्परा से अविच्छिन्न रह
कर अपने परिवेश के प्रति जागरुक और संवेदनशील हो। सातवें दशक के बाद
हिन्दी कविता में यह बदलाव आया। 1960 से 70 के दशक में कविता समाज और
राजनीति को लेकर जो एक विद्रोह पनप रहा था, उस पर कुछ अंकुश लगा और उसके
साथ ही प्रयोगवाद से नयी कविता के दौर तक नये के नाम पर पश्चिम के
अंधानुकरण पर भी विराम लगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि समकालीन कविता इनका
प्रतिषेध करती।
समकालीन कविता ने शिल्प की दृष्टि से इस नवीनता को सहज रूप में स्वीकार किया पर उसमें विचार एवं संवेदना का स्वर मौलिक है। समकालीन कवि न तो फ्रायड और सार्त्र की सौगंध खाता है, न नये तेवर के नाम पर अश्लील या भदेश भाषा का प्रयोग करता। वह परिवेशजन्य विकृतियों का संकेत भी संयत भाषा से देता है। वह अपने समय, समाज और उत्तरदायित्व के प्रति सजग होने के साथ ही अपने साहित्यकार और साहित्य के शिल्प के प्रति भी सचेष्ट है। इसलिए समकालीन कवि कविता में विचार को प्रमुखता देने के बावजूद उसे निबंध या गद्य मानने के लिए विवश नहीं है। आज की कविता व्यवस्था के प्रति सकारात्मक है, किन्तु उसके साथ ही उसमें आम आदमी के प्रति इतनी संवेदनशीलता भी है कि वह उसके दर्द को सहला सके, उसे केवल वैचारिक उत्तेजना देकर इतिश्री न करना आज की कविता की महत्तर उपलब्धि है।
तात्विक दृष्टि से समकालीन कविता के चर्चित नामों के अलावा जो नये कवि सामने आ रहे हैं, उनमें यह जागरुकता अधिक है। इधर ऐसे जिन कवियों की रचनायें सामने आयीं, उनमें डॉ. बाल गोविन्द द्विवेदी अपनी चार रचनाओं से एक नयी संभावना जगाने में सफल रहे हैं। ‘आने दो शब्दों को’ से रचना यात्रा प्रारम्भ करने वाले डॉ. द्विवेदी मूलतः विज्ञान के विद्यार्थी और पेशे से अध्यापक हैं। इसके बावजूद साहित्य उनकी चेतना और सामाजिक सजगता की अभिव्यक्ति का सहज साधन है। उनमें एक ओर राष्ट्रीय चेतना का स्वर मिलता है, तो दूसरी ओर उनके गीतों में प्रेम एवं वियोग का माधुर्य है। ये काव्य के परम्परागत स्वरूप को ही संकेतित करते हैं। द्विवेदी जी इससे आगे अपने वर्तमान को जब अपनी कविताओं में जीते हैं, तो उनका एक नया रूप पाठक के सामने आता है। अपने इस रूप में वे समसामयिक यथार्थ को एक वैज्ञानिक के रूप में मूल्यांकित करते हैं और एक कवि के रूप में उसे संवेद्य बनाते हैं। उनके प्रस्तुत रचना संग्रह ‘अधर के द्वार पर’ यह सामाजिक सजगता व्यंग्यात्मक रूप में मुखर हुई है। राजनीतिक, गृद्धता, भ्रष्टाचार, सामाजिक शोषण आदि का कवि ने बेबाक चित्रण किया है। उनका समकालीन बोध इस रूप में आक्रामक है।
डॉ. द्वेवेदी ने अपने इस संग्रह की रचनाओं में जहाँ एक ओर ग्रामीण परिवेश का चित्रण करके माटी की महक से आज के यांत्रिक मानव को जोड़ने का प्रयास किया है, वहीं संस्कृति और मानव मूल्यों की उपेक्षा कर संकेत भी अपनी अधिकांश रचनाओं में दिया है। रचनाकार की चिन्ता उन आदर्शों के प्रति है, जिन्हें हम नारों में तो जी रहे हैं किन्तु व्यवहार में नहीं। कवि कहता है—
समकालीन कविता ने शिल्प की दृष्टि से इस नवीनता को सहज रूप में स्वीकार किया पर उसमें विचार एवं संवेदना का स्वर मौलिक है। समकालीन कवि न तो फ्रायड और सार्त्र की सौगंध खाता है, न नये तेवर के नाम पर अश्लील या भदेश भाषा का प्रयोग करता। वह परिवेशजन्य विकृतियों का संकेत भी संयत भाषा से देता है। वह अपने समय, समाज और उत्तरदायित्व के प्रति सजग होने के साथ ही अपने साहित्यकार और साहित्य के शिल्प के प्रति भी सचेष्ट है। इसलिए समकालीन कवि कविता में विचार को प्रमुखता देने के बावजूद उसे निबंध या गद्य मानने के लिए विवश नहीं है। आज की कविता व्यवस्था के प्रति सकारात्मक है, किन्तु उसके साथ ही उसमें आम आदमी के प्रति इतनी संवेदनशीलता भी है कि वह उसके दर्द को सहला सके, उसे केवल वैचारिक उत्तेजना देकर इतिश्री न करना आज की कविता की महत्तर उपलब्धि है।
तात्विक दृष्टि से समकालीन कविता के चर्चित नामों के अलावा जो नये कवि सामने आ रहे हैं, उनमें यह जागरुकता अधिक है। इधर ऐसे जिन कवियों की रचनायें सामने आयीं, उनमें डॉ. बाल गोविन्द द्विवेदी अपनी चार रचनाओं से एक नयी संभावना जगाने में सफल रहे हैं। ‘आने दो शब्दों को’ से रचना यात्रा प्रारम्भ करने वाले डॉ. द्विवेदी मूलतः विज्ञान के विद्यार्थी और पेशे से अध्यापक हैं। इसके बावजूद साहित्य उनकी चेतना और सामाजिक सजगता की अभिव्यक्ति का सहज साधन है। उनमें एक ओर राष्ट्रीय चेतना का स्वर मिलता है, तो दूसरी ओर उनके गीतों में प्रेम एवं वियोग का माधुर्य है। ये काव्य के परम्परागत स्वरूप को ही संकेतित करते हैं। द्विवेदी जी इससे आगे अपने वर्तमान को जब अपनी कविताओं में जीते हैं, तो उनका एक नया रूप पाठक के सामने आता है। अपने इस रूप में वे समसामयिक यथार्थ को एक वैज्ञानिक के रूप में मूल्यांकित करते हैं और एक कवि के रूप में उसे संवेद्य बनाते हैं। उनके प्रस्तुत रचना संग्रह ‘अधर के द्वार पर’ यह सामाजिक सजगता व्यंग्यात्मक रूप में मुखर हुई है। राजनीतिक, गृद्धता, भ्रष्टाचार, सामाजिक शोषण आदि का कवि ने बेबाक चित्रण किया है। उनका समकालीन बोध इस रूप में आक्रामक है।
डॉ. द्वेवेदी ने अपने इस संग्रह की रचनाओं में जहाँ एक ओर ग्रामीण परिवेश का चित्रण करके माटी की महक से आज के यांत्रिक मानव को जोड़ने का प्रयास किया है, वहीं संस्कृति और मानव मूल्यों की उपेक्षा कर संकेत भी अपनी अधिकांश रचनाओं में दिया है। रचनाकार की चिन्ता उन आदर्शों के प्रति है, जिन्हें हम नारों में तो जी रहे हैं किन्तु व्यवहार में नहीं। कवि कहता है—
पाश्चात्य सभ्यता का
विषधर विषैला फणि
आहिस्ता-आहिस्ता
मलय समीकरण में
तीक्ष्ण तरल घोल रहा।
विषधर विषैला फणि
आहिस्ता-आहिस्ता
मलय समीकरण में
तीक्ष्ण तरल घोल रहा।
कवि की अधिकांश कविताओं में यह चिन्ता मुखर हुई है। इसके लिए उन्होंने
पाश्चात्य सभ्यता और समकालीन राजनीति को उत्तरदायी ठहराया है। हमारे समाज
में राजनीतिक संकीर्णता और आर्थिक शोषण ने इसे बल दिया है। कवि इनके प्रति
आक्रामक है। समकालीन कविता की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि आज कविता की
प्रतिपक्ष में है क्योंकि समाज का हर वर्ग सुविधाभोगी हो गया है। डॉ.
द्विवेदी की रचनायें इस प्रतिपक्ष की भूमिका में किसी समकालीन कवि से पीछे
नहीं हैं। उन्होंने जहाँ एक ओर ‘‘चेतना भी काँपती है,
नेह का
दीपक दुबक कर छिप गया है, संवेदना शून्य होकर, अंहिंसा की व्याख्या
परिभाषा जल जाती है, मानव हित चिन्तन की कैसी परिभाषा है, किन्तु नीतियाँ
दफन हो गयीं।’’ जैसी कविताओं में व्यवस्था पर व्यंग्य
किया
है, वहीं—‘हे ! विकास तेरा स्वागत, नेह का व्याकरण,
एकता के
मूल मंत्रक, व्यापक हो मानव संस्कृति’ में आशावादी दृष्टि का
परिचय
दिया है और कहीं से भी कवि निराश नहीं है। डॉ. द्विवेदी की कविताओं की यह
संभावना ही उनके कवि के रूप के प्रति एक संभावना जगाती है।
डॉ. लक्ष्मीकान्त पाण्डेय
हे ! अदेखी शक्ति
किस कृति का यह सृजन,
अनुपम प्रकृति
भूँ-चाँद तारे।
दे रहे
मन-नयन सुख,
सूरज-गगन-हिम
जलद कारे।
हैं ऋणी
उसशक्ति के,
जिसने रचा-
मन, प्राण-वाणी।
है भरी संचेतना,
संज्ञान की पावन निशानी।।
हे ! अदेखीशक्ति
ऊर्जा-संचरण
उलझी कहानी
सृष्टि का सौन्दर्य
भव-विस्तार
अनुबूझी कहानी
अनुपम प्रकृति
भूँ-चाँद तारे।
दे रहे
मन-नयन सुख,
सूरज-गगन-हिम
जलद कारे।
हैं ऋणी
उसशक्ति के,
जिसने रचा-
मन, प्राण-वाणी।
है भरी संचेतना,
संज्ञान की पावन निशानी।।
हे ! अदेखीशक्ति
ऊर्जा-संचरण
उलझी कहानी
सृष्टि का सौन्दर्य
भव-विस्तार
अनुबूझी कहानी
नेह का व्याकरण
ईश का सुन्दर खिलौना
श्रेष्ठ मानव-सृष्टि वंदित
त्याज्य है हिंसा-घृणा
सद्भावना है-
स्वयं मण्डित ।।
बह रहा-
संगीत सुमधुरं,
कौन झूमेगा नहीं ?
धार करुणा की बहे,
मन कौन ? डूबेगा नहीं।।
प्रेम की है
मौन भाषा,
सभ्यता का आचरण।
समझ लेता है
विहंगम,
नेह का हर व्याकरण
श्रेष्ठ मानव-सृष्टि वंदित
त्याज्य है हिंसा-घृणा
सद्भावना है-
स्वयं मण्डित ।।
बह रहा-
संगीत सुमधुरं,
कौन झूमेगा नहीं ?
धार करुणा की बहे,
मन कौन ? डूबेगा नहीं।।
प्रेम की है
मौन भाषा,
सभ्यता का आचरण।
समझ लेता है
विहंगम,
नेह का हर व्याकरण
मिलन बेला
सत्य का पथ कंटकों से पूर्ण,
राही तू अकेला।
चेतना का स्वर न भटके,
असत का गुमराह तम,
पगडंडियों का यह झमेला
राह में पद चिह्न विरले,
द्वन्द्व का अवसाद घन सा;
संस्कारित तू पथिक,
संत्रास का घिर रहा मेला।
मोह का सागर अगम,
पुल आस्था-विश्वास का;
दोलनों से है प्रकम्पित,
भ्रान्तियों का विषम रेला।
अनगिनत लहरें उदधि की,
बूँद जाकर मिल रही है;
ज्वार का सुन्दर समय,
लो ! आ गई है मिलन बेला।
आ गई फिर मिलन बेला।।
राही तू अकेला।
चेतना का स्वर न भटके,
असत का गुमराह तम,
पगडंडियों का यह झमेला
राह में पद चिह्न विरले,
द्वन्द्व का अवसाद घन सा;
संस्कारित तू पथिक,
संत्रास का घिर रहा मेला।
मोह का सागर अगम,
पुल आस्था-विश्वास का;
दोलनों से है प्रकम्पित,
भ्रान्तियों का विषम रेला।
अनगिनत लहरें उदधि की,
बूँद जाकर मिल रही है;
ज्वार का सुन्दर समय,
लो ! आ गई है मिलन बेला।
आ गई फिर मिलन बेला।।
स्मृति के द्वार पर
मेरा है
मुझको लौटा दे कोई
गाँव की गलियों में
अनछुई कलियों में
खोये हुए बचपन
लड़कपन की यादें।
ठिठुरन में, ठंड में,
तुषारों की धुंध में
खेतों-खलिहानों में काटी गयी रातें।
सावन के झूलों में
सरिता के कूलों में
ममता की छाँव तले भीगी बरसातें
बौराई अमराई में
महुआ रस भीनी
तितली, गिलहरी से कई बातें।
गोफला-गुलेल में
पिरोया सरल बचपन
कबड्डी के खेल में टूटी सांसें।
होली के रंग में, किशोरी के संग में,
फाग औ’ अबीर में नहाई रंगी रातें।
नौटंकी-नाटक में
मेलों के चाटक में
राम-परशुराम में डूबी हुई आँखें ।
बहना की राखी में
साथी की पाती में
झिड़की भरे प्यार में समाई हुई आसें।
स्मृति के द्वार पर
दस्तक दे जाती हैं
अयाचित, उनींदी, अनगिनत श्वासें।
मानस के सागर पर
उठती तरंगें
अचेतन आंदोलित हो भरता उसांसें।
है सूरज एक, ऊर्जा-स्त्रोत, दिक्-मण्डल वही है।
परिधि में घूमती-घूर्णित धरा में रह रहे हैं संग।।
ईसाई-सिक्ख, मुस्लिम-पारसी, हिन्दू-यहूदी।
रगों में दौड़ते-बहते लहू का एक ही है रंग।।
मुझको लौटा दे कोई
गाँव की गलियों में
अनछुई कलियों में
खोये हुए बचपन
लड़कपन की यादें।
ठिठुरन में, ठंड में,
तुषारों की धुंध में
खेतों-खलिहानों में काटी गयी रातें।
सावन के झूलों में
सरिता के कूलों में
ममता की छाँव तले भीगी बरसातें
बौराई अमराई में
महुआ रस भीनी
तितली, गिलहरी से कई बातें।
गोफला-गुलेल में
पिरोया सरल बचपन
कबड्डी के खेल में टूटी सांसें।
होली के रंग में, किशोरी के संग में,
फाग औ’ अबीर में नहाई रंगी रातें।
नौटंकी-नाटक में
मेलों के चाटक में
राम-परशुराम में डूबी हुई आँखें ।
बहना की राखी में
साथी की पाती में
झिड़की भरे प्यार में समाई हुई आसें।
स्मृति के द्वार पर
दस्तक दे जाती हैं
अयाचित, उनींदी, अनगिनत श्वासें।
मानस के सागर पर
उठती तरंगें
अचेतन आंदोलित हो भरता उसांसें।
है सूरज एक, ऊर्जा-स्त्रोत, दिक्-मण्डल वही है।
परिधि में घूमती-घूर्णित धरा में रह रहे हैं संग।।
ईसाई-सिक्ख, मुस्लिम-पारसी, हिन्दू-यहूदी।
रगों में दौड़ते-बहते लहू का एक ही है रंग।।
क्या तेरे अस्तित्व से इंकार कर दूँ ?
सर्व व्यापक
तुम कहाँ हो ?
चेतना झकझोरती
तब एक पल ऐसा भी आता है
तेरी इस सृष्टि में,
सोचता हूँ-
मैं तेरे अस्तित्व से इंकार कर दूँ।
या कि यह कह दूं-
पलायन कर गया है,
तू पुरातन भूमि से।
तू अगम है,
तू अगोचर,
क्या करें ? जो नाम से तेरे जुड़े हैं।
कर्म अपने कर रहे-
तुझ पर निछावर
ठोकरें भी खा रहे हैं,
जी रहे हैं – यंत्रणा-संत्रास में।
जी रहे – जीवन
नरक की कोठरी में रह रहे हैं—
पशु सरीखे,
मार खाये हैं समय की
नाम तेरा रट रहे हैं – आस्था-विश्वास से।
चल रहे हैं बैशाखियों पर
सुप्त मुद्रा में
सभी अन्याय झेले जा रहे हैं।
क्यों व्यवस्था में लगे हैं ?
प्रश्नवाचक चिन्ह इतने,
मंत्रिमंडल में तेरे हैं-
मूढ़ औ’ विक्षिप्त कितने।
एक वह, जिन पर कृपा है आपकी
भू-स्वर्ग के सोपान चढ़ते जा रहे हैं,
पी रहे हैं सोम रस
संग अप्सराओं के-
मने मधुयामिनी,
ये गगन चारी सदा से
जी रहे हैं
अहं को संतुष्ट करने के लिए।
बंट रहा है जातियों में यूं समीकरण
भेद की दीवार करते हैं खड़ी,
और फिर तेरे सृजन को
कठपुतलियों सा लड़ा
विद्वेषरूपी भांग की
बूटी पिलाये जा रहे हैं।
यह अपढ़, अज्ञान, बेबश
क्या तेरे अपने नहीं हैं ?
जी रहे ले नाम तेरा
क्या तुझे यह प्रिय नहीं हैं ?
क्या तेरे अपने नहीं हैं।
तुम कहाँ हो ?
चेतना झकझोरती
तब एक पल ऐसा भी आता है
तेरी इस सृष्टि में,
सोचता हूँ-
मैं तेरे अस्तित्व से इंकार कर दूँ।
या कि यह कह दूं-
पलायन कर गया है,
तू पुरातन भूमि से।
तू अगम है,
तू अगोचर,
क्या करें ? जो नाम से तेरे जुड़े हैं।
कर्म अपने कर रहे-
तुझ पर निछावर
ठोकरें भी खा रहे हैं,
जी रहे हैं – यंत्रणा-संत्रास में।
जी रहे – जीवन
नरक की कोठरी में रह रहे हैं—
पशु सरीखे,
मार खाये हैं समय की
नाम तेरा रट रहे हैं – आस्था-विश्वास से।
चल रहे हैं बैशाखियों पर
सुप्त मुद्रा में
सभी अन्याय झेले जा रहे हैं।
क्यों व्यवस्था में लगे हैं ?
प्रश्नवाचक चिन्ह इतने,
मंत्रिमंडल में तेरे हैं-
मूढ़ औ’ विक्षिप्त कितने।
एक वह, जिन पर कृपा है आपकी
भू-स्वर्ग के सोपान चढ़ते जा रहे हैं,
पी रहे हैं सोम रस
संग अप्सराओं के-
मने मधुयामिनी,
ये गगन चारी सदा से
जी रहे हैं
अहं को संतुष्ट करने के लिए।
बंट रहा है जातियों में यूं समीकरण
भेद की दीवार करते हैं खड़ी,
और फिर तेरे सृजन को
कठपुतलियों सा लड़ा
विद्वेषरूपी भांग की
बूटी पिलाये जा रहे हैं।
यह अपढ़, अज्ञान, बेबश
क्या तेरे अपने नहीं हैं ?
जी रहे ले नाम तेरा
क्या तुझे यह प्रिय नहीं हैं ?
क्या तेरे अपने नहीं हैं।
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