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यादों के दीप

मंजुला गुप्ता

प्रकाशक : ग्रन्थ विकास प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5723
आईएसबीएन :81-88093-64-5

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घनघोर स्वार्थी, आत्मकेन्द्रित और अपने आप में कछुए की तरह सिमटते जा रहे लोगों के कारण टूटते, दरकते, बिखरते, विघटित होते, खण्ड-खण्ड होते परिवारों की कारुणिक स्थिति का दारुण दस्तावेज हैं—‘यादों के दीप’।

Yadon ke deep

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इक्कीसवीं शताब्दी के पहले दशक में त्वरा के साथ विकसित और संवर्द्धित होती उपभोक्तावादी संस्कृति, जिसमें जीवन को सुसंयम, आरामदायक बनाने वाले साधन और संसाधनों को जुटाने के लिए इतनी दौड़भाग शुरू हो गयी है कि किसी को विरोध, प्रतिरोध, गतिरोध और अवरोध की परवाह नहीं है। किसी के पास एहसास करने या जीवनानुभव के रूप में ग्रहण करने का समय नहीं है। पति-पत्नी और माँ-बाप-बेटा-बेटी, ये सब औपचारिक अधिक होते जा रहे हैं। हम दो हमारे दो का नारा भी अब बड़ा लगने लगा है। दो तभी जब पहली लड़की हो वरना एक ही काफी है। चाचा-ताऊ, देवर-भाभी, साली, मौसी जैसे रिश्ते तो भविष्य में विलीन होने ही वाले हैं। फिर घनघोर स्वार्थी, आत्मकेन्द्रित और अपने आप में कछुए की तरह सिमटते जा रहे लोगों के कारण टूटते, दरकते, बिखरते, विघटित होते, खण्ड-खण्ड होते परिवारों की कारुणिक स्थिति का दारुण दस्तावेज हैं—‘यादों के दीप’।

पाँच-पाँच, छह-छह लाख के पैकजों के प्रस्ताव हाथ में लिए उच्च शिक्षा प्राप्त युवतियों का दाम्पत्य जीवन वैसे ही अराजकता, असमंजसता, अव्यवस्था, अनियमितता, अनैतिकता और अलगाव की ओर बढ़ कर फिसलता जा रहा है जैसे कि किसी भी परिधान-प्रदर्शन में रैम्प पर पोशाक फिसल रही है, जबकि समय का रथी, सारथी, महारथी हमारे शाश्वत सनातन मूल्यों की शिराओं के पहरुआ बने हुए हैं।

‘यादों के दीप’ नग्न यथार्थ के दाम्पत्य, और कुत्ते जैसे बड़-भागी जीव; तीन-तीन लड़कियाँ जन्म देने वाली लात-घूँसों–थप्पड़ों से पिटती-कुटती सिन्दूर, बिन्दी, चूड़ी और बिछुए पहने पारम्परिक भारतीय नारियाँ; राष्ट्र रक्षार्थ प्रार्गोत्सर्ग करने वाले शहीदों के अनाथ बेबस और असहाय होते परिजनों की व्यथा; वंश वृद्धि हेतु एक अदद लड़के की प्राप्ति के लिए गण्डे, ताबीज बाँधती, पूजा-पाठ करती, मन्नते माँगते पति-पत्नी, सास-श्वसुर; प्रेम-विवाह में धोखा खाई श्रान्त और क्लान्त युवतियाँ; चारों ओर तेजी से पनपतीबहुमंजिली इमारतों में यदा-कदा दिखाई देते चेहरे और बालकनी में सूखते हुए कपड़ों की बन्दनवार; दहेज के अभाव में पति तथा सास-श्वसुर द्वारा सताई उपेक्षिताओं द्वारा ‘परिवार परामर्श केन्द्र में परामर्श लेती तलाक-पत्रों पर हस्ताक्षर करती; ठण्डा-ठण्डा कूल-कूल आस्वाद लेती बंगले और कार की स्वामिनियों द्वारा वैभव के दर्प से दीप्त नारियों द्वारा खड़े रहकर बाइयों से झाड़ू-बुहारी तथा पौछा लगवाती नारियों को समाहित करती हैं इनकी कहानियों की विषयवस्तु। इन कहानियों की विशेषता यह है कि इनमें घटनाएँ पात्रों पर शासन प्रशासन नहीं करतीं अपितु उन्हें अनुशासन में बाँधती हैं और पात्रों के दुःख-दर्द को उजागर करती हैं और पाठकों की कुतूहल वृत्ति को कुरेदती और चिन्तन सामर्थ्य को संवर्धित करते हुए स्मृति पटल पर चिपकती जाती हैं, इस दृष्टि से मंजुला गुप्ता की ये कहानियाँ बेजोड़ हैं अवश्यमेव पठनीय हैं।

श्रीकृष्ण शर्मा

अपनी बात


हमारे शाश्वत मूल्यों का तेजी से विघटन, जीवन में बढ़ती आपाधापी, गला काट स्पर्धा, ‘उसकी कमीज मेरी कमीज से उजली क्यों ?’ वाली मानसिकता, नारी स्वत्रन्त्रता के नाम पर स्वच्छंदता, अपना अस्तित्व, व्यक्तित्व एवं अस्मिता को दाँव पर लगाकर दुनिया की हर वस्तु को खरीद लेने एवं बेचने की तीव्रतम आकांक्षा ! क्या यही है 21 वीं सदी का भारत, जिसकी कल्पना कभी हमारे महापुरुषों ने एवं शहीदों ने की थी और जिसकी आजादी की कीमत अपने प्राण गवाँकर चुकायी थी।
इन्हीं कुछ प्रश्नों को उकेरती एवं हल खोजती हैं मेरी कहानियाँ, पात्रों के माध्यम से।

कोई भी साहित्यकार, अपने जीवनानुभवों से पृथक नहीं लिख सकता। अतः जो भी कहानियाँ इससे संकलित हैं, वे सब मेरे अति निकट के जीवन की कटु सच्चाइयों के अनुभवों पर आधारित हैं, जिन्हें मैंने बहुत गहराई से, अपने अन्तर्मन की आँखों से देख, बहुत शिद्दत से महसूस कर, उकेरने का प्रयास किया है। अनुभूतियों के एक्सरे की सूक्ष्म पारदर्शी किरणों से समाज के आन्तरिक विगलन को पहचान कर उसे पूर्ण निष्ठा से वर्णित करना मैंने अपना एक नैतिक दायित्व समझा है, अर्थतंत्र के जाल में उलझी, चार ‘डी’ (ड्रिंक, डांस, डेट, डिस्को) के चक्रव्यूह में फँसी हमारी युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित हो किस ओर जा रही है, यह वर्तमान समय में एक शोचनीय समस्या एवं ज्वलंत प्रश्न बनकर हमारे सम्मुख किसी अजगर के समान मुँह बाये खड़ा है। टी.वी के विभिन्न चैनलों से प्रसारित अश्लील एवं भौंडे कार्यक्रम, साहित्य के प्रति लोगों का दिनों-दिन बड़ता रूझान-हमारी भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को किस ओर जा रही है- यह गम्भीर प्रश्न हमारे सम्मुख खड़ा है।  

जीवन के खट्टे-मीठे अनुभवों पर आधारित मेरी ये कहानियाँ, आदि पाठकों में इन प्रश्नों के प्रति थोड़ी भी सोच, इन विसंगतियों के प्रति थोड़ी भी वितृष्णा, तथा आज की स्थितियों में परिवर्तन की वांछनीयता का थोड़ा भी एहसास जगा सकेंगी तो मैं अपना प्रयास सार्थक मानूँगी।


एक बड़भागी जीव



आज ऑफिस से आते ही मुझे घर का वातावरण बहुत टेंस भरा लगा। वैसे यह मेरे लिए कोई नयी बात नहीं  थी। जब मैं ऑफिस से आता, श्रीमती जी पहले तो मधुर मुस्कान के साथ दिनभर का हाल-चाल पूछती, चाय का गर्मागर्म कप थमा वे ग्रीनलाइट का सिग्नल दे, अपना दुखड़ा सुनाने के लिए, लाइन क्लीयर करती एवं कुरकुरी मठरी के साथ खीज क्रोध एवं शिकायतों को अचार या मुरब्बा जरूर रख देती ताकि मैं अपना हाजमा संतुलित रख सकूँ। एक बात जो धीरे से कान में कहने वाली है वह यह है वह यह कि मेरी श्रीमती जी के अन्दर अन्य स्त्रियों की अपेक्षा ईर्ष्या भाव कुछ अधिक ही मात्रा में निहित है। काश ! विवाह होते ही उसकी इस भावना को समझ लेता, तो शायद कुछ अच्छी दिशा में मोड़कर, स्पर्धा के क्षेत्र में चौकड़ी भरवा देता वह देश की प्रधानमंत्री न सही, कम से कम आज किसी राज्य की मुख्यमंत्री के पद पर अवश्य आसीन रहतीं। परन्तु हतभागी मैं उसके हृदय की उच्च भावना को तब समझा, जब स्टेशन से गाड़ी छूट चुकी थी और हम बस, खड़े–खड़े गार्ड को हरी झंडी लहराता देखते रहे।
 
हां ! तो मेरी श्रीमती जी की गलाकाट स्पर्धा अपनी पड़ोसन महिला से थी। और अक्सर ऑफ़िस से आते ही वह जो सामने शार्माइन रहती है न’ से बात शुरू करती। आज भी उन्होंने अपनी बात इसी तर्ज पर आरम्भ की। ‘‘सामने वाली शर्माइन आज सेल से चार साड़ियां खरीद कर ले आयी हैं, और एक तुम हो.....’’ उसके आगे के शब्द यूँ आँसुओं में डूबने-उतराने लगते कि मुझे आँसुओं के बुलबुलों के मध्य शब्द ढूँढ़ने जैसा दुष्कर कार्य करना पड़ता। अथवा ‘‘आज वह डॉक्टराइन कैसा शर्माइन को इतरा-इतरा कर बता रही थी कि उसने वी.सी.आर पर एक दिन में तीन-तीन फिल्में देखीं, और एक मैं हूँ जो...’’ आगे के शब्द कटुतिक्त। मैं अपने मन की एवं घर की शान्ति बनाए रखने के लिए या तो दोनों हाथ कानों पर रख लेता हूँ या एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देता हूँ, परन्तु आज का वातावरण कुछ अधिक ही संजीदा एवं संगीन नजर आ रहा था, क्योंकि मुँह फुलाए श्रीमती जी ही अक्सर दिखाई देती थीं। मुनिया तो अक्सर मुझे देखते ही लिपट जाती और गलबाहियाँ डालकर झूमने लगती परन्तु आज तो उसके मिजाज भी सातवें आसमान पर थे। वह भी मुँह फुलाए अपनी माँ से कंधे से कंधा जोड़े पूरी सहभागिता निभा रही थी। ‘‘क्या बात है मुनिया ? क्या बात है जी ? तुम लोग ऐसे मुँह क्यों फुलाए बैठी हो ?’’ पूछते ही दोनों माँ-बेटी ब्रेक फेल गाड़ी की तरह अपनी घोर समस्या का वमन कर ही बैठीं, और तब लगा कि बिना चाय-नाश्ते के ही मेरा हाजमा बिगड़ रहा है उनके कथन का यह सार था कि सामने वाले पड़ोसी ने कुत्ता पाल रखा है। रोज उसे नहलाते-धुलाते हैं, सैर-सपाटा कराने ले जाते हैं और एक हम हैं...।

मेरा ध्यान अब सामने वाले मकान पर गया जो तकरीबन तीन वर्षों से खाली पड़ा था और श्रीमती जी ईश्वर आराधना के समय अपनी समस्त मनोकामना को पूर्ण करने के साथ-साथ अच्छे पड़ोसी उस मकान में बस जाने की प्रार्थना रात-दिन किया करती थीं। नये पड़ोसी के आने का समाचार भी उन्होंने अति प्रसन्नतापूर्वक एक दिन दिया था, परन्तु थोड़े दिन बाद ही वे मायूस हो गयीं। कारण, उनका गर्मजोशी में बढ़ाया हाथ, पर उधर से बर्फीला ठंठा पानी अक्सर पड़ जाया करता, और वे ‘अंगूर खट्टे हैं’ सोच ‘ऐसे पड़ोसी से हम अकेले भले’ कहकर अपनी खीज जैसे-तैसे उतारना चाहतीं।

दूसरे दिन सुबह-सुबह मैं छत पर टहल रहा था ‘हाउ डू यू डू’ हाऊ आर यू’ के मधुर नारी स्वर से तनिक चौंका। झाँक कर देखा कि आज सुबह-सुबह किसके घर में बिन बुलाए मेहमान धरना दे बैठे। सामने श्रीमती खन्ना पारदर्शी नायलान का गाऊन पहने, अपने कटे बालों को झटका देती, कंधे पर कुत्ते को झुलाझुला कर कुछ लोरीनुमा गा रही थीं, तभी खन्ना साहब डायमंड’ ‘डायमंड कहते बाहर निकले। ‘डायमंड’ शब्द से तनिक चौंका। मेरे गाँव में हीरा, पन्ना नाम तो आज भी मुश्किल से मिलते हैं ज्यातर गुरहू, हरहू नाम ही अधिक प्रचलित हैं। हाँ ! तो मैं कह रहा था कि ‘डायमंड’ नाम सुनते ही कुत्ता अपनी मालकिन की गोद में किसी शैतान बच्चे की तरह मचलने लगा और झट खन्ना साहब की गोद में जा चढ़ा। खन्ना साहब ने बड़े प्यार से ‘शेक हैंड, शेक हैंड’ कहा और ‘डायमंड’ पिछले पैरों पर खड़ा हो, आगे के पैरों से उनसे हाथ मिलाने लगा एवं दुम हिलाने लगा। थोड़ी देर बाद ही खन्ना दाम्पत्ति हवा में बिस्कुट उछालने लगे और ‘डायमंड’ कूद-कूद कर बिस्कुट खाने लगा। उसके इस कृत्य को देखकर खन्ना दम्पत्ति फूला न समाते।

यह दृश्य देख कल अपनी श्रीमती जी और मुनिया की नाराजगी तनिक भी गैरवाजिब नहीं लगी। जब देश इतनी प्रगति के पथ पर है कि कुत्ता इतना महत्त्वपूर्ण और इंसान इतना नाचीज बन गया हैं, तो मैं मूर्ख इस सच्चाई को क्यों न समझ सका ‍? एवं आज के इस गलाकाट स्पर्धा के युग में क्योंकर पीछे रह गया ?
मैं खट-खट सीढ़ियाँ उतरता नीचे आया और मुनिया को गले लगाते, उससे वचनबद्ध होता हूँ कि कल की कहीं न कहीं से, किसी न किसी कीमती पर एक ‘पप’ तुझे लाकर जरूर से दूँगा।

शाम को ऑफ़िस से आकर क्या देखता हूँ कि श्रीमती जी ‘पप’ को गोद में बिठाये उसे बोतल से दूध पिला रहा हैं। उनका मातृत्व छलका पड़ रहा है। उनके स्तनों में दूध यदि अब तक न सूखा होता तो शायद वे स्तनपान कराने से भी तनिक न हिचकतीं। मुनिया हाथ में बिस्कुट लिए बेसब्री से इन्तजार कर रही थी कि माँ कब दूध पिला कर निबटे और वह कब उसे प्रेम से गोद में बिठाकर, बिस्कुट खिलाने की साध पूरी करे।
इस हृदयस्पर्शी दृश्य को देखकर मेरा पोर-पोर अभिभूत हो उठा, मेरी अन्तरात्मा में अनन्त हिलोरें उठने लगीं। तभी महाकवि ‘दिनकर’ की पंक्तियाँ कानों में गूँजने लगीं—


कुत्तों को मिलता दूध-भात
भूखे बच्चे आकुलाते हैं
माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर
वे अपनी रात बिताते हैं।


मैं मन ही मन उस दिवंगदत कवि को जी भर धिक्कारता हूँ एवं हजार गालियाँ निकालता हूँ कि हे कवि, यह सब अठारहवीं शताब्दी की बातें थीं जो अब सभ्य समाज के साथ कालातीत हो चुकी हैं। काश ! तुम आज के 21वीं सदी के ‘जेट युग’ में जन्मे होते तो उपरोक्त पंक्तियाँ कभी न कहते। स्वतन्त्र भारत ने औद्यौगिक क्रान्ति के साथ-साथ अन्य क्षेत्रों में कितनी प्रगति की है—तनिक स्वर्ग से आकर देखें—


कुत्तों के माध्यम, हम काला सफेद करते हैं
अपने को उच्च दूसरों को नीच बनाया करते हैं
भूखा-नंगा रहे इंसान, हम चिनांशुक धारण करते हैं
कितने सत्कर्मों के उपरान्त, कुत्ता योनि में जन्मे हैं
छिः इंसान जो करे बराबरी, हम जैसे पुण्यवानों से
कर गरीबों से घृणा, गाँठे दोस्ती हम धनवानों से
स्वतंत्र भारत देखो, कैसी उन्नति कर गया
इंसान को कुत्ता, कुत्ते को भगवान बना दिया।


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