विविध >> रामजी जाग उठा रामजी जाग उठादि. बा. मोकाशी
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प्रस्तुत है मराठी कहानी अता अमोद सूनसाई आले का हिन्दी अनुवाद...
Ramgi Gag Utha
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
रामजी जाग उठा
बारिश की बूंदें तड़-तड़ आवाज करती हुई गिर रही हैं। शिवा नेमाणे की गाय बियाने को हुई है। बरसात का पानी पीकर नदी मस्ती में बह रही है। रामजी लुहार के इकलौते बेटे को हहराती धारा बहा ले गयी है। गीले कपड़े की तरह हवा सर्द हो गयी है। गणू शिनारे का दमा बढ़ गया है। क्या कुदरत के कहर बरपा देने पर ऐसी ही घटनाएं घटती हैं ? लोग ऐसे सुन्न क्यों हो जाते हैं ?
आज छह दिन हो गये। केंबल गांव बारिश की मार खाते-खाते दबक कर बैठा था। इन छह दिनों में आसमान का काला रंग बदला ही नहीं था। पहाड़ से लेकर तलहटी के गांवों तक ग्रहण का-सा भयावह अंधेरा फैला था। पानी के लाल रेले हहराते बह रहे थे। बारिश की झड़ियाँ छुरी की तरह धरती पर गिर रही थीं। इंजन से निकली भाप की-सी आवाज वातावरण को भर रही थी। घर चू रहे थे लोगबाग बीड़ियां फूंक रहे थे और चाय पी रहे थे। वे आपस में इस तरह बोल रहे थे कि लगता था घरती की यह रचना उन्हें कभी पसंद ही न आयी हो।
गांव में दस-बारह दुकानें थीं वे कब की बंद हो चुकी थीं। संतू वाणी की दुकान की सिर्फ एक तख्ती खुली थी। वहां से पानी की फुहारें अंदर आ रही थीं और लालटेन की रोशनी में गुस्सैल-सी दिख रही थीं। आज बुधवार था। संतू वाणी की कोठी पर हमेशा की तरह आज ‘ज्ञानेश्वरी’ का पाठ था। गांव में जो चार कंठीधारी थे वे हर बुधवार यहां इकट्ठा होते थे। कोठी छोटी थी। जमीन पर दरी बिछी थी। कोने में एक चौकी और एक छोटा आसन रखा था। बारी-बारी से वे वहां बैठकर मराठी संतों की कोई न कोई रचना, जैसे-‘ज्ञानेश्वरी’, ‘अमृतानुभव’, ‘चांगदेव पासष्टी’, ‘तुकाराम के अभंग’ और ऐसा ही कुछ सामने रखकर प्रवचन करते थे।
संतू वाणी के बरामदे में अब दो कंठीधारी आ चुके थे जोशी दर्जी अपनी धोती निचोड़ रहा था। गोविंदा सब्जीवाला लालटेन को मंद कर रहा था। स्वयं संतू वाणी तकिये से टेक लगाकर बैठा था। दुकान की सारी चीजों की मिली-जुली तीखी भीगी-सी गंध हवा में गमक गयी थी। तेल से चमकीले बने बेंच, काले पड़े डिब्बे, चाय के रंगीन खोखे, हींग, जीरा, धनिया के अलग-अलग नाम की पर्चियां चिपकाये डिब्बों के ढेर-सारी दुकान इस बारिश में छाती से घुटने टेककर सोयी थी और एक पलड़े में बाट डला तराजू डेढ़ पैरों पर शांति से खड़ा था। गले की कंठी से खेलते हुए संतू वाणी ने कहा,
‘‘रामजी नहीं आये ?’’
निचोड़ी हुई धोती का हिस्सा झटक कर जोशी दर्जी बोला, ‘‘हां जी, नहीं आये।’’
‘‘आने दो उनको।’’
‘‘आने दो, फिर शुरू करेंगे।’’
लालटेन को मंद कर गोविंदा सब्जीवाला बेंच पर बैठ गया। तीनों बिना कुछ कहे थोड़ी देर के लिए खड़े रहे। फिर जोसी ने पूछा,
‘‘दरवाजा बंद कर दूं ? बौछारें अंदर आ रही हैं।’’
‘‘लेकिन रामजी आयेंगे।’’
‘‘हां, रामजी आयेंगे।’’
तीनों ने रास्ते की ओर ताका। लेकिन रामजी की लालटेन हिलती हुई नजर नहीं आयी। बाहर घना अंधेरा था। केवल रास्ते पर गिरती बारिश की खास आवाज से ही उसकी पहचान हो रही थी। गोविंदा सब्जीवाले ने कहा,
‘‘यह हवा दमे के लिए बहुत खराब है।’’
‘‘शिनारे जमीन पर माथा टेककर लेटा होगा। ऐसी ही हवा में वह कभी मर जायेगा।’’
‘‘मारेगा काहे को ! ऐसे ही लोग बड़े जीवट के होते हैं।’’
‘‘हां, हां ! वे शरीर छोड़ने को तैयार नहीं होते।’’
‘‘बारिश रुकने दो। बीड़ी फूंकते-फूंकते बाहर आ जायेगा फुरफुर !’’
‘‘ऐसे लोगों को मौत नहीं छूती।’’
‘‘और हट्टे-कट्टे मरते हैं फटाफट !’’
इस बात से सभी को रामजी लुहार के बेटे की याद हो आयी। संतू वाणी ने कहा,
‘‘आज चौथा दिन है बच्चे के बाढ़ में बह जाने का।’’
‘‘जवानी में आया बेटा कूच कर गया।’’
‘‘रामजी की उमर क्या होगी ?’’
‘‘होगी साठ के आसपास।’’
‘‘वंश ही खत्म हो गया।’’
‘‘वैसे लड़का शरारती तो नहीं था। कैसे बह गया होगा बाढ़ में ?’’
‘‘लड़के मस्ती में जाते हैं।’’
‘‘क्या शिवा की गाय बिया गयी ?’’
‘‘नहीं जी ! और तीन दिन लेगी।’’
‘‘देखना, आज ही बियायेगी।’’
‘‘क्या उसका बेटा माथेरान से आ गया ?’’
‘‘ऐसी बारिश में क्या आयेगा ?’’
‘‘वह आयेगा।’’
‘‘किसलिए ? मरने के लिए ? कगार से नीचे गिर जायेगा।’’
फिर से किसी को रामजी की याद आयी।
‘‘रामजी नहीं आये ?’’
‘‘क्या बुलाने जायें ?’’
‘‘जाइये जोशीजी, आप जाइये। धौंकनी के पास दुखी होकर बैठा होगा वह।’’
लालटेन उठाकर जोशी बाहर निकल पड़े।
बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। शिवा नेमाणे बार-बार टटिया के पास आकर गाय की ओर देख रहा था। गाय जहां खड़ी थी वहां आसपास की जगह में पानी कम चू रहा था। गाय ने बियाने के लिए आज का ही दिन चुना, इस बात पर शिवा को गुस्सा आ रहा था। बीच-बीच में उठकर उसकी औरत गोठ में झांक आती थी। गाय की छटपटाहट को वह ज्यादा पहचानती थी। पीड़ा से गाय का बदन खड़े-खड़े ही टेढ़ा-मेढ़ा हो रहा था। बीच में वह बैठ जाती, फिर लड़खड़ा कर उठती भी। कभी-कभी गर्दन भी उठाती। साधी नजर से कहीं एकटक देखती। उसका पीछे का हिसा फूलता जा रहा था। आंवल का नीला-काला गोला बाहर आ रहा था। टटिया के कोने में रखी घासलेट की ढिबरी धुआं उगलती हिलती जा रही थी। हवा से उसकी लौ कांपती जा रही थी। और गाय की छटपटाहट बढ़ने लगी थी। शिवा बोला,
‘‘इस साल सुनार का उठौना बंद कर देंगे। साला एक भी पैसा नहीं देता !’’
उसकी घरवाली बोली, ‘‘कब से तो मैं कह रही थी ! आप सरकारी आदमियों को पकड़ लें।’’
‘‘हां, नौकरीपेशा ही अच्छा होता है। एक तारीख को पैसा तो मिल जाता है।’’
बीच-बीच में वे ऐसी बातें एक-दूसरे को घीरज बंधाने के लिए कर रहे थे। अंदर से तो डर था कि गाय ठीक से बियायेगी कि नहीं। उसे ठीक से छुटकारा मिलेगा तो अच्छा होगा !
‘‘अर्ज्या माथेरान से आयेगा या नहीं ?’’ उसकी औरत ने कहा।
‘‘वह आयेगा कैसे ? धुआंधार बारिश हो रही है।’’
‘‘देखना, जरूर आयेगा।’’
‘‘ना आये तो अच्छा ! ऐसी बारिश में पहाड़ उतर कर आना ठीक नहीं है। सब जगह फिसलन हो गयी है।’’
‘‘फिर रामजी लुहार को बुलायेंगे आप ?’’
‘‘अरी ओ ! उसका तो बेटा चल बसा। उसे कैसे कहेंगे आने के लिए !’’
‘‘यह भी सही है।’’
इतने में गोठ से गाय के खुरों की खड़खड़ सुनायी पड़ी। दोनों टटिया की ओर दौड़ पड़े।
बेटा के बाढ़ में बहे चार दिन हो गये थे पर रामजी धौंकनी को टेककर जो बैठा था वह अभी तक उठा नहीं था। बीच-बीच में अंदर से उसकी औरत की रोने की आवाज सुनायी दे रही थी। एक ढिबरी कोने में धुआं उगलती हुई लाल रोशनी दे रही थी। शाम के धुंधलके जैसी उदासी घर भर में फैली थी। रामजी के मन में यही एक सवाल घुमड़ रहा था-‘मेरा बेटा क्यों मर गया ? विट्ठल जी ! तुमने यह क्या किया ? क्या मैं बुढ़ापे में निःसंतान होकर रोता रहूं ? क्यों ? क्यों ??’
इसके पहले भी फसलें अच्छी नहीं हुईं, धंधा नहीं चला और चोरियां हो गयीं। पर किसी से भी रामजी का मन नहीं टूटा था। कोई भी अपनी मुसीबतें लेकर रोता हुआ आता तो रामजी उसे ढाड़स देता था। कभी चार अभंग (पद) सुनाकर, तो कभी संतों की रचना के प्रमाण देकर। लोग कहते, रामजी से बात करने पर दुख हलका हो जाता है।
लेकिन आज रामजी का अपना ही दुख किसी भी बात से हलका नहीं हो रहा था। आज तक जो कुछ उसने लोगों से कहा था वह तो ऊपरी सतह का समाधान था। जीना और मरना इनमें से उसने कुछ नहीं जाना था और संतों ने भी नहीं जाना था। इसलिए जो आज तक उसने नहीं किया वह आज कर रहा था। भगवान से सवाल कर रहा था। तीस सालों की अपनी पंढरपुर की की गयी यात्राएं उसने विट्ठल के सामने रखी। कहां गया पुण्य पैदल किये गये इन यात्राओं का ? क्या प्रारब्ध से लड़का मरा ? कैसा प्रारब्ध ? बुढ़ापे में मैं रोऊं यही प्रारब्ध ?
जिस भाषा का प्रयोग उसने दूसरों को ढाड़स देने के लिए किया था वह आज उसके लिए बेमानी हो गयी थी। वह विट्ठल से नाराज नहीं हुआ था। उतना आवेश भी उसमें नहीं रहा था। घड़ी बंद हो जाये और फिर समय भी झूठा लगने लगे, ऐसा कुछ उसे लगने लगा था। अचानक उसके ध्यान में आया कि इतने साल विट्ठल की भक्ति के सहारे वह जी रहा था। जब तक लड़का जीवित था तब तक उसे लगता था कि अपना जीव अलग है, अपने जीने का उद्देश्य अलग है, और लड़के का अलग है। लेकिन लड़का चल बसा तो अपना शरीर भी उसे व्यर्थ लगने लगा। उसकी देह मानो एक थैली थी। उसमें रखी चीज के गिरते ही थैली का क्या किया जाये ?
किसी कंठीधारी ने कहा था कि रामजी का दुख अहंकार का ही एक रूप था। लेकिन जिस तरह केंबल गांव बारिश से छुटकारा नहीं पा सकता था उसी तरह रामजी भी अहंकार से मुक्त नहीं हो सकता था।
ओसारे का दरवाजा खोलकर जोशी दर्जी कब अंदर आया इसका पता रामजी को नहीं लगा। जोशी ने छाता कोने में रखा। लालटेन मुंडेर पर रखी और बात की शुरूआत कैसे की जाये यह न जानने पर पशोपेश में पड़ा वह थोड़ी देर खड़ा रहा। फिर बोला,
‘‘रामजी, लोग आपकी राह देख रहे हैं।’’
रामजी की न निगाहें उठीं न गर्दन हिली।
‘‘रामजी, उठिये। आज बुधवार है...।’’
लेकिन अबकी बार पुकार सुनकर भी रामजी का मन नहीं हुआ कि बात करें। अब जोशी आगे बढ़ा। रामजी के पास जाकर उसके कंधे पर उंगली रखकर बोला,
‘‘रामजी चलिए। ज्ञानेश्वरी का पाठ करने पर अच्छा लगेगा।’’
रामजी ने मन ही मन कहा, ‘अब मुझे किसी बात से अच्छा नहीं लगेगा-किसी से भी नहीं। सब कुछ झूठ है। यह दुनिया झूठी है। मैं झूठा हूं। ज्ञानेश्वरी और विट्ठल झूठे हैं। हम सब व्यर्थ ही यहां हैं।’
लेकिन किसी से बात करने की या विवाद करने की उसकी इच्छा ही खत्म हो गयी थी। किसी ने कहा, ‘‘रामजी, खाना खाने के लिए उठिये।’’ वह उठा। ‘‘कपड़े बदल डालिये।’’ बदल डाले। चार दिन से ऐसा ही हो रहा था। अबकी बार भी जोशी के ‘‘उठिये’’ कहते ही वह उठा। मशीन की तरह दरवाजे के पास गया। जोशी ने लालटेन उठायी। बाहर आते ही दरवाजा भेड़ दिया। ओसारे से आगे बढ़कर रामजी सीधे बारिश में ही घुस गया था। जोशी ने झट से छाता खोलकर रामजी के सिर पर तान दिया। रास्ता तय करते समय रामजी की संभाल वह इस प्रकार करने लगा जिस प्रकार किसी बीमार की की जाती है। ‘‘रामजी, आगे गड्ढा है, जरा ध्यान से ! रामजी, पत्थर है...!’’ संतू वाणी के ओसारे में घुसकर झुके छत के पास आते ही उसने कहा, ‘‘नीचे झुक जाइये, रामजी...!’’
आज छह दिन हो गये। केंबल गांव बारिश की मार खाते-खाते दबक कर बैठा था। इन छह दिनों में आसमान का काला रंग बदला ही नहीं था। पहाड़ से लेकर तलहटी के गांवों तक ग्रहण का-सा भयावह अंधेरा फैला था। पानी के लाल रेले हहराते बह रहे थे। बारिश की झड़ियाँ छुरी की तरह धरती पर गिर रही थीं। इंजन से निकली भाप की-सी आवाज वातावरण को भर रही थी। घर चू रहे थे लोगबाग बीड़ियां फूंक रहे थे और चाय पी रहे थे। वे आपस में इस तरह बोल रहे थे कि लगता था घरती की यह रचना उन्हें कभी पसंद ही न आयी हो।
गांव में दस-बारह दुकानें थीं वे कब की बंद हो चुकी थीं। संतू वाणी की दुकान की सिर्फ एक तख्ती खुली थी। वहां से पानी की फुहारें अंदर आ रही थीं और लालटेन की रोशनी में गुस्सैल-सी दिख रही थीं। आज बुधवार था। संतू वाणी की कोठी पर हमेशा की तरह आज ‘ज्ञानेश्वरी’ का पाठ था। गांव में जो चार कंठीधारी थे वे हर बुधवार यहां इकट्ठा होते थे। कोठी छोटी थी। जमीन पर दरी बिछी थी। कोने में एक चौकी और एक छोटा आसन रखा था। बारी-बारी से वे वहां बैठकर मराठी संतों की कोई न कोई रचना, जैसे-‘ज्ञानेश्वरी’, ‘अमृतानुभव’, ‘चांगदेव पासष्टी’, ‘तुकाराम के अभंग’ और ऐसा ही कुछ सामने रखकर प्रवचन करते थे।
संतू वाणी के बरामदे में अब दो कंठीधारी आ चुके थे जोशी दर्जी अपनी धोती निचोड़ रहा था। गोविंदा सब्जीवाला लालटेन को मंद कर रहा था। स्वयं संतू वाणी तकिये से टेक लगाकर बैठा था। दुकान की सारी चीजों की मिली-जुली तीखी भीगी-सी गंध हवा में गमक गयी थी। तेल से चमकीले बने बेंच, काले पड़े डिब्बे, चाय के रंगीन खोखे, हींग, जीरा, धनिया के अलग-अलग नाम की पर्चियां चिपकाये डिब्बों के ढेर-सारी दुकान इस बारिश में छाती से घुटने टेककर सोयी थी और एक पलड़े में बाट डला तराजू डेढ़ पैरों पर शांति से खड़ा था। गले की कंठी से खेलते हुए संतू वाणी ने कहा,
‘‘रामजी नहीं आये ?’’
निचोड़ी हुई धोती का हिस्सा झटक कर जोशी दर्जी बोला, ‘‘हां जी, नहीं आये।’’
‘‘आने दो उनको।’’
‘‘आने दो, फिर शुरू करेंगे।’’
लालटेन को मंद कर गोविंदा सब्जीवाला बेंच पर बैठ गया। तीनों बिना कुछ कहे थोड़ी देर के लिए खड़े रहे। फिर जोसी ने पूछा,
‘‘दरवाजा बंद कर दूं ? बौछारें अंदर आ रही हैं।’’
‘‘लेकिन रामजी आयेंगे।’’
‘‘हां, रामजी आयेंगे।’’
तीनों ने रास्ते की ओर ताका। लेकिन रामजी की लालटेन हिलती हुई नजर नहीं आयी। बाहर घना अंधेरा था। केवल रास्ते पर गिरती बारिश की खास आवाज से ही उसकी पहचान हो रही थी। गोविंदा सब्जीवाले ने कहा,
‘‘यह हवा दमे के लिए बहुत खराब है।’’
‘‘शिनारे जमीन पर माथा टेककर लेटा होगा। ऐसी ही हवा में वह कभी मर जायेगा।’’
‘‘मारेगा काहे को ! ऐसे ही लोग बड़े जीवट के होते हैं।’’
‘‘हां, हां ! वे शरीर छोड़ने को तैयार नहीं होते।’’
‘‘बारिश रुकने दो। बीड़ी फूंकते-फूंकते बाहर आ जायेगा फुरफुर !’’
‘‘ऐसे लोगों को मौत नहीं छूती।’’
‘‘और हट्टे-कट्टे मरते हैं फटाफट !’’
इस बात से सभी को रामजी लुहार के बेटे की याद हो आयी। संतू वाणी ने कहा,
‘‘आज चौथा दिन है बच्चे के बाढ़ में बह जाने का।’’
‘‘जवानी में आया बेटा कूच कर गया।’’
‘‘रामजी की उमर क्या होगी ?’’
‘‘होगी साठ के आसपास।’’
‘‘वंश ही खत्म हो गया।’’
‘‘वैसे लड़का शरारती तो नहीं था। कैसे बह गया होगा बाढ़ में ?’’
‘‘लड़के मस्ती में जाते हैं।’’
‘‘क्या शिवा की गाय बिया गयी ?’’
‘‘नहीं जी ! और तीन दिन लेगी।’’
‘‘देखना, आज ही बियायेगी।’’
‘‘क्या उसका बेटा माथेरान से आ गया ?’’
‘‘ऐसी बारिश में क्या आयेगा ?’’
‘‘वह आयेगा।’’
‘‘किसलिए ? मरने के लिए ? कगार से नीचे गिर जायेगा।’’
फिर से किसी को रामजी की याद आयी।
‘‘रामजी नहीं आये ?’’
‘‘क्या बुलाने जायें ?’’
‘‘जाइये जोशीजी, आप जाइये। धौंकनी के पास दुखी होकर बैठा होगा वह।’’
लालटेन उठाकर जोशी बाहर निकल पड़े।
बारिश रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। शिवा नेमाणे बार-बार टटिया के पास आकर गाय की ओर देख रहा था। गाय जहां खड़ी थी वहां आसपास की जगह में पानी कम चू रहा था। गाय ने बियाने के लिए आज का ही दिन चुना, इस बात पर शिवा को गुस्सा आ रहा था। बीच-बीच में उठकर उसकी औरत गोठ में झांक आती थी। गाय की छटपटाहट को वह ज्यादा पहचानती थी। पीड़ा से गाय का बदन खड़े-खड़े ही टेढ़ा-मेढ़ा हो रहा था। बीच में वह बैठ जाती, फिर लड़खड़ा कर उठती भी। कभी-कभी गर्दन भी उठाती। साधी नजर से कहीं एकटक देखती। उसका पीछे का हिसा फूलता जा रहा था। आंवल का नीला-काला गोला बाहर आ रहा था। टटिया के कोने में रखी घासलेट की ढिबरी धुआं उगलती हिलती जा रही थी। हवा से उसकी लौ कांपती जा रही थी। और गाय की छटपटाहट बढ़ने लगी थी। शिवा बोला,
‘‘इस साल सुनार का उठौना बंद कर देंगे। साला एक भी पैसा नहीं देता !’’
उसकी घरवाली बोली, ‘‘कब से तो मैं कह रही थी ! आप सरकारी आदमियों को पकड़ लें।’’
‘‘हां, नौकरीपेशा ही अच्छा होता है। एक तारीख को पैसा तो मिल जाता है।’’
बीच-बीच में वे ऐसी बातें एक-दूसरे को घीरज बंधाने के लिए कर रहे थे। अंदर से तो डर था कि गाय ठीक से बियायेगी कि नहीं। उसे ठीक से छुटकारा मिलेगा तो अच्छा होगा !
‘‘अर्ज्या माथेरान से आयेगा या नहीं ?’’ उसकी औरत ने कहा।
‘‘वह आयेगा कैसे ? धुआंधार बारिश हो रही है।’’
‘‘देखना, जरूर आयेगा।’’
‘‘ना आये तो अच्छा ! ऐसी बारिश में पहाड़ उतर कर आना ठीक नहीं है। सब जगह फिसलन हो गयी है।’’
‘‘फिर रामजी लुहार को बुलायेंगे आप ?’’
‘‘अरी ओ ! उसका तो बेटा चल बसा। उसे कैसे कहेंगे आने के लिए !’’
‘‘यह भी सही है।’’
इतने में गोठ से गाय के खुरों की खड़खड़ सुनायी पड़ी। दोनों टटिया की ओर दौड़ पड़े।
बेटा के बाढ़ में बहे चार दिन हो गये थे पर रामजी धौंकनी को टेककर जो बैठा था वह अभी तक उठा नहीं था। बीच-बीच में अंदर से उसकी औरत की रोने की आवाज सुनायी दे रही थी। एक ढिबरी कोने में धुआं उगलती हुई लाल रोशनी दे रही थी। शाम के धुंधलके जैसी उदासी घर भर में फैली थी। रामजी के मन में यही एक सवाल घुमड़ रहा था-‘मेरा बेटा क्यों मर गया ? विट्ठल जी ! तुमने यह क्या किया ? क्या मैं बुढ़ापे में निःसंतान होकर रोता रहूं ? क्यों ? क्यों ??’
इसके पहले भी फसलें अच्छी नहीं हुईं, धंधा नहीं चला और चोरियां हो गयीं। पर किसी से भी रामजी का मन नहीं टूटा था। कोई भी अपनी मुसीबतें लेकर रोता हुआ आता तो रामजी उसे ढाड़स देता था। कभी चार अभंग (पद) सुनाकर, तो कभी संतों की रचना के प्रमाण देकर। लोग कहते, रामजी से बात करने पर दुख हलका हो जाता है।
लेकिन आज रामजी का अपना ही दुख किसी भी बात से हलका नहीं हो रहा था। आज तक जो कुछ उसने लोगों से कहा था वह तो ऊपरी सतह का समाधान था। जीना और मरना इनमें से उसने कुछ नहीं जाना था और संतों ने भी नहीं जाना था। इसलिए जो आज तक उसने नहीं किया वह आज कर रहा था। भगवान से सवाल कर रहा था। तीस सालों की अपनी पंढरपुर की की गयी यात्राएं उसने विट्ठल के सामने रखी। कहां गया पुण्य पैदल किये गये इन यात्राओं का ? क्या प्रारब्ध से लड़का मरा ? कैसा प्रारब्ध ? बुढ़ापे में मैं रोऊं यही प्रारब्ध ?
जिस भाषा का प्रयोग उसने दूसरों को ढाड़स देने के लिए किया था वह आज उसके लिए बेमानी हो गयी थी। वह विट्ठल से नाराज नहीं हुआ था। उतना आवेश भी उसमें नहीं रहा था। घड़ी बंद हो जाये और फिर समय भी झूठा लगने लगे, ऐसा कुछ उसे लगने लगा था। अचानक उसके ध्यान में आया कि इतने साल विट्ठल की भक्ति के सहारे वह जी रहा था। जब तक लड़का जीवित था तब तक उसे लगता था कि अपना जीव अलग है, अपने जीने का उद्देश्य अलग है, और लड़के का अलग है। लेकिन लड़का चल बसा तो अपना शरीर भी उसे व्यर्थ लगने लगा। उसकी देह मानो एक थैली थी। उसमें रखी चीज के गिरते ही थैली का क्या किया जाये ?
किसी कंठीधारी ने कहा था कि रामजी का दुख अहंकार का ही एक रूप था। लेकिन जिस तरह केंबल गांव बारिश से छुटकारा नहीं पा सकता था उसी तरह रामजी भी अहंकार से मुक्त नहीं हो सकता था।
ओसारे का दरवाजा खोलकर जोशी दर्जी कब अंदर आया इसका पता रामजी को नहीं लगा। जोशी ने छाता कोने में रखा। लालटेन मुंडेर पर रखी और बात की शुरूआत कैसे की जाये यह न जानने पर पशोपेश में पड़ा वह थोड़ी देर खड़ा रहा। फिर बोला,
‘‘रामजी, लोग आपकी राह देख रहे हैं।’’
रामजी की न निगाहें उठीं न गर्दन हिली।
‘‘रामजी, उठिये। आज बुधवार है...।’’
लेकिन अबकी बार पुकार सुनकर भी रामजी का मन नहीं हुआ कि बात करें। अब जोशी आगे बढ़ा। रामजी के पास जाकर उसके कंधे पर उंगली रखकर बोला,
‘‘रामजी चलिए। ज्ञानेश्वरी का पाठ करने पर अच्छा लगेगा।’’
रामजी ने मन ही मन कहा, ‘अब मुझे किसी बात से अच्छा नहीं लगेगा-किसी से भी नहीं। सब कुछ झूठ है। यह दुनिया झूठी है। मैं झूठा हूं। ज्ञानेश्वरी और विट्ठल झूठे हैं। हम सब व्यर्थ ही यहां हैं।’
लेकिन किसी से बात करने की या विवाद करने की उसकी इच्छा ही खत्म हो गयी थी। किसी ने कहा, ‘‘रामजी, खाना खाने के लिए उठिये।’’ वह उठा। ‘‘कपड़े बदल डालिये।’’ बदल डाले। चार दिन से ऐसा ही हो रहा था। अबकी बार भी जोशी के ‘‘उठिये’’ कहते ही वह उठा। मशीन की तरह दरवाजे के पास गया। जोशी ने लालटेन उठायी। बाहर आते ही दरवाजा भेड़ दिया। ओसारे से आगे बढ़कर रामजी सीधे बारिश में ही घुस गया था। जोशी ने झट से छाता खोलकर रामजी के सिर पर तान दिया। रास्ता तय करते समय रामजी की संभाल वह इस प्रकार करने लगा जिस प्रकार किसी बीमार की की जाती है। ‘‘रामजी, आगे गड्ढा है, जरा ध्यान से ! रामजी, पत्थर है...!’’ संतू वाणी के ओसारे में घुसकर झुके छत के पास आते ही उसने कहा, ‘‘नीचे झुक जाइये, रामजी...!’’
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लोगों की राय
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