बहुभागीय पुस्तकें >> युगपुरुष तुलसी - भाग 2 युगपुरुष तुलसी - भाग 2सोहनलाल रामरंग
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गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन पर आधारित उपन्यास....
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Yugpurush Tulsi-2
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।।31।।
पूर्वांचल
संतों का जलपोत धीरे-धीरे उत्कल की सीमा को लाँघता हुआ बंगभूमि की ओर अग्रसर होने लगा। अभी वह बंगीय तट में गंगासागर से कुछ दूरी पर ही था कि उसे कुछ छोटी-छोटी नौकाएँ इधर-उधर तैरती हुई दिखाई पड़ने लगीं। अभी संत विचार ही रहे थे कि ये नौकाएँ किनकी हो सकती हैं और क्यों उनकी ओर बढ़ने चली आ रही हैं तभी उनमें से एक नौका जो आकार में भी अन्य से कुछ बड़ी थी और उसकी सज्जा भी विशेष थी, वह अन्य नौकाओं के पीछे करती हुई, तेजी से उनकी ओर बढ़ चली। संतों के जलपोत के समीप आते ही उस नौका के प्रमुख अधिकारी ने शंखवादन करते हुए ‘जय-जय प्रभु जगन्नाथ-जय पावनी माँ गंगा’ का उद्योष उच्च् स्वर में किया। साथ ही अपने पीछे आने का संकेत भी जलपोत के मल्लाहों को दिया। आश्वतस्त संतों के निर्देश पर जलपोत उस नौका के निर्दिष्ट मार्ग पर बढ़ चला।
धीरे-धीरे जलपोत अन्य नौकाओं के घेरे में आ गया। गंगासागर के समीप एक द्वीप के तट पर आकर नौका ठहर गई और उसी के साथ अन्य नौकाओं से घिरा हुआ संतों का जलपोत भी ठहर गया। एक छोटी-सी सीढ़ी मल्लाहों ने लगा दी। रमई राजा के कुछ सिपाहियों के उतरते ही उसी के सहारे धीरे-धीरे एक-एक करके संत भी उतरने लगे। उन्होंने देखा कि उनके समक्ष अंजलियों में पुष्प भरे एक सैनिक टुकड़ी खड़ी है। और उनका नेतृत्व करते हुए एक सुगौर-दर्शनीय युवक उनकी ओर अत्यन्त श्रद्धा भरी दृष्टि से उन्हें निहारता हुआ घुटनों-घुटनों जल में खड़ा है। सैनिक एक-एक संत पर पुष्प बरसाते जाते और उनके हाथ थाम-थाम कर उन्हें तट की कीचड़ भरी भूमि से सावधानीपूर्वक कुछ शुष्क सी धरती तक लेते जाते। कुछ ही क्षणों में तुलसीदास और एकनाथ भी सीढ़ियों पर दिखने लगे। संतों से उनका परिचय पाते ही उस युवक ने कुछ और बढ़कर उनके चरणों में तुलसीदास द्वारा परिचय करते हुए, स्वयं उन्हें सहारा देकर तट भूमि की ओर ले चला। तुलसीदास द्वारा परिचय जानने की स्थिति में, वह एकमात्र इतना ही बोला कि, ‘‘आप अपने इस बालक को अपना सेवक ही मानिये। आपके आगमन से पूर्व राजा टोडरमल जी पत्र और आपके यात्रा संबंधी प्रबंध का दायित्व हमें सौंपा गया है। इन दिनों बंगाल एवं असम की स्थिति अतन्त विस्फोटक है। अतः इस अनेक पावक तीर्थों से भरी-पूरी धरती पर आपको केवल निरापद स्थानों की ही यात्रा कुशलतापूर्वक कराई जाये और आपके संत भी इस विनम्र निवेदन को अन्यथा न लें। यही विनम्र निवेदन है।’’
तुलसीदास स्वीकृति सूचक मुद्रा में संतों के साथ गंगासिंधु पर स्नान कर श्री कपिल मुनि के जल निमग्न मंदिर को प्रणाम कर ज्यों ही बढ़े कि वही युवक उन्हें एक शिविर में ले गया जहाँ पावित्र्य पूर्वक खानपान की सामग्री पहले से ही सजी हई थी। संतों द्वारा प्रसाद ग्रहण करते ही, उस युवक ने निवेदन किया कि ‘‘आप यद्यपि थके हुए हैं, यह मैं जानता हूँ किन्तु यह स्थान अल्पकालीन विश्राम के भी योग्य नहीं है। मकर संक्राति पर समुद्र कैसे स्थान छोड़ देता है, यह अनेकों के आश्चर्य का कारण बना हुआ है किन्तु जो सत्य है, वह सत्य है। उस ईश्वर की इस अलौकिक महिमा को नकारने की सामर्थ्य किसमें हैं?’’ हँसोड़ बाबा इस अवसर पर क्यों चूकते, अतः बोल ही उठे- ‘‘भैया अनाम राजकुमार राजपुरुष सुनों जब तुलसीदास जैसे सिद्ध संत गंगा- सिंधु संगम पर न्हायें तभी मकर-संक्राति महारानी मानी जाएं। दिन सूर्य भगवान् अधीन, फिर चाहे राजभवन का शिखर हो कि किसी की झुपड़िया।’’
संत हँसते हुए गंगा को प्रणाम करते हुए नौकाओं में चढ़ गये। इस समय बारीसाल के नाम से जाने जा रहे, वरुणद्वीप वारिषेण पर संत दिन ढलने से पूर्व ही जा पहुँचे प्रातः नित्यकर्म से निवृत होकर सैनिकों से संरक्षित संतमडंल सुनंदा नदी के समीप सती भगवती के नासिक-जतनस्थल पर स्थापित उग्रतारा शक्तिपीठ के दर्शन करते हुए खुलना जनपद के ईश्वरीपुर जा पहुँचे। यह भी तो वामतल्प (हथेली) की पतनस्थली होने के कारण शक्तिपीठ के रूप में करतोया नदी के तट पर स्थित है। वामपाणि पतनस्थल यशोहर में यशोदेश्वरी, वामकर्णपतन स्थल भवानीपुर में भवानी शक्तिपीठों की अर्चना करते हुए यशोहर नरेश राजा प्रतापादित्य, चंद्रद्वीप-नरेश नारायण आदि से अभिनंदित होते हुए संत चट्टल ग्राम (चटगाँव) में अभी बाहुपतनस्थली तीर्थ के दर्शन कर बाड़व कुंड के तट पर आकर प्रसाद ग्रहण कर ही रहे थे कि दूर से पाँच अश्वारोही सफेद झंडा लहराते हुए इसी ओर आते हुए दिखे। उन्हें देखते ही संत-संरक्षक सैन्य टुकड़ी के नायक कुमार के निर्देश पर इधर से भी पाँच अश्वरोही उनकी ओर बढ़ चले। आगंतुक सवार अहोमराजा की ओर से संतों को अपने राज्य में आमंत्रित करने आये थे। उन्हें वहीं ठहराकर, आमंत्रण पत्र लेकर सैनिकों ने वह नायक को सौंप दिया। पत्र को पढ़कर नायक के माथे पर चिन्ता की रेखाएँ उभर आईं। वह बार-बार घूम-घूम कर ठहर-ठहर कर पत्र को पढ़ता और फिर अधमुँदे नेत्रों से आकाश को निहारने लगता। उसे चिंतातुर देखकर तुलसीदास के संकेत पर बाबा ने उसके पास जाकर धीरे से पूछा-
‘‘यदि इस पत्र में कोई राजकीय गोपनीय चर्चा न हो और हमसे सम्बन्धित कोई विषय हो तो श्रीमंत, हमें निस्संकोच बतायें। हम संतगण तीर्थयात्रा के साथ-साथ देश की संक्रामक स्थिति का भी सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण कर रहे हैं। इस पूर्वांचल की स्थिति का भी हमें आभास हो गया है। यदि हमारे कारण कोई समस्या उत्पन्न हो रही हो तो हम उसके समाधान के लिए किंचितमात्र भी व्यवधान उपस्थित नहीं होने देंगे। आप निश्चिं रहें।’’
नायक ने वह पत्र बाबा के हाथ में थमा दिया। वे पत्र लेते ही बोले, ‘‘यदि आप कहें तो मैं यह प० तुलसीदास के समक्ष कर दूँ क्योंकि इस संत-मंडली के वे ही नायक हैं।’’
नायक की स्वीकृति सूचक मुद्रा देखकर हँसोड़ बाबा वह पत्र लेकर तुलसीदास के पास आ गये। अन्य संत भी जो बाड़व कुंड़ के आसपास लेटे-बैठे थे, वे भी उत्सुकतावश शीघ्रता से वहीं आ पहुँचे। तुलसीदास अभी पत्र पढ़ रहे थे कि सैन्य नायक उनके समीप आकर खड़े हो गये। पत्र पढ़कर वे बोले, ‘‘नायक महोदय, इसमें संकोच की क्या बात है ? अहोम नरेश ने सुदूर पूर्वांचल के तीर्थों के दर्शन कराने के लिए हमें आमंत्रित ही तो किया है ।’’
नायक उनके शान्त शब्द सुनकर, अपने माथे पर उभरते हुए स्वेद कणों को अपने उत्तरीय के आँचल से पोंछता हुआ बोला, ‘‘यह सत्य है कि अहोम राजा ने सुदूर पूर्वांचल के तीर्थ जो उनकी राज्यसीमा के अंतर्गत ही आते हैं, उसमें निरापद यात्रा करने का निमंत्रण आपको दिया है। प्रथम दृष्टि में इसमें कोई छल-प्रपंच भी दृष्टिगोचर नहीं होता अहोम नरेश सात्विक-धर्मनिष्ठा हिन्दू भी हैं परन्तु राजा टोडरमल जी के हमें स्पष्ट निर्देश हैं कि कालीकाता तक संत मंडली को हम अपने सुरक्षा-व्यूह में ही यात्रा करायें। यदि आपको नहीं जाने देते हैं तो आप सुदूर पूर्वोत्तर के तीर्थों के दर्शन-लाभ से वंचित रह जाएँगे अथवा हमें अपने स्वधर्मियों से अकारण संघर्ष करना पड़ेगा, जिसका पाप हमें लगेगा और जाने देते हैं तो राजकीय आदेश की अवहेलना का भय है। यदि कोई अनहोनी घटना, ईश्वर न करे, यदि आपके साथ घट गई तो-’’ ‘‘ऐसी किस अनहोनी घटना की आपको आशंका है, वह स्पष्ट कहिये ?’’
‘‘शूरवीर सैन्य टुकड़ियों के मध्य किसी अन्य टुकड़ी के आक्रमण का भय तो विशेष नहीं लगता किन्तु कुछ वनवासी कबीले, जो न हमें मानते हैं और न ही अहोम राजा को मान्य करते हैं, वे प्रायः किसी भी अपरिचित को अपने क्षेत्र में देखते ही बिना कारण जाने वार कर बैठते हैं। उनके छोठे-छोटे धनुषों के तीर भी छोटे-छोटे ही होते हैं परन्तु भयंकर विषों में बुझे हुए होते हैं। साथ ही उनका लक्ष्य भी प्रायः अचूक होता है। यदि ऐसा कोई अवसर आ गया तो अहोम क्या कर लेंगे ?
‘‘यह विषय प्रभु पर छोड़िये। ये शरीर एक दिन जाने है। जहाँ जाने है, जब जने हैं, उन्हें कोई नहीं रोक सकता और कहिए?’’
‘‘और क्या कहूँ ? एक और भी आशंका हैं। निर्मूल दिखते हुए भी चित्त को कही न कहीं विचलित कर ही देती हैं।’’
‘‘वह भी कहिये।’’
‘‘यही कि कहीं उन्होंने ईपकों बंधक बनाकर, कोई माँग प्रस्तुत कर दी तो’’ नायक के ये शब्द सुनते ही तुलसीदास से पूर्व ही हँसोड़ बाबा हँसते हुए बोल पड़े, ‘‘नायक महाशय, हम फक्कड़ों को बंधक बनाकर अहोम हमारा क्या कर लेंगे ? अरे, हम कोई कछवाहा भरमल के भतीजे जगन्नाथ-रामसिंह-खंगर आदि हैं क्या, जिन्हें सांभर के लवण क्षेत्र में बंधक बनाकर कोई हमारे बदले किसी रखैल की छोकरी जोधाबाई का डोला माँग लेगा ? नायक ! निर्मूल ऊहापोहों की घाटी से निकलकर हमें अहोमों के घाट पर जान दो। जिन-घटवासी ने अहोमो के घट में संतों के आने की कोई सूचना के घंटे बजाये हैं, वहीं कोई घंटी नहीं बजने नहीं देगें।’’
फिर तुरंत ही अन्य संतों की ओर उनमुख होते हुए बाबा बोले, ‘‘क्यों भई संतों, हमसे सहमत कि असहमत ?’’
सभी संत समवेत स्वर में बोल उठे, ‘‘सहमत-सहमत, चालीस टके सहमत।’’
संतों की सहमति प्राप्त होते ही नायक के निर्देश पर उनके सैनिक पाँचों अहोम सैनिकों को ले आये। वे संतों को प्रणाम और प्रथानुसार नायक का अभिवादन कर, उनके आदेश सुनने की मुद्रा मे विनम्र भाव से खड़े हो गये।
नायक ने कहा, ‘‘हमें बताइये कि इन संतों को आपके अहोम नरेश कहाँ ले जाना चाहते है और पुनः हमें
सौप देंगे ?’’
पाँचों अहोम सैनिकों के नायक ने आगे बढ़कर कि, ‘‘हम पूजनीय संतों को यहीं कर्णफूली नदी की मध्यधारा से लेंगे और ब्रह्मपुत्र के तट माँ कामाख्या के मंदिर में आपको अपने सिर रहते तक सौंपने में किसी प्रकार की कोताही नहीं बरतेंगे। एक अहोम के धरती पर बिछ जाने के पश्चात् ही कोई पामर संतों की छाँह छूने में समर्थ हो सकेगा, यह हम माँ ब्रह्मपुत्र को साक्षी मानकर आपको वचन देते हैं।’’
अहोम नायक के शब्द सुनते ही ‘जय माँ कामाख्या’ कहकर संत खड़े हो गये हो अहोम सैनिकों के संकेत पर कई नावें कर्णफूलीं के तट पर आ लगीं। नायक का प्रणाम स्वीकार करते हुए संतों के बैठते ही नावें चल पड़ी और कुछ ही समय में कर्णफूली के दूसरे तट पर स्थिति अहो–राज्य की सीमा में जा ठहरीं। अहोम सैनिक पुष्प वर्षा करते हुए संतों को अपने शिविर में ले आये।
अहोम सैनिकों के साथ संतगण कमलांक (कोमिला) होते हुए विक्रमपुर (ढाका) जा पहुँचे। महाप्रभु चैतन्यदेव के पिता जगन्नाथ मिश्र एवं पितमाह उपेन्द्र मिश्र की जन्मभूमि होने के कारण यह गुप्त वृंदावन के रूप में विख्यात था। कैलास पहाड़ी पर गोपेश्वर महादेव एवं ढाकेशवरी का पूजन–अर्चन कर वहाँ के शिल्पियों से भी मिले। हथकरघों पर बाल से बारीक सूत द्वारा उन्हें मलमल बनाते वस्त्र लेकर खड़े हो गये परन्तु सात्विक संतों ने वे राजसी वस्त्र उनके शिल्पों की सराहना करते हुए लौटा दिये। शिल्पियों के समूह में छाई हुई उदासी को लक्ष्य करके हँसोड़ बाबा संतों की ओर उनमुख होके बोले, ‘‘अरे भैया लोगों !
आप सब संत हो, यह तो माना किन्तु तुमसे तो काहू के ठाकुर द्वारकाधीस तो काहु के कौसलेस, काहु के लक्ष्मीपति छीरसागर वासी, तो काहु की ठाकुर की ठकुरानी गिरिराजनंदिनी त्रैलोक्यसुंदरी भवानी। इनमें कौन सो तिहारे समान मोट्यौं-झौट्यो धरिबें वारयौं संत ? अरे, उन्हन केहुँ बिछावन खातिर कछु ले लेव इन बिस्वकार्माजू म्हाराज के सपूतन कौ उतरकौ भयो मुखमंडल निरिख-परिखि के भलै मानुसो कछु तौ लाज-हया पै दया बक्सो।’’ संतो की मौन स्वीकृति देखकर बाबा शिल्पियों से बोले, ‘‘अरे भैया ! हम संतन की औकात तिहारे थान के थानन की नाय। हमहु तो ठाकुर के बिछावन हेतु- बित्ते-बित्ते भर के पट भेंट करि देव। हमारे ठाकुर उनपै बिराजमान और उनकी ठकुरानी तिहारे बिराजैंगी।’’
धीरे-धीरे जलपोत अन्य नौकाओं के घेरे में आ गया। गंगासागर के समीप एक द्वीप के तट पर आकर नौका ठहर गई और उसी के साथ अन्य नौकाओं से घिरा हुआ संतों का जलपोत भी ठहर गया। एक छोटी-सी सीढ़ी मल्लाहों ने लगा दी। रमई राजा के कुछ सिपाहियों के उतरते ही उसी के सहारे धीरे-धीरे एक-एक करके संत भी उतरने लगे। उन्होंने देखा कि उनके समक्ष अंजलियों में पुष्प भरे एक सैनिक टुकड़ी खड़ी है। और उनका नेतृत्व करते हुए एक सुगौर-दर्शनीय युवक उनकी ओर अत्यन्त श्रद्धा भरी दृष्टि से उन्हें निहारता हुआ घुटनों-घुटनों जल में खड़ा है। सैनिक एक-एक संत पर पुष्प बरसाते जाते और उनके हाथ थाम-थाम कर उन्हें तट की कीचड़ भरी भूमि से सावधानीपूर्वक कुछ शुष्क सी धरती तक लेते जाते। कुछ ही क्षणों में तुलसीदास और एकनाथ भी सीढ़ियों पर दिखने लगे। संतों से उनका परिचय पाते ही उस युवक ने कुछ और बढ़कर उनके चरणों में तुलसीदास द्वारा परिचय करते हुए, स्वयं उन्हें सहारा देकर तट भूमि की ओर ले चला। तुलसीदास द्वारा परिचय जानने की स्थिति में, वह एकमात्र इतना ही बोला कि, ‘‘आप अपने इस बालक को अपना सेवक ही मानिये। आपके आगमन से पूर्व राजा टोडरमल जी पत्र और आपके यात्रा संबंधी प्रबंध का दायित्व हमें सौंपा गया है। इन दिनों बंगाल एवं असम की स्थिति अतन्त विस्फोटक है। अतः इस अनेक पावक तीर्थों से भरी-पूरी धरती पर आपको केवल निरापद स्थानों की ही यात्रा कुशलतापूर्वक कराई जाये और आपके संत भी इस विनम्र निवेदन को अन्यथा न लें। यही विनम्र निवेदन है।’’
तुलसीदास स्वीकृति सूचक मुद्रा में संतों के साथ गंगासिंधु पर स्नान कर श्री कपिल मुनि के जल निमग्न मंदिर को प्रणाम कर ज्यों ही बढ़े कि वही युवक उन्हें एक शिविर में ले गया जहाँ पावित्र्य पूर्वक खानपान की सामग्री पहले से ही सजी हई थी। संतों द्वारा प्रसाद ग्रहण करते ही, उस युवक ने निवेदन किया कि ‘‘आप यद्यपि थके हुए हैं, यह मैं जानता हूँ किन्तु यह स्थान अल्पकालीन विश्राम के भी योग्य नहीं है। मकर संक्राति पर समुद्र कैसे स्थान छोड़ देता है, यह अनेकों के आश्चर्य का कारण बना हुआ है किन्तु जो सत्य है, वह सत्य है। उस ईश्वर की इस अलौकिक महिमा को नकारने की सामर्थ्य किसमें हैं?’’ हँसोड़ बाबा इस अवसर पर क्यों चूकते, अतः बोल ही उठे- ‘‘भैया अनाम राजकुमार राजपुरुष सुनों जब तुलसीदास जैसे सिद्ध संत गंगा- सिंधु संगम पर न्हायें तभी मकर-संक्राति महारानी मानी जाएं। दिन सूर्य भगवान् अधीन, फिर चाहे राजभवन का शिखर हो कि किसी की झुपड़िया।’’
संत हँसते हुए गंगा को प्रणाम करते हुए नौकाओं में चढ़ गये। इस समय बारीसाल के नाम से जाने जा रहे, वरुणद्वीप वारिषेण पर संत दिन ढलने से पूर्व ही जा पहुँचे प्रातः नित्यकर्म से निवृत होकर सैनिकों से संरक्षित संतमडंल सुनंदा नदी के समीप सती भगवती के नासिक-जतनस्थल पर स्थापित उग्रतारा शक्तिपीठ के दर्शन करते हुए खुलना जनपद के ईश्वरीपुर जा पहुँचे। यह भी तो वामतल्प (हथेली) की पतनस्थली होने के कारण शक्तिपीठ के रूप में करतोया नदी के तट पर स्थित है। वामपाणि पतनस्थल यशोहर में यशोदेश्वरी, वामकर्णपतन स्थल भवानीपुर में भवानी शक्तिपीठों की अर्चना करते हुए यशोहर नरेश राजा प्रतापादित्य, चंद्रद्वीप-नरेश नारायण आदि से अभिनंदित होते हुए संत चट्टल ग्राम (चटगाँव) में अभी बाहुपतनस्थली तीर्थ के दर्शन कर बाड़व कुंड के तट पर आकर प्रसाद ग्रहण कर ही रहे थे कि दूर से पाँच अश्वारोही सफेद झंडा लहराते हुए इसी ओर आते हुए दिखे। उन्हें देखते ही संत-संरक्षक सैन्य टुकड़ी के नायक कुमार के निर्देश पर इधर से भी पाँच अश्वरोही उनकी ओर बढ़ चले। आगंतुक सवार अहोमराजा की ओर से संतों को अपने राज्य में आमंत्रित करने आये थे। उन्हें वहीं ठहराकर, आमंत्रण पत्र लेकर सैनिकों ने वह नायक को सौंप दिया। पत्र को पढ़कर नायक के माथे पर चिन्ता की रेखाएँ उभर आईं। वह बार-बार घूम-घूम कर ठहर-ठहर कर पत्र को पढ़ता और फिर अधमुँदे नेत्रों से आकाश को निहारने लगता। उसे चिंतातुर देखकर तुलसीदास के संकेत पर बाबा ने उसके पास जाकर धीरे से पूछा-
‘‘यदि इस पत्र में कोई राजकीय गोपनीय चर्चा न हो और हमसे सम्बन्धित कोई विषय हो तो श्रीमंत, हमें निस्संकोच बतायें। हम संतगण तीर्थयात्रा के साथ-साथ देश की संक्रामक स्थिति का भी सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण कर रहे हैं। इस पूर्वांचल की स्थिति का भी हमें आभास हो गया है। यदि हमारे कारण कोई समस्या उत्पन्न हो रही हो तो हम उसके समाधान के लिए किंचितमात्र भी व्यवधान उपस्थित नहीं होने देंगे। आप निश्चिं रहें।’’
नायक ने वह पत्र बाबा के हाथ में थमा दिया। वे पत्र लेते ही बोले, ‘‘यदि आप कहें तो मैं यह प० तुलसीदास के समक्ष कर दूँ क्योंकि इस संत-मंडली के वे ही नायक हैं।’’
नायक की स्वीकृति सूचक मुद्रा देखकर हँसोड़ बाबा वह पत्र लेकर तुलसीदास के पास आ गये। अन्य संत भी जो बाड़व कुंड़ के आसपास लेटे-बैठे थे, वे भी उत्सुकतावश शीघ्रता से वहीं आ पहुँचे। तुलसीदास अभी पत्र पढ़ रहे थे कि सैन्य नायक उनके समीप आकर खड़े हो गये। पत्र पढ़कर वे बोले, ‘‘नायक महोदय, इसमें संकोच की क्या बात है ? अहोम नरेश ने सुदूर पूर्वांचल के तीर्थों के दर्शन कराने के लिए हमें आमंत्रित ही तो किया है ।’’
नायक उनके शान्त शब्द सुनकर, अपने माथे पर उभरते हुए स्वेद कणों को अपने उत्तरीय के आँचल से पोंछता हुआ बोला, ‘‘यह सत्य है कि अहोम राजा ने सुदूर पूर्वांचल के तीर्थ जो उनकी राज्यसीमा के अंतर्गत ही आते हैं, उसमें निरापद यात्रा करने का निमंत्रण आपको दिया है। प्रथम दृष्टि में इसमें कोई छल-प्रपंच भी दृष्टिगोचर नहीं होता अहोम नरेश सात्विक-धर्मनिष्ठा हिन्दू भी हैं परन्तु राजा टोडरमल जी के हमें स्पष्ट निर्देश हैं कि कालीकाता तक संत मंडली को हम अपने सुरक्षा-व्यूह में ही यात्रा करायें। यदि आपको नहीं जाने देते हैं तो आप सुदूर पूर्वोत्तर के तीर्थों के दर्शन-लाभ से वंचित रह जाएँगे अथवा हमें अपने स्वधर्मियों से अकारण संघर्ष करना पड़ेगा, जिसका पाप हमें लगेगा और जाने देते हैं तो राजकीय आदेश की अवहेलना का भय है। यदि कोई अनहोनी घटना, ईश्वर न करे, यदि आपके साथ घट गई तो-’’ ‘‘ऐसी किस अनहोनी घटना की आपको आशंका है, वह स्पष्ट कहिये ?’’
‘‘शूरवीर सैन्य टुकड़ियों के मध्य किसी अन्य टुकड़ी के आक्रमण का भय तो विशेष नहीं लगता किन्तु कुछ वनवासी कबीले, जो न हमें मानते हैं और न ही अहोम राजा को मान्य करते हैं, वे प्रायः किसी भी अपरिचित को अपने क्षेत्र में देखते ही बिना कारण जाने वार कर बैठते हैं। उनके छोठे-छोटे धनुषों के तीर भी छोटे-छोटे ही होते हैं परन्तु भयंकर विषों में बुझे हुए होते हैं। साथ ही उनका लक्ष्य भी प्रायः अचूक होता है। यदि ऐसा कोई अवसर आ गया तो अहोम क्या कर लेंगे ?
‘‘यह विषय प्रभु पर छोड़िये। ये शरीर एक दिन जाने है। जहाँ जाने है, जब जने हैं, उन्हें कोई नहीं रोक सकता और कहिए?’’
‘‘और क्या कहूँ ? एक और भी आशंका हैं। निर्मूल दिखते हुए भी चित्त को कही न कहीं विचलित कर ही देती हैं।’’
‘‘वह भी कहिये।’’
‘‘यही कि कहीं उन्होंने ईपकों बंधक बनाकर, कोई माँग प्रस्तुत कर दी तो’’ नायक के ये शब्द सुनते ही तुलसीदास से पूर्व ही हँसोड़ बाबा हँसते हुए बोल पड़े, ‘‘नायक महाशय, हम फक्कड़ों को बंधक बनाकर अहोम हमारा क्या कर लेंगे ? अरे, हम कोई कछवाहा भरमल के भतीजे जगन्नाथ-रामसिंह-खंगर आदि हैं क्या, जिन्हें सांभर के लवण क्षेत्र में बंधक बनाकर कोई हमारे बदले किसी रखैल की छोकरी जोधाबाई का डोला माँग लेगा ? नायक ! निर्मूल ऊहापोहों की घाटी से निकलकर हमें अहोमों के घाट पर जान दो। जिन-घटवासी ने अहोमो के घट में संतों के आने की कोई सूचना के घंटे बजाये हैं, वहीं कोई घंटी नहीं बजने नहीं देगें।’’
फिर तुरंत ही अन्य संतों की ओर उनमुख होते हुए बाबा बोले, ‘‘क्यों भई संतों, हमसे सहमत कि असहमत ?’’
सभी संत समवेत स्वर में बोल उठे, ‘‘सहमत-सहमत, चालीस टके सहमत।’’
संतों की सहमति प्राप्त होते ही नायक के निर्देश पर उनके सैनिक पाँचों अहोम सैनिकों को ले आये। वे संतों को प्रणाम और प्रथानुसार नायक का अभिवादन कर, उनके आदेश सुनने की मुद्रा मे विनम्र भाव से खड़े हो गये।
नायक ने कहा, ‘‘हमें बताइये कि इन संतों को आपके अहोम नरेश कहाँ ले जाना चाहते है और पुनः हमें
सौप देंगे ?’’
पाँचों अहोम सैनिकों के नायक ने आगे बढ़कर कि, ‘‘हम पूजनीय संतों को यहीं कर्णफूली नदी की मध्यधारा से लेंगे और ब्रह्मपुत्र के तट माँ कामाख्या के मंदिर में आपको अपने सिर रहते तक सौंपने में किसी प्रकार की कोताही नहीं बरतेंगे। एक अहोम के धरती पर बिछ जाने के पश्चात् ही कोई पामर संतों की छाँह छूने में समर्थ हो सकेगा, यह हम माँ ब्रह्मपुत्र को साक्षी मानकर आपको वचन देते हैं।’’
अहोम नायक के शब्द सुनते ही ‘जय माँ कामाख्या’ कहकर संत खड़े हो गये हो अहोम सैनिकों के संकेत पर कई नावें कर्णफूलीं के तट पर आ लगीं। नायक का प्रणाम स्वीकार करते हुए संतों के बैठते ही नावें चल पड़ी और कुछ ही समय में कर्णफूली के दूसरे तट पर स्थिति अहो–राज्य की सीमा में जा ठहरीं। अहोम सैनिक पुष्प वर्षा करते हुए संतों को अपने शिविर में ले आये।
अहोम सैनिकों के साथ संतगण कमलांक (कोमिला) होते हुए विक्रमपुर (ढाका) जा पहुँचे। महाप्रभु चैतन्यदेव के पिता जगन्नाथ मिश्र एवं पितमाह उपेन्द्र मिश्र की जन्मभूमि होने के कारण यह गुप्त वृंदावन के रूप में विख्यात था। कैलास पहाड़ी पर गोपेश्वर महादेव एवं ढाकेशवरी का पूजन–अर्चन कर वहाँ के शिल्पियों से भी मिले। हथकरघों पर बाल से बारीक सूत द्वारा उन्हें मलमल बनाते वस्त्र लेकर खड़े हो गये परन्तु सात्विक संतों ने वे राजसी वस्त्र उनके शिल्पों की सराहना करते हुए लौटा दिये। शिल्पियों के समूह में छाई हुई उदासी को लक्ष्य करके हँसोड़ बाबा संतों की ओर उनमुख होके बोले, ‘‘अरे भैया लोगों !
आप सब संत हो, यह तो माना किन्तु तुमसे तो काहू के ठाकुर द्वारकाधीस तो काहु के कौसलेस, काहु के लक्ष्मीपति छीरसागर वासी, तो काहु की ठाकुर की ठकुरानी गिरिराजनंदिनी त्रैलोक्यसुंदरी भवानी। इनमें कौन सो तिहारे समान मोट्यौं-झौट्यो धरिबें वारयौं संत ? अरे, उन्हन केहुँ बिछावन खातिर कछु ले लेव इन बिस्वकार्माजू म्हाराज के सपूतन कौ उतरकौ भयो मुखमंडल निरिख-परिखि के भलै मानुसो कछु तौ लाज-हया पै दया बक्सो।’’ संतो की मौन स्वीकृति देखकर बाबा शिल्पियों से बोले, ‘‘अरे भैया ! हम संतन की औकात तिहारे थान के थानन की नाय। हमहु तो ठाकुर के बिछावन हेतु- बित्ते-बित्ते भर के पट भेंट करि देव। हमारे ठाकुर उनपै बिराजमान और उनकी ठकुरानी तिहारे बिराजैंगी।’’
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