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राई और पर्वत

रांगेय राघव

प्रकाशक : किताबघर प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5735
आईएसबीएन :81-7016-666-7

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प्रस्तुत है रांगेय राघव जी का उपन्यास...

Rai aur parvat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रंगीन कपड़े उतरे, सफेद धोती आई, सुहागिनों ने मन के भीतर कहीं हौंस से भरकर, दूसरी ओर अपने भविष्य को डर डरकर प्रणाम करते हुए उसके हाथों की चूड़ियाँ तोड़ दीं। और अब उँगलियों में जवानी की किलकारियाँ मारने वाले बिछिया नहीं रहे।

जिन बालों पर कभी मास्टर के हाथ सिहर उठते थे, वे रुखे हो गए और माथे की बिंदिया चूल्हे की लपटों में थरथराने लगी। उसे वह देख सकती थी, मगर छू नहीं सकती थी क्योंकि उसमें भस्म कर देने की शक्ति थी अब। यौवन के वह उभार जो अंग-अंग में आ रहे थे, जैसे बेल बढ़ती है; अब वह उन सबसे लजाने लगी। फूल-सी कहलाती थी जो आयु, वह अब पहाड़- सी कहलाने लगी। ब्राह्मण जाति में पति एक पुल है, जो स्त्री के लिए जन्म और मृत्यु के पर्वतों को मिलाता है, जीवन की भयानक नदी को निरापद बनाता है। वह न रहे, तो कहाँ जाए स्त्री ? कब से होता आ रहा है ऐसा और अब यह शाश्वत-सा हो गया है।

इसी पुस्तक से

राई और पर्वत

थाने की छाया में घास भी डरते-डरते उगती है, क्योंकि भारी बूटों के नीचे पिस-पिसकर माटी धूल बन जाती है। पत्थर की इमारत देखकर इंसान को जो खुशी होती है, उसे अगर हटाना हो तो उस पर लिख देना चाहिए-‘थाना’। ज्ञान फैलाने को कॉलेज- स्कूल बनते हैं; इलाज के लिए अस्पताल; इंसाफ के लिए अदालत और अमर और चैन कायम रखने के लिए थाना बनता है। अक्लमंद करने का रोजगार स्कूल कॉलेज में होता है, अस्पताल से अकसर मुर्दें भी निकलते हैं और अदालतों में भी कभी-कभी इंसाफ की झलक मिल जाती है; मगर लोगों का आम खयाल यही है-थाने में शराफत नहीं होती सब जानते हैं कि अगर थाना न हो तो गुंडों का राज कायम हो जाए, आदमी का रास्ता चलना मुश्किल हो जाए, लेकिन दुनिया है कि इतनी अच्छी जगह को भी अच्छा नहीं समझती गोया आदत हो गई है कि हर अच्छी चीज़ पर नुक्ताचीनी की ही जाए, क्योंकि सामने पड़ने पर सब ही दरोगा से बड़ी मिठास से बोलते हैं। बाहर पेड़ जरूर हैं थाने के। उन पर परिंदे भी बैठते हैं, मगर परिदें आदमी नहीं होते, लिहाजा उन्हें कोई सरोकार नहीं होता।

गाँव का यह एक कोना है, इसके पीछे खेत शुरू हो जाते हैं और खेतों में जब सिर फूटते हैं तब इस थाने में से लंबी सी भुजा निकल पड़ती है जो हर तरफ मुड़ने की ताकत रखती है।
पास में स्कूल है, जहाँ बच्चे पढ़ते हैं। यों गाँव अच्छा खासा है, अगले गाँव में तहसील भी है, अस्पताल भी है, जहाँ डॉक्टर भी रहता है।
ऐसे इस गाँव में, राजस्थान की सरहद पर जहाँ उत्तर प्रदेश मिलता है, उत्तर प्रदेश की सरकार का राज चलता है, जबकि लोग बोलते यहाँ ब्रजभाषा है और खड़ीबोली भी अब प्राय चल पड़ी है। संस्कृतियों को राज्यों का परिवर्तन बदलता है, परंतु अभी तक कोई भी परिवर्तन थाने में कोई विशेष परिवर्तन नहीं ला पाया है।
दरोगाजी गंभीर से बैठे थे।

सामने हुक्का था। दरोगाजी ने आखिरी कश खींचकर नै को सरका दिया।
एक सिपाही उसे उठा ले गया।
दूसरे ने आकर सलाम किया।
दरोगाजी ने आराम से पलकें जरा उठा कर आने वाले पर शाही नजाकत से गौर फरमाया।
सरकार कुछ अर्ज करने आया था ताबेदार।’’
दरोगाजी ने सिर हिलाया। दीवानजी ने प्रवेश किया।
‘‘क्यों जुझहारसिंह ?’’ दीवानजी ने सिपाही से कहा, ‘‘तुमने सरकार से अर्ज कर दिया ?’’
‘‘नहीं हुजूर। इजाज़त दें सरकार तो...’’

‘‘वो एक्सीडेंट हो गया था !’’ दीवानजी ने याद दिलाया।
दरोगाजी ने अँगड़ाई ली और कहा, ‘‘ठीक है। अब तो केस साफ हो गया न ? मोटर वाला क्या कहता है ?’’
‘‘सरकार, आठ सौ तक तैयार है।’’
दीवानजी ने रहस्यमय दृष्टि से दरोगाजी की ओर देखा। दीवानजी ने कहा, ‘‘उधर का कानस्टिबल है शौपरसाद...’’
‘‘नहीं-नहीं, जिसका जो हल्का है वही,’’ दरोगाजी ने बात काटकर कहा, ‘‘मामले को तैयार करके पेश करे, वरना कायदा ही बिगड़ जाएगा। ऊपर तक का खयाल रखना पड़ता है।’’
‘‘हुजूर, शौपरसाद का कहना है कि मामला नाजुक है।’’
‘‘क्यों ?’’

‘‘हुज़ूर बटुकबिहारी कांगरेसी नेता है और उसकी पहुँच एमेले सा’ब तक है।’’
‘‘हिश, हिश....साला नेता है तो क्या ? एम.एल.ए. वही न ? जूतियाँ चटखाता है साला। वक्त की बात है। अफीम का केस पड़ा था, याद है न ? धर घेरता साले को, पर छोड़ दिया सोचकर कि कभी मिनिस्टर विनिस्टर के यहाँ काम आएगा।’’
ये व्यापार की बातें अब जोम पर आई ही थीं कि बाहर के सिपाही ने पुकारा, ‘‘हुकम देर !’’
आवाज जोर से गूँज उठी।
इसी समय बाहर से दौड़ता हुआ एक व्यक्ति हाँफता हुआ भीतर घुसा।
‘‘दरोगाजी ! दरोगाजी !’’
‘‘अरे, कौन है ?’’ दरोगाजी ने पूछा।

‘‘मैं देखता हूँ।’’ दीवानजी ने उठकर कहा।
दीवानजी ने भारी शरीर को आगे सरकाया और भारी स्वर में बोले, ‘‘साले बेवक्त भी तो शोर करते हैं।’’
‘‘मैं कहता हूँ, मुझे जाने दो।’’ कहता हुआ आगंतुक भीतर आ घुसा।
‘‘अरे किशन, तू ?’’ दीवानजी ने पूछा।
किशन का हाँफना बंद नहीं हुआ था।
‘‘अबे, बोलता क्यों नहीं ?’’

‘‘गजब हो गया सरकार !’’ उसके स्वर में आतंक था, जिसे सुनकर सब लोगों में एक हैरत पैदा हो गई।
दरोगाजी का हाथ अनजाने ही कमर में लटकी पिस्तौल पर चला गया।
‘‘क्यों ? क्यों ?’’ दीवानजी ने कहा।
किशन ने मुँह खोला, परंतु घबराहट के कारण वह टुकुर टुकुर देखता रह गया।
‘‘अबे बोलता है कि साले से जबरन बुलवाऊँ। बदमाशी करता है हुजूर के आलम में...!’’
‘‘कतल हो गया हुजूर...!’’ वह फूट पड़ा और उसने दरोगाजी के घुटने पकड़ लिए और घिघियाते हुए कहा, ‘खून हो गया सरकार ! आपके राज में खून हो गया....’’
उसका स्वर थाने के भीतर जैसे गूँज उठा।

कतल !
‘‘कहाँ हो गया कतल !’’ दीवानजी ने फिर अपने भारी स्वर में कहा।
रात के अँधेरे में बाहर की ओर किशन ने काँपते हाथ से दिखाकर कहा, ‘‘उधर गाँव में...।’’
बाहर फेरी देती ‘रौंद’ तक यह आवाज़ पहुँच गई। उन्होंने बंदूकें खड़खड़ाईं।
‘‘गाँव में किसके यहाँ ?’’
‘‘सती के घर !’’
‘‘सती कौन ?’’
‘‘सरकार जो आज सती हो गई।’’
‘‘ला बे मेरा जूता। साले गँवार ! सती तो सती हो गई। फिर खून किसका हो गया ?’’
‘‘डिलैवर हरदेव का।’’

‘‘हरदेव का !’’ दरोगाजी चौंके। हरदेव हरामी था। उसे किसने मारा ? पूछा, ‘‘होश में है न ? वरना अभी वो हंटर जड़ूँगा कि हाँ ! वहाँ कतल करने वाला बचा कौन है ?’’
‘‘वो लौंडिया तो नहीं मरी सरकार ! एक लंबर की छिनाल है हुज़ूर ! लोग कहते
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1.    Round  को रौंद कहते हैं, अतः रौंद देने वाले भी ‘रौंद’ कहलाते हैं।

हैं, उसने हरदेव से खाहिस की थी, मगर वो मुकर गया तो चुड़ैल ने उसे गोद-गोद के माड्डाला...।’’
लड़की का ऐसा वर्णन सुनकर दरोगाजी की आत्मा में भीतर ही भीतर कुछ साँप सा कुलबुलाया। वैसे बूढ़े-से आदमी थे, अतः बातों के रस के शौकीन थे। दीवानजी जानते थे। बोले ‘‘वह लौंडिया भी बला है। अजी सरकार ! क्या पूछते हैं ? एक उसकी यह सती माँ, एक वो लौंडिया। हुज़ूर, सीप से मोती पैदा होता है, मगर कभी किसी ने सुना है कि चंदन में से जहर भी पैदा हुआ ? हुजूर ! आप तो तफतीश करने खुद गये थे। पंडत रामचरन ने क्या कहा था कहा था न कि चिता में किसी ने आग नहीं लगाई। खुद ब खुद चित्ता में आग परगट हुई। ऐसा था परताप ने भी चिता में आग लगाई हो तो उसे ही गिरफ्तार कर लिया जाए। मगर यह तो गैब का काम है। होती है कोई आत्मा। और सरकार, मुझे यहाँ आते वक्त मिला था पंडत सुखदेव का लड़का। बोला, अभी बिदरावन से आ रहा है। आज करीब दो बजे उसने देखा हुजूर ! बू़ढ़े पंडत गिरिधर खड़े हैं-साफ धोती पहने जमनाजी के किनारे और साथ थी-जो सती हो गई न ? फूलवती, सफेद साड़ी पहने, पंडा ने उनसे पूजा-वूजा करवाई।’’

दरोगाजी ने कहा, ‘‘और फूलवती जली कब है यहाँ ?’’
‘‘यही सरकार, कोई डेढ़ बजे। पहुँच गई आत्माएँ परमधाम में। सच ! अब सरकार, मुँह न खुलवाएँ मेरा। एक वो थी, एक यह लौंडिया है। मनचली हरामजादी। बताइए सरकार पंडत सुखदेव का लड़का कुछ भला सा नाम है उसका कोई बात नहीं, फिर याद आ जाएगा झूठ क्यों बोलने लगा। कहता था, दोनों बड़े परसन्न थे।’’
दरोगाजी उठकर बढ़े, ‘‘मुकाम पर चलो।’’
‘‘हाँ, चलिए सरकार !’’ किशन आगे बढ़ा।
जब दरोगाजी अपने दल के साथ पहुँचे, घर के बाहर भीड़ जमा थी। छतों पर औरतों की धीमी मगर संतुलित चखचख सुनाई दे रही थी।

दरोगाजी के स्वागत में अपने आप गैस का लैंप आ गया था जो शरणार्थी सिंधी अपने खोमचे के ठेले पर रखकर चलता था। उसके प्रकाश में दरोगाजी ने ऊपर देखा तो ऐसा सन्नाटा छा गया, जैसे बंदरों से लदे पेड़ के नीचे बघेर आ गया हो।
बूढ़े पटवारी लालाराम ने झुककर सलाम किया और विनीत भाव से खड़े रहे। इस समय वे बदन पर पिछौरा डाले, धोती पहने खड़े थे। सिर पर गांधी टोपी थी। वे रिटायर हो चुके थे।
‘पंडितजी नाम से पुकारे जाने वाले रामचरन घबराए से थे। उन्होंने दरोगाजी को देखा और सिर झुकाया।
पुजारी गंगासहाय ने पुलिस के दल की ओर देखा और ऐसा महसूस किया जैसे धरम की शक्ति उतर आई हो।
मास्टर जैबिहारी इस समय बुरसट और ढीली मुहरी का पाजामा पहने थे। उनकी मूँछों की बड़ी होशियारी से कतर-ब्यौंत हुई थी और लगता था, जवानी ने उन्हें यह बहका दिया था कि वे बड़े खूबसूरत थे और मास्टरजी थे कि इस पर यकीन करते थे।

पहले सरबराहकार था, अब भले ही कुछ न रहा हो, क्योंकि जिनका दिया ओहदा था, वे जमींदार ही खत्म हो चुके थे, मगर बद्रीपरसाद की बात में वजन था।
इस तरह दरोगाजी की दृष्टि ने शीघ्र ही देख लिया कि गाँव के इज्जतदार आदमी वहाँ खड़े हुए थे।
दरोगाजी ने अपना झब्बेदार साफा हाथ से एक बार छुआ और फिर कातिल के घर के दरवाजे पर ठिठककर मुआयना किया और निहायत संजीदगी से पूछा, ‘हाँ, जनाबेमन ! कत्ल हुआ है, यह खबर मुझे मिली, जिसे सुनकर मैं फौरन उठ खड़ा हुआ। यह क्या मामला है, और खास गाँव में ?’’
‘‘हुजूर इलाका सरकश तो है ही’’ दीवानजी ने दाद दी, ‘‘वरना तहसील के थाने के रहते हुए यहाँ दूसरा थाना सरकार को क्यों बनाना पड़ा। हुजूर। गवर्मेंट ने इसे कायम किया था और कांगरेस ने इसे कायम रखा।’’


    

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