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वाचिक कविता अवधी

विद्यानिवास मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5740
आईएसबीएन :81-263-0788-8

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प्रस्तुत है वाचिक अवधी कविताओं का संकलन...

Vachik kavita

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय काव्य किसी न किसी रूप में वाचिक संस्कार से अभी तक सुवसित है। कविता की वाचिकता अभी भी है, और वह लोक में आदर भी पाती है। दूसरे शब्दों में, लोक-जीवन से उसका निकट का संबंध है। यह दूसरी बात है कि वाचिकता का जो रिश्ता अनुष्ठान की पवित्रता से था, वह कम भी हुआ है। बहुत कम लोग हैं जो रस लेकर वाचिक काव्य को सुनते हैं। फिर भी, आज के बदलते परिवेश में भी, इसके रंगत बनी रहे, यही ‘वाचिक कविता’- श्रृंखला का प्रयोजन है। इसी श्रंखला में इस पुस्तक का प्रकाशन किया गया है।

प्रख्यात विद्वान डॉ. विद्यानिवास मिश्र द्वारा सम्पादित इस पुस्तक में अवधी की वाचिक परंपरा से जीवन्त-जाग्रत कविताएँ संकलित हैं। ये कविताएँ हृदयस्पर्शी तो हैं ही, अभिव्यक्ति के सलोनेपन के कारण अच्छी से अच्छी, बाँकी से बाँकी कविता के सामने एक चुनौती भी हैं। गीत की दृष्टि से समृद्ध अवधी की वाचिक परम्परा का यह संकलन सर्वथा प्रासंगिक है।

भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित ‘वाचिक कविता : भोजपुरी’ श्रृंखला की पहली कड़ी है। इसी श्रृंखला की दूसरी कड़ी के रूप में प्रस्तुत है यह महत्त्वपूर्ण कृति ‘वाचिक कविता : अवधी’ का नया संस्करण।

 

सम्पादकीय

वाचिक कविता की दूसरी कड़ी में भोजपुरी के बाद अवधी का संकलन प्रस्तुत है। यह सत्य है कि भोजपुरी, अवधी, मैथिली, बघेली, कन्नौजी के संस्कार-गीतों के पाठ प्राय: एक जैसे हैं। कुछ सूक्ष्म अन्तर अवश्य हैं। वह अन्तर कुछ तो क्षेत्रीय हैं और कुछ नवोन्मेष के कारण हैं।
‘वाचिक कविता:अवधी’ संकलन में प्रयत्न यह किया गया है कि पुनरुक्ति कम हो और एक तरह से यह अवधी वाचिक कविता भोजपुरी की पूरक हो। वाचिक कविता इस मायने में विशिष्ट होती है कि उसकी विम्ब योजना और सादृश्य-योजना में अपने ढंग का टटकापन तो होता ही है-जैसे ‘दिया कै टेम जरै छतिया’- छाती दीपक की बाती की तरह जलती रहती है; या जैसे ‘अखियाँ त उनकै जैसे अमवा कै फँकिया/ ओठवन चुएला गुलाब’- उनकी आँखें जैसे आम की फाँक हों और होंठ ऐसे मानो उनसे गुलाब का रंग टपक रहा हो।

बिम्ब साहचर्य के आधार पर एक-से-एक मनोरम और हृदयस्पर्शी चित्र जैसे यहाँ मिलते हैं वैसे लिखित काव्य-परम्परा में नहीं मिलते। प्रवास में रहने की अवधि को वे इस प्रकार मापते हैं कि प्रिय ने, जब उन्हें रेख उठी थी तो यह पेड़ लगाया था। उसी समय मुझे विवाह करके लाये थे। नीम का पेड़ फल-फूल गया, प्रवासी प्रिय नहीं आये।

दूसरी विशेषता वाचिक कविता की यह होती है कि उसमें पद शैली की कविता की तरह तुकान्त पर उतना बल नहीं होता जितना लय के उचित विराम पर होता है। प्राय: यह विराम किसी गति में ‘हो राम’ से सूचित होता है (जैसे जँतसार में), ‘हरि’ के रूप में होता है (जैसे कजरी में), ‘बलैया लेंउ वीरन की’ के रूप में (जैसे सावन के गीतों में) होता है। वैसे पद शैली की भी रचनाएँ होती हैं पर लय की विविधता के आधार पर जो वाचिक कविता का विन्यास होता है वह बिल्कुल अलग होता है। उस लय की समृद्धि का उपयोग प्राचीन साहित्य में गीतियों में हुआ जो गाथा या आर्या छन्द में रची जाती थीं, जिनमें एक पंक्ति दूसरी पंक्ति से बड़ी होती थी, उत्तर काल में वह टेक के रूप में होने लगा। इन सब प्रवृत्तियों पर वाचक कविता का ही गहरा असर है। माना तो यह जाता है कि ‘गीत गोविन्द’ का लय-विन्यास वाचिक कविता से ही प्रभावित है। आधुनिक हिन्दी में भी निराला, नवीन अज्ञेय, गिरिजा, केदारनाथ अग्रवाल, केदारनाथ सिंह, धर्मवीर भारती जैसे रससिद्ध कवियों ने लोक-धुनों का भरपूर उपयोग किया। एक क्षेत्र की लोक-धुन दूसरे क्षेत्र की लोक-धुन से कहीं-कहीं अद्भुत मेल खाती है। बुन्देलखण्ड का लेद सुनें और अवधी, भोजपुरी क्षेत्र की चैती, तो लय-विन्यास की समानता साफ-साफ सुनाई पड़ेगी।

वाचिक कविता की इन सभी विशेषताओं में बड़ी विशेषता यह होती है कि कविता प्राय: संवादात्मक आख्यान के रूप में रचित होती है। कविता में कौन किससे कह रहा है यह अंश संदर्भ से सूचित होता है। कहीं सीधे-सीधे उक्त या अभिहित नहीं होता और घटनाओं के बीच के अन्तराल भी छोड़ दिये जाते हैं। गीत के टुकड़े से ही आभास मिलता है कि इस अन्तराल में कुछ घटित हो चुका है जो काव्य संवेदना की दृष्टि से उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। यह संक्षिप्तता और यह संघटनात्मक कसाव श्रेष्ठ वाचिक कविता में ही मिलता है और ऐसे मिलता है कि कहीं अर्थ-ग्रहण में कोई कठिनाई न होती; कहीं अलम्बद्धता दिखाई नहीं पड़ती; कहीं उलझन नहीं दिखाई पड़ती। उसका कारण यह है कि कविता की कड़ियाँ सोपान के रूप में उपस्थापित होती हैं और चरम सोपान तक आते-आते कविता विराम पा लेती है।

विवाह के गीतों में, चैता में, जँतसार में, सोहर में यह विशेष रूप से लक्षित होता है। एक ऐसा लम्बा गीत है जिसमें सीता के निर्वासन की कथा बड़े नाटकीय ढंग से दी गयी है। सीता निर्वासित होती है। लक्ष्मण चले जाते हैं। इसके बाद दृश्य बदलता है। सीता-लवकुश का प्रसव करती है और लकड़ी जलाकर प्रकाश करती है कि सन्तति का मुख देख सके। समय बीत जाता है पर यह गीत में छोड़ दिया जाता है। पुत्र-जन्म का शुभ सन्देश सीता भिजवाती है पर राम को नहीं। राम को सन्देश लक्ष्मण से मिलता है और लक्ष्मण कहते हैं कि मेरी भाभी को पुत्र-लाभ हुआ है। इसीलिए मेरे चेहरे पर दप्दप् आभा है। राम कुछ बोलते नहीं और उनके हाथ में ली हुई ‘दतुवन’ (दातौन) नीचे गिर जाती है और आँसू झर-झर गिरते हैं और कमरबन्द (पटुका) भीग जाता है। दृश्य बदल जाता है। अगली कड़ी सूचना देती है कि वशिष्ठ मनाने आये। वशिष्ट गुरु हैं इसलिए आज्ञा-पालन के लिए, सीता दो डग अयोध्या की तरफ रखती है फिर इनकार कर देती हैं अयोध्या जाने से। फिर राम मनाने आते हैं और सीता अपनी चेरी से सन्देश भेजती है कि ‘मैं उस निर्मोही पुरुष का मुख नहीं देखूँगी। जिस समय मैं गर्भवती थी, उस समय मुझे घर से निकाल दिया गया था।’ इतने में राम आ जाते हैं।

सीता धरती से प्रार्थना करती हैं- ‘धरती, फट जाओ, मैं तुझमें समा जाऊँ।’ समाने लगती हैं तो खुले हुए केश भर राम के हाथ में आते हैं और सीता का सत्त ऐसा है कि वे केश कुश के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। कविता यहीं विराम लेती है। कहीं भी शब्द का अपव्यय नहीं है। कहीं भी अनावश्यक कथाप्रपंच नहीं है, क्योंकि यह कविता है, कहानी नहीं। बस, इसी करुणा में पहुँचकर कविता जन्म का मंगल मनाती है। मनुष्य की नियति की दुर्निवारता पर ऐसी टिप्पणी यही सूचित करती है कि वाचिक कविता गंभीर जीवन-मन्थन से निकली है और उसका निरन्तर जीवन के ठोस यथार्थ से टकराव होता रहा है। वह जीवन के साथ जुड़ी है, जीवन के प्रतिदिन के सुख-दु:ख से जुड़ी है। वह जीवन का अंग है, जीवन पर कोई टिप्पणी नहीं है। साथ ही वह व्यक्ति विशेष के ही दु:ख पर आधृत है पर उस दु:ख को व्यापक आयाम देकर प्रस्तुत होती है और प्रस्तुत करने वाला एक संस्कारवान् समाज होता है।

डॉ. विद्याविन्दु सिंह ने बड़े मनोयोग और परिश्रम से यह संकलन तैयार किया है। उन्होंने अपनी भूमिका में सामाजिक सरोकार और लोकमंगल के पक्ष को अधिक उजागर किया है जो कि लोक साहित्य के अध्ययन में प्रचलित है। मैंने उस भूमिका के लिए पूरक रूप में ऊपर टिप्पणी दी है। वाचिक कविता को समझना हो तो जातीय संस्कार को पहले समझना चाहिए। जातीय संस्कार समाज के प्रति दायित्व की चिन्ता नहीं करता; समाज के लिए क्या शुभ है और किस कीमत पर वह शुभ मिलता है इसकी चिन्ता करता है।

पिछले संकलन ‘वाचिक कविता : भोजपुरी’ की तरह इस संकलन में कविता का काव्यान्तरण दिया गया है, उसका उलथा (Paraphrase) नहीं दिया गया। मुझे विश्वास है कि वाचिक कविता की यह श्रृंखला ज्ञानपीठ द्वारा और आगे बढ़ेगी और अन्तत: एक सम्पूर्ण संकलन सामने लाया जाएगा।
‘वाचिक कविता : भोजपुरी’ का समादर हुआ इसलिए मुझे विश्वास है कि इस अवधी श्रृंखला का भी समुचित समादार होगा।

 

-विद्यानिवास मिश्र

 

भूमिका

वाचिक परम्परा की निरन्तरता एवं परिवर्तनशीलता

लोकगीतों की एक समृद्ध वाचिक परम्परा है। इस वाचिक परम्परा से जुड़ने का अर्थ है जीवन से जुड़े रहना। लिखित साहित्य को इस परम्परा ने रस, ओज, दीप्ति और संवेदना दी है। साथ ही आदिम युग की मानवीय संवेदनाओं का आज के सभ्य कहे जाने वाले संवेदनशून्य होते जा रहे समाज में क्या महत्त्व है उसकी पहचान भी दी है। इन गीतों में दो अदम्य जिजीविषा शक्ति है, सहजता है, वही इनकी निरन्तरता और अमरत्व का कारण है।

लोकगीत माधुर्य, उल्लास और संवेदना के अक्षय स्रोत्र आदिम युग से इसलिए रहे हैं, क्योंकि समाज उसमें स्वयं को अभिव्यक्त करता रहा है। लोकसंगीत में उल्लास की जो अनन्त संभावनाएँ हैं, उसके कारण यह सदैव से लोगों के मन को आकृष्ट करता रहा है। ये गीत निसर्ग की गोद में आकर ग्रहण करते हैं और सतत परिवर्तन ग्रहण करते हुए युग-युग तक अपनी आवाज की गूँज बनकर प्रसारित होते रहते हैं। इन गीतों ने परिवर्तनशील समाज के प्रभाव के अनुसार परिवर्तन की प्रक्रिया में निरन्तर अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है। क्योंकि यह समृद्ध वाचिक परंपरा एक ओर तो वेदों की भाँति अपौरुषेय और शाश्वत है, पारम्परिक है, दूसरी ओर उसमें समय के प्रवाह को पहचानने और उसके अनुरूप परिवर्तन ग्रहण करके स्वयं को ढालने की भी क्षमता है।

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