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हास्य-व्यंग्य >> वसन्त से पतझर तक

वसन्त से पतझर तक

रवीन्द्रनाथ त्यागी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5744
आईएसबीएन :81-263-1121-5

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प्रस्तुत है व्यंग्य....

Vasant se patjhar tak

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उनके व्यंग्य में हास्य का जबरदस्त पुट होता है। उनके शब्दों की भंगिमा अनायास हास्य की सृष्टि कर देती है। वक्रोक्ति से व्यंजना तक का भाषा चमत्कार पैदा करने में त्यागी जी के समकक्ष शायद ही हिन्दी का कोई व्यंग्यकार ठहरता हो।
त्यागी जी जीवन भर बेमेल व्यक्तियों और परिस्थितियों से जूझते रहे। उनका लेखन-कार्य भी कुछ बेमेल ही रहा-व्यंग्य और कविता वे साथ-साथ लिखते रहे, दोनों ही उनके मन की टीस के प्रतिफलन हैं। कहा जा सकता है कि मन की कचोट ही उन्हें हास्य-व्यंग्य की ऊँचाइयों पर ले गयी।

अब हमारे बीच त्यागी जी की स्मृतियाँ ही शेष हैं। ऐसे में उनके जीवन के मार्मिक संस्मरण जो उनके अपने अंदाज में लिखे गये थे, एक जगह पाना अपने आप में एक रोमांचक अनुभव है। लगता है हम प्रकारान्तर से यहाँ रवीन्द्रनाथ त्यागी की आत्मकथा का ही आस्वादन कर रहे हों, जो उनकी चिरपरिचित कटाक्ष-शैली का आनन्द भी देती है और जीवन के मार्मिक पलों को व्यंजित करने वाला जीवन-रस भी।

आशा है, हिन्दी पाठकों को यह रचना बेहद रोचक लगेगी और रवीन्द्रनाथ त्यागी जैसे बड़े लेखक की स्मृति को अन्तर्मन में ताजी रखेगी। भारतीय ज्ञानपीठ को प्रसन्नता है कि वह त्यागी जी की स्मृतियों को संजोकर अपने पाठकों को समर्पित कर रहा है।
‘साहित्यकार एक बहुत बड़ी चीज होती है। रोम के सम्राट रसातल को चले गये पर होमर अभी जिन्दा है। महारानी एलिज़ाबेथ इतिहास की जिल्दों में बन्द हो गयीं पर शेक्सपियर आज भी हमारे लिए खुला है। सम्राट विक्रमादित्य को लोग भूल सकते हैं पर कालिदास को नहीं।

रवीन्द्रनाथ त्यागी

प्राक्कथन


संस्मरण साहित्य की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विधा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि संस्मरण के जरिये आप किसी की जिन्दगी को करीब से देख सकते हैं, उसके अब तक के कहे-अनकहे सुख-दु:ख को जान सकते हैं। उर्दू का एक शेर है :

‘जो तार से निकली है- वो धुन सबने सुनी है,
जो साज़ पे गुजरी है-वो किस दिल को खबर है।’

पापा के संस्मरण संकलित कर छपवाने के कई कारण हैं।
• एक तो पाठक जब यह पूरा संकलन पढ़ेंगे तो वे रवीन्द्रनाथ त्यागी का पूरा सफ़र माप सकेंगे- कस्बे के एक विपन्न बालक से एक बड़े लेखक तक का। साथ ही उनकी पीड़ा व उनके सुख जान सकेंगे।
• इस संकलन के लिए काम करने का मुख्य कारण है-हमारा पापा को याद करना। जैसे-जैसे हम लिख रहे हैं-पापा की जीवन्त तस्वीर आँखों में सामने उतरती जा रही है- जैसे वे कह रहे हों, ‘‘यू आर गुड सैकेण्ड रेट !’’
• पापा से जुड़ी हमारी स्मृतियाँ अनन्त व अथाह हैं-उनसे जुड़े रोचक व मर्मस्पर्शी वाकये बहुत से हैं-इनमें से काफी उन्होंने स्वयं हमें सुनाए थे- कुछ उनके साथ घटित हुए-और कुछ ऐसे अनुभव हैं जो उनके व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हैं। हमारा मौलिक कुछ भी नहीं हैं-सिर्फ पापा के साथ गुजारे वक्त के....

‘कोई हद नहीं है मुहब्बत के फ़साने की
सुनाता जा रहा है जिसको जितना याद होता है।’

• पाप का व्यक्तित्व बहुमुखी था और उनमें कई
फैसेट्स का समावेश था। सर्वप्रथम तो वह एक अफसर थे-जिनका जीवन अत्यन्त नियमित व सुवियवस्थित था-कभी-कभी तो जरूरत से कुछ ज्यादा ही। उनके जूते सदा चमचमाते रहते थे-और वे अपने जूते अपने आप ही पॉलिश करते थे। जब कभी हम मना करते तो प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लॉयड जार्ज का एक मज़ाक सुनाते थे। एक बार विपक्ष के नेता ने प्रधानमंत्री लॉयड से पूछा, ‘‘आई हैव हर्ड यू पॉलिश यॉर ओन शूज ?’’ लॉयड जार्ज ने तपाक से कहा, ‘‘वेरी करक्ट-माई डियर फ्रैण्ड, बट हूज शूज डू यू पॉलिश ?’’

• मन के भीतर जितने भी मन होते हैं-उनमें पापा एक कवि ही थे। भवभूति, विद्यापति, चण्डीदास, निराला व सुमित्रानंदनपंत की कविताओं का उन पर बहुत गहरा प्रभाव था।
स्वयं उनके अनुसार-उनके साहित्यिक जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी यही थी कि एक कवि के रूप में उनका सही मूल्यांकन कभी नहीं हो पाया और न ही कवि के रूप में वह आदर व प्रतिष्ठा मिली जिसके कि वे हकदार थे। हालाँकि उनकी कविताएँ-अकविता और छन्द दोनों ही प्रभावशाली हैं- उदाहरणार्थ :

‘किसी ने साथ नहीं दिया इतना
जितना मेरी उदासी ने दिया-
अब तो मैं स्वयं नहीं चाहता
उदासी का हाथ छोड़ना-
मैं नहीं छोड़ना चाहता-
दो माह के वसन्त के कारण
पतझर का पूर्ण वर्ष
जीवन के तीसरे चरण
मैं तो था अशोक का वृक्ष-
किसी बीहड़ पर्वत के कूल
उदासी का लगते ही पदाघात
खिल उठे फूल ही फूल’
-‘पुष्पकथा’ (अन्तिम वसन्त)
‘जेरुसलेम की तंग पथरीली सड़कों पर
ईसा ने लकड़ी के क्रॉस को
वहाँ तक ढोया
जहाँ से क्रॉस ने उसे ढोना था।
छतों और छज्जों से देखते रहे नर-नारी
लकड़ी से जुड़ी
प्रभु की निश्चल गठीली मूर्ति
अंधेरे में बढ़ती मशाल की तरह-
मगर देखा नहीं किसी ने वह सलीब
जिस पर उन्हें खुद चढ़ना था,
अपने अन्त व आरम्भ की वे परम्पराएँ
जो उनके कन्धों पर सदा लदी थीं,
मृत्यु का वह भार-
जो मृत्यु के पूर्व-
प्राणों ने सदा ढोया’ (आदिम राग)
‘जब मैंने देखे थे निराला और पन्त-
आज से लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व-
मुझे वे बिल्कुल नहीं लगे थे गन्धर्व या किन्नर
वे तो थे ठीक मेरी तरह हाड़-मांस के पुतले-
कहाँ छिपी थी उनकी स्वर्ण छवि-
मेरी भाषा के वे अजर और अमर कवि ?
किसने लिखा उनका नाम धारण कर इतनी व्यथा
चन्द्रमा, वसन्त और दु:खों की अनन्त कथा ?
क्या उन्हीं देहों में थे बन्द-
वे रसप्रसिद्ध कवि, वे वसन्त के छन्द ?
जब तक रहेंगे सूरज और चाँद
तब तक जीवित उनके स्वर्ण-प्राण
कितना अच्छा रहा मैंने कभी
देखे नहीं सूरदास, जयदेव, विद्यापति।’

• पापा के व्यंग्य विधा को क्यों व कैसे चुना- यह तो हम नहीं जानते-पर जहाँ तक हम समझते हैं-उनके दु:ख भरे व विपन्न बचपन की यादों ने, जीवन के उतार-चढ़ाव ने व देश और समाज में बढ़ रहे भ्रष्टाचार ने उनके मन को क्षोभ से भर दिया-इसी क्षोभ से जन्म लिया व्यंग्य ने। कोई-कोई लेख पढ़कर तो यह साफ़ महसूस होता है-कि इस व्यंग्य में कितनी टीस है। उनके ही शब्दों में कई जगह उन्होंने व्यंग्य व करुण रस का फ़ासला लगभग ख़त्म-सा कर दिया है। हर लेखक अपनी कृतियों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपने अनुभव ही बयान करता है और यही हाल पापा का था ?

• ‘दुनिया ने तज़ुर्बा तो हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है-लौटा रहा हूँ मैं।’

• पापा लोगों से ज्यादा मिलना-जुलना पसन्द नहीं करते थे-किसी काम के लिए तो कदापि नहीं। जीवन में कितनी ही बार ऐसे मौके आये-परेशानियाँ आयी कि जब उनके जाने वाले उनकी मदद कर सकते थे परन्तु यहाँ तक सम्भव हुआ-पापा ने कभी किसी से मदद नहीं माँगी। वो अक्सर कहते थे, ‘‘याद रखो-माँगने के लिए तो विष्णु को भी वामन का अवतार लेना पड़ा था।’’
• ईमानदार व निष्ठा पापा की पहचान थी। सन् ’77 में, जब पापा ज्वाएण्ट कण्ट्रोलर कमाण्ड थे मेरठ में, जिनकी पत्नी हमारी दादीजी की सहेली थीं। दीपावली के दिन ठेकेदार साहब (जिनके बहुत से टेण्डर पापा के दफ्तर में आते थे) ने अपने सुपुत्र के द्वारा बहुत से मेवे हमारे घर भेजे। उनका बेटा बाहर ही नौकर को देकर चला गया। हम दोनों क्योंकि काफी़ छोटे थे अत: बात की गंभीरता को नहीं समझ पाये व खुश हुए कि चलो मेवे खाएँगे।

पापा ने पैकेट देखे व पूछा, ‘‘कहाँ से आएँ ?’’ नौकर ने कहा, ‘‘ठेकेदार जी के यहाँ से।’’ पापा का चेहरा गुस्से से तमतमा गया-चिल्लाकर बोले, ‘‘तुरन्त वापस ले जाओ और कह आना कि फिर त्यागी साहब के यहाँ आने की हिम्मत न करें।’’ सच्ची बात तो यह है कि पापा-विभागीय जीवन में ईमानदार को बहुत महान चीज़ नहीं मानते थे-वे इसे ‘पार्ट एण्ड पार्सल ऑफ़ दी जॉब’ ही समझते थे। वर्षों तक वह यह विश्वास नहीं कर सकते थे कि क्लास-1 अफ़सर रिश्वत लेगा। जब कभी उनका यह मोहभंग होता तो वह बेहद दु:खी होते। बाद के वर्षों में तो वह अख़बार पढ़कर यही कहते कि, ‘‘सब मुलुक को खा गये।’’ इसी सन्दर्भ में वह एक कविता सुनाते थे जो कवि ‘धूमिल’ की है व पापा के लेख ‘हिन्दी की कुछ श्रेष्ठ व्यंग्य कविताओं’ में संकलित है :


‘हर तरफ़ ताले लटक रहे हैं-
दीवारों से चिपके गली के छर्रों
और सड़क पर बिखरी जूतों की भाषा में
एक दुर्घटना लिखी गयी है।
सन्त और सिपाही में-
देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य कौन है ?
क्या आजादी सिर्फ तीन थके रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है ?’

पापा अवसाद के मरीज़ थे और इसका मुख्य कारण था उनका विपन्न दु:खी व असुरक्षित बचपन (जिसे मिला नहीं सुरक्षित बचपन, उसे कुछ नहीं मिला)। एक गन्दे कस्बे के शोषणपूर्ण समाज में उन्होंने जीवन प्रारम्भ किया। उन भयंकर स्मृतियों ने पापा के दिलो-दिमाग पर गहरा असर छो़ड़ा। ये दु:खी यादें- काली परछाइयों की भाँति जीवन-भर उनका पीछे करती रहीं। हमने देखा है कि अत्यन्त संवेदनशील होना भी कितना आत्मघाती होता है। उन्होंने अपनी मेहनत व अथक परिश्रम से बहुत-सी ऊँचाइयाँ छुईं पर मन के कुछ ज़ख्म कभी नहीं भर सके-शायद इसीलिए कहीं-कहीं ये संस्मरण बहुत ही व्यथित हैं-पापा को उर्दू का शेर बहुत पसन्द था :

‘मेरे रोने का जिसमें किस्सा है-
उम्र का बेहतरीन हिस्सा है।’



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