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वह रात और अन्य कहानियाँ

उषा राजे सक्सेना

प्रकाशक : सामयिक प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5748
आईएसबीएन :81-7138-134-0

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ब्रिटेन की प्रवासी लेखिका उषाराजे का प्रवासी पृष्ठभूमि पर आधारित कथा संग्रह

Vah rat aur anya kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ये कहानियां हिंदी भाषा (अंग्रेजी के नहीं) के एक बड़े पाठक-वर्ग को शायद अपरिचित और अकल्पनीय लगें। हो सकता है कि ब्रिटेन के मूल निवासी (स्थानी, कारकेसियन यानी गोरे) और यूरोपीय देशों से उखड़कर आए इमिग्रेंट्स के सामाजिक जीवन की जद्दोजहद और संघर्ष के ये अनुभव उन्हें अजीबो-गरीब लगें। ब्रिटेन का ऐसा यथार्थ-नैतिक-अनैतिक जैसा भी है—जो इन कहानियों में चित्रित हुआ है उससे ब्रिटेन में रहने वाला आम इंडियन परहेज करता है, बचता है। अल्पकाल के लिए आए भारतीय यात्री रचनाकारों को तो छोड़ ही दें, ब्रिटिश-इंडियन जो इस देश में अर्से से रह रहे हैं, वह भी अपनी अलग ही जीवन-शैली और पूर्वाग्रह के कारण ब्रिटेन के इस तरह के यथार्थ से रू-ब-रू नहीं होना चाहते हैं।

इन कहानियों की आबोहवा सही मायनों में भारत या कहीं भी लिखी जा रही हिंदी की कहानियों से कई संदर्भों में भिन्न है। इन कहानियों के वाक्य-विन्यास में आए नए मुहावरे, नए शब्द, नई परिस्थितियां, नए दृष्टिकोण (संस्कृतियों के घोल-मेल के कारण) संभवतः उनके गले न उतरें। हो सकता है, ये कहानियां उनके संवेदनात्मक तंतुओं को अपरिचय के कारण न हिला सकें या ये कहानियां उनके कल्पना और अनुभव के दायरे से इस तरह बाहर हो कि वे इनसे आइडेंटीफाइ न कर सकें...फिर भी वास्तविकता को हिंदी के पाठकों तक पहुंचाना जरूरी है कि यह भी यथार्थ है चकाचौंधवाले, रहस्यमय ‘प्रॉमिस लैंड’ इंग्लैड का...

सांस्कृतिक समन्वय की उदात्त भूमिका का संस्पर्श

प्रवासी साहित्य को लेकर हिंदी का आलोचना-जगत ज्यादा उत्साही एवं तटस्थ नहीं है। एक तरह का शुद्धतावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए वह भारत की भौगोलिक सीमा में रचित हिंदी साहित्य को ‘अपना’ मानता है, क्योंकि यहीं भारत (हिंदी पट्टी) का यथार्थ अपनी तमाम विडंबनापरक विद्रूप सच्चाइयों, सीमाओं और संभावनाओं के साथ उपस्थित होता है। इसी यथार्थ में स्वयं उसके होने और बेहतर भविष्य की गढ़ने की आकांक्षाएं निहित हैं और इसी में जड़े, अस्मिता और भविष्य भी। वह उसका आत्मविस्तार भी है और सृजन भी। प्रवासी साहित्य उसकी इस गद्गद विह्वलता में कहीं बाधा बनता है। अपनी जड़ों से कटकर गैर मुल्कों में बसे प्रवासी भारतीय का अंतस् अपनी प्रामाणिक टीस और अकुलाहट के बावजूद उसे भिगो नहीं पाता—इसलिए कि कहीं वह पूर्वग्रही है और अभिमानी भी।

विशुद्ध भारतीय  (और ठसके के साथ भारत की मिट्टी में रुंधे-गुंधे होने का देशज दर्प, जिसमें गोरों के देश जाकर  मालामाल न हो पाने का चिर अभिलाषित मलाल भी शामिल है) एवं श्रेष्ठ होने का अहंकार और प्रवासी के साहित्य को अनिवार्यतः नॉस्टेल्जिक मानकर  ‘हल्का ’ समझने का पूर्वग्रह ! बेशक नॉस्टेल्जिया प्रवासी साहित्य का प्रमुख स्वर रहा भी है क्योंकि नॉस्टेल्जिया अपने को भुलाने का पलायनवादी स्वर मात्र नहीं है, अपरिचित मिट्टी और संस्कृति में दूनी ताकत के साथ अपने को रोपने का शक्तिशाली हथियार भी है। ऊर्जा और जीवनी-शक्ति जड़ों से ही तो पाई ज सकती है न ! इसलिए महेन्द्र भल्ला जैसे भारत के यायावरी लेखक अथवा ब्रिटेन, मॉरीशस, सूरीनाम, अमरीका, यूएई आदि में ‘बस’ कर रचना-कर्म करने वाले प्रवासी रचनाकार नॉस्टेल्जिया के इर्द-गिर्द अपने भारतीय होने का अर्थ पाते हैं; भारत से इतर किसी दूसरे देश का वैध नागरिक होने का बोध अर्जित करते हैं; इस बोध को निष्ठापूर्वक निभाकर स्वयं को सच्चा भारतीय प्रामाणिक करने का जज्बा पाते हैं; और इस प्रकार पहचान को द्वंद्व एवं स्खलन में खंड-खंड बिखरने नहीं देते, विशिष्ट एवं ठोस, गत्यात्मक एवं ऊर्जावान बनाकर प्रस्तुत करते हैं समूचे विश्व के सामने।

 विश्व सुकुड़कर गांव बन गया है—संवाद और विचार के मंच पर निरंतर अपने साथ-साथ सबको मांजता हुआ ! नॉस्टेल्जिया उसकी रचनात्मक-यात्रा का प्रस्थान बिंदु हो सकता है, गंतव्य नहीं। लक्ष्य तो चीन्हा ही नहीं जा सकता, क्योंकि आगे बढ़ते प्रत्येक डग के साथ लक्ष्य पड़ाव बनकर मनुष्यता के संधान और सर्जन की अकुलाहट में व्यापक और अनंत होता चलता है। ब्रिटेन में रहने वाली प्रवासी भारतीय उषाराजे सक्सेना ऐसी ही एक्सप्लोरर कहानीकार हैं जिन्हें पढ़ना दो संस्कृतियों के आपसी सामंजस्य के बाद की उदात्त मानवीय अनुभूति से आप्लावित होना है।

आरंभ में औसत दर्जे की कहानियाँ लिखकर ‘प्रवास में’  कहानी-संग्रह के जरिये साहित्य-जगत में प्रविष्ट होने वाली उषाराजे सक्सेना की हर सांस वक्त के साथ मुठभेड़ करने, अपने को पहचान कर जीवन के अर्थ को गुनने और व्यक्ति-समाज के अंतर्संबन्धों के जटिल संजाल की बारीकियों की पड़ताल करने में संलग्न हैं। ‘वाकिंग पार्टनर’ की रचना तक रोमा नॉस्टेल्जिया से मुक्त होकर उषाराजे सक्सेना अपनी इंडो-ब्रिटिश पहचान से दिपदिपाने लगी हैं। जहां की मिट्टी सांस और लहू बनकर प्राणों में काया को प्रतिष्ठित किए है, उससे  वि-राग और दायित्वहीनता क्या गद्दारी नहीं ?

 संवेदना और निष्ठा का प्रसार शास्त्रीय परिभाषाओं को कटघरे में खींच लेता है अक्सर। उषाराजे सक्सेना के भीतर के संवेदनशील-स्वप्नशील-विवेकशील सर्जक की बेचैनी इन परिभाषाओं की बाड़ेबंदी से मुक्त हो, अपनी सर्जनात्मक उड़ानों के लिए एक निजी उन्मुक्त क्षितिज तलाशने में अनूदित की जा सकती है, जहां निजता राग-द्वेष की आत्मपरकता में नहीं, संश्लिष्टताओं को समझने की निःसंग वस्तुपरकता में पूरे समाज को मानवीय दृष्टिकोण  से देखने का आख्यान रचती हैं।
दरअसल, उषाराजे सक्सेना महज एक कहानीकार नहीं, प्रवासी साहित्य को उदात्त ऊंचाइयों तक ले जाने वाली अकेली आंदोलनकारी कार्यकर्ता हैं, जिनमें अपने को रेशा-रेशा व्यक्त करने की पारदर्शिता, लीक से हटकर ‘नागरिक’ की कठिन भूमिका निभाने की हठधर्मिता और हर असुंदर-अशोभन सत् के साथ खड़े होने की निर्भीकता है।

 ‘वह रात और अन्य कहानियां’ उनके इसी संकल्प को जीती हैं—‘एलोरा’ कहानी से शब्द उधार लें तो ‘अंग्रेज युवतियों वाले ठसकेदार आक्रोश, तिलमिलाहट और निश्चय’ की बेबाकी के साथ। दरअसल तमाम न्याय-अन्याय के बटखरों को अच्छी तरह पहचानकर क्रोध और निश्चय कर सकने की दृढ़ता ही उन्हें एलोरा जैसी फौलादी नायिका गढ़ने की अंतर्दृष्टि देती है जो विदेशी जमीन पर यौन शोषण जैसी सार्वभौमिक-सार्वकालिक घटना के बहाने खांटी भारतीय मन की भीरु पलायनवादी मानसिकता के बरअक्स नई आभा से दीप्त इंडो-ब्रिटिश चरित्र रखकर, हिंदी पट्टी के संस्कारी पाठक को बौखलाती भी हैं और आश्वस्त भी करती हैं। परिवार के अपने ही दरिंदों’ द्वारा बहन-बेटियों के यौन शोषण की कारगुजारियों को ढांपे रखने की व्यग्रता भारतीय समाज की अंदरूनी जर्जरर्ता को छिपाए रखने की कुत्सित कोशिश है। इन्हें यौन शोषित लड़की/परिवार की इज्जत और भविष्य के साथ जोड़ा इसलिए जाता है कि वर्चस्ववादियों द्वारा अन्याय और शोषण की परंपरा को अनवरत बनाए रखा जा सके।

‘एलोरा’ कहानी का पिता ऐन-मेन मर्दवादी भारतीय है, अलबत्ता उसकी ‘भारतीयता’ ब्रिटिश परिवेश में ब्रिटिश वर्चस्व के बाह्य प्रतीकों द्वारा अभिव्यक्त हो रही है। पिन–स्ट्राइप डबल बेस्ट सूट, सूडो इंग्लिश इक्सेंट और अपने देशी बंधुओं को ‘दोज इंडियज’ कह कर हिकारत से देखने की अहम्मन्यता ! इसलिए उसकी कायरता का आत्मरक्षात्मक कातरता में तब्दील हो जाना स्वाभाविक है, जहां यथास्थितिवाद है—‘इस अशोभनीय बात के बाहर जाने से हम सबकी बदनामी होगी, जग-हँसाई होगी’ और स्वयं अपने को हीनतर समझने की ग्रंथि भी—‘सोशल वर्कर, पुलिस, कोर्ट-कचहरी सब इन्वाल्व होगा। नहीं ! नहीं ! हम लोगों को इन सबसे दूर रहना चाहिए। कोर्ट-कचहरी में बड़ी छीछालेदर होती है, बेटी...और ये अंग्रेज....ये गोरे लोग हमारे साथ न्याय करेंगे भला ?’’ एशियन मूल के आत्मदया से लबरेज इस चिर परिचित प्रवासी भारतीय की छवि को अपदस्थ कर वहीं की मिट्टी में जन्मे उस प्रवासी भारतीय की निःशंक निर्भीक छवि को केंद्र में लाना चाहती हैं उषाराजे सक्सेना, जो वयस्क होकर नए युग का सूत्रपात करने को सन्नद्ध है !

हां, वह प्रवासी है लेकिन ब्रिटेन की नागरिक भी—एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह—इंडो-ब्रिटिश ! ‘क्या यह देश सिर्फ उनका ही है ? हमारा नहीं ?

हम ब्रिटिश ट्रेजरी को टैक्स और नेशनल इंश्योरेंश नहीं देते क्या ? हम न्याय के लिए किसी और देश जाएंगे क्या ? हम इस देश के वाशिंदे हैं और यही हमारा देश है। यहीं का कानून हमें न्याय देगा, हमारी रक्षा करेगा। हमें अपनी आवाज दबानी नहीं उठानी होगी। तभी तो इस देश में, इस समाज में लोग हमें जानेंगे कि हम उन्हीं की तरह इस देश के टैक्स पेइंग नागरिक हैं। हम यहां के अतिथि नहीं हैं। यहां के रेजिडेंस हैं।’ इस ज्ञान ने उसे आत्मविश्वास दिया है और चरित्र को क्रांतिकारी भास्वरता, जिस कारण अपनी माँ बेला का विलोम रचकर वह आधुनिक आत्मनिर्भर, निर्णय-सक्षम जुझारू स्त्री का प्रतीक बनती है। उषाराजे सक्सेना की आदर्श नायिका एलोरा है किंतु वे बेला तथा शर्ली सिंपसन सरीखी स्त्रियों की निरीहता पर विचार करना भी नहीं भूलती जिनके कंधों पर बंदूक रखकर पुरुष-समाज अपना मनचीता निशान बांधता है और रांझा-रोमियो के बाद पति बनते ही बर्बर दमनकारी उत्पीड़क बन जाता है। क्या यही पतित्व की साधना है ‘अहंकारी, खुदगर्ज और बुली’ बन जाना ? क्या पति-पत्नी की शेर-बकरी  सरीखी भूमिकाएँ ही विवाह संस्था का आदर्श हैं ? उषाराजे सक्सेना सीधे-सीधे स्त्री-विमर्श की हैसियत से सवाल नहीं उठातीं, एक सहृदय की तरह स्थित का खुलासा कर देती हैं—परत-दर-परत तमाम सच्चाइयों को पलट देने के साथ !

‘न, शर्ली सिंपसन शुतुर्मुर्ग नहीं है। वह तो बस अपने सरल स्वभाव के कारण जाने-अनजाने जिंदगी के हर मोड़ पर हर कटुता को भुलाती आई है। जीवन में जो कुछ अशोभनीय है, त्रासद है, कटु है और जिन दर्दनाक, शर्मसार हादसों से कई बार उसे गुजरना हुआ है, वह उन सबको बड़े एहतियात से सात तालों के अंदर बंद कर गहरे अंधेरे तहखानों में रखती चली आई है।’ यह पलायन नहीं, विवाह और संबंध को, परिवार और भविष्य को बचाने की मानवीय कोशिश है। वह हर अपमान पर मुस्कुराती है, क्योंकि प्रतिकूलताओं को परसकर दांपत्य संबंधों के बीच आने नहीं देना चाहती। वह अतिरिक्त रूप से सहिष्णु है, क्योंकि पैरों तले आर्थिक आधार की पुख्ता जमीन नहीं है। यहां महादेवी वर्मा की पुस्तक ‘श्रृंखला की कड़ियां’ में संकलित लेख ‘हिंदु स्त्री का पत्नीत्व’ का स्मरण हो आना अस्वाभाविक है जिसकी प्रासंगिकता तमाम अपमानजनक कटुता के साथ पश्चिमी समाज की आधुनिक स्त्री की नियति को भी आक्रांत किए हुए है, लेकिन महादेवी वर्मा की गूंगी स्त्री भी, जो ख्वाब तक में पति-परायण है !

क्या इसलिए कि उस गूंगी स्त्री के दुःख को किसी रचनाकार ने वाणी नहीं दी ? शायद ! उषाराजे सक्सेना शर्ली के गूंगेपन को उसके ड्रीम सीक्वेंस के साथ जोड़कर जिस प्रतीकात्मक ढंग से इस्तेमाल करती हैं, वह कहानी की अर्थ-व्यंजना को कई गुणा बढ़ा देती है। उसे लगता है, भीड़ के रेले के बीच वह निर्वस्त्र है—अपने में सिकुड़ी, अपनी शर्म को बचाने के संघर्ष में लस्त-पस्त घर लौटती है। वह निर्वस्त्र है क्योंकि व्यक्ति के रूप में जो पति द्वारा अपमानित होने के दंश ने उसके आत्मसम्मान पर प्रहार किया है। वह पस्त है क्योंकि एक सामाजिक इकाई के रूप में छल ओढ़ते-ओढ़ते वह अपनी असलियत खो बैठी है। अज्ञेय की कहानी ‘गैग्रीन’ का विस्तार बनकर वह पाठक से विवाह संस्था के भीतर झांकने का अनुरोध करती है, स्वयं इस मकड़जाल से निकलने का मार्ग नहीं जानती। क्या ऐसा कोई मार्ग है भी ?

उषाराजे सक्सेना की कहानियों में स्त्री लेखन के कड़कते  तेवर नहीं हैं, संबंधों के भीतर सुगबुगाती क्रिया-प्रतिक्रियाओं को सहृदयतापूर्वक उकेरने की अभिलाषा है। शर्ली सिंपसन को असंतोष या विद्रोह का प्रतीक बनाकर वे स्थित का सामान्यीकरण नहीं करतीं, विवाह-संबंधों (तथा हर प्रकार के अन्य संबंधों) के स्थायित्व के लिए पारस्परिक सद्भाव, विश्वास, स्नेह एवं सामंजस्य जैसे मानवीय गुणों को स्त्री-पुरुषों दोनों में अभिषिक्त कर देना चाहती हैं। नहीं, आत्मरतिग्रस्त व्यक्ति आत्मदया के आत्महंता बोध से ग्रस्त रहता है सदा। वह नायक बनाकर महिमामंडित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसकी नकारात्मकताओं के जरिये कुप्रवृत्ति, कुत्सित मनोभावों और कदाचार को पहचानना, साहित्य का लक्ष्य होता है। नायकत्व देने का अर्थ आदर्श रूप में उसे अपने वक्त एवं समाज प्रवक्ता एवं प्रतिनिधि बनाना है।

इसलिए सजगतापूर्वक उषाराजे सक्सेना ‘डैडी’ कहानी को फ्रैंक को स्नेह एवं सम्मान देती हैं जो पति-धर्म, पिता धर्म एवं मनुष्य-धर्म की आचार-संहिता को रचते हुए रुग्णा पत्नी की परिचर्या हेतु तमाम दफ्तरी तामझाम घर में ही कंप्यूटर की मेज तक ले आता है; फोस्टर फादर होते हुए भी पत्नी के लिए अपना सुख-दूःख भूल जाता है; बायलॉजिकल फादर की तलाश में निकली बेटी की ‘अजनबी’ हरकत पर क्षुब्द नहीं होता। उसे स्पेस देकर संबंधों की संश्लिष्ट जमीन पर खुद पैर जमाने का विवेक देता है।


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