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विशिष्ट कहानियाँ

यादवेन्द्र शर्मा

प्रकाशक : शारदा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :219
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5750
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत हैं विशिष्ट कहानियाँ....

Vishishtha kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मैं इतना ही कहूँगा

इस महत्त्वपूर्ण श्रृंखला के अन्तर्गत अपनी विभिन्न कहानियों का संकलन प्रस्तुत करते हुए मेरी सोच है कि विशिष्ट कहानियों का स्वरूप एकांकी नहीं होना चाहिए। अलग-अलग परिवेश यथार्थ, विसंगतियां विडम्बनाएँ, भावुकता अनुभव के आत्ममंथन से निकली कहानियाँ ही नाम को सार्थक करती हैं। मैंने अपनी दीर्घ सृजन-यात्रा में आंतरिक विवशता और बाहरी स्थितियों के दबाव में जो कुछ भी लिया, उसका यह प्रतिफल है कि आपको कई रंगों की कहानियाँ यहाँ मिलेगी।
मैं सन् 1955 से स्वत्रन्त्र लेखन कर रहा हूँ। स्वतंत्र लेखन की मैंने अपनी अनेक पीड़ाएँ और दबाव झेले हैं विशेषतः हिन्दी में जहाँ पाठक साहित्यिक कृतियाँ खरीद कर नहीं पढ़ता ! इसलिए हिन्दी रचनाकार को वह सब झेलना पड़ता है जो प्रांतीय भाषाओं के लेखक को प्रायः नहीं झेलना पड़ता।

मुझसे कई बार पूछा गया कि आप तो पेशेवर लेखक हैं ! जिस भाषा में हजार प्रतियाँ हाथों-हाथ बिकतीं (सरकारी खरीद को छोड़ कर) वहाँ भाषा लेखन को पेशे के रूप में कौन अपनायेगा ? यह मेरी आंतरिक विविशता भी है और सामाजिक आत्मिक संतोष भी ! मुझे आर्थिक कष्टों को झेलते हुए भी गर्व है कि मैं एक विशुद्ध रचनाकार हूँ। न कि नौकर (रचनाकार) चूँकि अधिकांश हिन्दी का लेखन दिनभर तरह-तरह की नौकरियाँ करके बाद में शौकिया लिखता है तो उसका लेखन अनुभवों से काफी दूर रहता है और बौधिकता से बोझिल पर शब्द-आभूषणों से सजा होता है। ऐसा लेखन पाठकों से दूर रहता है ! सीधे पाठकों से जुड़ाव न होना ही उस सृजन की अहमत्ता है और फिर लेखक या तो लेखकों या अपने मित्र-आलोचकों का लेखन बन कर रह जाता है ! वस्तुतः परिवेश गत चरित्रों की वास्तविकता कथ्य, शिल्प, शैली और भाषा के रूप में आनी ही चाहिए। वे ही रचनाएं विशिष्ट होती हैं।

मेरा यह कथा-संग्रह इस दृष्टि से पाठकों-आलोचकों को कहाँ तक संतुष्ट कर पायेगा, यह मुझे नहीं मालूम पर मेरे व्यापक लेखन का यह एक परिणाम है !
इसके प्रकाशन पर डा० आदर्श सक्सेना का आभारी हूँ जिन्होंने कहानियों के चुनाव में सहयोग दिया ! शारदा प्रकाशन तो प्रशंसा का पात्र है ही जिन्होंने इस उपयोगी श्रृंखला का शुभारंभ किया ! पाठक अपनी राय भेजेंगे !

यादवेन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’

अकाल-आकृतियां


वे चारों सन्नाटे में डूबे हुए धोरों के बीच बनी पगडंडी पर चल रहे थे। बेकल के कण उन सबकी आकृतियों पर आ-आकर बैठ गये थे और उनके होठों पर पपड़ी-सी जम गयी थी। धूप इतनी तेज थी कि शरीर जलने लगे थे और उस पर कभी-कभी लू के स्पर्श एक अजीब-सी कंपकंपी पैदा कर जाते थे।

वे पैदल थे। लगभग पन्द्रह जने। एक बूढ़ा, दो मोट्यार और नौ टावर-टींगर। बच्चे पंद्रह साल से दो साल तक के। बार-बार थूक को निगल-निगलकर वे अपने कंठों को गीला कर रहे थे।

औरतों ने घाघरे, कांचली और फटे हुए ओढ़ने पहन रखे थे और मर्दों के शरीर लगभग नंगे थे। हाँ, घुटनों तक धोती और एक-एक चिथड़ा साफे की जगह सिरों पर उन्होंने अवश्य लपेट रखा था। उनके चेहरे कठोर, काले और खुरदरे थे जैसे अनगढ़े पत्थरों की आकृतियाँ हों। पांवों में नीचे की ओर फैली भद्दी मोजड़ियाँ (जूती) थीं, जिन पर रंग-बिरंगे चमड़ों की कारियाँ लगायी हुई थीं। स्त्रियों ने भी पगरखियाँ पहन रखी थीं। एक मर्द और एक औरत के कंधे पर बच्चे बैठे थे। दो औरतों के सिरों पर ईढणियां रखी हुई थीं। उन पर ‘ओड़ियाँ’ टिकायी हुई थीं। उनमें चिथड़े, हाँडियां रसोई बनाने का तवा, चकला, बेलन आदि भरे हुए थे।

मघला उस परिवार में सबसे बूढ़ा व मुखिया था। लगभग अस्सी-पिच्चासी साल का एकदम काजल-सा काला और अस्थिपंजरवत्। खूब लम्बा। तारों के उजास देख ले तो आदमी का कलेजा मारे डर के मुँह को आ जाए। काले चेहरे पर सफेद खिचड़ी-सी भद्दी दाढ़ी, आँखें धंसी और डरावनी-सी जैसे बिल्ली की। मुंह में दांत नहीं। बोले तो सूराख लगे। अपनी सारी उम्र वह इतने बड़े परिवार के दायित्व को संभाले रहा। सुख-दुःख का बोझ वहन करता रहा। हर संकट में आगे रहा और आज भी सूखे से घबराकर शहर की ओर चला तो अपने बल-बूते पर। उसे हौसला था कि वह अपने परिवार को भूखों नहीं मरने देगा चाहे वह स्वयं भूख से मर जाय।
उसने अपनी आँखों पर हथेली की ओट करके दूर-दूर तक नजर दौड़ायी। धोंरे.....! छोटे-मोटे धोरें ! लहरियांदार धीरें ! बीच-बीच में भटके यात्री-सा कोई-कोई खेजड़े का पेड़. कहीं-कहीं नंगी-नंगी-सी बोटी या वैसा ही विरूप कोई जाल का पेड़। इस सब के बीच कमेड़ी की कुहू-कुहू...।

डोकरी ने अपने फटे हुए पल्लू को सिर पर खींचा। उसके सिर पर चांदी का बोर था जिसकी नक्काशी में मैल जम गया था। बुढ़िया की आकृति पर गहरी झुर्रियां थीं जैसे गीली मिट्टी में गहरी-गहरी लकीरें बना दी गई हों। उसकी छातियां नंगी थीं, इसलिए वह बार-बार अपना पल्लू उन पर डाल रही थी। उसके दाएं हाथ में एक लाठी थी। पाँवों के साथ वह भी उठ रही थी। मघला की वह धर्मपत्नी थी।

डोकरी ने मेघहीन नीले आकाश की ओर देखा। उसकी थकी-हारी आंखों में अजीब-सा पीड़ा-भरा खालीपन भर आया। फिर वह आह छोड़कर बोली, ‘‘अखले के बाप ! यदि एक बरखा और हो जाती तो पौबारा पच्चीस हो जाते। छांटी भर-भर मोठ बाजरी होती और थोड़े-से तिल भी हो जाते।’’

मघला भीतर से टूट गया था। वह आवेश-भरे स्वर में बोला, ‘‘अरे बावली, एक बरखा के आने की अडीक में तो मेरे बाप-दादा भी मर गये। यह साला प्रभु भी मरे हुए को ही मारता है।’’
‘‘दोनूं बालद मर गये। भूखों तिस्से मर गये ? गिरिजड़े (गिद्ध) कैसे टूटे पड़े थे उन पर ! सच अखले के बापू, मुझे तब लगा था जैसे वे बालदों को नहीं, मेरा मांस नोच रहे हैं। बालद की जगह यदि मैं मर जाती तो कौन-सा घाटा पड़ जाता’’, उसका गला अवरूद्ध हो गया। आंखें भर आयीं।
‘‘अरे, मैं और तू कभी नहीं मरेंगे। फालतू चीज़ों की ऊपर भी जरूरत नहीं है। बूढ़े हाड़ किस काम आयेंगे ? कितने निरभागे हैं ? सच तो यह है कि हम तो अपने सामने टाबरों को मारते हुए देखने के खातिर जिन्दा हैं। पता नहीं, हम और कितने अकाल अपनी आंखों से देखेंगे ?’’

फिर उसने अपने सिर पर लिपटे चिथड़े को खोला। उसमें दो बीड़ियां थीं। उन बीड़ियों के पिछवाड़े से फूंक मारकर कहा, ‘‘अखला ! दियासलाई है क्या ?’’ अखला उस समय बीड़ी पी रहा था। आगे एक खेजड़ा आ रहा था। उन सबने तय किया कि उसकी चिथड़ा-चिथड़ा छांव में थोड़ी देर तक विश्राम करेंगे।

अखला मघले के नजदीक आया। अपनी बड़ी बापू को दे दी। बापू बीड़ी से बीड़ी सुलगाने लगा। इस बीच अखले ने अपनी जूतियां खोलकर धूल साफ की। उन्हें आपस में कई बार टकराया।

आग की तरह तपती हुई रेत में वह जरा भी विचलित नहीं हुआ। तभी एक नंगे-से बच्चे ने कहा ‘माँ पाणी पीवूंगा। जोर की तिस लगी है।’’
एक मोट्यार लुगाई की बगल में पानी की लोटड़ी लटक रही थी। उसमें से थोड़ा-सा पानी कटोरी में निकालकर उसके बच्चे को पिला दिया।
‘‘थोड़ा और दे--’’ बच्चे ने फिर माँगा।

‘‘अब पाणी नहीं मिलेगा, तू अकेला नहीं है मेरे लाडकुंवरजी कि सारा पानी तुझे ही पिला दूं।’’ उस लुगाई ने उसे झिड़कते हुए कहा। बच्चा रोने लगा। वह अपने हाथ-पाँव उछाल-उछाल कर विरोध का भाव प्रदर्शन करने लगा जिससे गोदवाली औरत के लिए उसे संभालना मुश्किल हो गया। तभी अखले ने बाज की तरह झपट कर उस बच्चे के दो थप्पड़ जमा दिए। बच्चा जोर से रोया। उसकी सांस खिंच गयी माँ का चेहरा पिघली हुई ममता से भर आया। एक मौन विरोध का भाव भी उसकी आकृति पर रेंगा।

खेजड़े के नीचे उस परिवार ने राहत की साँस ली। पानी का एक घूंट इस तरह पीया मानो वह अमृत हो। हां सबके गले तो गीले हो गये। एक किशोर लड़की ने अपनी दादी के पास जाकर डरते-डरते कहा, ‘‘मुझे भूख लगी है दादी, पेट में भूख से पीड़ा होने लगी है।’’
डोकरी ने एक तीखी निगाह से अपनी पोती को देखा। उसका कुम्हलाया मुख सूखे होंठ, काले दायरों में घिरी भूखी आँखें, याचना भरा दबा-दबा स्वर...., वह करुणा से भर गयी।

ओडीवाले बहूँ की ओर नजर उठाकर पूछा, ‘‘बीनणी ! रोटी का टुकड़ा है क्या ?’’ बहू ने अपने दोनों हाथों में हाथीदांत की चूंड़ियां पहन रखी थीं, हथेली के पास छोटी बाजू के अन्त तक काफी बड़ी-’ वे खनकीं। उसके डिच-डिच डिचकारी के साथ गर्दन हिलाकर स्वीकृति दी और लपककर सास के पास आयी।
बहू सीधी सास से बात नहीं कर सकती थी, इसलिए लड़की के माध्यम से कहा ‘‘छोरी ! दादी से कह कि आधो टुकड़ों ही रोटी रो है, उसमें भी खेजड़े की छाल मिली हुई है।’’
‘‘दे दो मरना तो है ही, जहाँ तक बचने की उम्मीद है, जतन तो करेंगे। खूंटी नै कोई बूंटी नहीं।’’

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