उपन्यास >> विषकन्या विषकन्याएस. के. पोट्टेकाट
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प्रस्तुत है रोचक उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
तिरुवितांकूर (केरल) के गरीब ईसाइयों के कृषिकर्म को लेकर मलयालम में एक
लिखा गया प्रसिद्ध उपन्यास विषकन्या का हिन्दी अनुवाद है विषकन्या।
स्वाधीनता के पश्चात यहां के किसान अपने छोटे-छोटे खेतों को बेचकर वयनाड
पहाड़ियों में बसने लगे। इन किसानों ने भूमि पर प्रकृति की क्रूरता भी
देखी और उदारता भी। इस उपन्यास में मानव और प्रकृति-दोनों के उस संघर्ष को
काव्यात्मक और नाटकीय शैली में प्रस्तुत किया गया है, जहां एक तरफ वन और
प्रकृति का सौंदर्य लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करता है वहीं उसके पापमयी
आलिंगन उसे समाप्त भी करते हैं। विषकन्या के समान मादक सौंदर्य का प्रलोभन
और उसे मिटा देने वाले अनिष्टकारी गुण की व्याख्या यहां दिखाई देता है। इस
ताने-बाने में रची यह कथा एक खास भू-भाग की ऐतिहासिक कहानी भी हो जाती है।
भाषा एवं शैली की सहायता से उपन्यास के विषय के साथ लेखक का व्यवहार
आकर्षक और मनोरंजक है।
उपन्यासकार एस.के. पोट्टकाट मलयालम के उन थोड़े से रचनाकारों में से हैं जिनके लिए कहा जाता है कि लेखक की भाषा एक उदाहरण है। इनका गद्य प्रस्तुत पद्य का आनंद देता है। पोट्टकाट का गद्य लेखन मानव जीवन की संगीतात्मकता से ओत-प्रोत रहता है। कहा गया है कि पोट्टकाट का उपन्यास लेखन बैले का आनंद देता है। जिस प्रकार महासमुद्र की गर्जन ध्वनि हम बहुत दूर से सुन सकते हैं, उसी प्रकार मलवार के महाजीवन प्रयाण का मंद संगीत भी हम इस उपन्यास में दूर से सुन सकते हैं। इनकी अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं—‘ओरू देशातिन्टे कथा’, ‘नाडन’, ‘प्रेमशिक्षा’, ‘कराम्पू’, ‘प्रेमम’ आदि।
उपन्यासकार एस.के. पोट्टकाट मलयालम के उन थोड़े से रचनाकारों में से हैं जिनके लिए कहा जाता है कि लेखक की भाषा एक उदाहरण है। इनका गद्य प्रस्तुत पद्य का आनंद देता है। पोट्टकाट का गद्य लेखन मानव जीवन की संगीतात्मकता से ओत-प्रोत रहता है। कहा गया है कि पोट्टकाट का उपन्यास लेखन बैले का आनंद देता है। जिस प्रकार महासमुद्र की गर्जन ध्वनि हम बहुत दूर से सुन सकते हैं, उसी प्रकार मलवार के महाजीवन प्रयाण का मंद संगीत भी हम इस उपन्यास में दूर से सुन सकते हैं। इनकी अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं—‘ओरू देशातिन्टे कथा’, ‘नाडन’, ‘प्रेमशिक्षा’, ‘कराम्पू’, ‘प्रेमम’ आदि।
पहले संस्करण की प्रस्तावना
लगभग चार वर्ष पहले मुझे मलबार की पहाड़ियों के बीच कुछ दिन ठहरने का अवसर
मिला। आवास के दौरान मुझे उन लोगों के बारे में जानने तथा उनसे व्यक्तिगत
परिचय बढ़ाने का मौका भी मिला जो तिरुवितांकुर1 से यहां के वयनाड क्षेत्र
में आकर बस गए थे। मेरे दिल में उन लोगों की प्राचीन सभ्यता, कामकाज और
संस्कृति के बारे में जानने की बड़ी जिज्ञासा उत्पन्न हुई। यह उपन्यास
मेरी इसी जिज्ञासा पर आधारित है।
यह केरल की पहली सीढ़ी जिसे जाने-अनजाने में तिरुवितांकूर वाले, ये लोग सामने लाए। उनके इस प्रयास के कारण ही मेरा उनसे घनिष्ठ प्रेम हो गया। किसी भी सरकार के सहयोग या उत्प्रेरणा के बिना भी, स्वावलंबन और अदम्य साहस को पूंजी के रूप में संजोकर इन लोगों ने अपना जीवन नए सिरे से प्रारम्भ किया। इस प्रयास में उन्हें बहुत कठिन परिश्रम करना पड़ा। इसी कारण ये उद्यमशील और पुरुषार्थी लोग बधाई के पात्र हैं। इनके दुख-दर्द के प्रति मेरे मन में सहानुभूति भी जगी है। सराहना और सहानुभूति की इस उद्दीप्त भावना ने ही मुझे इस उपन्यास को लिखने के लिए विवश किया है।
इस उपन्यास के कथापात्र या घटना चित्रण में किसी भी जीवित की ओर संकेत नहीं है। मैं यह विश्वास दिलाता हूं कि मेरे मन में उत्पन्न सराहना या सहानुभूति के भाव किसी समाज या व्यक्ति के प्रति उपहास के रूप में प्रयोग नहीं किए जाएंगे।
इस उपन्यास में मलबार के नए बासिंदों की समस्याओं, कठिनाइयों और कठिन परिश्रम को चित्रित करने का प्रयत्न किया गया है। जिस प्रकार किसी
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1. भाषावार राज्य बनने से पहले केरल तीन भागों में बंटा हुआ था तिरुवितांकूर, कोचीन और मलबार। इनमें से तिरुवितांकूर और कोचीन स्वतंत्रता से पहले रजवाड़े थे और मलबार ब्रिटिश शासित प्रदेश था।
किले पर कब्जा करने के लिए फौज की अग्रिम पंक्ति को सबसे ज्यादा खतरा का समाना करना पड़ता है, उसी प्रकार नए वासिंदों के पूर्वजों को भी खतरे का सबसे ज्यादा सामना करना पड़ा था। जो लोग इस स्थान पर सबसे पहले आए थे, उनमें से नब्बे प्रतिशत लोगों की इन्हीं पहाड़ियों में घोर अभावों और कठिनाइयों के कारण अकाल मृत्यु भी हुई है। इसके बावजूद बाकी के जीवित लोगों ने अपना संपूर्ण जीवन भावी पाढ़ी के लिए न्योछावर कर दिया। जंगल काट दिए गए और मलेरिया पूर्णरूप से उन्मूलन हो गया। मानव सभ्यता का विस्तार होने लगा और जंगलों के स्थान पर गांवों व शहरों का विकास हुआ। जिन हजारों अज्ञात लोगों ने इस नव निर्माण के संघर्ष में अपने प्राणों की आहुति दी है, मैं उन सबकी स्मृति में इस उपन्यास को सहर्ष समर्पित करता हूँ।
यह केरल की पहली सीढ़ी जिसे जाने-अनजाने में तिरुवितांकूर वाले, ये लोग सामने लाए। उनके इस प्रयास के कारण ही मेरा उनसे घनिष्ठ प्रेम हो गया। किसी भी सरकार के सहयोग या उत्प्रेरणा के बिना भी, स्वावलंबन और अदम्य साहस को पूंजी के रूप में संजोकर इन लोगों ने अपना जीवन नए सिरे से प्रारम्भ किया। इस प्रयास में उन्हें बहुत कठिन परिश्रम करना पड़ा। इसी कारण ये उद्यमशील और पुरुषार्थी लोग बधाई के पात्र हैं। इनके दुख-दर्द के प्रति मेरे मन में सहानुभूति भी जगी है। सराहना और सहानुभूति की इस उद्दीप्त भावना ने ही मुझे इस उपन्यास को लिखने के लिए विवश किया है।
इस उपन्यास के कथापात्र या घटना चित्रण में किसी भी जीवित की ओर संकेत नहीं है। मैं यह विश्वास दिलाता हूं कि मेरे मन में उत्पन्न सराहना या सहानुभूति के भाव किसी समाज या व्यक्ति के प्रति उपहास के रूप में प्रयोग नहीं किए जाएंगे।
इस उपन्यास में मलबार के नए बासिंदों की समस्याओं, कठिनाइयों और कठिन परिश्रम को चित्रित करने का प्रयत्न किया गया है। जिस प्रकार किसी
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1. भाषावार राज्य बनने से पहले केरल तीन भागों में बंटा हुआ था तिरुवितांकूर, कोचीन और मलबार। इनमें से तिरुवितांकूर और कोचीन स्वतंत्रता से पहले रजवाड़े थे और मलबार ब्रिटिश शासित प्रदेश था।
किले पर कब्जा करने के लिए फौज की अग्रिम पंक्ति को सबसे ज्यादा खतरा का समाना करना पड़ता है, उसी प्रकार नए वासिंदों के पूर्वजों को भी खतरे का सबसे ज्यादा सामना करना पड़ा था। जो लोग इस स्थान पर सबसे पहले आए थे, उनमें से नब्बे प्रतिशत लोगों की इन्हीं पहाड़ियों में घोर अभावों और कठिनाइयों के कारण अकाल मृत्यु भी हुई है। इसके बावजूद बाकी के जीवित लोगों ने अपना संपूर्ण जीवन भावी पाढ़ी के लिए न्योछावर कर दिया। जंगल काट दिए गए और मलेरिया पूर्णरूप से उन्मूलन हो गया। मानव सभ्यता का विस्तार होने लगा और जंगलों के स्थान पर गांवों व शहरों का विकास हुआ। जिन हजारों अज्ञात लोगों ने इस नव निर्माण के संघर्ष में अपने प्राणों की आहुति दी है, मैं उन सबकी स्मृति में इस उपन्यास को सहर्ष समर्पित करता हूँ।
एस.के.पोट्टकाट
सातवें संस्करण का परिचय
‘विषकन्या’ के पहले संस्करण को प्रकाशित हुए उन्नीस
वर्ष बीत
चुके हैं। उसके बाद से अब तक इस उपन्यास के आधार स्थान वयनाड1 प्रदेश में
अनेक परिवर्तन हो गए हैं। जो मलबार प्रदेश पहले मद्रास प्रेसीडेंसी में
था, स्वतंत्रता के बाद उसका विलय केरल में हो गया है। वयनाड प्रदेश की उपज
की मांग और दाम की प्रसिद्धि सारे संसार के बाजारों में हो गई है। यहां पर
अब आवागमन के साधन बढ़ गए हैं, छोटे-छोटे गांव बड़े शहरों में बदल गए हैं।
नई कालोनियों का उदय होता जा रहा है। पहाड़ियों के ऊपर नए स्कूल और
कालेजों की इमारतों का निर्माण होने लगा है।
मैं सन् 1962 में वयनाड प्रदेश से संसद-सदस्य के रूप में चुना गया हूं। इसलिए मुझे समय-समय पर इस प्रदेश में घूमने और जनता से संपर्क करने का अवसर भी मिला है। इन नए अनुभवों और जानकारियों के कारण ही ‘विषकन्या’ का एक दूसरा भाग (वीरकन्या) लिखने का भी मुझे शुभ अवसर मिला है। इसलिए मैं आपके समक्ष इस पुस्तक का सातवां संस्करण प्रस्तुत कर रहा हूं।
मुझे हार्दिक प्रसन्नता यह हुई है कि उन्नीस वर्ष के बाद भी ‘विषकन्या’ की मांग निरंतर बढ़ी ही है। --------------------------- 1.वयनाड अथवा मलबार
मैं सन् 1962 में वयनाड प्रदेश से संसद-सदस्य के रूप में चुना गया हूं। इसलिए मुझे समय-समय पर इस प्रदेश में घूमने और जनता से संपर्क करने का अवसर भी मिला है। इन नए अनुभवों और जानकारियों के कारण ही ‘विषकन्या’ का एक दूसरा भाग (वीरकन्या) लिखने का भी मुझे शुभ अवसर मिला है। इसलिए मैं आपके समक्ष इस पुस्तक का सातवां संस्करण प्रस्तुत कर रहा हूं।
मुझे हार्दिक प्रसन्नता यह हुई है कि उन्नीस वर्ष के बाद भी ‘विषकन्या’ की मांग निरंतर बढ़ी ही है। --------------------------- 1.वयनाड अथवा मलबार
ए.के.पोट्टकट
भूमिका
मलयालम साहित्य के राजशिल्पी ‘इंदुलेखा’,
‘शारदा’
आदि सामाजिक उपन्यासों के रचयिता श्री ओ. चंतुमेनोन और ‘मार्तंड
वर्मा’, ‘धर्मराजा’,
‘रामराज’
‘बहादुर’ आदि ऐतिहासिक उपन्यासों के रचयिता श्री
सी.वी रमन
पिल्लै है। ‘इंदुलेखा’ पहली बार सन् 1889 में
प्रकाशित हुआ।
उसके बाद चंतुमेनोन और सी.वी. के बहुत-से अनुयायी और अनुकर्ता लेखक कई
दशकों तक उपन्यास लिखते रहे। लेकिन बाद की पीढ़ी के कुछ उपन्यासकारों ने
यह साबित कर दिया कि उपन्यास का एक दूसरा पक्ष भी है। दूसरी पीढ़ी के
उपन्यासकारों में सबसे मुख्य थे पी. केशवदेव, तकषी शिवशंकर पिल्लै, वैकम
मुहम्मद बशीर, एस-के पोट्टकट और अब पी.सी कुट्टिकृष्णन। इन उपन्यासकारों
में अपनी रचनाओं में एक विशेष प्रकार के निजी व्यक्तित्व, जीवनदर्शन और
शैली का परिचय दिया। इन उपन्यासकारों में कुछ में कुछ समानधर्मी भी हम देख
सकते हैं। पहली बात यह है कि ये उपन्यासकार प्रारंभिक काल में कहानी लेखक
थे।
इन सभी लेखकों ने मिलकर मलयालम में ऐसी कहानियों का संकलन और संग्रह किया जिसमें केरल के प्राकृतिक जीवन के दृश्य या अदृश्य अथवा सूक्ष्म या स्थूल भावों की झलक दर्शकों में मिलती रही है। इस प्रकार ये उपन्यासकार सर्वप्रथम ‘कहानीकार’ के रूप में सामने आए और बाद में इन्होंने उपन्यास के क्षेत्र में प्रवेश किया। प्रथम महायुद्ध और अक्तूबर क्रांति के कारण इस सदी का दूसरा दशक, पुराने विश्वासों के अंत और नई आशाओं की प्रतीक्षा का साक्षी बन गया। स्वतंत्रता की जिस चिनगारी को तिलक और गांधी ने प्रज्वलित किया था, उससे मार्क्स के सामाजिकवाद के प्रभाव से केरल के प्रतिभाशाली साहित्यकार भी प्रभावित हो गए थे। इन प्रतिभाशाली उपन्यासकारों की रचनाओं में एक नया और अमूल्य जीवन-दर्शन प्रदर्शित हुआ है। इन सभी उपन्यासकारों की लेखनी का स्वप्न, स्वतंत्रता का दृढ़ संकल्प, मनुष्य के दुखों के प्रति असहिष्णु आदि की ओर हुआ है। लेकिन इन उपन्यासकारों के संबंध में विशेष रूप से ध्यान रखने की बात यह है कि इनमें भी भिन्नता रही है। इन उपन्यासकारों में ए.के. पोट्टिकाट की विशेषता यह है कि वे केवल के एक कहानीकार और उपन्यासकार ही नहीं हैं, एक कवि और सफल यात्रा विवरण लेखक भी हैं।
उन्होंने न केवल गद्य और पद्य में समान रूप से अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है, बल्कि उन्होंने आस्ट्रेलिया को छोड़कर शेष सारे संसार के देशों की यात्रा करके वास्तविक सचाई की खोज करने के बाद उत्कृष्ट यात्रा विवरण भी लिखे हैं। मनुष्य जीवन के विविध रूपों और भावों के साथ-साथ, देश में वर्ण-भेद से परे वास्तविक मनुष्य को भी अपनी खोजों में उन्होंने पाया और इस वास्तविक मनुष्य को अपने यात्रा वृत्तांत में चित्रित भी किया। इस तरह यात्रा वृत्तांत लिखकर श्री एस-के.पोट्टकाट ने दूसरे उपन्यासकारों से अलग व्यक्तित्व की विशेषता का प्रदर्शन करके एक अतुल्य और अनुपम स्थान ग्रहण किया है। श्री पोट्टकाट संसार का लगातार भ्रमण करके संसार के विभिन्न देशों के लोगों की सभ्यता तथा आचार-व्यवहार में घुल-मिलकर रहने के बावजूद अपनी संस्कृति और सभ्यता को नहीं भुलाया। यह तथ्य श्री एस.के.पोट्टकाट के वृहत् उपन्यास ‘ओरु देशातिन्टे कथा’ पढ़ने से स्पष्ट होता है।
‘नाडान’ ‘प्रेमम’, ‘प्रेमशिक्षा’, ‘करांपू’ आदि श्री पोट्टाक के छोटे उपन्यास हैं जो सुंदर तथा आकर्षक हैं, मानो कोई काल्पनिक भावगीत हों। ‘मूडूपडम’ उपन्यास की पृष्ठभूमि कुछ विस्तृत है। इस उपन्यास में उपन्यासकार ने केरल के कुछ दुखी और असहाय परिवारों की दुखभरी कहानियों का वर्णन किया है जो केरल में अपनी जमींने छोड़कर बंबई पहुंच गए थे। वहां पर क्षेत्रीय लड़ाई के बीच में उन्हें विभिन्न प्रकार की परेशानियों से जूझना पड़ा था।
उक्त उपन्यास का जिक्र ‘ओरू देशातिन्टे कथा’ में कथांश के रूप में भी है और साथ ही इसमें उपन्यासकार के आध्यात्मिक दर्शन की झलक भी मिलती है। अपने दूसरे एक वृहत उपन्यास ‘आरू तेरुविन्टे कथा’ में श्री पोट्टकाट ने उन लोगों के असली और नकली चेहरों का वर्णन किया है जहां वे काफी समय तक रहे हैं। साधारण तौर पर इनके उपन्यासों में एक ओर ग्रामीण जीवन का भोलापन, लालित्य तथा शालीनता है तो दूसरी ओर शहरों की मशीनी जिंदगी के खोखलेपन के कारण कृतिम जीवन का झूठा प्रदर्शन। उन्होंने यद्यपि अपने उपन्यास में महानगरों में मनुष्यों के जीवन संघर्ष के कशमकश की पृष्ठभूमि का सजीव चित्रण किया है। लेकिन ‘विषकन्या’ की भाषा-शैली तथा सरल भाषा में चित्रण उनके अन्य उपन्यासों की तुलना में बहुत ही महत्व के हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व, केरल राष्ट्रीय स्तर पर तीन भागों में विभक्त था—तिरुवितांकुर, कोच्ची के दो रडवाड़े और मद्रास प्रेसिडेंसी का एक भाग—मलबार पिला।
इन सभी लेखकों ने मिलकर मलयालम में ऐसी कहानियों का संकलन और संग्रह किया जिसमें केरल के प्राकृतिक जीवन के दृश्य या अदृश्य अथवा सूक्ष्म या स्थूल भावों की झलक दर्शकों में मिलती रही है। इस प्रकार ये उपन्यासकार सर्वप्रथम ‘कहानीकार’ के रूप में सामने आए और बाद में इन्होंने उपन्यास के क्षेत्र में प्रवेश किया। प्रथम महायुद्ध और अक्तूबर क्रांति के कारण इस सदी का दूसरा दशक, पुराने विश्वासों के अंत और नई आशाओं की प्रतीक्षा का साक्षी बन गया। स्वतंत्रता की जिस चिनगारी को तिलक और गांधी ने प्रज्वलित किया था, उससे मार्क्स के सामाजिकवाद के प्रभाव से केरल के प्रतिभाशाली साहित्यकार भी प्रभावित हो गए थे। इन प्रतिभाशाली उपन्यासकारों की रचनाओं में एक नया और अमूल्य जीवन-दर्शन प्रदर्शित हुआ है। इन सभी उपन्यासकारों की लेखनी का स्वप्न, स्वतंत्रता का दृढ़ संकल्प, मनुष्य के दुखों के प्रति असहिष्णु आदि की ओर हुआ है। लेकिन इन उपन्यासकारों के संबंध में विशेष रूप से ध्यान रखने की बात यह है कि इनमें भी भिन्नता रही है। इन उपन्यासकारों में ए.के. पोट्टिकाट की विशेषता यह है कि वे केवल के एक कहानीकार और उपन्यासकार ही नहीं हैं, एक कवि और सफल यात्रा विवरण लेखक भी हैं।
उन्होंने न केवल गद्य और पद्य में समान रूप से अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया है, बल्कि उन्होंने आस्ट्रेलिया को छोड़कर शेष सारे संसार के देशों की यात्रा करके वास्तविक सचाई की खोज करने के बाद उत्कृष्ट यात्रा विवरण भी लिखे हैं। मनुष्य जीवन के विविध रूपों और भावों के साथ-साथ, देश में वर्ण-भेद से परे वास्तविक मनुष्य को भी अपनी खोजों में उन्होंने पाया और इस वास्तविक मनुष्य को अपने यात्रा वृत्तांत में चित्रित भी किया। इस तरह यात्रा वृत्तांत लिखकर श्री एस-के.पोट्टकाट ने दूसरे उपन्यासकारों से अलग व्यक्तित्व की विशेषता का प्रदर्शन करके एक अतुल्य और अनुपम स्थान ग्रहण किया है। श्री पोट्टकाट संसार का लगातार भ्रमण करके संसार के विभिन्न देशों के लोगों की सभ्यता तथा आचार-व्यवहार में घुल-मिलकर रहने के बावजूद अपनी संस्कृति और सभ्यता को नहीं भुलाया। यह तथ्य श्री एस.के.पोट्टकाट के वृहत् उपन्यास ‘ओरु देशातिन्टे कथा’ पढ़ने से स्पष्ट होता है।
‘नाडान’ ‘प्रेमम’, ‘प्रेमशिक्षा’, ‘करांपू’ आदि श्री पोट्टाक के छोटे उपन्यास हैं जो सुंदर तथा आकर्षक हैं, मानो कोई काल्पनिक भावगीत हों। ‘मूडूपडम’ उपन्यास की पृष्ठभूमि कुछ विस्तृत है। इस उपन्यास में उपन्यासकार ने केरल के कुछ दुखी और असहाय परिवारों की दुखभरी कहानियों का वर्णन किया है जो केरल में अपनी जमींने छोड़कर बंबई पहुंच गए थे। वहां पर क्षेत्रीय लड़ाई के बीच में उन्हें विभिन्न प्रकार की परेशानियों से जूझना पड़ा था।
उक्त उपन्यास का जिक्र ‘ओरू देशातिन्टे कथा’ में कथांश के रूप में भी है और साथ ही इसमें उपन्यासकार के आध्यात्मिक दर्शन की झलक भी मिलती है। अपने दूसरे एक वृहत उपन्यास ‘आरू तेरुविन्टे कथा’ में श्री पोट्टकाट ने उन लोगों के असली और नकली चेहरों का वर्णन किया है जहां वे काफी समय तक रहे हैं। साधारण तौर पर इनके उपन्यासों में एक ओर ग्रामीण जीवन का भोलापन, लालित्य तथा शालीनता है तो दूसरी ओर शहरों की मशीनी जिंदगी के खोखलेपन के कारण कृतिम जीवन का झूठा प्रदर्शन। उन्होंने यद्यपि अपने उपन्यास में महानगरों में मनुष्यों के जीवन संघर्ष के कशमकश की पृष्ठभूमि का सजीव चित्रण किया है। लेकिन ‘विषकन्या’ की भाषा-शैली तथा सरल भाषा में चित्रण उनके अन्य उपन्यासों की तुलना में बहुत ही महत्व के हैं।
स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व, केरल राष्ट्रीय स्तर पर तीन भागों में विभक्त था—तिरुवितांकुर, कोच्ची के दो रडवाड़े और मद्रास प्रेसिडेंसी का एक भाग—मलबार पिला।
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