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कविता संग्रह >> शब्द वे लौटेंगे निश्चय

शब्द वे लौटेंगे निश्चय

श्रीकान्त जोशी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5761
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत हैं कविताएँ......

Shabd ve lautenge nishchay

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


नयी हिन्दी कविता के प्रसिद्ध कवि श्रीकान्त जोशी के ‘शब्द वे लौटेंगे निश्चय’ संग्रह की कविताओं में मुख्यतः शब्द की विविध भंगिमाओं के चित्र हैं। जोशी जी के ही शब्दों में, शब्द से पूर्व हम संकेत भाषा बोलते थे जो निश्चय ही विभाषा थी, पर जब हम उच्चारण की भाषा पर आ गये तो भाषा में निहित वैश्विकता खो बैठे—

विश्व-भाषा के वंशज थे शब्द
शब्द वे बिछुड़ गये-
भूखण्ड के खण्ड-खण्ड होने से।

पर यह विश्व सदा ही खण्डित नहीं रहेगा। क्रमशः इतिहास की शक्तियाँ ही, जिन्होंने इसे खण्डित किया था, इसे अखण्डता भी देंगी। वह दिन आएगा जब वे शब्द अवश्य लौटेंगे और विश्वभाषा के शब्द सिद्ध होंगे।
संग्रह की कविता कुछेक उपविभागों में विभाजित हैं जिनसे कवि की व्यापक जीवन-दृष्टि और सूक्ष्म सौन्दर्य बोध का परिचय मिलता है।
विश्वास है, यह संग्रह हिन्दी काव्य के सुधी पाठकों को एक विशेष प्रकार की तुष्टि प्रदान करेगा। साथ ही, भाषा और कथ्य दोनों में ही इसकी निजता उन्हें आकर्षित करेगी।

भूमिका


‘शब्द वे लौटेंगे निश्चय’ काव्य-संग्रह मैंने दो बार पढ़ा। श्रीकान्त जोशी को मैं नाम से गत तीस वर्षों से अधिक समय से जानता हूँ। धीरे-धीरे स्वरूप से दर्शन हुआ, पर उनसे पहला सार्थक साक्षात्कार एक कविता के माध्यम से हुआ, जिसका मैंने अँग्रेजी अनुवाद किया था। उस कविता का केन्द्रबिन्दु था—‘क्यों नहीं उत्सव मना रहे हो ?’ ‘मेले में तुम क्यों नहीं गये ?’ उस कविता में शहरी संस्कृति की खोखली उदासी है। बहुत स्पृहणीय कविता—कुछ अजनबी लगी, पर अच्छी लगी। बाद में मैंने और भी कविताएँ पढ़ीं और उन्हें उदास होते हुए भी मैंने देखा। पर उन्होंने अभी तक विश्वास नहीं खोया है।
प्रस्तुत ‘शब्द वे लौटेंगे निश्चय’ काव्य-संग्रह में तीन खण्ड हैं। पहले खण्ड का नाम है—‘समय ओर बधिर।’ जिसमें 18 कविताएँ हैं जो विजड़ित समय को चुनौती देती हैं। इसमें एक ओर आक्रोश है कि एक बदलाव आया है जो प्रतिकार नहीं है तो दूसरी ओर एक आमन्त्रण है कि—

‘‘ज़िन्दगी बातचीत है
करते रहिए’’
और एक स्वप्न है मेरा आकाश—
‘‘अरे, यह अपने पंखों को
महसूस करने लगा सचमुच !’’

इसी खण्ड में एक अन्य कविता है जिसमें समूह संचार-साधनों का एक गहरा व्यंग्य है।
दूसरे खण्ड का उन्होंने शीर्षक दिया है—‘शब्द वे लौटेंगे निश्चय’, जिसमें 25 कविताएँ हैं। इस खण्ड की कविताओं में शब्द पर विविध भंगिमाओं के चित्र हैं। शब्दों की संरचना के ऊपर एक दबाव आया है जिसके कारण ‘‘शब्द जरूरत से कम रह गये।’’
जोशी जी के शब्दों में—‘‘शब्द समय की प्रथम तिलमिलाहट हैं,’’ और वे शब्द की भूमिका कुछ महत्त्वहीन होती देख गहरी चिन्ता से त्रस्त हैं। लगता है कि ‘किसी विश्व-भाषा का विरह’ ठहर गया है और कवि, जो ‘शब्द’ को आवाज़ लगा रहा है, शताब्दियों तक आगे दौड़ लगाएगा।
समूह-उत्पादन के साथ, नियत रुप से समूह में शब्द –उत्पादन की विडम्बना ने, ‘शब्द’ को खतरनाक बना दिया है।
इस खण्ड की एक कविता में व्यंग्य है—निषेधात्मक आलोचना पर, जो अपने दायरे के बाहर की रचना को काटती रहती है पर (कवि) ऐसे लोगों को बताता है कि—कविता से मेरी ज़िन्दगी नहीं, पर ‘ज़िन्दगी से शायद कविता हो।’’
तीसरे खण्ड का शीर्षक है—‘पहाड़ और पहाड़ के मध्य बजती हुई जल-तरंग’।
इस खण्ड की कविता में प्रकृति और मनुष्य के बीच आत्मीता को फिर से उद्बोधित करने का प्रयत्न है। कवि यह मानता है कि—

‘‘प्रकृति में होना
संघर्ष में सोल्लास उतरना है’’

इन कविताओं में भवानी भाई की स्मृति है जो ‘‘वसन्त में आये और वसन्त में चले गये, जिनके मृत्यु के क्षणों में वसन्त ही रहा।’’
इस खण्ड में एक अन्य कविता है—‘सुनो खगी सुनो !’ जिसमें प्रकृति की दानशीलता और आमन्त्रण है। इसी तरह ‘सुनो मेघ’ की पँक्तियाँ हैं :

‘‘उतर आओ
रिक्त नदियो
शुष्क खेतों तक जाओ
आओ
चले आओ नादमय
निर्वस्त्र और रुद्र
रज के रोम-रोम पर रखो
बूँदों के समुद्र।
मत रहने दो अक्षत
उद्दण्ड उन्मत्त होने तक
हो जाने दो कामार्त, क्षुद्र
उदात्त और शुद्ध होने के लिए।’’

इस कविता को पढ़ते-पढ़ते कालिदास के कामपुरुष की याद हो आती है।
इस खण्ड में बहुत सीधे-सादे चित्रण हैं जैसे—‘धूप जाड़ों की’ ‘बरखा है’। कवि आदमी की असहजता से व्यथित होकर ही प्रकृति को स्मरण करता है क्योंकि सहज होना आदमी की प्रकृति है।
पृष्ठ-सीमा के कारण जोशी जी की कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कविताएँ इस संग्रह में सम्मिलित नहीं हो सकीं, जो उनके शीघ्र प्रकाश्य आगामी संग्रह में समाहित होंगी। उसमें ‘जन याद आते हैं’  शीर्षक खण्ड की कविताओं में शब्दों के संशय में चल रही धूर्तता के ऊपर गहरा आक्रोश है। और एक गहरी पीड़ा है कि सच-झूठ के सामने ठहरना ही नहीं चाहता, जबकि झूठ सच के परिवेश में सफलता से चलता रहता है। इस खण्ड की कविताओं में उस यशस्वी को सूर्य से अधिक महत्त्व दिया गया है जो डूब रहा है, जो संकल्प से अभिशप्त है, निर्भीक है और निष्काम है।
एक अन्य खण्ड में जो कविताएँ हैं वे दीप्ति आक्रोश (की हैं) व निराशा के विरुद्ध साहस की कविताएँ हैं। इनमें ‘वास्तविक चुप का इन्तजार’ बड़ी सशक्त कविता है। इनमें सीधे-सादे उक्ति-विधान द्वारा, बातचीत के तौर-तरीके के द्वारा और बलात्मक ‘देखिए’ की पुनरुक्ति के द्वारा संवादहीनता पर करारा प्रहार किया गया है—

‘‘देखिए
अब देखिए
एक तरह से ‘यह’ ठण्डा होने को है अब
दौड़ेगा तो इसके पाँव दे देंगे जवाब
गुण्डा शख्स सचमुच डरता है
समूह की सामूहिक और सामना करती—
           चुप से जनाब।’’

उनके आगामी संग्रह की कुछ अन्य विशिष्ट कविताओं में एक सार्थक कविता है—‘काले रंग की पूर्णिमा’ जो समूह संस्कृति पर गहरी चोट है। दूसरी सुखद कविता ‘यह देश’ है जिसमें अटूट विश्वास है कि इस देश की जिजीविषा अटूट है। यह कवि का संकल्प मात्र है।
समग्र दृष्टि से यह संग्रह उल्लेखनीय है क्योंकि यह पटरी से कुछ अलग है और भाषा की दृष्टि से इन्द्रजाल नहीं है। एक सहज उगते हुए इन्द्रधनुष की तरह यह काव्य-संग्रह तरल सुन्दर है। मैं इस काव्य-संग्रह के लिए श्रीकान्त जोशी को साधुवाद देता हूँ।

-विद्यानिवास मिश्र

सुन फिर


समय
ओ बधिर !
ढाई अक्षर की गुनगुन
सुन
फिर !

अब सुनता हूँ


कोई ध्वनि थी कभी
रोमांकुरों में।
अब सुनता हूँ
मिट्टी में
बरखा में
अंकुरों में

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