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षड्यंत्र

भीमसेन तोरगल

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :98
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5771
आईएसबीएन :81-237-3554-7

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कन्नड़ कथाकार भीमसेन द्वारा महाभारत की कथा को एक नये रूप में तथा नये कोण से प्रस्तुत किया गया है।

Shadyantra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


षड्यंत्र कन्नड़ के विशिष्ट उपन्यास ‘संचु’ का हिन्दी अनुवाद है। ऐतिहासिक और पौराणिक आख्यानों पर आधारित कथाकृतियां पिछले कुछ दशकों में भारत की भिन्न-भिन्न भाषाओं में खूब आई हैं। पर, यह उपन्यास उन सबसे से भिन्न है तो इस मायने में कि यहां उपन्यास के कथानक का आधार महाभारत नहीं है। महाभारत की कथा यहां सिर्फ एक बहाना है उस कथा की नई व्याख्या के बहाने आज के सामाजिक और राजनीतिक षड्यंत्रों को रूपक (Metaphor) में प्रस्तुत किया गया है। किसी रहस्यमय नाटक या रोमांचक घटना की तरह यह उपन्यास सिंहावलोकन की शैली में वर्णित है, जिसके अन्त में कई विस्मयकारी तथ्यों का रहस्योद्घाटन होता है। ढेर सारी अंतर्धाराएं, विडंबनाएं, अंतर्दृष्टियां यहां भरी पड़ी हैं। इस उपन्यास को उत्तर आधुनिक कसौटियों पर विरचना और नए विमर्श के संदर्भ में देखने से आज के समाज की नीति निर्धारक तत्वों के वीभत्स रूप सामने आते हैं।

भूमिका


महाभारत हमारी संस्कृति, साहित्य एवं सर्जनात्मकता का महान स्रोत्र रहा है। इसने वर्षों से पूरे देश के महान लेखकों को प्रेरित किया है। कन्नड़ के लेखकगण भी इससे अछूते नहीं रहे। दसवीं सदी में कन्नड़ के प्रथम महान कवि पम्पा (Pampa) और सोलहवीं सदी में कुमारव्यास भी महाभारत से प्रभावित थे। इन कवियों ने इस महाकाव्य के संक्षेपण, पुनर्थन (retell) या अनुवाद का प्रयास नहीं किया, बल्कि अपने समय के यर्थाथ को चित्रित करने के लिए इसके तत्वों का उपयोग किया। बीसवीं सदी के कवियों एवं नाटककारों ने अपने औपनिवेशिक परिवेश को समझने के लिए महाभारत के प्रसंगों का उपयोग बिम्ब, रूपक (metaphors) एवं दृष्टान्तों (allegories) के रूप में किया। इन सभी लेखकों ने महाभारत के चरित्रों एवं घटनाओं के मिथकीय आयामों को बरकरार रखा। महाभारत को प्रेरणा-स्रोत्र मानकर भीमसेन तोरगल का उपन्यास ‘षड्यंत्र’ (संचु) इस परंपरा की नवीनतम कड़ियों में से एक है। यह हमारे समय की नैतिक भ्रष्टता एवं राजनीतिक अपकर्ष की जटिलताओं को कुदेरता है।

साठ के दशक के प्रारम्भ में कन्नड़ में अति आधुनिक साहित्य-धारा अच्छी तरह पनप चुकी थी। इसके ठीक तीन दशक बाद सन् 1992 में ‘षड्यंत्र’ प्रकाशित हुआ। शांतिनाथ देसाई की ‘मुक्ति’ (1961) एवं लंकेश की ‘बिरूका’ (1967) इस विधा की बहुत आरंभिक रचनाएं हैं। काफ्फा, सार्त्र एवं कामू के उपन्यासों से प्रभावित आधुनिक कन्नड़ उपन्यासों से प्रभावित आधुनिक कन्नड़ उपन्यासों के नायक आत्म केन्द्रित होते थे। बाह्य यथार्थ उनके लिए अर्थ खो चुका था। पारंपरिक उपन्यासों का कथानक, घटनाएं एवं पात्र इन नायकों की चेतन-धारा में विलीन (melted) हो गईं और समय प्रवाहमान (Fluid) हो उठा। नायक बनने की प्रक्रिया को उकेड़ने के प्रयास में लेखक अपने जीवन के लक्ष्य को दृढ़ नहीं रख पाते। उनके नायक दायित्व से मुंह छिपाए फिरता। अलगाव, जड़विहीनता तथा असंगतता से दूर हटने का प्रयास ही इन उपन्यासों का मुख्य अभिप्राय बन गया।

ए.के. रामानुजम की ‘मोत्तोबन आत्मकथे’ (Mattobbana Aatmkathe) अर्थात् ‘अन्य पुरुष की आत्मजीवनी’ एवं शांतिनाथ देसाई की ‘सृष्टि’ के प्रकाशन से ही कन्नड़ उपन्यासों में उत्तर-आधुनिकता का जन्म् हुआ। आधुनिकतावाद की परंपरा को जारी रखते हुए इनमें से कुछ उपन्यास एक कदम आगे बढ़कर सृजन में अंतर्निहित प्रक्रिया तलाशने लगे। और कुछ अन्य उपन्यासों में लोगों की जीवनचर्या को प्रभावित करती सामाजिक विषमताओं एवं सांस्कृतिक मुद्दों पर बल दिया जाने लगा। इन्हें नव-यर्थाथवाद की संज्ञा नहीं दी जा सकती था। इनमें खासकर विषम समाज (HOSTILE SOCIETY) के साथ एक व्यक्ति विशेष के संबंधों को दिखाया गया। इस धारा के कुछ प्रमुख उपन्यासों में पूर्णचन्द्र तेजस्वी का ‘चिदम्बरा रहस्य’, लंकेश का ‘मुसंजेय कथा प्रसंग’, यू आर अनंतमूर्ति का ‘अवस्था’ (Awasthe) और यशवंत चित्तल का ‘शिकारी’ शामिल हैं।

सत्तर के दशक में कन्नड़ साहित्य में ‘बंदया’ (क्रान्तिकारी) और ‘दलित’ आन्दोलन का उदय हुआ। आधुनिकतावाद के पक्षधरों को जीवन के यथार्थ से मुंह चुराने का दोषी ठहराया गया। ‘बंदया आदोलन’ एक तरह से चालीस के दशक के प्रगतिशील आंदोलन के पुनर्जागरण था। ये मुख्य रूप से दलितों के शोषण के विरुद्ध विरोध जताने वाले साहित्य थे। अस्सी के दशक में तो कन्नड़ में महिलाएं लिखने लगीं। सारा अबूबकर की रचना ‘चन्द्रगिरीया तीराडल्लि’ (1985), बी.डी. लतिका नायक की ‘गति’ (1986) तथा बीना शांतेश्वर की ‘शोषण’ (Shoshan) इनमें से कुछ प्रमुख थीं।
एस.एल. भैरप्पा आधुनिक युग के कन्नड़ साहित्य के महान उपन्यासकारों में से एक हैं। उन्होंने अपने उपन्यास ‘पर्व’ में महाभारत का एक यथार्थपरक निरूपण किया है। मानव-विज्ञान के एक छात्र का दृष्टिकोण रखते हुए, वे कहते हैं, ‘‘मैंने इसे यह जानने के बाद पढ़ना शुरू किया कि महाभारत की कथा से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों से अधिक महत्त्वपूर्ण है उसका सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक सत्य’’। एस.एल. भैरप्पा उन सभी स्थानों पर गए जहां महान कवि व्यास को प्रेरित करने वाले पात्र प्राय: रहे होंगे। वे कहते हैं, ‘‘मैं जब हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में भ्रमण कर रहा था तो एक छोटे गांव में रात बिताना पड़ा, जहां लोग अब भी बहुपति प्रथा को मानते हैं।

 पुत्र-वधू के रूप में आई लड़की एक साथ सभी भाइयों की पत्नियां बनी रहती हैं। वस्तुत: बड़ा भाई विवाह करता है परन्तु अन्य सभी भाइयों को भी सभी रीतियों में समान अधिकार होता है। मानव-विज्ञानियों द्वारा इसका विवरण मैं पहले ही पढ़ चुका था। इसे देखकर तो मेरी उत्सुकता बढ़ गई। मैं प्रफुल्लित एवं उत्तेजित था। इस प्रथा की आंतरिक संरचना एवं उन लोगों की विभिन्न भावात्मक अनुक्रियाओं से संबंधित तथ्यों को इकट्ठा करने लगा। यह प्रथा करीब दो तालुकों में प्रचलित है। ये लोग या तो ब्राह्मण हैं या क्षत्रिय। उनका कहना है कि उन्होंने यह प्रथा द्रौपदी के समय से ली है (Why I write शीर्षक लेख से उद्धृत)।’’ भैरप्पा एक मानव-विज्ञानी का नजरिया रखते हुए महाभारत के चमत्कारों एवं आलौकिक तत्वों को नकार देते हैं और एक सामाजिक उपन्यास लिखते हैं। वे कहते हैं, ‘‘मुझे पता था कि मैं महाभारत के पात्रों की कहानी नहीं लिख रहा हूं। यह तो मनुष्य के अनुभव के विभिन्न पहलुओं का चित्रण हैं। मानवीय संबंधों की प्रकृति, उसके स्वरूप एवं उसके अभिप्राय का वर्णन है।’’ इसके परिणाम स्वरूप हम महाभारत के पात्रों को मिथक-आयामों से निकलकर मानवीय आकार में ढलते हुए देखते हैं।

भीमसेन तोरगल की धारणा इस मामले में एकदम भिन्न है। महाभारत के ऐतिहासिक एवं मिथकीय पहलुओं में इनकी दिलचस्पी नहीं है। ये कथा को फिर से नहीं कहना चाहते हैं। पर इनकी रुचि इस बात को जानने में जरूर है कि सत्य का स्वरूप कैसे बदलता है। किस तरह स्वार्थ के लिए इसके साथ खिलवाड़ होता है ? जैसा कि चन्द्रकांत पोकले कहते हैं, ‘‘भैरप्पा की कृति ‘पर्व’ ने मिथक को पीछे ही छोड़ दिया पर तोरगल की कृति ‘षड्यंत्र’ में यथार्थ के साथ-साथ मिथक का समावेश भी है। तोरगल ने बहुत ऐसे प्रश्न उठाए हैं जो हमारे सामने महाभारत का एक परिदृश्य रखते हैं। मराठी साहित्य की रचनाओं-‘उगांत’ (इरावती कर्वे) तथा ‘व्यास पर्व’ (दुर्गा भागवत) की पृष्ठभूमि में जब हम ‘षड्यंत्र’ को देखते हैं तो निश्चय ही कुछ सोचने पर बाध्य हो जाते हैं। हालांकि वे अलग-अलग मूल्यों की बात करते हैं पर एक खास बात करते हैं पर एक खास बात दोनों में समान है। और वह है प्रश्न करने की आतुरता (Spirit)। प्रश्न पूछने की यह प्रवृत्ति आधुनिक काल में भी बनी रही। तर्क को कसौटी मानकर ‘षड्यंत्र’ ने सफलतापूर्वक मौलिक प्रश्नों को उजागर किया।’’

‘षड्यंत्र’ के लेखक भीमसेन तोरगल (1940) का जीवनवृत्त बहुत अनियमित रहा। इन्होंने एक म्यूनिसिपल क्लर्क, मेडिकल रिप्रेजेंटिव तथा एक सेल्समैन का भी काम किया। बाद में इन्होंने बेलगांव से एक सायंकालीन अखबार ‘समतोला’ निकाला, जिसे सन् 1993 में एक साप्ताहिक में बदल दिया। अतं में सन् 1998 में उसे बंद कर दिया गया और सांस्कृतिक गतिविधियों के केन्द्र बन गए। उन्होंने एक ‘थिंकर्स क्लब’ की स्थापना की और एक छापा खाना चलाना शुरू कर दिया। इनकी संगत में राम शा (लोकपुर) जैसे महान विद्वान एवं उपन्यासकार, अनंत कल्लोल जैसे दार्शनिक एवं व्यंग्यकार और एस.एम. कुलकर्णी तथा प्रह्लाद कुमार भागोजी जैसे विशिष्ट अध्यवसायी भी इनके साथ रहने लगे। इसके अतिरिक्त कई युवा लेखक भी इनके इर्द-गिर्द रहे हैं।

सन् 1985 में तोरगल ने देखा कि अविश्वसनीय कंपोजीटरों की एक जमात के साथ अखबार चलाना फायदे का काम नहीं है। अत: इन्होंने कंप्यूटर जर्नलिज्म (कॉलेज के दिनों में ये गणित के एक मेधावी छात्र थे और एक अंतर्राष्ट्रीय जर्नल में इनकी रचना ‘ए मैथेमेटिकल प्रॉब्लम’ छपी थी) करने की ठान ली। इन्होंने न सिर्फ कम्प्यूटर जर्नलिज्म की सफलतापूर्वक शुरूआत की, बल्कि अन्य अखबारों को भी इस बाबत जानकारी दी। उनमें नोदजा, करुण भारत, न्यूज लिंक, बेलगांव वार्ता और पाटिल पुट्टप्पा के ‘प्रपंच’ जैसे अखबार थे। तोरगल ने ही पहली बार कम्प्यूटर का इस्तेमाल अखबार की छपाई में किया था। कन्नड़ पत्रकारिता में उनकी यह महान देने है। उन्होंने प्रतिभा सम्पन्न लेखकों को पहचानने, उन्हें प्रेरित करने और उनकी रचनाओं को छापने के लिए सन् 1993 में एक न्यास ‘अमोघ वांगमय’ बनाया।

अपने साप्ताहिक के लिए तोरगल ने कई लघुकथाएं लिखीं। निर्भय एवं निष्पक्ष पत्रकारिता के लिए ख्यात तोरगल ने ‘नारायण सत्ता’ और ‘अपरिचितरु’ नामक दो नाटक भी प्रकाशित किए। इनकी अन्य लघु कथाओं एवं नाटकों का प्रकाशन होना अभी बाकी है। पर ये अन्य लेखकों को प्रकाशित करने तथा उन्हें पहचान दिलवाने के लिए संघर्ष में व्यस्त हैं। तोरगल अपने पहले उपन्यास ‘षड्यंत्र’ के अतिरिक्त, रामायण की पृष्ठभूमि में एक नए उपन्यास को संपन्न करने की प्रक्रिया में हैं।
तोरगल हमारे महाकाव्यों के कथानक एवं उनकी संरचना की जटिलताओं से प्रभावित रहे हैं। सत्यान्वेषियों  की दशा को उजागर करने के लिए वे एक नई आख्यान शैली का उपयोग करते हैं। तथा महाभारत के पात्रों का उदाहरण देते हैं। लेकिन महाभारत से ये सिर्फ राजा परीक्षित एवं राजमाता उत्तरादेवी को संयोजक कड़ी के रूप में चुनते हैं। इसके अलावा ये नए पात्रों को इकट्ठा करते हैं जिनमें से कुछ ऐतिहासिक तथ्यों को छिपाने की कोशिश करते हैं तो कुछ उनके तह तक जाने की। अभिमन्यु के मृत्यु दिवस के दिन कहानी की शुरूआत होती है। राजगुरु (सत्याश्रय) ने वरिष्ठ आश्रम के कुलपति कीर्ति शर्मा को आमंत्रित किया है। पर इस बात पर पूरा ध्यान दिया है कि एक अन्य विश्वविद्यालय के कुलपति पुनीत को यह आमंत्रण नहीं मिले। दरअसल राजगुरु सत्याश्रय एक दरबारी हैं। उन्हें डर हैं कि महाभारत की कथा की सचाइयों को बताकर पुनीत युवा राजकुमारों को प्रभावित न कर दे। सत्याश्रय पुनीत को नापसंद करते हैं क्योंकि ये निम्न जाति के हैं तथा तर्कवादी हैं। इसलिए सत्याश्रय पुनीत की छवि को धूमिल करने के एक भी अवसर नहीं चूकते।

 और इस तरह सामाजिक जीवन में जात-पांत की राजनीति प्रवेश कर जाती है। अभिमन्यु की मृत्यु के एक साल बाद कीर्ति शर्मा, पुनीत के आश्रम जाने का निर्णय कर लेते हैं क्योंकि वे पुनीत की विद्वता का सम्मान करते हैं। उत्तरादेवी भली-भाँति जानती हैं कि कीर्ति शर्मा एवं पुनीत, महाभारत की यथार्थता पर विमर्श करेंगे। वे स्वयं पुनीत के आश्रम में जाती हैं। सत्याश्रय भी उनके साथ जाते हैं। वहां पुनीत महाभारत कथा की अपनी व्याख्या देते हैं, जिसमें पांडवों एवं कौरवों को स्वार्थों से ग्रस्त पात्रों की भांति दिखाया गया। इसमें उत्तरा देवी को निर्णायक बनने को कहा गया। पुनीत, कृष्ण को निष्ठुर एवं स्वार्थी मानते हैं जिन्होंने अपने मामा का वध किया और भयभीत थे, कि भांजा अभिमन्यु उन्हें न मार दे। इसी वजह से उन्होंने अभिमन्यु की मृत्यु की योजना बनाई की दीर्घकालीन योजना में शक्तिशाली पांडवों एवं कौरवों को निर्बल बनाना था। ताकि ये स्वयं सबसे शक्तिशाली राजा बने रह सके। इसलिए वे पुनीत इस बात पर अडिग हैं कि पांडवों की जीत बुराई पर अच्छाई की जीत नहीं थी। दरअसल कुरुक्षेत्र के युद्ध में विजेताओं को महिमा मंडित करने के लिए बाद के चमत्कारों को ही यह श्रेय दिया गया।

पुनीत द्वारा महाकाव्य की व्याख्या के बाद उत्तरादेवी सोचती है कि उसके पुत्र का कुरु वंश से संबंध नहीं है। वह सोचती है कि हो न हो कृष्ण ने ही उसके पति का वध करवाया हो।। राजनीति में खून का रिश्ता कोई सच्चा बंधन नहीं होता। यह तो सिर्फ शक्ति का खेल है। व्यास द्वारा बांचा गया महाभारत एक कलाकृति मात्र है, इतिहास नहीं। इसलिए वह भी ऐतिहासिक तथ्य जानना चाहती है। पर राजगुरु सत्याश्रय उत्तरादेवी के मस्तिष्क को पुनीत के विरुद्ध पूर्वाग्रह से ग्रस्त करने का प्रयास करते हैं।

राजधानी वापस जाकर सत्याश्रय राजा परीक्षित को पुनीत एवं कीर्ति शर्मा के मध्य हुए वार्तालाप का वितरण सुनाते हैं और राजा को पूर्वाग्रह से भर देते हैं। परीक्षित सत्याश्रय को राज विश्वविद्यालय के कुलपति बनाते हैं तथा उन्हें अधिक विद्यालय खोलने एवं शिक्षकों को बहाल करने की अनुमति देते हैं। इस प्रकार शिक्षा का बहुत प्रसार होता है। दूसरी तरफ राजमाता उत्तरादेवी के आगमन के प्रभाव में पुनीत के विश्वविद्यालय में भी कोने कोने से छात्र आने लगते हैं।

इस बीच विश्वविद्यालय का कुलपति पद अपने पुत्र सत्यबोध को सौंपकर, कीर्ति शर्मा उन लोगों की तलाश में निकल पड़ते हैं जिन्होंने पांडवों को देखा था और अब भी उन्हें पहचान सकते है। पर कीर्ति शर्मा की लाश एक नदी में तैरती हुई मिलती है और उनके साथ गए दो अनुयायियों की मृत्यु भी रहस्यमय स्थिति में ही हो जाती है। उत्तरादेवी के आगमन के दरम्यान पुनीत को कीर्ति शर्मा एवं उनके दो शिष्यों की मृत्यु का पता चलता है। वे स्वयं को इसका कारण मानते हैं। और वे भी अपने पुत्र केशव शर्मा को अपने विश्वविद्यालय का कुलपति बनाकर कुछ विद्वानों को पारम्परिक रूप से प्रशिक्षण देने लगते हैं। एक दिन जब वे स्नान करने नदी के समीप जाते हैं तो उन्हें लगता है जैसे कोई उन्हें पानी में ढकेल रहा हो। बाद में उनकी लाश तैरती हुई पाई जाती है।


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