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कविता संग्रह >> स्पंदन

स्पंदन

लक्ष्मी दास

प्रकाशक : अभिनव प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :48
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5772
आईएसबीएन :81-85245-98-3

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प्रस्तुत स्पंदन काव्य संग्रह में छेटी -बड़ी कविताएँ हैं जो पाठकों के मन को उद्वेलित करती हैं...

Spandan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


घटनाएँ, विचार, भावना व चिंतन जब मन में आलोडन-विलोडन उत्पन्न करते हैं तो उससे निकला नवनीत ही अभिव्यक्ति पा कविता बन जाता हैं। सामयिक घटनाओं व विचारों ने मेरे इस काव्य संग्रह ‘स्पंदन’ को भी उसी प्रकार व्यक्त हो आकार व रूप दिया है।

1. फिर कैसा पाकिस्तान
और कैसा हिन्दुस्तान

2. माँ ये तूने क्या किया ?
जन्म से पूर्व ही मुझे अजन्मा कर दिया।

3. कभी आदमी पैसे को खाता था
आज पैसा आदमी को खा रहा है।

4. गुंडा राज ही आज का धर्म है।
5. चलो वृद्धाश्रम छोड़ आऊँ।
6. सुना है आजकल
मनुष्य शेर से भी
बढ़कर
आदमखोर हो गया है।

लक्ष्मी दास

भूमिका

जीवन तो निरंतर प्रवहमान व परिवर्तनशील है। यहाँ नित नवीन घटनाएँ व विचार जन्म लेते रहते हैं। जो घटनाएँ जीवन की सहज धारा में आत्मसात हो जाती हैं वो आनंद देती हैं व कुविचार तथा दुष्प्रवृत्तियाँ सम्मुख आ हमें आन्दोलित, पीड़ित व व्यथित कर जाती हैं।

वर्तमान जीवन में अविश्वसनीय मानवता व उसका कृत्रिम व्यवहार, नारी प्रताड़ना, यौन शोषण, भ्रष्टाचार, साम्प्रदायिकता, भ्रूण हत्या, टूटते रिश्ते व वृद्ध जनों की अवमानना आदि ऐसे कटु सत्य हैं, जो एक चिंतक व मनीषी को आलोड़ित-विलोड़ित कर झकझोरते व इनका समाधान ढूँढ़ने को प्रेरित करते हैं।

मेरे इस काव्य संग्रह ‘स्पन्दन’ से यदि आपका हृदय भी स्पन्दित हो इन समस्याओं पर विचार कर सकें तो समझूँगी मेरा यह तुच्छ प्रयास सफल व सार्थक हुआ।
लक्ष्मी दास

पुरस्कृत क्षणिकाएं


1. खुशी है कम, गमों से भारी है जिन्दगी
आग और धुएँ से भरी सुलगती जिन्दगी
कुछ पल सुकूँ मिले तो लगा लो गले उसे
वरना तो फानी-फानी धुआँ-धुआँ है जिन्दगी।

2. चलती समझाती थक कर बूढ़ी हो गई अहिंसा
सींग उठाये, दाँत निपोरे अडिग खड़ी है अहिंसा।


अग्रेषण



विदुषी कवियित्री और साहित्यकार श्रीमती लक्ष्मी दास प्रवक्ता—हिन्दी रचित ‘स्पन्दन’ में छोटी बड़ी कई कवितायें हैं जो पाठक के मन को उद्वेलित करने और उसके मानस में स्पन्दन करने में समर्थ हैं। जागरुक पाठकगण इन कविताओं को पढ़कर अवश्य उद्वेलित होंगे  तथा मनन-चिन्नत करने के लिए प्रेरित होंगे। कवियित्री ने नारी जीवन के उत्पीड़न और त्रासदी को गहराई से महसूस किया है जो आज भी नारी-चेतना की धनी महिलाओं के लिए भी एक नया सोपान प्रस्तुत करने में समर्थ है। सुधी समीक्षक भी स्पन्दन की इन रचनाओं की समीक्षा करके कवियित्री को अपनी समीक्षा के द्वारा प्रेरित करेंगे, ऐसी आशा और विश्वास है। मेरी यह हार्दिक कामना है कि श्रीमती लक्ष्मी दास आगे भी इस प्रकार साहित्य-सृजन करके निरन्तर रूप से गतिमान रहकर माँ-भारती के भण्डार में श्री वृद्धि करती रहेंगी।

इत्यलम।

प्रस्तोता-डॉ. रामगोपाल गोयल

आदमखोर


कल घूमते-घूमते राह भटक
मैं एक जंगल में जा निकला
अचानक देखा एक आदमखोर आ रहा है
मैं भयभीत हुआ अब क्या होगा ?

पर आश्चर्य
न वह गुर्राया, न दहाड़ा
न क्रुद्ध मुद्रा से मुँह फाड़ झपट्टा मारा
चुपचाप दूसरी राह पकड़ सटक लिया

मैंने कहा भाई यह परिवर्तन कैसा ?
वह बोला
मुझे तुमसे डर लगता है
सुना है आजकल मनुष्य
शेर से भी बढ़कर
आदमखोर हो गया है

अन्तर कैसा



खून की बूंद बोली-
मैं राम में भी हूं, रहीम में भी
दोनों ही में मेरे तासीर गर्म है
व रंग लाल
फिर अन्तर कैसा ?

दीपक बोला-
मैं मंदिर में भी जलता हूं
और मस्जिद में भी
दोनों ही जगह अंधकार हरता हूं
प्रकाश से अन्तस को भरता हूं
फिर अन्तर कैसा ?

शान्ति दूत कबूतर बोला-
मैं तो हिन्द से पाक में
और पाक से हिन्द में
प्रेम और शान्ति का पैगाम लिये
खूब उड़ान भरता हूं
फिर अन्तर कैसा ?

हरी भरी लहराती दूब बोली
मैं दोनों जगह लहर-लहर
खूब लहराती हूं
हिन्द में भी हरी-हरी
पाक में भी हरी-हरी
फिर अन्तर कैसा ?

बाघा सीमा पर खड़े सैनिक
परस्पर पूंछते हैं
हम रात भर जाग-जाग
चौकस रह निगरानी करते

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