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स्वाधीनता की देवी कैथरिन

रामप्रसाद बिस्मिल

प्रकाशक : साहित्य चन्द्रिका प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :103
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5776
आईएसबीएन :81-7932-061-8

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प्रसिद्ध क्रांतिकारी रामप्रसाद बिस्मिल के शब्दों में रूस की स्वाधीनता की देवी कैथरिन की कहानी

Swadheenta Ki Devi Kaithrin

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

रूसी इतिहास में हमें कैथरिन नामक लगभग तीन से चार सशक्त महिलाओं की सूचना प्राप्त होती है लेकिन कैथरिन नामक महिलाएँ वहाँ की शासन व्यवस्था से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़ी रही हैं जबकि कैथरिन ने तत्कालीन जार सामन्तवादी शासन व्यवस्था को ध्वस्त करके आधुनिक रूस के इतिहास का सृजन किया। कैथरिन को रूस की स्वतंत्रता देवी एवं रूस की दादी जैसे संबोधन से आज भी पुकारा जाता है। निस्संदेह यह कहा जा सकता है कि जो मान-सम्मान हमारे यहाँ भारत को स्वतंत्रता दिलाने वाले महापुरुषों को है वैसा ही सम्मान रूस के नागरिक कैथरिन का करते हैं।
कैथरिन ने रूस के नागरिकों को नवीन-आधुनिक चिंतन दृष्टि प्रदान की। मानव समाज में व्याप्त दोषों का निवारण कर समता, बन्धुत्व और आत्मसम्मान की भावना को स्थापित किया।

कैथरिन रूस में एक दिव्य प्रकाश पुंज के रूप में अवतरित हुई। उसने उन समस्त मानव समाज विरोधी कृत्यों का विरोध किया जो कलंकित थे। उसने मात्र अपने देश की स्वतन्त्रता एवं रूस के उत्थान के लिए अपने गौरवर्ण कोमल शरीर को तेजाब से जलाकर कुरुप कर लिया ताकि स्त्रीजनित भय से मुक्त हो सके। उसने गुलामी के यथार्थ को भोगा और इस अभिशाप से पूरे रूस को मुक्त करवाकर ही साँस ली। कैथरिन जैसा विशाल व्यक्तित्व इतिहास में आसानी से उपलब्ध नहीं है कारण इन्होंने पल-प्रतिपल बलिदान के मुँह में स्वयं को प्रस्तुत किया है, उसकी धोंकनी को हवा दी है और निस्वार्थ, निर्लिप्त भाव से अपने मिशन में रत रही है। अहिंसा के मार्ग को प्रशस्त करके कैथरिन ने नवीन रूसी इतिहास की रचना की है।

देश की स्वतंत्रता और रूसी नागरिकों के उत्तथान हेतु उसने तन-मन-धन की बलि चढ़ा दी, कीड़ों से कुलबुलाती साइबेरियन काल कोठरी में असहनीय यातनाएँ भोगीं लेकिन अन्तिम क्षण तक देश की स्वतन्त्रता हेतु जिद्दो जहद करती रही। यद्यपि वह एक सम्पन्न समान्ती परिवार में उत्पन्न हुई थी किंतु उसका जन्म तो तत्कालीन कुव्यवस्थाओं को समाप्त करके गरीब किसानों, लाचार और बेचारे मजदूरों तथा शोषण और प्रताड़ना का पर्याय बन चुकी महिला जाति के सर्वउद्धार हेतु हुआ था। कैथरिन ने जार चक्रव्यूह को नष्ट किया वहीं रूसी समाज की निष्क्रियता को समाप्त कर प्रत्येक कार्य स्वयं हाथों से करने की प्ररेणा दी। नागिरकों को मानवाधिकारों की सम्पूर्ण जानकारी प्रेषित करके उन्हें वास्तविक इंसान बनाने का उद्योग किया। यही कारण था कि श्रीयुत रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों पर कैथरिन के व्यक्तित्व का सीधा प्रभाव देखा जा सकता था। ऐसी महान आत्माएं यदा-कदा ही पृथ्वी पर आती हैं। जीवनी की जीवन्तता का ध्यान रखते हुए मैंने स्वःविवेक कल्पना का प्रयोग किया है। कैथरिन को कृति के माध्यम से विनम्र श्रद्धांजलि।
डॉ. कृष्णबीर सिंह चौहान

दो शब्द


रूस की दादी के रूप में ख्याति प्राप्त ब्रशकोवेस्की कैथरिन को आज भी रूसी नागरिक बड़ी श्रद्धा, प्रेम और सम्मान से स्मरण करते हैं। निस्संदेह कैथरिन ने जितने कष्ट, जितनी शारीरिक, मानसिक यन्त्रणाएँ झेलीं, बड़ा ही साहस भरा कार्य था। खैर !

कैथरिन की जीवनी पर कुछ कहने से पूर्व मैं अपना नैतिक कर्तव्य समझता हूँ कि महायोद्धा, भारत माँ के वीर सपूत, महान् क्रांतिकारी श्री रामप्रसाद बिस्मिल के जीवन पर भी संक्षिप्त प्रकाश डाला जाये। समय और पाश्चात्य संस्कृति की चकाचौंध ने हमारी सभ्यता, संस्कृति व इतिहास पर गुबार की पर्त अवश्य ढक दी है। परिणामस्वरूप आज की युवा पीढ़ी हमारे स्वतंत्रता संग्राम के अनेकों वीर योद्धाओं के नाम तक विस्मृत कर चुकी है। बड़ा ही खेद का विषय है, लेकिन अद्यतन परिवेश के विरुद्ध चलना भी सामान्य बात नहीं है।

इतिहास की सत्यता और प्रामाणिकता पर इसलिए प्रश्नचिह्न लगते आये हैं चूँकि शासक की इच्छानुसार इतिहास ने अक्सर अपना रंग प्रस्तुत करने का उद्योग किया है लेकिन निर्लिप्त इतिहासकारों ने भी अपने कर्तव्य का निर्वहन किया है जिसके कारण हमें सत्यता को जानने एवं वास्तविकता को पहचानने का अवसर भी मिल पाया है। हमें छिद्रान्वेषण के बजाये समालोचक होना चाहिए। जब तक हम प्रत्येक पहलू, परिस्थिति एवं कारणों के आधार पर गहन व निष्पक्ष चिंतन न करेंगे तब तक हमें सत्यता का आभास न होगा।
स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व नरम और गरम मुख्य रूप से दो दलों ने स्वतंत्रता प्राप्ति का शंखनाद और जयघोष कर रखा था। किसने क्या किया या कौन सही था अथवा कौन गलत, मैं इस अनर्गल बहस का पटाक्षेप करते हुए मात्र रामप्रसाद बिस्मिल के व्यक्तित्व और कृतित्व पर चन्द शब्द कहना प्रासंगिक समझता हूँ।

बड़ी प्रसिद्ध कहावत है-‘‘जैसा खाय अन्न वैसा हो जाये मन’’ अर्थात् परिवेश, आहार व सामाजिक मानसिकता का भावी पीढ़ी पर अवश्य ही असर होता है। यह तथ्य विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है। रामप्रसाद बिस्मिल के दादाजी का पैतृक गाँव तत्कालीन ग्वालियर राज्य की चम्बल नदी के किनारे भयंकर बीहड़ में स्थित था। गाँव वाले बड़े ही उद्दण्ड प्रकृति के व्यक्ति थे और अक्सर अंग्रेजों व अंग्रेजी आधिपत्य वाले गाँवों के निवासियों को तंग करते थे। पारिवारिक कलह के कारण बिस्मिल के दादा जी श्री नारायण लाल जी ने अपनी पत्नी व दो पुत्रों मुरलीधर व कल्याणमल सहित यह गाँव छोड़ दिया।

काफी भटकने के पश्चात् यह परिवार शाहजहाँपुर आ गया। शाहजहाँपुर में एक अत्तार की दुकान पर मात्र तीन रुपये मासिक में नारायणलाल ने नौकरी करना शुरू कर दिया। भरे-पूरे परिवार का गुजारा न होता था। मोटे अनाज-बाजरा, ज्वार, सामा, कुकनी को राँधकर खाने पर भी काम न चलता था। फिर बथुआ या ऐसी कोई साग आदि थोड़े आटे में मिलाकर भूख शान्त करने का प्रयास किया गया। लेकिन दोनों बच्चों को रोटी बनाकर दी जाती किन्तु पति-पत्नी को आधे भूखे पेट ही गुजारा करना होता। ऊपर से कपड़े-लत्ते और मकान किराये की विकट समस्या अलग।

कुल मिलाकर बिस्मिल की दादी जी ने मजदूरी करने का उद्योग किया किन्तु अपरिचित महिला को कोई भी आसानी से अपने घर में काम पर न रखता था। आखिर उन्होंने अनाज पीसने का कार्य शुरू कर दिया। इस काम में उनको तीन-चार घण्टे अनाज पीसने के पश्चात एक या डेढ़ पैसा ही मिल पाता था। यह सिलसिला लगभग दो-तीन वर्ष तक चलता रहा। दादी जी बड़ी स्वाभिमानी प्रकृति की महिला थीं, अत: उन्होंने हिम्मत न हारी। उनको विश्वास था कि एक-न-एक दिन अच्छे दिन अवश्य आयेंगे।

समय बदला। शाहजहाँपुर के निवासी शनै:-शनै: परिचित हो गये। ब्राह्मण होने के कारण दान-दक्षिणा व भोजन आदि की यदा-कदा व्यवस्था होने लगी। इसी बीच नारायण लाल को स्थानीय निवासियों के कारण एक पाठशाला में सात रुपये मासिक पर नौकरी मिल गई। कुछ समय पश्चात् उन्होंने यह नौकरी छोड़कर पैसे तथा दुवन्नी-चवन्नी आदि बेचने का निजी कारोबार शुरू कर दिया जिसमें अब वह प्रतिदन पाँच-सात आने कमाने लगे थे। अब तो बुरे दिनों की काली छाया तक पास न थी। नारायण लाल ने अपने निवास हेतु एक आवास भी क्रय कर लिया और बेटे का विवाह अपने ससुराल वालों की किंचित सहायता से सम्पन्न हो गया।

श्री बिस्मिल के पिता श्री मुरलीधर का विवाह हो जाने के पश्चात् उनको शाहजहाँपुर नगर निगम में 15 रुपये मासिक वेतन पर नौकरी मिल गई। मुरलीधर को यह नौकरी नहीं रुचि और उन्होंने त्यागपत्र देकर कचहरी में स्टाम्प पेपर विक्रय का काम शुरू कर दिया। इस व्यवसाय में उन्होंने धन भी कमाया। तीन बैलगाड़ियाँ किराये पर चलने लगीं व ब्याज आदि का काम भी करने लगे। ज्येष्ठ शुक्ल 11 संवत् 1954 वि. को रामप्रसाद का जन्म हुआ। लगभग सात वर्ष की अवस्था से रामप्रसाद को हिन्दी व उर्दू का अक्षर ज्ञान करवाया जाने लगा। श्री मुरलीधर के कुल 9 सन्तानें थीं जिनमें पाँच पुत्रियाँ एवं चार पुत्र थे। रामप्रसाद ज्येष्ठ संतान थी। आगे चलकर दो पुत्रियों एवं दो पुत्रों का देहान्त हो गया।

बाल्यकाल से ही रामप्रसाद की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। जहाँ कहीं वह गलत अक्षर लिखता उसकी खूब पिटाई की जाती लेकिन रामप्रसाद में चंचलता व उद्दण्डता कम न थी। मौका पाते ही पास के बगीचे में घुसकर फल आदि तोड़ देता था जिस पर उसकी भरपूर पिटाई हुआ करती लेकिन वह आसानी से बाज न आता। शायद यही प्रकृति गुण रामप्रसाद को एक क्रांतिकारी बना पाये अर्थात् वह अपने विचारों का पक्का प्रारम्भ से ही था। लगभग 14 वर्ष की आयु में रामप्रसाद को अपने पिता की सन्दूक से रुपये चुराने की लत पड़ गई। चुराये गये रुपयों से उपन्यास आदि खरीदकर पढ़ना प्रारम्भ कर दिया एवं सिगरेट पीने व भाँग चढ़ाने की आदत भी पड़ गई थी। कुल मिलाकर रुपये चोरी का सिलसिला चलता रहा और रामप्रसाद अब उर्दू के वयस्क व प्रेमरस पूर्ण उपन्यासों, गजलों की पुस्तक पढ़ने का आदी हो गया था। संयोग से एक दिन भंग के नशे में होने के कारण रामप्रसाद चोरी करते हुए पकड़ गये। सारा भाँडा फूट गया। खूब पिटाई हुई। उपन्यास व अन्य किताबें फाड़ डाली गईं लेकिन रुपये चोरी की यह आदत एकाएक न छूट सकी। हाँ, आगे चलकर रामप्रसाद इस अभिशाप से बच पाये।

रामप्रसाद उर्दू मिडिल परीक्षा में उत्तीर्ण न हो पाए उन्होंने अंग्रेजी पढ़ना प्रारम्भ किया। साथ ही पड़ोस के एक पुजारी ने रामप्रसाद को पूजा-पाठ विधि का ज्ञान करवा दिया। पुजारी एक सुलझा हुआ विद्वान व्यक्ति था जिसके व्यक्तित्व का प्रभाव रामप्रसाद के जीवन पर दिखाई देन लगा। पुजारी के उपदेशों के कारण रामप्रसाद पूजा-पाठ करने एवं ब्रह्मचर्य का पालन करने लग गया, साथ ही व्यायाम भी प्रारम्भ कर दिया। पूर्व की जितनी भी कुभावनाएँ एवं बुरी आदतें थीं वे छूट गईं। मात्र सिगरेट पीना रह गया था जो कुछ दिनों पश्चात् उसके एक सहपाठी के आग्रह पर छूट गई एवं अब रामप्रसाद अंग्रेजी के पाँचवें दर्जे में आ गया था।

रामप्रसाद में अप्रत्याशित परिवर्तन हो चुका था। शरीर सुन्दर व बलिष्ठ हो गया था। नियमित पूजा-पाठ में समय व्यतीत होने लगा था। तभी वह मंदिर में आने वाले मुंशी इन्द्रजीत के सम्पर्क में आये जिन्होंने रामप्रसाद को आर्य समाज संबंधी ज्ञान दिया एवं सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने के लिए आग्रह किया। सत्यार्थ प्रकाश का रामप्रसाद के जीवन पर आश्चर्यचकित प्रभाव पड़ा।

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