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समुद्रगुप्त महान

कुलदीप भटनागर

प्रकाशक : नेशनल पब्लिशिंग हाउस प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :117
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5778
आईएसबीएन :81-214-0012-0

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भारतीय इतिहास के स्वर्ण युग के सम्राट समुद्रगुप्त पर ऐतिहासिक उपन्यास

Samudragupt Mahan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

गुप्त साम्राज्य को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग माना जाता है, और सम्राट समुद्रगुप्त इस साम्राज्य के प्रमुख स्तंभ रहे हैं।
प्रस्तुत उपन्यास भारतीय इतिहास के इसी उज्जवल नक्षत्र के समग्र व्यक्तित्व को उद्घाटित करने वाली एक महत्त्वपूर्ण कृति है। इस पुस्तक में समुद्रगुप्त के साम्राज्य विस्तार और उनके महत्वाकांक्षी अभियानों का ऐतिहासिक तथ्यों एवं प्रमाणों के साथ सिलसिलेवार ढंग से अत्यन्त रोचक शैली में वर्णन किया गया है। इस उपन्यास के माध्यम से उस समय की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक स्थितियों का सजीव चित्रण सहज ही पाठक के मानस पटल पर अंकित हो जाता है।

सम्राट समुद्रगुप्त के बाल्यकाल से लेकर उनके जीवन के अंतिम क्षणों तक ही घटनाओं के माध्यम से उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं-उनकी असाधारण विजय, अद्भुत रणकौशल, प्रशासनिक एवं कूटनीतिक दक्षता, व्यवहार कुशलता, आखेट प्रियता, प्रजा-प्रेम तथा अद्भुत न्याय प्रियता के बारे में दुर्लभ जानकारी मिलती है।
यह पुस्तक पाठकों को चक्रवर्ती सम्राट समुद्रगुप्त के संगीत, कला और सौंदर्य उपासक व्यक्तित्व की इन्द्रधनुषी छटा के विभिन्न रंगों सराबोर होने का भी सुअवसर प्रदान करता है।

दो शब्द


‘बंदा बहादुर’ लिखने के बाद एक और ऐतिहासिक पात्र पर उपन्यास लिखने का दुस्साहस कर रहा हूं। यह विचार मुझे कई ऐतिहासिक उपन्यास को पढ़ने के बाद आया है। इसमें हैं स्वर्गीय वृंदावन लाल वर्मा के प्रख्यात ‘मृगनयनी’, ‘माधोजी सिंधिया’, ‘गढ़कुण्डार’ आदि उपन्यास जिन पर मैं पढ़ा-पला हूं। अंग्रेजी में हाल ही में सिकन्दर महान के ऊपर तीन किताबों की ग्रन्थावली और रैमसीज़ द्वितीय पर पांच उपन्यासों की श्रृंखला पढ़ी है। इनसे मेरी हिम्मत बंधी की शायद हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास अभी भी लोग पढ़ना पसन्द करें। गुप्त काल के पक्ष में निर्णय करना स्वाभाविक था। शायद ‘स्वर्ण युग’ के बारे में कहानी के रूप में ख़ास कुछ लिखा ही नहीं गया है।

प्रस्ताव तो पास कर लिया, लेकिन जब स्रोत्र सामग्री ढूंढने लगे तो समुद्रगुप्त ने अंधकार से निकलने में साफ इनकार कर दिया। मसलन, समुद्रगुप्त ने एक अश्वमेघ यज्ञ किया था या दो या और अधिक। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य तो तुलना में शिष्ट निकले, लेकिन समुद्रगुप्त के बारे में लगता है, महज तथ्यों के आगे किसी ने कुछ कहा ही नहीं है। बहुत ढूंढ़ कर कुछ सामग्री पाटलिपुत्र से आयी, कुछ उज्जयिनी से, कुछ मौकों पर जो जा कर और 15-20 विद्वानों के साथ वाद-विवाद करके यह उपन्यास तैयार हुआ।

उपन्यास में समुद्रगुप्त के बारे में कुछ ऐसे तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है जो कि समुद्रगुप्त की परमभागवत वाली तस्वीर से विपरीत हैं। समुद्रगुप्त के ऐरण* अभिलेख में लिखा हुआ है : ‘‘स्वभोग नगर ऐरिकरण प्रदेश...,’’ यानि स्वभोग (Self relaxation/enjoyment) के लिए समुद्रगुप्त ऐरिकिण जाता रहता था। क्यों ? पाठक, स्वयं अंदाज़ लगाएं।

चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य चाहे भारत के स्वर्णगुप्त के मुख्य स्वर्णकार रहे हों, अपने भाई रामगुप्त की हत्या का कलंक नहीं धो सके हैं। हत्या क्यों और कैसे ? पढ़िए इस ग्रन्थावली की दूसरी किताब में।
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*ऐरण- विदिशा के पास
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साभार


समुद्रगुप्त महान के बारे में सबसे पहली राय मैंने पंडित रमाकांत अंगिरस से ली। पंडित रमाकांत संस्कृत और हिन्दी के उच्चकोटि के विद्वान हैं और प्राचीन संस्कृति के बारे में भी बहुत ज्ञान रखते हैं। कई सारे उर्दू, अंग्रेजी शब्दों का हिन्दी पर्यायवाची निकालने का काम पहले शीनू जी ने प्रारंभ किया। शीनू जी अत्यन्त शुद्ध और सरल हिन्दी जानती हैं और शाकाहरी भोजन के दो अध्याय लगभग पूरे उन्होंने ही लिखे हैं। इस विषय में बाकी सहायता मेरी ‘बुक क्लब’ और शास्त्रीय संगीत गोष्ठी की सदस्या शिखा शर्मा, मेरी मामी कुसुम और चाची श्रीमती सरला भटनागर ने की। लेकिन इस मामले में सबसे ज्यादा मार्गदर्शन किया प्रोफेसर अश्विनी अग्रवाल ने।

अश्विनी जी प्राचीन भारतीय इतिहास के प्रोफेसर तो हैं ही, साथ में संस्कृत भाषा भी अच्छी तरह से जानते हैं और फर्राटे से बोलते हैं। गुप्तवंश के इतिहास पर इनकी पकड़ बहुत मजबूत है। इससे संबंधित सारे स्थानों का उन्होंने कई-कई बार भ्रमण किया है और मुझे इन स्थानों के बारे में, किताबों के बारे में नि:संकोच पूरी तरह हर कदम पर बताते रहे। उनके मार्गदर्शन के बिना यह उपन्यास लिखा ही नहीं जा सकता था।

सारा उपन्यास, एक अंग्रेजी वाले कम्प्यूटर पर, हिन्दी में, पता नहीं कैसे, लेकिन बहुत तेजी से सुनीता ठाकुर ने टाइप किया और पचासों बार फिर से टाइप किया। उसने शोध कार्य किया, कम्प्यूटर से नक्शे और इतिहास निकाला और पता नहीं क्या काम किया। कैसे किया, मैं तो सच नहीं कह सकता, लेकिन सुनीता (एम.सी.ए. प्रथम श्रेणी) कम्प्यूटर पर और भी ऐसे चमत्कार करती रहती है। मैं उनका हृदय से आभारी हूं।

मेरी पत्नी निरुपमा ने उपन्यास लिखने के समय कई तरह से मदद की और मुझे बोरियत से बचाये रखा। जहां पर मैं फंस जाता था, उन्होंने अपने असाधाराण ज्ञान और सूझबूझ के बल पर मुझे निकाला। मैं उनका अत्यन्त आभारी हूं। इस विषय में ज्ञान मुझे कम से कम बीस किताबें पढ़कर और कई ऐतिहासिक स्थानों का भ्रमण करके आया। यह मेरा पांचवां उपन्यास है और मेरे लिए सबसे अधिक मूल्यवान है। कामना है कि बहुत सारे पाठक इसको पढ़ें, मज़ा लें, और भारत के स्वर्ण युग के बारे में ज्ञान प्राप्त करें।

-लेखक

गुरुकुल


जंगल के बीच एक छोटा सा स्थान साफ किया हुआ, जहां इस समय कोई दस किशोर, 13 से 16 साल तक की आयु के एकत्रित थे। स्पष्टतया शस्त्राचार की प्रतियोगिता होनी थी, क्योंकि एक तरफ ऊँचे स्थान पर कुछ तलवार, कुल्हाड़े, ढाल, शिरस्त्राण आदि रखे थे। दूसरी तरफ किशोर व्यायाम कर रहे थे, अपने-हाथ-पैर चलाकर ढीले कर रहे थे। गुरुदेव ने पहला द्वंद्व-युद्ध घोषित किया।
‘‘काच और हरिषेण, क्या तुमने अपने शस्त्र चुन लिये ?’’
‘‘हां गुरुदेव,’’ दोनों ने एक साथ उद्घोष किया और अपने शस्त्र ऊंचे करके दिखाये।

ठीक उसी समय मैदान के एक तरफ से एक घुड़सवार धीरे-धीरे आया। गौरववर्ण, प्रभावशावी व्यक्तित्व, अच्छे डीलडौल वाला जिसने सोने का मुकुट पहना हुआ था। पीछे दो सैनिक घुड़सवारों, जो कि सहचर दिखते थे, ने घोड़े रोके और दूर ही एक वृक्ष के तने से बांध दिये। पहला सवार कुछ देर घोड़े पर ही बैठा रहा।

इधर काच और हरिषेण ने एक-दूसरे पर निगाह जमायी और धीरे-धीरे घूमना शुरू किया। जब तक हरिषेण संभले, काच ने फुर्ती से पैंतरा बदल कर उस पर वार किया। आगंतुक ने देखा, यह वार करने से पहले काच ने जो घूम कर दांव बदला था, उसमें यह संभावना थी कि वह अपना संतुलन खो बैठे, लेकिन काच ने बिना संकट की परवाह किये जो हमला किया था, उससे उसके वार की शक्ति दुगनी हो गयी थी। हरिषेण संभल न सका और उसके हाथ से तलवार छिटक कर दूर जा गिरी। काच का हमला और भयंकर होता गया और केवल ढाल पर संभालते-संभालते हरिषेण के पांव लड़खड़ाने लगे। पीछे हटते-हटते एक पत्थर से वह टकराया और उसके हाथों से ढाल भी गिर पड़ी। एक हुंकार के साथ काच ने हरिषेण के ऊपर तलवार तानी और......

.....गुरुदेव ने तेजी से बीच में आ कर काच का हाथ पकड़ लिया और वार करने से रोक दिया।
‘‘काच, हरिषेण तुम्हारा शत्रु नहीं है। याद रखो, तुम दोनों सहपाठी हो। साथ में रहते हो और गुरुकुल में इकट्ठे पढ़ते हो।’’
‘‘पर गुरुदेव.....’’
‘‘गुरुदेव ठीक कहते हैं,’’ आगंतुक घोड़े से उतर चुका था और चुपचाप मैदान के बीच आ गया था। इस नयी आवाज को सुनकर सब चौंक कर उस ओर मुड़े। ‘‘महाराज !’’ गुरुदेव की निगाह झुक गयी। महाराज ने भी झुककर गुरु का अभिवादन किया। काच पैर छूने के लिए झुका, ‘‘पिताश्री आप कब से आये हुए हैं ?’’

‘‘मैं तुम्हारी प्रतियोगिता के आरंभ होने से पहले आ गया था, पुत्र। तुम्हारी पैंतरा बदलने में दक्षता और संकट उठाने की क्षमता को मैं परख रहा था।’’
काच ने गर्व से अपने सहपाठियों की ओर देखा।

‘‘लेकिन एक स्थान पर तुम चूक गये, काच।’’
काच ने प्रश्न भरी निगाह महाराज की ओर उठायी।
‘‘हम सबको लगा कि तुम क्रोध में भर कर विवेक खोने वाले हो और हरिषेण पर घातक वार करने वाले हो।’’
काच चुप था।
‘‘यदि गुरुदेव तुम्हें न पकड़ लेते तो अनर्थ हो जाता। हरिषेण तुम्हारा मित्र है।’’

‘‘लेकिन हरिषेण को अपनी रक्षा ठीक से करनी चाहिए, तात। जिस समय मैंने पैंतरा बदला, उस समय हरिषेण मुझे तनिक धक्का भी देता तो मैं औंधे मुँह पृथ्वी पर गिरता। वह मौका चूक कर हरिषेण अपने आप मुझसे हीन स्थिति में आ गया।’’
‘‘लेकिन फिर भी तुम्हारा प्राणलेवा हमला करने का अधिकार नहीं बनता, काच। यह प्रतियोगिता है, युद्ध नहीं। तुम्हें किसी भी परिस्थिति में अपना विवेक नहीं खोना चाहिए। अगली जोडी किसकी है, गुरु शंकर ?’’
‘‘समुद्रगुप्त और यशोवर्मन की, महाराज। आगे आओ बच्चों।’’
दोनों मैदान में उतरे। सम्राट ने देखा, यशोवर्मन समुद्रगुप्त से आधा हाथ बड़ा था।


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