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धर्म एवं दर्शन >> सत्याभ शिवालय

सत्याभ शिवालय

विश्वंभर दयाल

प्रकाशक : शारदा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :150
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5781
आईएसबीएन :81-85023-38-7

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भगवान शिव की महिमा का बखान करता काव्य

Satyabh Shivalaya

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सनातन भारतीय संस्कृति में प्रणव (ॐ) के बाद सर्वाधिक एवं विशिष्ट शब्द हैं—‘‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’’। यह नन्हीं-सी, विराट् शब्दावली अकराण या अनायास ही नहीं बन गयी थी, बल्कि हमारे ऋषियों-मनीषियों के दीर्घकालीन गवेषणात्मक चिन्तन, ध्यान, आत्मानुभूति (ब्रह्मदर्शन) के फल-स्वरूप ही बन पायी होगी। वर्तमान मानव-मन के अज्ञान-तिमिर-जनित भटकाव एवं अनेक रूढ़िग्रस्त संप्रदायों एवं पंथों के संदर्भ में हम वास्तविकता को समझने की चेष्टा करें।

‘‘सत्यम शिवम् सुन्दरम्’’—यह अनुपम शब्दावली, तीन स्तरों पर व्याप्त ईश्वरीय सत्ता की परिचायिका है। तीन स्तरों पर व्याप्त अनादि, अनन्त, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, परम कृपालु परमेश्वर को हम एक शब्द में ‘‘शिव’’ कहकर व्यक्त करते हैं। दो अक्षरों के इस छोटे से सरल नाम में संपूर्ण ब्रह्माण्ड का सार समाया हुआ है। यदि मनुष्य के लिये सबसे अधिक कल्याणकारी, अमृतोपम कुछ हो सकता है तो वह यही लगुतम, महानतम और मधुरतम शब्द है ‘‘शिव’’।

वास्तव में आजकल हमारा मानव-समाज दानवी विचारों से दिग्भ्रमित, स्वनिर्मित कष्टों, प्रदूषणों, प्राकृतिक आपदाओं से भयभीत, अकथनीय मानसिक संतापों और शारीरिक व्याधियों से जर्जर-सा हो चुका है। ऐसी विकट परिस्थितियों में, सुखी-संपन्न-शान्तिपूर्ण जीवन-यापन का मधुरतम संदेश लिये; सनातन ज्ञान-भक्ति के सरल छन्दों से निर्मित यह अनुपम ‘‘सत्याभ शिवालय’’ कल्याणार्थ प्रस्तुत है। अतः आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया भक्ति की अन्तः सलिला में अवगाहन कर कूलस्थ ‘‘शिवालय’’ में परमेश्वर के दिव्य दर्शन कर अपना मनुष्य-जीवन कृतार्थ करें।

विश्वंभर दयाल ‘पंकज’

अपनी बात


बचपन से ही मैं कुछ अनुत्तरित प्रश्नों से बेचैन रहा। वे प्रश्न थे—मनुष्य-जीवन, सृष्टि और ईश्वर के विषय में। उनके सही उत्तर जानने के लिये मैंने बहुत से देशी-विदेशी ग्रंथों का अध्ययन-मनन एवं तीर्थाटन किया यथासंभव ज्ञानी महात्माओं से मिला; कुछ साधना भी चलती रही। आखिर अपनी प्रौढ़ावस्था में, परमेश्वर की कृपा से, मैं एक सिद्ध महात्मा के पास पहुंचा। उनके आशीर्वाद से, मुझे अपने अन्तःकरण में ही समुचित समाधान मिल गया। फिर समय बीतने के साथ, मैंने पुनः पुनः अनुभव किया कि जनसमुदाय में भ्रांतियाँ फैली हुई हैं और उन भ्रांतियों (या गलत विचारों) के कारण अनुचित कर्म भी किये जाते हैं। परिणामस्वरूप असंख्य प्राणियों सहित धरती माता एवं पर्यावरण को कष्ट पहुँचता है। फिर उनके कष्टों का कुफल तो हम पृथ्वीवासियों को ही भोगना है। अतः यथाशक्ति भ्रम-निवारण के द्वारा, सर्वेश्वर की सेवा करने हेतु पुस्तक-लेखन की प्रेरणा मिली।

यदि अपनी उद्देश्य-पूर्ति में, प्रस्तुत पुस्तक पूर्णतः या अंशतः भी सफल हो सकी तो मैं अपने को कृतार्थ समझूँगा। इस सत्प्रयास में प्रकाशक—शारदा प्रकाशन, नई दिल्ली का पूर्ण सहयोग अविस्मरणीय है।
प्रकाशक एवं समस्त पाठकों के प्रति आदर, प्रेम तथा शुभकामनाओं सहित,

विश्वंभर दयाल ‘पंकज’

सत्यम् शिवम् सुन्दरम्


(आदरणीय सुधी पाठकों से)
सनातन भारतीय संस्कृति में प्रणव (ॐ) के बाद सर्वाधिक एवं विशिष्ट शब्द हैं—‘‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’’। यह नन्हीं-सी, विराट् शब्दावली अकराण या अनायास ही नहीं बन गयी थी, बल्कि हमारे ऋषियों-मनीषियों के दीर्घकालीन गवेषणात्मक चिन्तन, ध्यान, आत्मानुभूत (ब्रह्मदर्शन) के फल-स्वरूप ही बन पायी होगी। वर्तमान मानव-मन के अज्ञान-तिमिर-जनित भटकाव एवं अनेक रूढ़िग्रस्त संप्रदायों एवं पंथों के संदर्भ में हम वास्तविकता को समझने की चेष्टा करें।

‘‘सत्यम शिवम् सुन्दरम्’’—यह अनुपम शब्दावली तीन स्तरों पर व्याप्त ईश्वरीय सत्ता की परिचायिका है।
इनमें से पहले स्तर में—निर्गुण निराकार ब्रह्म एक है; नाम चाहे कुछ भी कहें—सदाशिव, परब्रह्म, परमात्मा आदि। वे सर्वत्र, सदैव सभी कालों में, एक समान विद्यमान हैं—वहाँ न कोई रूप है, न किसी प्रकार का भेद-भाव; बल्कि है केवल अनिर्वचनीय असीम आनन्द ! निर्विकल्प समाधि में ही अनुभूतिगम्य ! वे सृष्टि में और लय में भी शाश्वत एक समान होने के कारण ‘‘सत्य’’ कहलाते हैं। उन्हीं के बारे में कहा गया है ‘‘नेति, नेति’’।

दूसरे स्तर में—सगुण, निकाराकर ब्रह्म भी एक ही हैं। वे सर्वव्यापक हैं—सभी जीवों के हृदय में निवास करते हैं, और जीवन के अच्छे बुरे कर्मों का ध्यान रखते हैं। भक्ति का प्रत्युत्तर ये ही देते हैं। गीता में वर्णित उपद्रष्टा, अनुमन्ता, भर्त्ता, भोक्ता महेश्वर ये ही हैं। इन्हीं के नाम महेश्वर, महाविष्णु, महारुद्र, परम प्रभु, रब, अल्लाह, गॉड वगैरह भी हैं। ये मूलतः निराकार हैं, पर भक्त की श्रद्धा-भावना के अनुरूप साकार भी हो सकते हैं। सभी जीवों के लिये परम कल्याणकारी होने के कारण ये ‘‘शिव’’ कहलाते हैं।

तीसरे स्तर में—दूसरे स्तर के महेश्वर अपनी शक्ति या माया को प्रगट करते हुए स्वयं अपने को तीन रुपों (ब्रह्म, विष्णु, शंकर) में साकार करते हैं और सृष्टि स्थिति, लय आदि का कार्य-संचालन करते हैं। ये महेश्वर के ही प्रगट रूप होने के कारण एक इकाई की तरह मिलकर काम करते हैं। इनके भक्तों को भी आपस में प्रेम से रहना चाहिये, (यह समझते हुए कि ये तीनों एक ही ईश्वरीय सत्ता के प्रगट रूप हैं), अन्यथा, ये तीनों ही रुष्ट हो सकते हैं। ईश्वर के अविकल, दर्शनीय, सुन्दर रूप होने के कारण ये ‘‘सुन्दर’’ कहलाते हैं।

तीनों स्तरों पर व्याप्त अनादि, अनन्त, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान कृपालु परमेश्वर को हम एक शब्द में ‘शिव’’ कहकर पुकारते हैं। दो अक्षरों के इस छोटे से सरल नाम में संपूर्ण ब्रह्माण्ड का सार समाया हुआ है। यदि मनुष्य के लिये सबसे अधिक कल्याणकारी, अमृतोपम कुछ हो सकता है तो वह यही लघुतम, महान्तम और मधुरतम शब्द है ‘‘शिव’’। और ‘‘शिव’’ का ही दिव्य-सूक्ष्म रूप (ईथर से भी सूक्ष्म) सारे संसार में भरा हुआ है। फिर भी ‘‘पानी बिच मीन पियासी’’ की भाँति हम शान्ति पाने को तरसते रहते हैं। कारण है—हमारी स्वार्थलिप्सा, ईर्ष्या-द्वेष, घृणा आदि और तज्जनित प्रदूषण का विस्तार। यदि हम एक छोटी-सी बात अच्छी तरह समझ लें कि हम सबों का रचयिता एक ही है और हम सब पृथ्वीवासी आपस में भाई-भाई और मित्र हैं; एक-दूसरे के सहायक हैं, बाधक नहीं; प्रेम से रहने पर परमपिता हम पर प्रसन्न होकर सुख-शान्ति का वरदान देगा तो यह जीवन सार्थक हो जाय।

विभिन्न रूढ़िवादी क्रिया-कलापों में हम सहभागी बनें या न बनें, पर सभी को अपना मित्र समझें, मित्रवत् आचरण करें और, ‘‘शिव’’ या किसी पर्यायवाची नाम के जप सहित अपने कर्म निर्विकार भाव से करते रहें, तो पृथ्वी का वातावरण पुनः शुद्ध एवं शान्त हो जाये।

वास्तव में आजकल हमारा मानव-समाज दानवी विचारों से दिग्भ्रमित, स्वनिर्मित कष्टों, प्रदूषणों, प्राकृतिक आपदाओं से भयभीत, अकथनीय मानसिक संतापों और शारीरिक व्याधियों से जर्जर-सा हो चुका है। ऐसी विकट परिस्थितियों में, सुखी-संपन्न-शान्तिपूर्ण जीवन-यापन का मधुरतम संदेश लिये; सनातन ज्ञान-भक्ति के सरल छन्दों से निर्मित यह अनुपम ‘‘सत्याभ शिवालय’’ कल्याणार्थ प्रस्तुत है। अतः आपसे विनम्र अनुरोध है कि कृपया भक्ति की अन्तः सलिला में अवगाहन कर कूलस्थ ‘‘शिवालय’’ में परेमेश्वर के दिव्य दर्शन कर अपना मनुष्य-जीवन कृतार्थ करें।

-विश्वंभर दयाल ‘पंकज’

असीम तेजोमय शिवलिंग


इसी कल्प के ऊषा काल में,
रूप न कोई प्रगट हुआ था;
महाकाश के अन्तराल में
कुहरा-सा कुछ विरल हुआ था।

निराकार अव्यक्त ब्रह्म ही
ॐ कार में व्यक्त हुए थे;
वही सदाशिव ज्योति-लिंग में
दर्शनीय बन गुप्त हुए थे।

तभी महेश्वर की माया से
विश्व-उदय होने को आया;
शंकर, हरि, विधि के रूपों में
शिव ने खुद को ही प्रगटाया।

विष्णु और ब्रह्मा—दोनों ने
एक-दूसरे को जब पाया;
सम्मुख हुए कि दोनों ने ही
अपने को सर्वेश बताया।

वाद-विवाद बढ़ा जब काफी
कोई निर्णय निकल न पाया;
परमेश्वर ने महाअनलमय
अपना ज्योतिलिंग प्रगटाया।

गूँज उठी नभ-वाणी अनुपम—
‘‘ओर-छोर का पता लगाएँ;
अग्नि-लिंग को जो पहचानें
वही श्रेष्ठता का पद पाएँ।’’

चले विष्णु जी नीचे तत्क्षण
ब्रह्मा जी ऊपर को धाए;
दीर्घकाल का कठिन परिश्रम—
ओर-छोर वे देख न पाए।

दोनों ने अब भक्ति-भाव से
ज्योति लिंग को शीश नवाया;
बारंबार क्षमा-याचन कर
दर्शन का अनुरोध जताया।

परमेश्वर की वाणी गूँजी-
‘‘आदि-अंत से रहित सदा मैं;
हृदय-गुहा में रहा करूँगा
नयनों से अति दूर मुदा मैं।





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