कविता संग्रह >> समय का शेष नाम समय का शेष नामसीताकान्त महापात्र
|
10 पाठकों को प्रिय 163 पाठक हैं |
समकालीन भारत के दक्षतम कवियों में सीताकान्त महापात्र एक उल्लेखनीय नाम है। उन्होंने पारम्परिक काव्य-शैली और पाश्चात्य प्रभावित शैली में से नयी सम्भावनाओं का सन्धान किया है, नयी काव्य चेतना और नये अभिमुख्य पर जोर दिया है अतीत और भविष्य को एकत्र कर विकल्प यथार्थ का निर्माण कविता के जरिये सम्भव है, इसमें उन्हें पूरा विश्वास है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
समय का शेष नाम
समकालीन भारत के दक्षतम कवियों में सीताकान्त महापात्र एक उल्लेखनीय नाम
है। उन्होंने पारम्परिक काव्य-शैली और पाश्चात्य प्रभावित शैली में से नयी
सम्भावनाओं का सन्धान किया है, नयी काव्य चेतना और नये अभिमुख्य पर जोर
दिया है अतीत और भविष्य को एकत्र कर विकल्प यथार्थ का निर्माण कविता के
जरिये सम्भव है, इसमें उन्हें पूरा विश्वास है। वे दु:ख और वेदना में भी
मानव स्थिति के गहनतम आनन्द की तलाश में हैं, यही कारण है कि वे अपने समय
में इलियट और पाउण्ड, रैम्बौ और बोदलेयर की तरह अपनी संस्कृति के मिथक तथा
आर्किटाइप और पारस्परिक प्रतीकों का व्यवहार करते रहे हैं।
प्रस्तुति
सीताकान्त महापात्र की कविताओं का यह हिन्दी रूपांतर- ‘समय का
शेष
नाम’ ‘भारतीय कवि’ श्रृंखला में प्रकाशित
हो रहा है।
सीताकान्त को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं। अपने भाषा क्षेत्र
से
निकलकर वह सचमुच में भारतीय कवि हो गए हैं। भारतीय ज्ञानपीठ से
उनका
घनिष्ठ संबंध है। वे 9 वर्षों तक प्रवर परिषद के सदस्य रहे। इनका संकलन
प्रकाशित करने में ज्ञानपीठ को विशेष प्रसन्नता है।
इस पुस्तक के सम्पादन में हिन्दी में प्रख्यात लेखक व आलोचक अजित कुमार ने विशिष्ट योगदान करके मेरे अनुरोध का जिस स्नेहपूर्ण ढंग से मान रखा है, उसके लिए मैं उनका अत्यन्त आभारी हूं।
इस पुस्तक के सम्पादन में डॉ. राजेन्द्र मिश्र ने विशेष योगदान किया है। इसके लिए मैं उनका आभारी हूँ।
इस पुस्तक के सम्पादन में हिन्दी में प्रख्यात लेखक व आलोचक अजित कुमार ने विशिष्ट योगदान करके मेरे अनुरोध का जिस स्नेहपूर्ण ढंग से मान रखा है, उसके लिए मैं उनका अत्यन्त आभारी हूं।
इस पुस्तक के सम्पादन में डॉ. राजेन्द्र मिश्र ने विशेष योगदान किया है। इसके लिए मैं उनका आभारी हूँ।
5 मार्च,
1991
बिशन टंडन
निदेशक
निदेशक
जहां तक ओड़िआ लिपि के देवनागरीकरण अर्थात् लिप्यंतरण का सवाल है, ज्यादा
जोर लिपि पर दिया गया है। ओड़िया लिपि के देवनागरी लिप्यंतरण के समय के एक
समस्या अक्सर दिखाई देती है जो बर्ग्य
‘‘ज’’ और
अंतस्थ्ज ‘‘ज’’ की है। ओड़िआ में
दो
‘‘ज’’ प्रचलित हैं। चूकि
देवनागरी में ओड़िआ के
अंतस्थ्ज ‘‘ज’’ के लिए किसी समान
वर्ण का प्रयोग
नहीं है, इसलिए देवनागरीकरण करते समय ओड़िआ के दोनों
‘‘ज’’ के लिए देवनागरी में
‘‘ज’’ का ही प्रयोग किया गया है।
हालांकि इससे
उच्चारण में कोई फर्क नहीं पड़ता, फिर भी इस अंतर का उल्लेख करना यहां
आवश्यक था।
अंतरंग संबंधों के चितेरे
ओड़िआ के समकालीन कवियों में से तीन हिन्दी में भलीभांति परिचित हैं-
रमाकांत रथ, जगन्नाथप्रसाद दास और सीताकान्त महापात्र। रमाकान्त का
खण्डकाव्य ‘‘श्रीराधा’’ और
जगन्नाथ दास का कविता
संग्रह ‘‘शब्दभेद’’ भारतीय
ज्ञानपीठ की
‘‘भारतीय कवि’’ श्रृंखला में
प्रकाशित हो चुके
हैं। इसी क्रम में सीताकान्त महापात्र का यह संकलन ‘समय का शेष
नाम’ प्रकाशित हो रहा है।
सीताकान्त महापात्र की कविताएं पिछले तीन दशकों से हिन्दी में अनुदित होकर प्रकाशित होती रही हैं। ‘अपनी स्मृति की धरती से’ से शुरु होकर प्रस्तुत संग्रह ‘समय का शेष नाम’ तक उनके छ: कविता संग्रहों का हिन्दी में रूपांतरण हो चुका है। हिन्दी में अनूदित सीताकान्त की काव्य यात्रा के जिन पड़ावों की विशेष चर्चा हुई हैं उनमें ‘समुद्र’ ‘शब्दों का आकाश’ और ‘अष्टपदी’ प्रमुख हैं। ‘समय का शेष नाम’ उनका ओड़िआ में इसी नाम से प्रकाशित पुस्तक का हिन्दी रूपांतर है। इसमें उनकी ताज़ी व अंतरंग संबंधों की कविताएं संग्रहीत हैं जो सीताकान्त को अत्यधिक प्रिय हैं।
सीताकान्त की कविता का काव्य संसार यथार्थ और अनुभूति के सोलेन सम्मिश्रम से निर्मित हुआ है। उनकी कविताओं का सांस्कृतिक धरातल उनके अनुभव की उपज है। अतीत के जिस झरोखे से वे गांव की पगडंडी, तालाब, नदी, घर मन्दिर, सूर्योदय, ढलती शाम व मानवीय संबंधों इत्यादि का अवलोकन करते हुए सहजता से अपनी कविता में अभिव्यक्ति करते हैं, वह अनायास ही पाठकों को अपने में बांध लेती हैं।
इस संग्रह में कवि के पुत्र और दादी मां पर लिखी हुई दो-दो कविताएं और पिता पर लिखी गई पांच कविताएं किसी भी पाठक को सहज ही में आकृष्ट करेंगी। ये कविताएं अंतरंग संबंधों की अनुभूति की अत्यन्त भावात्मक अभिव्यक्ति है। पिता पर लिखी कविताओं में ‘शत्रु’ काफी चर्चित हुई है। मरणासन्न पिता को बचाने की तमाम कोशिशों के बावजूद कवि को निराश ही होना पड़ता है। मृत्यु-रूपी शत्रु के विरुद्ध रचा गया चक्रव्यूह निरर्थक साबित हुआ। जिसके लिए तरह-तरह के सुरक्षात्मक उपाय किए गए, सब धरे के धरे रह गए। कवि के शब्दों में :
सीताकान्त महापात्र की कविताएं पिछले तीन दशकों से हिन्दी में अनुदित होकर प्रकाशित होती रही हैं। ‘अपनी स्मृति की धरती से’ से शुरु होकर प्रस्तुत संग्रह ‘समय का शेष नाम’ तक उनके छ: कविता संग्रहों का हिन्दी में रूपांतरण हो चुका है। हिन्दी में अनूदित सीताकान्त की काव्य यात्रा के जिन पड़ावों की विशेष चर्चा हुई हैं उनमें ‘समुद्र’ ‘शब्दों का आकाश’ और ‘अष्टपदी’ प्रमुख हैं। ‘समय का शेष नाम’ उनका ओड़िआ में इसी नाम से प्रकाशित पुस्तक का हिन्दी रूपांतर है। इसमें उनकी ताज़ी व अंतरंग संबंधों की कविताएं संग्रहीत हैं जो सीताकान्त को अत्यधिक प्रिय हैं।
सीताकान्त की कविता का काव्य संसार यथार्थ और अनुभूति के सोलेन सम्मिश्रम से निर्मित हुआ है। उनकी कविताओं का सांस्कृतिक धरातल उनके अनुभव की उपज है। अतीत के जिस झरोखे से वे गांव की पगडंडी, तालाब, नदी, घर मन्दिर, सूर्योदय, ढलती शाम व मानवीय संबंधों इत्यादि का अवलोकन करते हुए सहजता से अपनी कविता में अभिव्यक्ति करते हैं, वह अनायास ही पाठकों को अपने में बांध लेती हैं।
इस संग्रह में कवि के पुत्र और दादी मां पर लिखी हुई दो-दो कविताएं और पिता पर लिखी गई पांच कविताएं किसी भी पाठक को सहज ही में आकृष्ट करेंगी। ये कविताएं अंतरंग संबंधों की अनुभूति की अत्यन्त भावात्मक अभिव्यक्ति है। पिता पर लिखी कविताओं में ‘शत्रु’ काफी चर्चित हुई है। मरणासन्न पिता को बचाने की तमाम कोशिशों के बावजूद कवि को निराश ही होना पड़ता है। मृत्यु-रूपी शत्रु के विरुद्ध रचा गया चक्रव्यूह निरर्थक साबित हुआ। जिसके लिए तरह-तरह के सुरक्षात्मक उपाय किए गए, सब धरे के धरे रह गए। कवि के शब्दों में :
‘‘लेकिन खाट पर वह नहीं है
जिसे चक्रव्यूह के केन्द्र में स्थापित कर
पहरा दे रहे थे योद्धा वर्ग, संपूर्ण सेना;
है सिर्फ मिट्टी का पुतला रूपहीन, शब्दहीन
जो है मिट्टी में लौटने को अधीर।’’
जिसे चक्रव्यूह के केन्द्र में स्थापित कर
पहरा दे रहे थे योद्धा वर्ग, संपूर्ण सेना;
है सिर्फ मिट्टी का पुतला रूपहीन, शब्दहीन
जो है मिट्टी में लौटने को अधीर।’’
(शत्रु)
पिता की मृत्यु के बाद उन पर लिखी तीन कविताओं में विशेषकर
‘अकृतज्ञ’ और ‘आज फिर दीवाली’
में क्रमश: जो
पछतावा और कमी का अहसास कवि को होता है, उसका बड़ा ही यथार्थ और मार्मिक
चित्रण सीताकान्त ने पूरी ईमानदारी से किया है।
‘‘पर मैं तुम्हें जबरन चम्मच भर
दूध या हार्लिक्स नहीं पिला सका कभी
छोटे बच्चों-सी तुम्हारी यह जिद्दी
क्षीण मुद्रा, नस उभरे हाथ
भीतर धँसी आँखें, तीव्र दृष्टि....नहीं, नहीं,
वह चक्रव्यूह में कभी भेद नहीं पाया।’’
दूध या हार्लिक्स नहीं पिला सका कभी
छोटे बच्चों-सी तुम्हारी यह जिद्दी
क्षीण मुद्रा, नस उभरे हाथ
भीतर धँसी आँखें, तीव्र दृष्टि....नहीं, नहीं,
वह चक्रव्यूह में कभी भेद नहीं पाया।’’
(अकृतज्ञ)
और पिता की कमी महसूस करते हुए कवि कहता है
‘‘आज फिर दीवाली आई है
और तुम नहीं हो बरामदे में
तुम पूर्वज हो और अबसे तुम्हें
अंधेरे में ‘आओ’ और
उजाले में ‘जाओ’ कहना होगा।
अनुरोध करना होगा,
मन नहीं मानता !
‘‘आज फिर दीवाली आई है
और तुम नहीं हो बरामदे में
तुम पूर्वज हो और अबसे तुम्हें
अंधेरे में ‘आओ’ और
उजाले में ‘जाओ’ कहना होगा।
अनुरोध करना होगा,
मन नहीं मानता !
(आज फिर दीवाली)
संग्रह की दो अन्य महत्त्वपूर्ण कविताएं हैं ‘मुनू के लिए
कविता’ और ‘समय का शेष नाम’। अपने बेटे
मुनू को संबोधित
कविता में कवि नन्हें मुनू के साथ बिताए पलों को याद करने के साथ ही
भविष्य की चुनौतियों व संभावनाओं के प्रति भी बेटे को सावधान करते दिखाई
देता हैं :
‘‘किन्तु समय आता है
हम सबको अपनाःअपना रास्ता
काटकर जाना पड़ता है
सुदूर जंगल, पहाड़, नदी,
जनपद, शून्यता, अंधकार
बाघ-भालू, देवता-किन्नर
सबका सामना करना पड़ता है
अपना-अपना रास्ता खुद तलाशना पड़ता है।’’
हम सबको अपनाःअपना रास्ता
काटकर जाना पड़ता है
सुदूर जंगल, पहाड़, नदी,
जनपद, शून्यता, अंधकार
बाघ-भालू, देवता-किन्नर
सबका सामना करना पड़ता है
अपना-अपना रास्ता खुद तलाशना पड़ता है।’’
(मुनू के लिए एक कविता)
और फिर बड़े ही सशक्त स्वर में कवि कहता हैं :-
‘‘दुख से टूट जाने पर
एकाकी लगने पर
दसों दिशाएं सुनसान
अंधकार दिखने पर
मन मानकर बैठ मत जाना।
एकाकी लगने पर
दसों दिशाएं सुनसान
अंधकार दिखने पर
मन मानकर बैठ मत जाना।
(मुनू के लिए एक कविता)
एक दूसरे स्तर पर जब कवि अपने अंतस को मथता है तो अपने को निर्जनता और
वीरानेपन के आमने-सामने पाता है। यही है यथार्थ की अनुभूति का चरमोत्कर्ष।
‘समय का शेष नाम’ शीर्षक कविता में कवि ने समय के
अनेक नामों
में निर्जनता-वीरानेपन को ही शेष नाम माना हैं :
समय के सहस्रनामों में
शेष नाम ही निर्जनता है
अंत में हम सबको
वहीं पहुंचना पड़ता हैं।
सबको, हां यहां तक कि
घने जंगल में जरा शिकारी की
शेष नाम ही निर्जनता है
अंत में हम सबको
वहीं पहुंचना पड़ता हैं।
सबको, हां यहां तक कि
घने जंगल में जरा शिकारी की
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book