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कविता संग्रह >> साम्प्रत मैं चिरंतन

साम्प्रत मैं चिरंतन

राजेन्द्र शाह

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :264
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5794
आईएसबीएन :81-263-1024-3

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सन् 2001 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से अलंकृत गुजराती के यशस्वी और शीर्षस्थानीय कवि श्री राजेंद्र केशवलाल शाह की सात दशकों की काव्य-यात्रा का सर्वोत्तम संचयन।

Samprat Main Chirantan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सन् 2001 के ज्ञानपीठ पुरस्कार से अलंकृत गुजराती के यशस्वी और शीर्षस्थानीय कवि श्री राजेंद्र केशवलाल शाह की सात दशकों की काव्य-यात्रा का सर्वोत्तम संचयन प्रस्तुत करते हुए भारतीय ज्ञानपीठ को प्रसन्नता है।
रवीन्द्र और गाँधी युग की छाया में अपना लेखन आरम्भ करने वाले कवि राजेन्द्र शाह की कविताओं में सौन्दर्य एवं अध्यात्म का श्रेष्ठ समन्वय मिलता है।

प्रकृति उनके काव्य में अपने पूरे वैभव में अवतरित हुई है। औपनिषदिक वेदान्त ने उनकी कविता को वैचारिक गहराई दी है। उनकी कविता में दार्शनिकता, रहस्यमयता के साथ ही संवादिता, आत्मतृप्ति और प्रसन्नता का भाव सहज रूप से अभिव्यक्त होता है राजेन्द्र शाह ने समत्व दृष्टि से जीवन-मांगल्य का गान किया है। उनकी कविताओं में सम्प्रत समस्याओं की स्थूल प्रतिध्वनि भले ही न मिलती हो लेकिन मानवतावाद का एक गहरा अंत:सूत्र उनकी कविता को चिरंतरता देता है।

राजेन्द्र शाह की कविताओं का चयन और सम्पादन गुजराती और हिन्दी पर समान अधिकार रखने वाले उच्चकोटि के सृजक रघुवीर चौधरी द्वारा किया गया है। नागरी लिपि में मूल गुजराती कविताओं के साथ ही हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया गया है, जिससे रसज्ञ पाठक चाहें तो मूल कविताओं का भी आनन्द ले सकें।

प्राक्कथन


कविवर राजेन्द्र शाह की कविता


श्री राजेन्द्र केशवलाल शाह (जन्म 28 जनवरी, 1913) श्रेष्ठ कवि और वरेण्य व्यक्ति हैं। उनकी शब्द-साधना और जीवन-साधना में कोई अन्तर नहीं हैं। अनासक्त कर्म ने उन्हें सदा प्रसन्न रखा है। उन्होंने अपने प्रथम कविता-संकलन के प्रकाशन में कोई हड़बड़ी नहीं की, इसलिए वह काफी विलम्ब से प्रकाशित हुआ। कविता के लिए सन् 1947 में उन्हें ‘कुमारचन्द्रक’ के रूप में प्रथम पुरस्कार मिला। उनके प्रथम काव्य-संग्रह ‘ध्वनि’ का प्रकाशन 1951 में हुआ। सभी सहृदय समीक्षकों ने ‘ध्वनि’ का स्वागत किया।

एक नये युग का आरम्भ हुआ-राजेन्द्र-निरंजन युग। सन् 1956 में रणजितराम सुवर्णचन्द्रक पुरस्कार उन्हें समर्पित हुआ। सन् 1962 में प्रकाशित ‘शान्त कोलाहल’ के लिए उन्हें सन् 1964 में साहित्य अकादेमी पुरस्कार प्राप्त हुआ। ज्ञानपीठ द्वारा पुरस्कृत होने से पूर्व कविवर राजेन्द्र शाह को साहित्य अकादेमी की अधिसदस्यता प्राप्त हो चुकी है। अकादेमी के लिए श्री परेश नायक ने उन पर फिल्म बनायी है। अकादेमी और गुजराती साहित्य परिषद द्वारा राजेन्द्र शाह की कविता के हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद करवाने के लिए एक कार्य-शिविर का भी आयोजन हो चुका है। अन्य संस्थाएँ भी इस हेतु सक्रिय रही हैं। प्रस्तुत संकलन के अधिकांश अनुवादक कवि हैं, यह एक सुखद एक संयोग है, फिर भी सुज्ञ पाठकों से अनुरोध है कि वे इस प्रयत्न को परिणाम न मानकर प्रक्रिया मानें और मूल गुजराती के लय-माधुर्य का आस्वाद करें।

कविता में सौन्दर्य की अनुभूति

सौन्दर्य-चेतना राजेन्द्र शाह का कविता का प्रमुख लक्षण है। परिस्थितियों की विषमता के चक्र में फंसते आवेगों को वर्ज्य मानकर बहिरन्तर सृष्टि के प्रति वे तटस्थ रहे हैं। समाज के सतहीं व्यापारों से वे ग्रस्त नहीं होते और अखबारी यथार्थ से बचते रहे हैं। अतृप्ति, कुण्ठा, व्यग्रता, ऊबभरा एकान्त आदि उपादान इनकी कविता में मुखर बनकर कभी नहीं आये। सारे कोलाहल कविकर्म द्वारा रूपान्तरित होकर शान्त रस का अनुभव कराते हैं। विश्व के अधिक रूप के कवि के सम्मुख द्युतिवर्ण पाकर अपनी शोभा में प्रतिफलित होते हैं :

मेरा मन
चल अचल सकल को गहती
निस्तरंग झील
(मन मारुं चल अचल सकल झीलनार
निस्रंग झील।)

सभर हृदय की वाणी है मौन। कवि का चित्त निस्तरंग सरोवर बनता है तब हरे-भरे खेतों की ओर दृष्टिपात करके उड़ते रंग-बिरंगे पंछियों के नाजुक प्रतिबिम्ब उसके हृदय में प्रतिभासित होते हैं। किनारे पर खड़े घने पेड़ों की छवि उनके अन्तर में विराजमान रहती है। राजेन्द्र शाह के कवित्व का अन्तरंग स्वस्थ है, उस स्वस्थता में ही जादुई यथार्थ है।
स्रग्धरा छन्द में ‘मेरा घर’ नामक राजेन्द्र शाह का एक सॉनेट है। उस घर की खिड़की दूर तक स्नेहभरी नजर ढाती है। केवल कवि के लिए ? नहीं, यह घर कवि का है इसलिए वह दूर-दूर देखता है : खुले खेतों की पूर्व दिशा में दूर जो कुंज दिखाई देता है, उसमें अश्वत्थ की शिखा पर ध्वज फहराता है, जहाँ पास में लाल खपरेल से ढँका, स्वर्ण तेज से जिसने अनुपम सुषमा धारण की है सान्ध्य रंगों की, जिसकी ऊपर की मंजिल की खिड़की यहाँ तक नजर ढाती है, स्नेह से.....। यह है कवि की असीम संवेदना का घर। संवेदना को असीम कहते ही उसके सपाट होने की दहशत जगती है, परन्तु राजेन्द्र शाह की संवेदना वैश्विक होने के साथ-साथ रहस्यमय भी है।

पुनरपि बाहर
चारों ओर संग है मेरे विश्व समुदार।
(पुनरपि ब्हार
चारि ओर
संग मजु विश्व समुदार।)

प्रतीक की सहायता के बिना भी कवि की अनुभूति स्पष्ट होती है। स्नेहप्रेरित खुलेपन का जादू है यह। कोरा सिद्धान्तबोध नहीं, यह निरी मानसिकता है। उनके लिए काव्य-सिद्धान्त से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है उनकी संवेदना तथा दर्शन से ज्यादा उनका परिवेश। राजेन्द्र शाह दर्शनशास्त्र के स्नातक हैं। अद्वैत दर्शन में विश्वास करते हैं। ध्यान के द्वारा अदृश्य का साक्षात्कार करते हैं। प्रत्यक्ष जगत को कवि के दायित्व से प्रेम करते हैं। पुष्प, पंछी, प्राणी-मानवेतर सृष्टि का उन्हें गहरा परिचय है। उनका हृदय अनिकेत नहीं रहता।

क्षितिज पर जो हलका नीला अचंचल अभ्र है
उसमें सूरज की किरणों की आखिरी लाल रेखा मिल जाती है।
(रविकिरणनी छेल्ली राती लकीर भळी जती,
क्षितिज परनां आछां भूरां अचंचळ अभ्रमां।)

गाँव का गोधन प्रकाश से बना हो इस तरह
सिवान के विशाल चारागाह में धँसता है,
गोपबंसी के लुभाते सूर बहते हैं लीलया।

(प्रकाशतणुं होय तेम धण गामुनं सीममां
विशाल बीडगोचर धसत, गोपबंसी तणा
दिंगतभर वाय मुग्धकर सूर नैसर्गिक।)

सर्वत्र अनुभव करता रहा हूँ प्रियमिलन की वेला की रम्यता,
नत नयन के बीच लक्षित होती है स्नेहभरी प्रसन्नता।
(प्रियमिलननी वेळानी आ बधे लहुं रम्यता !
नच नयननी नीचे नेहे लसन्त प्रसन्नता !)

उपर्युक्त पंक्तियाँ विभिन्न रचनाओं में चुनी गयी हैं। हिन्दी अनुवाद गद्य में है। गुजराती काव्यपंक्तियाँ संस्कृत के वार्णिक छन्दों के माधुर्य से बँधी है। हरिणी, पृथ्वी छन्दों के उपर्युक्त उद्धरण लयविन्यास की अपूर्वता का अनुभव कराते हैं। पुराने छन्द नया लय सौन्दर्य निष्पन्न करते हैं। ऐतिहासिक सन्दर्भ में भी राजेन्द्र शाह की यह उपलब्धि है। गद्य से निकटता बरतते छन्दों की खोज में आगे-आगे चलकर संस्कृत के वार्णिक छन्दों की उपेक्षा हुई। इसमें स्वयं राजेन्द्र शाह भी अपवाद नहीं। बांग्ला के प्यार और गुजराती के वनवेली जैसे छन्दों के प्रयोग में समासान्त पदावली की अधिकता लक्षित होती है। इसकी तुलना में संस्कृत वृत्ता का विनियोग राजेन्द्र शाह के कविकर्म को अनुकूल लगते हैं। कुछ और उद्धरण देखें। सृष्टि और कविदृष्टि के संयोजन के द्वारा सहृदय चित्त में सौन्दर्य चेतना जगती है :

निविड हरियाली की ऊँची मुस्कुराती फसल पर से
अब मैं नजर टेकता हूँ जाने की दिशा के प्रति।
(निबिड हरियाळीना ऊँचा हसन्मुख मोलथी
नजर अब हुं मांडुं मारे जघानी दिशा भणी।)

यहाँ गति को प्रेरित करती स्थिति आनन्ददायी है। हरियाली निविड़ है, फसल ऊँची है, इतना ही नहीं वह किसी भी क्षण मुस्करा सकती है-हास्य से अभिमुख है। यह आक्षेपण नहीं, निरीक्षण की सूक्ष्मता है। एक व्यापक और प्रतीतिजनक रसानुभाव आधुनिक कविता में दुर्लभ होता गया।

मृदु लहर का कोमल कर अंग-अंग को छू रहा है।
परिमल के पंख द्वारा पाता हूँ प्रदेश भिन्न ही।
(मृदु लहरनों अंगे-अंगे फरे कुमळो कर :
परिमल तणी पाँखे पामुं प्रदेश अवान्तर)

इन्द्रियों के माध्यम से सदृश-अदृश्य सृष्टि अनुभवगम्य होती है। हवा की लहर अदृश्य है फिर भी कोमल हाथ बनकर वह प्रत्यक्ष एवं स्पर्शक्षम बनती है। सुगंध के पंख प्राप्त होते नये प्रदेश में प्रवेश सम्भव होता है। ऐसे अनेक उद्वरण दिये जा सकते हैं जो अपूर्व संवेदना जगाते हैं, साथ-साथ मानवीय भावों का विस्तार करते हैं। राजेन्द्र शाह के प्रस्तुत कवि कर्म में प्रकृति का निरन्तर सहयोग मिला है।
जो श्रेष्ठ है वह लोकप्रिय हो सकता है।

चौथे-पाँचवें दशक के मानदण्ड उमाशंकर सुन्दरम की रचनाओं में प्रतिपादित हुए। गाँधी जी की जीवनदृष्टि तथा ब.क. ठाकोर की काव्यदृष्टि से संयोग को रा.वि. पाठक ने व्याख्यायित किया। राजेन्द्र शाह की सौन्दर्यदृष्टि ने ‘सौन्दर्यलुब्ध’ कविता ने छठे-सातवें दशक के नवकवियों को प्रभावित और प्रेरित किया।

निजत्व का बोध : अनुकरण या सातत्य ?

वाद या प्रयोग की दृष्टि से कुछ नया कर दिखाने की आकांक्षा राजेन्द्र शाह में नहीं है। संवेदना और कथ्य को व्यक्त करने के लिए उन्हें उपादान प्राप्त होते रहे और वे विविध काव्यरूपों में उनकी अभिव्यक्ति करते रहे। इस प्रक्रिया में निजत्व-बोध का एक अटूट-सातत्य है। विश्व का केन्द्र है मनुष्य और मनुष्य का केन्द्र है जागृति-निजबोध। इस लक्ष्य के कारण लगता है कि राजेन्द्र शाह अपना ही अनुकरण करते हैं। गहराई से देखने पर लगेगा कि यह ‘अनुकरण’ गतिशून्य नहीं है। ‘ध्वनि’ के काव्य ‘श्रावणी मध्याह्ने’ की अपेक्षा ‘शान्त कोलाहल’ की रचना ‘स्वप्न’ में लय और संविधान की दृष्टि से कवि ने अपना विकास किया है। बड़ा कवि अनुकरण नहीं करता परन्तु अनुसरण कर सकता है।

महत्वपूर्ण प्रश्न है कि वह कविता है या नहीं ? किसी दर्शन-विशेष का निरूपण देखकर कवि की उपेक्षा नहीं होनी चाहिए। इस समझ के कारण गुजराती समीक्षकों ने राजेन्द्र शाह की उपेक्षा नहीं की। जबकि हिन्दी के कुछ जनवादी समीक्षकों ने पन्त और अज्ञेय जैसे बड़े कवियों की रचनाओं की उपेक्षा की। समग्र सन्दर्भ में लिखा जाने वाला कविता का इतिहास दर्शन-विशेष को लक्ष्य करके सर्जक प्रतिभा का अवमूल्यन नहीं करता। गुजराती समीक्षा के सन्दर्भ में एक और तथ्य भी उल्लेखनीय है कि इसमे सतही मार्क्सवाद की अपेक्षा अद्वैत दर्शन को अधिक सम्मान से देखा है। अनुगामी तीनों पीढ़ियों के कवि-समीक्षकों ने राजेन्द्र शाह की कविता को एक उपलब्धि माना है, भले ही इन पीढ़ियों के निजी सोच में, कविता कहने के तौर-तरीकों में भारी बदलाव आया हो। राजेन्द्र शाह की कविता में तत्वज्ञान आरोपित होकर नहीं, निजी प्रतीति के साथ निरूपित होकर आता है।

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