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साहित्य और स्वतंत्रता

देवेन्द्र इस्सर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :191
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5800
आईएसबीएन :81-263-1141-x

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प्रख्यात लेखक और विचारक देवेन्द्र इस्सर के व्यापक संघर्ष, चिन्तन और अध्ययन का प्रतिफलन है, उनकी यह नवीनतम पुस्तक ‘साहित्य और स्वतन्त्रता : प्रश्न-प्रतिप्रश्न’।

Sahitya Aur Swatantrata Pprashan Pratiprashana

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हम जानते हैं कि साहित्य-यात्रा का पथ सहज और सीधा नहीं है। अनेक नकारात्मक विचार-पद्धतियों के बावजूद वह अपने स्वाधीन मूल्यों के लिए सतत संघर्ष करती है। प्रख्यात लेखक और विचारक देवेन्द्र इस्सर वर्तमान रचनाकार संसार की ऐसी समस्याओं से जूझते रहे हैं। उनकी यह नवीनतम पुस्तक ‘साहित्य और स्वतन्त्रता : प्रश्न-प्रतिप्रश्न’ भी उनके व्यापक संघर्ष, चिन्तन और अध्ययन का प्रतिफलन है।

इतिहास का शायद ही कोई ऐसा दौर रहा हो जब मतान्धता और नवमूल्यों; जड़ परम्पराओं और तात्विक परिवर्तनों तथा सत्ता और स्वतंन्त्रता में संघर्ष की स्थिति न रही हो और साहित्य ने इस संघर्ष में सदा की तरह रचनात्मक हस्तक्षेप न किया हो। लेखक की मान्यता है कि सृजन ही एक ऐसी प्रक्रिया है जो जलसे-जुलूसों, नारों-नक्कारों तथा फतवों-फरमानों के शोरगुल में भी जारी रही है और मनुष्यों की स्वाधीनता और मर्दाया को बनाये रखती है।
प्रत्येक महत्त्वपूर्ण रचना हमें अपने समय के यथार्थ से रू-ब-रू कराती है, भले ही वह मनुष्य की आन्तरिकता और एकाकीपन को अभिव्यक्ति करती हो या बाह्य जगत के भयावह दृश्यों को दर्शाती हो। देवेन्द्र इस्सर के लेखन की विशेषता है कि उनके लेखों में सिर्फ यथार्थ का सपाट चेहरा नहीं, बल्कि सृजन और स्वतन्त्रता के अन्तस्सम्बन्धों को समझने की सुन्दर चेष्टा है।

हमें विश्वास है कि साहित्यिक आलोचना के प्रेमी पाठक इस कृति का हृदय से स्वागत करेंगे।

प्रतिपत्तिका


न जाने कितने बरस बीत गये हैं जब एक जापानी कहानी पर बनी, अकीरा कुरोसावा की फिल्म ‘राशोमन’ देखी थी। उस फ़िल्म के सम्मोहन से अभी तक मुक्त नहीं हो सका। एक जंगल में हुई हत्या के बारे में चार अलग-अलग पात्रों के बयान एक-दूसरे के बयान से भिन्न। लकड़हारे का बयान उस पुरुष के बयान से अलग है। जिसकी कि हत्या हुई है। उसकी पत्नी का बयान इन दोनों के बयान तथा उस डाकू के बयान से अलग है जिसने कि पुरुष की हत्या की है।

लेकिन जिस प्रश्न ने मुझे परेशान किया यह था कि आख़िर सच क्या है सच किसके पास है ? कहा जाता है कि जब पोंटियस पाइलट ने यीशू को मृत्युदण्ड देने से पूर्व उससे प्रश्न किया कि सच क्या है ? क्या सच तुम्हारे पास है ? तो यीशू मौन रहा। यह ज़िक्र मैं इसलिए कर रहा हूँ कि हम सच का सिर्फ एक चेहरा देख पाते हैं। वह भी आधा-अधूरा और धूमिल-सा और उसे ही सम्पूर्ण, अन्तिम और परम सत्य समझ लेते हैं। और फिर इतना शोर बरपा हो जाता है कि सच की अन्य तथा भिन्न ध्वनियाँ उसमें गुम हो जाती हैं।

क्योंकि यह बहुत मुमकिन है कि कोई दो व्यक्ति किसी विचारपद्धति से ग्रस्त होकर यह दावा करता है कि सच उसके पास है तो वह बार्ट कोस्को की ‘फ़ज्जी लॉजिक’ (धूमिल तर्क शास्त्र) को भूल जाता है। व्यक्तियों, विचारों तथा वस्तुओं को सियाह और सफ़ेद वृत्तों में विभाजित करना सर्वसत्तावाद या मजहबी धर्मान्धता की मनोवृत्ति की भाँति व्यवहार करना है। वह अपनी स्वतन्त्रता का हनन कर रहा है। इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि सर्वसत्तावाद का स्वरूप और उद्देश्य क्या है। फ़तवे-फ़रमानों, नारों-नक्कारों और सत्ता के गलियारों में स्वत्व एवं स्वातन्त्र्य दोनों ही लुप्त हो जाते हैं।

जब कोई विचार पद्धति बन जाता है तो मतान्धता तथा मूलवाद का ख़तरा उत्पन्न होता है। दुर्भाग्यवश हमारे मस्तिष्क में एक ऐसा फ़िल्टर फ़िट हो जाता है जिसके कारण हम केवल उन्हीं तत्त्वों को स्वीकार करते हैं जिनसे हमारी संज्ञानात्मक सहमति होती है और उनको अस्वीकार कर देते हैं जिनसे संज्ञानात्मक विसंगति होता है। परिवर्तन की प्रक्रिया में मनुष्य के सम्मुख जेन्युइन डिलेम्माज़ हो सकते हैं जिसके कारण ‘वस्तुनिष्ठता’ धूमिल पड़ जाती है। और हम एक प्रकार की आत्मपरकता वस्तुपरकता (सब्जेक्टिव ऑब्जेक्टिविटी) की शरण लेते हैं। अक्सर हमारी समस्या यह होती है कि हम पहले निष्कर्ष पर पहुँचते हैं और फिर उसकी तुष्टि तथ्य एकत्रित, व्यवस्थित और प्रस्तुत करते हैं। इस ‘तथ्य’ के बावजूद स्मृति और स्वप्न की गली से गुज़रते हुए, प्रश्न तथा संशयों की डगर पर चलते हुए, ज्ञान और ध्यान तथा अनुभूति एवं अनुभव के सहारे हम अपनी सोच-सफ़र जारी रखते हैं—इस उम्मीद पर कि हम कभी-किसी दिन सच के आसपास, उसके समीप पहुँच जाएँगे। और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के शब्द दुहराएँगे :

‘‘बोल, कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल, ज़बां तब तक तेरी है
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा
बोल कि जां अब तक तेरी है
बोस, यह थोड़ा वक्त बहुत है
जिस्मों-ज़बां की मौत से पहले
बोल, कि सच ज़िन्दा है अब तक
बोल, जो कुछ कहना है कह ले।’’

देवेन्द्र इस्सर

साहित्य और स्वातन्त्र्य :1


‘मुझे स्वन्त्रता दो या मुझे मृत्यु दो’

-पेट्रिक हैनरी

स्वतन्त्रा अथवा मृत्यु ! कभी-कभी साहित्यकार के जीवन में ऐसा क्षण भी आता है जब अपनी दृष्टि के प्रति ईमानदार रहने के लिए उसे स्वतन्त्रता या मृत्यु में से किसी एक को चयन करना पड़ता है। यदि उसके चिन्तन और सृजन की स्वतन्त्रता पर प्रतिबन्ध लगाया जाता है तो वह हर्षपूर्वक मृत्यु को स्वीकार कर लेता है। क्योंकि एक ईमानदार साहित्यकार और सृनात्मक प्रतिभा होने के नाते उसे स्वतन्त्रता के बिना मृत जीवन की-सी यातना सहन करनी पड़ती है। स्वतन्त्रा के बिना उसकी शक्ति कभी भी क्रियाशील नहीं हो सकती। इसी कारण स्वतन्त्रता या मृत्यु के अतिरिक्त उसके लिए तीसरी कोई राह नहीं। स्वतन्त्रता जीवन, मृत्यु के समान है।

इसके बावजूद बौद्धिक स्तर पर हर प्रकार के प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि ये प्रतिबन्ध भी स्वतन्त्रता की सुरक्षा के नाम पर लगाये जाते हैं। स्वतन्त्रता के नाम पर स्वतन्त्रता को नष्ट करने के लिए इतने कठोर अपराध किये गये हैं कि उनकी सूची तैयार करना असम्भव नहीं। और उनका वर्णन मात्र ही मनुष्य को ‘सिनिक’ बना देने के लिए काफी है। लेकिन इसका आशाजनक पहलू यह है कि स्वतन्त्रता की सुरक्षा के लिए मनुष्य ने हर यातना सही और संघर्ष जारी रखा।
कभी-कभी ऐसा भी हुआ कि स्वतन्त्रता की व्याख्या ईमानदारी से या अवचेतन रूप में ऐसी की गयी है कि जिसका परिणाम दासता की स्थापना में हुआ।

शायद ही ऐसी कोई विचारदारा हो जिसे साहित्यकार की स्वतन्त्रता पर आपत्ति होगी। फासिस्ट विचारधारा स्वतन्त्रता को हानिकारक समझती है, लेकिन कोई भी दो विचारधाराएँ स्वतन्त्रता की परिभाषा पर एकमत नहीं। इस उलझन को दूर करने के लिए ‘सही स्वतन्त्रता या सच्ची स्वतन्त्रता’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। स्वतन्त्रता सदा सही और सच्ची होती है। सत्यता स्वतन्त्रता में निहित है। जब हम स्वतन्त्रता की कोई संतोषजनक परिभाषा करने में असमर्थ रहते हैं तो फिर इस प्रकार के शब्दों की शरण ली जाती है।

कानून, नीति और दर्शन एक-दूसरे में इस तरह गड्मड्ड हो जाते हैं कि स्वतन्त्रता का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाता है।
वास्तव में स्वतन्त्रता एक कॅथॉलिक धारणा है। स्वतन्त्रता को राजनैतिक, आर्थिक अथवा सामाजिक दृष्टिकोण से ही प्रस्तुत करना पर्याप्त नहीं। स्वतन्त्रता का क्षेत्र जीवन के क्षेत्र की तरह विस्तृत एवम् विशाल है। स्वतन्त्रता मानव जीवन का तत्त्व है। हरबर्ट रीड ने स्वतन्त्रता की व्याख्या इस रूप में की है :
प्रेस की स्वतन्त्रता, संघ की स्वतन्त्रता और व्यापार की स्वतन्त्रता-स्वातन्त्र्य के ये सब प्रयोग मुझे गलत नजर आते हैं। क्योंकि स्वातन्त्र्य एक ‘एबस्ट्रेक्ट’ धारणा है, एक दार्शनिक शब्द है।

स्वतन्त्रता किससे और किस लिए ये दो प्रश्न बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। इनका सन्तोषजनक उत्तर दिए बिना स्वातन्त्र्य की प्रकृति पर विचार करना कठिन है। जब हम स्वतन्त्रता की माँग करते हैं तो हमारे मस्तिष्क में किसी प्रतिबन्ध का भय होता है। जिससे हम स्वतन्त्र होना चाहते हैं। प्रतिबन्ध कई प्रकार के हो सकते हैंराजनैतिक, नैतिक, सामाजिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक। इसलिए कहा जाता है कि स्वतन्त्रता की प्रकृति निश्चित नहीं की जा सकती। समय और स्थान के अनुकूल प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्वतन्त्रता का अर्थ बदलता रहता है। यही कारण है कि बिलकुल उस समय जब हम समझते हैं कि स्वतन्त्रता हमारी पकड़ में आ गयी है हम स्वतन्त्रता से दूर जा चुके होते हैं। इसका कारण यह है कि हम स्वातन्त्र्य की दार्शनिक प्रकृति से परिचित नहीं होते। वास्तव में स्वतन्त्रता का प्रश्न मौलिक रूप में व्यक्तिगत और दार्शनिक दृष्टिकोण का प्रश्न है। यदि हम इसे राजनैतिक और सामाजिक प्रश्न समझकर इसका साधारणीकरण कर देते हैं तो हम किसी एक प्रतिबन्ध या दूसरे नियन्त्रण से स्वतन्त्र होने की आशा में नये प्रतिबन्ध स्वीकार कर लेते हैं। यह ठीक है कि बाह्य रूप से सम्पूर्ण स्वातन्त्र्य का कोई अस्तित्व नहीं लेकिन फिर भी साहित्यकार लॉर्ड अक्टन का समर्थन करते हुए यह कह सकता है :
स्वतन्त्रता से मेरा अभिप्राय वह सुरक्षा है जिससे मनुष्य सत्ता ‘एथॉर्टी’ बहुसंख्य, रीति और मत करे प्रभाव करे विरुद्ध अपने विश्वाससानुसार अपने कर्तव्य का पालन कर सकता है।

स्वतन्त्रता का अर्थ प्रत्येक युग में एक समान नहीं रहा। उदाहरणतया रूसो उन्नत राजनीतिक समुदायों, राज्यों और साम्राज्यों और गिरिजाघरों से स्वतन्त्रता का इच्छुक था। उसके विचार में यह स्वतन्त्रता तब ही प्राप्त हो सकती है जब हम अधिक प्रारम्भिक और प्राकृतिक जीवन की ओर लौट चलें। रूसों के इस ‘रोमांटिक’ दृष्टिकोण के विपरीत प्रगतिशील विचारकों के मतानुसार स्वतन्त्रता का अर्थ भूख, बीमार, अज्ञान, अन्धविश्वास, अरक्षा और प्रारम्भिक एवं प्राकृतिक जीवन से मुक्त होना है।

स्वतन्त्रता के ये दोनों सिद्धान्त स्वतन्त्रता के दो विरोधी पक्षों को प्रस्तुत करते हैं। ‘रोमांटिक’ साहित्यकार प्रकृति की गोद में वापस लौट जाना चाहते हैं—एक ऐसी प्राकृतिक अवस्था में जहाँ सभ्य संसार के राजनीतिक और आर्थिक संगठन नहीं होंगे। लोग ‘सभ्य’ नहीं होंगे बल्कि ‘भद्र बहशी’ होंगे। रूसों के कथानुसार मनुष्य स्वतन्त्र पैदा हुआ है परन्तु हर जगह दास नजर आता है। प्राकृतिक अवस्था भू-स्वर्ग है। लटक के विचार में भी प्राकृतिक अवस्था मैं जीवन तर्क के अनुकूल था। लोगों के जीवन सम्पत्ति और स्वतन्त्रता के अधिकार प्राप्त थे। आजकल बहुत-से ऐसे उपन्यास लिखे जा रहे हैं जो आधुनिक सभ्यता की कृतिमता और बनावट के विरुद्ध दुःख की भावना व्यक्त करते हैं और जिनमें यह आकांक्षा की जाती है कि वह नग्न होकर हरी-हरी घास पर लेट जाएँ, नंगे पाँव भूमि पर चलें और अपनी प्रवृत्तियों को स्वाभाविक रूप में बिना किसी सामाजिक और नैतिक अंकुश के सन्तुष्ट होने दें। उनके विचार में आधुनिक सभ्यता उन्हें यन्त्रों और रुढ़िग्रस्त रीति-परिवाजों में जकड़कर कृत्रिम बनावटी और सतही जीवन की ओर ले जा रही है। स्वतन्त्रता का यह रोमांटिक विचार अमरीकी उपन्यासों में अधिक स्पष्ट है जहाँ सभ्यता यान्त्रिक युग की दासी बनकर मानव-भावनाओं को धीरे-धीरे कुण्ठित करके नष्ट कर रही है।

प्रगतिशील विचारधारा प्राकृतिक स्वतन्त्रता को प्रकृति की दासता समझती है। उसके अनुसार विज्ञान की प्रगति से मनुष्य की प्रकृति को अपने कल्याण के लिए प्रयोग में लाकर जीवन के समृद्ध एवं सम्पूर्ण बना सकता है। औद्योगिक क्रान्ति, शिक्षा का प्रसार और विज्ञान की प्रगति मनुष्य को स्वतन्त्र बनाती हैं। वह भविष्य की रचना के योग्य बनाता है जबकि रोमांटिक लेखक अतीत के अन्धाकर में विलीन हो जाना चाहता है। प्रगतिशील प्रकृति में शरण लेने के बजाय उस पर प्रभुता कायम करके स्वतन्त्रता होने की आकांक्षा करते हैं, इससे स्पष्ट है कि स्वतन्त्रता की कल्पना प्रतिबन्ध के विचार से सम्बद्ध है। क्योंकि प्रतिबन्ध की कल्पना में मतभेद है इसलिए स्वतन्त्रता का कोई निश्चित सिद्धान्त स्वीकार करना सम्भव नहीं। इस समस्या का समाधान करने के लिए साधारण तौर पर स्वतन्त्रता के सात आर्थिक या राजनीतिक शब्द जोड़ दिए जाते हैं जिससे समस्या सुलझने के बजाय और उलझ जाती है क्योंकि इन शब्दों को जोड़ने के बाद भी इसी तरह का मतभेद कायम रहता है। इंग्लैण्ड की संसद में एक प्रश्नोत्तर से यह बात स्पष्ट हो जाती है।


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