उपन्यास >> हरियल की लकड़ी हरियल की लकड़ीरामनाथ शिवेन्द्र
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जहाँ वैश्विक धरातल पर अमरीकी दादागीरी सर चढ़कर बोल रही है वहीं भारतीय समाज की तलछट में रह रहे लोगों की जिन्दगी भ्रष्ट नौकरशाही और सरकारी प्रपंचों में फँसकर और भी दूभर होती जा रही है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
इक्कीसवीं सदी के जगमग विकास के दौर की यह विडम्बना ही है कि जहाँ वैश्विक
धरातल पर अमरीकी दादागीरी सर चढ़कर बोल रही है वहीं भारतीय समाज की तलछट
में रह रहे लोगों की जिन्दगी भ्रष्ट नौकरशाही और सरकारी प्रपंचों में
फँसकर और भी दूभर होती जा रही है।
हरियल की लकड़ी तलछट में रहे रहे ऐसे ही लोगों की कहानियाँ बयान करती है। उपन्यास की मुख्य पात्र बसमतिया जीवट और दृढ़ चरित्र की स्त्री है जिसका पति उसे छोड़कर कहीं चला गया और लौटकर नहीं आया। फिर भी ससुराल में वह उसका इन्तजार करती अपनी बूढ़ी सासू की देखभाल और मेहनत मजदूरी करती है। माता- पिता की समझदार सन्तान होने के कारण उसे पिता के सहयोग के लिए बार-बार मायके आना पड़ता है।
सामाजिक जीवन की विभिन्न छवियों, विद्रूपताओं, विडम्बनाओं को बारीकी से रेखांकित करनेवीली यह कृति प्रेम, घृणा, सुख, दुख, वासना और भ्रष्टाचार की अवकिल कथा को प्रवाहमान भाषा और शिल्प में प्रस्तुत करती है।
गाँव के उच्चवर्ग के लोगों व सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष करती बसमतिया जीवन के बीहड़ अनुभवों से गुजरती है लेकिन झुकना या हार मानना उसने नहीं सीखा। इस क्रम में उसे कई लोगों से सहयोग भी मिलता है और ताने उलाहने भी सुनने पड़ते हैं। क्या बसमतिया को न्याय मिला ? क्या उसका पति लौटा ? गाँव के विकास के लिए उसके संघर्ष का क्या हुआ ?-इन सवालों की जिज्ञासाओं को लेखक ने उपन्यास में बेहद दिलचस्प विन्यास में प्रस्तुत किया है। निश्चय ही पाठक इसे हाथों-हाथ लेंगे, ऐसा हमारा विश्वास है।
दूसरी नीम अधेड़ औरत तीसरी शादी रचाने आई थी। बातचीत में मुँहफट थी तथा टनटन इतनी कि उसके यहाँ कुछ छिपा न था। उसने बताया था कि पहली शादी उसकी तब हुई थी जब वह मासिक धर्म के बारे में भी न जानती थी। उसका पति बीस साल का था जो गल्ला मंडी में पल्लेदारी करता था तथा हाड़-मांस से मजबूत था। घर दारू पीकर आता था तथा वह सब निपटाता था जो रात में निपटाता जाता है। वह डरकर खामोश रहती थी, एक दिन घर से भाग निकली..
रास्ता मायकेवाला ही था पर किस्मत ने रास्ते को एक अधेड़ आदमी की तरफ मोड़ दिया। अधेड़ आदमी ने एक भेल आदमी की तरह का व्यवहार किया तथा अपने घर ले गया। उसका घर एक कस्बे में पड़ता था। उस अधेड़ आदमी का घर पक्का था तथा अकेले रहता था। उसने अपने घर ले जाकर गाय -गेरू की तरह खूँटे से बाँध दिया। उसी में हगो, मूतो चाहे जो करो..। वह हमेशा ताव में रहता। जब आता, जहाँ पाता वहीं गुत्थम-गुत्था हो जाता। बच्चा न होने वाली दवाई अपने सामने खिलवाता। जब घर से बाहर निकलने लगता तब ताला लगा देता। घर में तीन कमरे थे, टी.वी. थी, मैं दिनभर टी.वी. देखती तथा किस्मत को कोसती। घर से बाहर निकल सकने की जगह कहीं न थी। वह एक छत वाला मकान था जिसमें धूप व बरसात की बूँदें भी न घुस पाती थीं।
हरियल की लकड़ी तलछट में रहे रहे ऐसे ही लोगों की कहानियाँ बयान करती है। उपन्यास की मुख्य पात्र बसमतिया जीवट और दृढ़ चरित्र की स्त्री है जिसका पति उसे छोड़कर कहीं चला गया और लौटकर नहीं आया। फिर भी ससुराल में वह उसका इन्तजार करती अपनी बूढ़ी सासू की देखभाल और मेहनत मजदूरी करती है। माता- पिता की समझदार सन्तान होने के कारण उसे पिता के सहयोग के लिए बार-बार मायके आना पड़ता है।
सामाजिक जीवन की विभिन्न छवियों, विद्रूपताओं, विडम्बनाओं को बारीकी से रेखांकित करनेवीली यह कृति प्रेम, घृणा, सुख, दुख, वासना और भ्रष्टाचार की अवकिल कथा को प्रवाहमान भाषा और शिल्प में प्रस्तुत करती है।
गाँव के उच्चवर्ग के लोगों व सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष करती बसमतिया जीवन के बीहड़ अनुभवों से गुजरती है लेकिन झुकना या हार मानना उसने नहीं सीखा। इस क्रम में उसे कई लोगों से सहयोग भी मिलता है और ताने उलाहने भी सुनने पड़ते हैं। क्या बसमतिया को न्याय मिला ? क्या उसका पति लौटा ? गाँव के विकास के लिए उसके संघर्ष का क्या हुआ ?-इन सवालों की जिज्ञासाओं को लेखक ने उपन्यास में बेहद दिलचस्प विन्यास में प्रस्तुत किया है। निश्चय ही पाठक इसे हाथों-हाथ लेंगे, ऐसा हमारा विश्वास है।
दूसरी नीम अधेड़ औरत तीसरी शादी रचाने आई थी। बातचीत में मुँहफट थी तथा टनटन इतनी कि उसके यहाँ कुछ छिपा न था। उसने बताया था कि पहली शादी उसकी तब हुई थी जब वह मासिक धर्म के बारे में भी न जानती थी। उसका पति बीस साल का था जो गल्ला मंडी में पल्लेदारी करता था तथा हाड़-मांस से मजबूत था। घर दारू पीकर आता था तथा वह सब निपटाता था जो रात में निपटाता जाता है। वह डरकर खामोश रहती थी, एक दिन घर से भाग निकली..
रास्ता मायकेवाला ही था पर किस्मत ने रास्ते को एक अधेड़ आदमी की तरफ मोड़ दिया। अधेड़ आदमी ने एक भेल आदमी की तरह का व्यवहार किया तथा अपने घर ले गया। उसका घर एक कस्बे में पड़ता था। उस अधेड़ आदमी का घर पक्का था तथा अकेले रहता था। उसने अपने घर ले जाकर गाय -गेरू की तरह खूँटे से बाँध दिया। उसी में हगो, मूतो चाहे जो करो..। वह हमेशा ताव में रहता। जब आता, जहाँ पाता वहीं गुत्थम-गुत्था हो जाता। बच्चा न होने वाली दवाई अपने सामने खिलवाता। जब घर से बाहर निकलने लगता तब ताला लगा देता। घर में तीन कमरे थे, टी.वी. थी, मैं दिनभर टी.वी. देखती तथा किस्मत को कोसती। घर से बाहर निकल सकने की जगह कहीं न थी। वह एक छत वाला मकान था जिसमें धूप व बरसात की बूँदें भी न घुस पाती थीं।
इसी पुस्तक से
मालिक आप
बसमतिया मड़हा में थी, थकी-थकी, हालाँकि पसीना बहाने वाला कोई काम उसने
नहीं किया था। फिर भी उसे थकान थी, शायद स्मृतियों को वर्तमान में ढालते
रहने की निरर्थक कोशिशों के कारण। कोशिश के रूप में, उसके पास सोने जैसे
जगदा के साथ गुजरे रात- दिन होते, कुछ गोपन हँसियाँ, बतकहियाँ चहचहाटें
होतीं तथा वे साज व संगीत होते जो शायद औरत बनने वाली हर लड़की के पास
होते हैं जगदा के साथ गुजरे तीन-चार साल के दिन-रात इधर के पाँच सालों को
एकदम लील जाते। ये दिन खतम-खतम से हो जाते, इनकी बहुत दुखद स्थिति होती
तथा ये खबर बनने लायक भी न होते कि चलो खबर तो है, अच्छी या बुरी, झूठ या
सच।
जगदा के घर छोड़ देने के बाद के दिन व रात के झूठों, सचों, का कोई मुकम्मल हिसाब न था, हिसाब होता भी तो बसमतिया के पास कहाँ औकात थी कि वह उन्हें किसी क्लासिक या साधारण ही सही शोक कृति में रूपान्तरित कर पाती। वैसे स्मृतियों की सोहबत उसे थका-थका देती जबकि कड़ा से कड़ा काम भी उसे थका न पाता, चाहे धान का बड़ा-बड़ा बोझ ढोना हो, सिर पर पलरा (टोकरी) उठाकर मिट्टी बालू फेंकना हो जंगल से लकड़ी लाना हो, गिट्टियाँ तोड़नी हो, कुछ भी। वह कभी न थकती तथा काम को बोझ न समझती।
छठ व्रत का पहला अरघ समाप्त होते ही उसे थकान महसूस होने लगी थी, सो तुरन्त ही मड़हा में चली आई थी। दूसरी बनिहारिनें तथा उसकी सासू धान काटने के लिए जा चुकी थीं। थका होने के कारण बसमतिया काम पर नहीं गई थी। सासू ने चालाकी भरा अनुमान लगाया था कि वह महीने में होगी। महीने लड़कियों को काफी दुख देते हैं। बसमतिया की थकान महीने की तकलीफों से भी बड़ी थी।
बसमतिया मड़हा में अकेली थी जैसे मड़हा भी अकेला-अकेला हो गया हो दूसरे घरों का साथ छोड़कर या दूसरे घरों ने ही उसे उपयोगी न मानकर छोड़ दिया हो। छोड़ने-पकड़ने की सामान्य संस्कृति के कारण। उनमें सिर्फ एक साथ होने, एक जगह रहने की औपचारिकता ही बची हुई हो। औपचारिकताएँ तो वैसे भी कुछ न कुछ बची रहती हैं भिन्न-भिन्न समाजों में। आर्थिक रूप से उपेक्षित स्तरों वाले समाजों में दिखावे के रूप में, कुछ इतना सक्रिय जैसी दिखती हैं जैसे वे आर्थिक बराबरी के लिए मरी जा सही हों, लगता है कि गरीबी बेरोजगारी, शोषण अब मिटे तब मिटे।
बसमतिया के पास गरीबी, बेरोजगारी जैसी चीजों के लिए सिर्फ यह था कि वह खूब-खूब पसीना, पिए, पसीना बहाए सो उसके पास औपचारिकताएँ भी काम के बाबत थीं। धान, गेहूँ की गन्ध थी। काली बलुई मिट्टी की ठसक थी। जंगलों की खुद में डूबे रहने की आदतें थीं, पहाड़ों के सिर उठाए रखने का साहस था। उसकी औपचारिकताएँ उन बातों से काफी दूर थीं जो उस समय पूरे देश के लिए चिन्ता बनी हई थीं-आखिर क्या होगा ?
तेरह दिन, तेरह माह, क्या तेरह वर्ष भी ? तेरह दिन राज करने वाली पारटी दुबारा तेरह माह का राज करके टूट चुकी थी। चुनाव घोषित था, पारटी का नारा था कि वह तेरह वर्ष तक राज करेगी। बसमतिया के पास जो कुछ था, था ही, पर खबरें न थीं कि चुनाव कब होंगे ? बाबरी मस्जिद कब टूटी थी ? विजयगढ़ किले पर वारेन हेस्टिंग्स का हमला कब और कैसे हुआ था ? तत्कालीन राजा चेत सिंह हमले में मारे गए थे या भाग गए थे ?
बसमतिया की तरह ही उसके दिन व रात भी सीमित दायरों वाले थे, सीमित इतना कि जब उन्हें रोटी मिल जाती तब वे ऊँघने लगते पर जाने क्या था कि छठ के पहले अरघ का दिन ऊँघ नहीं रहा था, वह ताक झाँक कर रहा था, यह बताते हुए कि बसमतिया उन का ताकना झाँकना समझन ले। समझ लेगी तो जगी ही रह जाएगी यह देखने के लिए कि दिन में क्या-क्या किया जा सकता है, कामधन्धे के अलावा बनिहारिनों की आप बीती सुनी जा सकती है, अपनी सुनाई जा सकती है। चोर निगाहों से दो चार हुआ जा सकता है, नहाते समय या सोते समय देह को खुद से अलग होता हुआ भी देखा जा सकता है।
देह का अलग होकर किसी अश्लील पोस्टर में बदलना, किसी की वासना भरी आँखों में उतरना या लेवा- कथरी पर बाएँ-दाएँ होकर ऐंठना, किकुड़ियाना बसमतिया को सपने तक में भी काफी कष्टकर लगता था पर उसे क्या पता...
उसे पता होता तो बखरी में क्यों जाती ? जिसकी बाहरी चमक-दमक बखरी के अंतःपुरों में भयानक अँधेरा बरासती हो अँधेरे के खौफनाक पंजे किसी लाचार के अंत पुरों में भयानक अँधेरा बरसाती हो अँधेरे के खौफनाक पंजे किसी लाचार की प्रतीक्षा में हों कि कोई आए, फिर वे उसे जकड़ लें। खौफनाक पंजे ज्यों ही बसमतिया की ओर बढ़े, उसने उसी समय उसके कोमल अंग को पकड़कर ऐंठ दिया था। फिर तो पंजे चीखने लगे थे, चीख की भाषा समझने लायक थी, भले ही चीखें बनावटी रही हों। अँधेरों की भाषा की तरह उनमें भी उलझाव था। उलझाव के कारण ही बसमतिया फँस गई थी, पंजों की तरह उसने भी चीखा ‘मालिक आप।’
मालिक की चीखें बढ़ती जा रही थीं जिनके पंजे फँसे हुए थे। अंतःपुर के अँधेरे अपनी भयावहत्ता बढ़ाने में जुटे थे सो अँधेरे एक तरह से बसमतिया के अनुकूल हो गए थे। चीखें किसी तरह से अँधेरा चीरकर बाहर निकलीं तो सीधे मलकिनी की तरफ गईं। मलिकिनी छठ व्रत के उपवास में थकी-थकी थीं। पलंग पर उनकी थकान पूरी लम्बाई में पसरी थी-एकदम से गुमसुम।
चीखें हड़बड़ी में थीं सो कर्कश भी खूब थीं, जिससे मलिकिनी की थकान छू मन्तर हो गई थी। मलिकिनी चट-पट फुर्तीली गति से चीखों की तरफ बढ़ीं। चीखें अँधेरों में वेवश सी फँसी थीं। पंजों का जमीन पर छटपटाना, चीखों में बदलना, बसमतिया जैसी औरत का पंजों की नकेल थाम चढ़ बैठना, ऐसा मलिकिनी ने कभी सोचा भी न था, भला दृश्य कैसे देखतीं।
दृश्य देखकर मलिकिनी को लगा कि उनका सिंदूर चीख रहा है तथा बसमतिया उनकी चूडियाँ फोड़ रही है, किसी अनहोनी या असम्भव सा देखकर मलिकिनी बेहोशी की हद तक घबड़ा गईं। जब थोड़ी होश हुई तो उन्होंने घबराहट को जाँचा। मालिक को बेदम पाया तथा बसमतिया को हाँफता हुआ देखा। पंजों का वह सबसे छोटा हिस्सा भी शिथिल होकर बसमतिया की मुट्ठी से बाहर हो चुका था। हालाँकि मालिक बेदम था पर उसकी साँसें चल रही थीं। बसमतिया मालिक को मार डालने की मनस्थिति में थी लेकिन मलिकिनी को सामने देखकर सहम सी गई, इसलिए कि उसे वह नहीं करना चाहिए था जो कर चुकी थी, सिर्फ इस कारण से कि मालिक को मार डालने की उसकी मुद्रा अश्लील थी। दिक्कत थी कि वह मालिक की गर्दन तो ऐंठ नहीं सकती थी, वह तथा वैसा ही कर सकती थी जो कर चुकी थी।
किसी अश्लील हरकत को मौत में बदलने का काम। उसे भी अन्दाजा हो चुका था कि मालिक भले ही जीवित बच जाए पर मुँह दिखाने लायक तो नहीं ही रहेगा। मलिकिनी मालिक के मुँह पर पानी के छींटे देने लगी थीं। तभी बसमतिया मालिक को चित्त छोडकर वहाँ से मड़हा चली आई-मुड़-मुड़कर देखती भी रही कि कहीं बखरी के अँधेरे भी अंतःपुर छोड़कर उसके पीछे-पीछे न आ रहे हों।
बसमतिया अकेली ही मड़हा तक आई थी, पीछे-पीछे कोई न था। पीछे-पीछे आनेवाला अपने ही अन्तःपुर में बेहोश पड़ा था। जिसका दवा-इलाज मलिकिनी कर रही थीं तथा चिंता में थी कि बसमतिया मालिक के कुकृत्य को किसी से कह न दे। हालाँकि बसमतिया ने अपनी हिफाजत, खुद कर ली थी फिर भी डरी हुई थी कि अधमरा साँप फिर फुँफकारेगा तथा काटेगा, यदि वह थोड़ा भी असावधान रही।
चोटिल साँप अक्सर बदला लेते हैं। इस सोच के कारण बसमतिया डरी हुई थी। मड़हा में अकेली थी। बनिहारिनें काम पर से वापस न आई थीं। बाहर जाड़े की धूप थी, धूप का असर मड़हे में भी था। फिर भी वह मलेरिया बुखारवाली कँपकँपी में थी। अप्रत्याशित डर मड़हा के भीतर तथा बाहर तने खड़े थे जैसे वे किसी से न डरते हों।
भीतर-भीतर ही बसमतिया की कोशिश थी कि डर को दबा दिया जाए तथा बखरी एवं मालिक को एक ही साथ किसी धमाके में उड़ा दिया जाए पर धमाका...धमाका कौन करेगा ? धमाके तो मालिक करवाते हैं, सरकारें करवाती हैं। वह बेचारी....
फिर तो खूब रोई थी, बिना आँसू, बिना कराह, बिना सिसकी मड़हे की जमीन भीग गई थी, सिसकियाँ मड़हे से चिपक गई थीं। यदि सम्भव होता तो बसमतिया सिसकियों को साथ लेकर, आनन्-फानन में जगदा की खोज में निकल जाती। जगदा की खोज में निकलती न निकलती, मड़हे से तथा ऐसे भयानक मालिक के दायरों से तो अवश्य निकल जाती। पर मजदूरी पेट, पन्द्रह दिन के पसीने सब डूब जाएँगे। मालिक कुछ न देगा। खाली हाथ लौटना ठीक न होगा। बसमतिया जब काल्पनिक डरों से थोड़ा मुक्त हुई तब मजदूरी के बाबत सोचने लगी थी। लौटना तो निश्चित कर लिया था कि अब काम नहीं करना, घर वापस जाना ही ठीक होगा।
छठ व्रत के दूसरे व अन्तिम अरघ को देखने का उसका निश्चय मालिक के डरों में समा गया-मलिकिनी व्रत में रहेगी ? उनका व्रत भंग नहीं हुआ होगा। बाल-बुतरु के लिए व्रत कर रही हैं, दो दिन से निर्जला हैं, पर उनका देवता, उनका पति ! भूखा रहना जानता ही नहीं दूसरे का पेट भी अपने में रखता है, दूसरे का दिमाग तर्क, भाषा सपने अपने दिमाग में रखकर बुद्धिमान बनने व साबित करने वालों की तरह। बसमतिया सवालों को उगातीं, उन्हें हल करने व समझने की अनथक कोशिश में लगी पर सवाल लम्बे, विकराल तथा भयानक होने लगते। दुनिया की खूबसूरती, सपनों की ताजगी, दिनों की स्फूर्तियाँ सब बासी जान पड़ते, फिर वह खुद अपनी खोल में दुबक जाती जहाँ पहले से ही तमाम निराशाएँ उदासियाँ किलबिला रही होतीं।
वह मलिकिनी का किलबिलाना ही था जो मालिक बच गया, नहीं तो अपनी बला से चला जाता। बसमतिया को बस इतना ध्यान रहा कि मलिकिनी रांड़ हो जाएँगी, उन्हें रांड़ बनाने से उसे क्या मिलेगा ? वैसे उसे छोड़ देने तथा भावुक बन जाने से भी बसमतिया को कुछ नहीं मिलने वाला। उसे बहुत- बहुत मालूम है किस्सा बनी औरतों के बारे में। कहते हैं, एक जमाना था जब किसी गरीब औरत को मालिक के यहाँ पनाह मिल जाती थी, फिर तो उस औरत के हाथ- पैर- मुँह मालिक, जैसे हो जाते थे, दिल दिमाग भी। कभी-कभार बाल-बुतरुओं की शक्ल पर मालिक का चेहरा ही चिपका होता था। चेहरे तो मलिकिनों के बच्चों पर भी चिपकते हैं। पता नहीं चलता कि असली चेहरा कहाँ गुम गया, कब, कैसे मार दिया गया। मलिकिनें मालिकों की अय्याशियों, असामाजिक हरकतों, उपेक्षाओं की घुटन व कुंठाएँ पीती-पीती भोले-भाले, सरल दिलवाले, चरवाहों घर के नौकरों की गोदी में बैठ जातीं, वहीं बची खुची खुशियों, उमंगों को दुलारने लगतीं। वहाँ उनका आकाश होता, दिल की गंभीर बदरियाँ होतीं, बीते दिनों के संत्रास हल्की बरसात में बहने लगते। मड़हा में अकेली-अकेली बसमतिया सुने-सुनाए किस्सों की तहें खंगालती रहती, उसे यह डर भी पछियाता रहता कि सासू आएँगी तो बीती बताएगी कि नहीं, वह कैसे कहेगी कि मालिक हरामी है, इसका काम छोड़ देना चाहिए।
बसमतिया के पास यह डर भी कुछ भयानक था कि सासू उसी पर शक करेंगी-आखिर वह क्यों काम पर नहीं गई थी ? सोचा होगा कि जब बनिहारिनें काम पर चली जाएँगी फिर एकान्त मिलेगा। एकान्त में दिल की किलकारियाँ सुनेगी, बैठी है पाँच साल से इसीलिए न।
बसमतिया परेशान-परेशान थी। परेशानियों से उबरने के लिए उसने चुप रहने व यथास्थिति को झेलते रहने के विकल्प को समसामयिक माना, फिर उसे थोड़ी सी राहत मिली लेकिन नींद उसे फिर भी न आई। वह इधर-उधर कभी बाएँ तो कभी दाएँ अपना पसरना ही तजबीजती रही तथा खूँखार पंजों के कष्टकर दबावों को सहलाती रही। यदि ऐसा उसे महसूस न हो रहा होता तो वह छठ व्रत के दूसरे अरघ की तैयारियों के बावत सोच रही होती तथा मलिकिनी के साथ रहते हुए छठ की पवित्रताओं का आनन्द ले रही होती, मलिकिनी की तरह। मलिकिनी तो मालिक की सेवा सुश्रुषा में लगी हुई थीं ताकि वे अपने प्रयासों से अपने सुहाग को बचा सकें जो जमीन पर पड़ा-पड़ा छटपटा रहा था। उनके सुहाग को पहली बार शायद इस कष्टकर अनुभव से दो-चार होना पड़ा होगा वरना बनिहारिनों की क्या औकात ? जो अपना सारा गोपन मलिकारों के सामने उघार न दें तथा एक साड़ी या कुछ रुपयों पर रीझ न जाएँ।
मालिक के अनुसार बसमतिया को भी रीझ जाना चाहिए था। रीझने की परिस्थितियों में बसमतिया हर कोणों से थी। पहला कोण था उसका अकेले रहना, पति का कई सालों से गायब होना। दूसरा था उसकी गरीबी तथा जीवन जीते रहने की लालसाएँ। अभिजात्य जीवन के प्रति कौन नहीं ललचाता ? फिर देह की भूख सबसे बड़ी तो होती ही है।
जगदा के घर छोड़ देने के बाद के दिन व रात के झूठों, सचों, का कोई मुकम्मल हिसाब न था, हिसाब होता भी तो बसमतिया के पास कहाँ औकात थी कि वह उन्हें किसी क्लासिक या साधारण ही सही शोक कृति में रूपान्तरित कर पाती। वैसे स्मृतियों की सोहबत उसे थका-थका देती जबकि कड़ा से कड़ा काम भी उसे थका न पाता, चाहे धान का बड़ा-बड़ा बोझ ढोना हो, सिर पर पलरा (टोकरी) उठाकर मिट्टी बालू फेंकना हो जंगल से लकड़ी लाना हो, गिट्टियाँ तोड़नी हो, कुछ भी। वह कभी न थकती तथा काम को बोझ न समझती।
छठ व्रत का पहला अरघ समाप्त होते ही उसे थकान महसूस होने लगी थी, सो तुरन्त ही मड़हा में चली आई थी। दूसरी बनिहारिनें तथा उसकी सासू धान काटने के लिए जा चुकी थीं। थका होने के कारण बसमतिया काम पर नहीं गई थी। सासू ने चालाकी भरा अनुमान लगाया था कि वह महीने में होगी। महीने लड़कियों को काफी दुख देते हैं। बसमतिया की थकान महीने की तकलीफों से भी बड़ी थी।
बसमतिया मड़हा में अकेली थी जैसे मड़हा भी अकेला-अकेला हो गया हो दूसरे घरों का साथ छोड़कर या दूसरे घरों ने ही उसे उपयोगी न मानकर छोड़ दिया हो। छोड़ने-पकड़ने की सामान्य संस्कृति के कारण। उनमें सिर्फ एक साथ होने, एक जगह रहने की औपचारिकता ही बची हुई हो। औपचारिकताएँ तो वैसे भी कुछ न कुछ बची रहती हैं भिन्न-भिन्न समाजों में। आर्थिक रूप से उपेक्षित स्तरों वाले समाजों में दिखावे के रूप में, कुछ इतना सक्रिय जैसी दिखती हैं जैसे वे आर्थिक बराबरी के लिए मरी जा सही हों, लगता है कि गरीबी बेरोजगारी, शोषण अब मिटे तब मिटे।
बसमतिया के पास गरीबी, बेरोजगारी जैसी चीजों के लिए सिर्फ यह था कि वह खूब-खूब पसीना, पिए, पसीना बहाए सो उसके पास औपचारिकताएँ भी काम के बाबत थीं। धान, गेहूँ की गन्ध थी। काली बलुई मिट्टी की ठसक थी। जंगलों की खुद में डूबे रहने की आदतें थीं, पहाड़ों के सिर उठाए रखने का साहस था। उसकी औपचारिकताएँ उन बातों से काफी दूर थीं जो उस समय पूरे देश के लिए चिन्ता बनी हई थीं-आखिर क्या होगा ?
तेरह दिन, तेरह माह, क्या तेरह वर्ष भी ? तेरह दिन राज करने वाली पारटी दुबारा तेरह माह का राज करके टूट चुकी थी। चुनाव घोषित था, पारटी का नारा था कि वह तेरह वर्ष तक राज करेगी। बसमतिया के पास जो कुछ था, था ही, पर खबरें न थीं कि चुनाव कब होंगे ? बाबरी मस्जिद कब टूटी थी ? विजयगढ़ किले पर वारेन हेस्टिंग्स का हमला कब और कैसे हुआ था ? तत्कालीन राजा चेत सिंह हमले में मारे गए थे या भाग गए थे ?
बसमतिया की तरह ही उसके दिन व रात भी सीमित दायरों वाले थे, सीमित इतना कि जब उन्हें रोटी मिल जाती तब वे ऊँघने लगते पर जाने क्या था कि छठ के पहले अरघ का दिन ऊँघ नहीं रहा था, वह ताक झाँक कर रहा था, यह बताते हुए कि बसमतिया उन का ताकना झाँकना समझन ले। समझ लेगी तो जगी ही रह जाएगी यह देखने के लिए कि दिन में क्या-क्या किया जा सकता है, कामधन्धे के अलावा बनिहारिनों की आप बीती सुनी जा सकती है, अपनी सुनाई जा सकती है। चोर निगाहों से दो चार हुआ जा सकता है, नहाते समय या सोते समय देह को खुद से अलग होता हुआ भी देखा जा सकता है।
देह का अलग होकर किसी अश्लील पोस्टर में बदलना, किसी की वासना भरी आँखों में उतरना या लेवा- कथरी पर बाएँ-दाएँ होकर ऐंठना, किकुड़ियाना बसमतिया को सपने तक में भी काफी कष्टकर लगता था पर उसे क्या पता...
उसे पता होता तो बखरी में क्यों जाती ? जिसकी बाहरी चमक-दमक बखरी के अंतःपुरों में भयानक अँधेरा बरासती हो अँधेरे के खौफनाक पंजे किसी लाचार के अंत पुरों में भयानक अँधेरा बरसाती हो अँधेरे के खौफनाक पंजे किसी लाचार की प्रतीक्षा में हों कि कोई आए, फिर वे उसे जकड़ लें। खौफनाक पंजे ज्यों ही बसमतिया की ओर बढ़े, उसने उसी समय उसके कोमल अंग को पकड़कर ऐंठ दिया था। फिर तो पंजे चीखने लगे थे, चीख की भाषा समझने लायक थी, भले ही चीखें बनावटी रही हों। अँधेरों की भाषा की तरह उनमें भी उलझाव था। उलझाव के कारण ही बसमतिया फँस गई थी, पंजों की तरह उसने भी चीखा ‘मालिक आप।’
मालिक की चीखें बढ़ती जा रही थीं जिनके पंजे फँसे हुए थे। अंतःपुर के अँधेरे अपनी भयावहत्ता बढ़ाने में जुटे थे सो अँधेरे एक तरह से बसमतिया के अनुकूल हो गए थे। चीखें किसी तरह से अँधेरा चीरकर बाहर निकलीं तो सीधे मलकिनी की तरफ गईं। मलिकिनी छठ व्रत के उपवास में थकी-थकी थीं। पलंग पर उनकी थकान पूरी लम्बाई में पसरी थी-एकदम से गुमसुम।
चीखें हड़बड़ी में थीं सो कर्कश भी खूब थीं, जिससे मलिकिनी की थकान छू मन्तर हो गई थी। मलिकिनी चट-पट फुर्तीली गति से चीखों की तरफ बढ़ीं। चीखें अँधेरों में वेवश सी फँसी थीं। पंजों का जमीन पर छटपटाना, चीखों में बदलना, बसमतिया जैसी औरत का पंजों की नकेल थाम चढ़ बैठना, ऐसा मलिकिनी ने कभी सोचा भी न था, भला दृश्य कैसे देखतीं।
दृश्य देखकर मलिकिनी को लगा कि उनका सिंदूर चीख रहा है तथा बसमतिया उनकी चूडियाँ फोड़ रही है, किसी अनहोनी या असम्भव सा देखकर मलिकिनी बेहोशी की हद तक घबड़ा गईं। जब थोड़ी होश हुई तो उन्होंने घबराहट को जाँचा। मालिक को बेदम पाया तथा बसमतिया को हाँफता हुआ देखा। पंजों का वह सबसे छोटा हिस्सा भी शिथिल होकर बसमतिया की मुट्ठी से बाहर हो चुका था। हालाँकि मालिक बेदम था पर उसकी साँसें चल रही थीं। बसमतिया मालिक को मार डालने की मनस्थिति में थी लेकिन मलिकिनी को सामने देखकर सहम सी गई, इसलिए कि उसे वह नहीं करना चाहिए था जो कर चुकी थी, सिर्फ इस कारण से कि मालिक को मार डालने की उसकी मुद्रा अश्लील थी। दिक्कत थी कि वह मालिक की गर्दन तो ऐंठ नहीं सकती थी, वह तथा वैसा ही कर सकती थी जो कर चुकी थी।
किसी अश्लील हरकत को मौत में बदलने का काम। उसे भी अन्दाजा हो चुका था कि मालिक भले ही जीवित बच जाए पर मुँह दिखाने लायक तो नहीं ही रहेगा। मलिकिनी मालिक के मुँह पर पानी के छींटे देने लगी थीं। तभी बसमतिया मालिक को चित्त छोडकर वहाँ से मड़हा चली आई-मुड़-मुड़कर देखती भी रही कि कहीं बखरी के अँधेरे भी अंतःपुर छोड़कर उसके पीछे-पीछे न आ रहे हों।
बसमतिया अकेली ही मड़हा तक आई थी, पीछे-पीछे कोई न था। पीछे-पीछे आनेवाला अपने ही अन्तःपुर में बेहोश पड़ा था। जिसका दवा-इलाज मलिकिनी कर रही थीं तथा चिंता में थी कि बसमतिया मालिक के कुकृत्य को किसी से कह न दे। हालाँकि बसमतिया ने अपनी हिफाजत, खुद कर ली थी फिर भी डरी हुई थी कि अधमरा साँप फिर फुँफकारेगा तथा काटेगा, यदि वह थोड़ा भी असावधान रही।
चोटिल साँप अक्सर बदला लेते हैं। इस सोच के कारण बसमतिया डरी हुई थी। मड़हा में अकेली थी। बनिहारिनें काम पर से वापस न आई थीं। बाहर जाड़े की धूप थी, धूप का असर मड़हे में भी था। फिर भी वह मलेरिया बुखारवाली कँपकँपी में थी। अप्रत्याशित डर मड़हा के भीतर तथा बाहर तने खड़े थे जैसे वे किसी से न डरते हों।
भीतर-भीतर ही बसमतिया की कोशिश थी कि डर को दबा दिया जाए तथा बखरी एवं मालिक को एक ही साथ किसी धमाके में उड़ा दिया जाए पर धमाका...धमाका कौन करेगा ? धमाके तो मालिक करवाते हैं, सरकारें करवाती हैं। वह बेचारी....
फिर तो खूब रोई थी, बिना आँसू, बिना कराह, बिना सिसकी मड़हे की जमीन भीग गई थी, सिसकियाँ मड़हे से चिपक गई थीं। यदि सम्भव होता तो बसमतिया सिसकियों को साथ लेकर, आनन्-फानन में जगदा की खोज में निकल जाती। जगदा की खोज में निकलती न निकलती, मड़हे से तथा ऐसे भयानक मालिक के दायरों से तो अवश्य निकल जाती। पर मजदूरी पेट, पन्द्रह दिन के पसीने सब डूब जाएँगे। मालिक कुछ न देगा। खाली हाथ लौटना ठीक न होगा। बसमतिया जब काल्पनिक डरों से थोड़ा मुक्त हुई तब मजदूरी के बाबत सोचने लगी थी। लौटना तो निश्चित कर लिया था कि अब काम नहीं करना, घर वापस जाना ही ठीक होगा।
छठ व्रत के दूसरे व अन्तिम अरघ को देखने का उसका निश्चय मालिक के डरों में समा गया-मलिकिनी व्रत में रहेगी ? उनका व्रत भंग नहीं हुआ होगा। बाल-बुतरु के लिए व्रत कर रही हैं, दो दिन से निर्जला हैं, पर उनका देवता, उनका पति ! भूखा रहना जानता ही नहीं दूसरे का पेट भी अपने में रखता है, दूसरे का दिमाग तर्क, भाषा सपने अपने दिमाग में रखकर बुद्धिमान बनने व साबित करने वालों की तरह। बसमतिया सवालों को उगातीं, उन्हें हल करने व समझने की अनथक कोशिश में लगी पर सवाल लम्बे, विकराल तथा भयानक होने लगते। दुनिया की खूबसूरती, सपनों की ताजगी, दिनों की स्फूर्तियाँ सब बासी जान पड़ते, फिर वह खुद अपनी खोल में दुबक जाती जहाँ पहले से ही तमाम निराशाएँ उदासियाँ किलबिला रही होतीं।
वह मलिकिनी का किलबिलाना ही था जो मालिक बच गया, नहीं तो अपनी बला से चला जाता। बसमतिया को बस इतना ध्यान रहा कि मलिकिनी रांड़ हो जाएँगी, उन्हें रांड़ बनाने से उसे क्या मिलेगा ? वैसे उसे छोड़ देने तथा भावुक बन जाने से भी बसमतिया को कुछ नहीं मिलने वाला। उसे बहुत- बहुत मालूम है किस्सा बनी औरतों के बारे में। कहते हैं, एक जमाना था जब किसी गरीब औरत को मालिक के यहाँ पनाह मिल जाती थी, फिर तो उस औरत के हाथ- पैर- मुँह मालिक, जैसे हो जाते थे, दिल दिमाग भी। कभी-कभार बाल-बुतरुओं की शक्ल पर मालिक का चेहरा ही चिपका होता था। चेहरे तो मलिकिनों के बच्चों पर भी चिपकते हैं। पता नहीं चलता कि असली चेहरा कहाँ गुम गया, कब, कैसे मार दिया गया। मलिकिनें मालिकों की अय्याशियों, असामाजिक हरकतों, उपेक्षाओं की घुटन व कुंठाएँ पीती-पीती भोले-भाले, सरल दिलवाले, चरवाहों घर के नौकरों की गोदी में बैठ जातीं, वहीं बची खुची खुशियों, उमंगों को दुलारने लगतीं। वहाँ उनका आकाश होता, दिल की गंभीर बदरियाँ होतीं, बीते दिनों के संत्रास हल्की बरसात में बहने लगते। मड़हा में अकेली-अकेली बसमतिया सुने-सुनाए किस्सों की तहें खंगालती रहती, उसे यह डर भी पछियाता रहता कि सासू आएँगी तो बीती बताएगी कि नहीं, वह कैसे कहेगी कि मालिक हरामी है, इसका काम छोड़ देना चाहिए।
बसमतिया के पास यह डर भी कुछ भयानक था कि सासू उसी पर शक करेंगी-आखिर वह क्यों काम पर नहीं गई थी ? सोचा होगा कि जब बनिहारिनें काम पर चली जाएँगी फिर एकान्त मिलेगा। एकान्त में दिल की किलकारियाँ सुनेगी, बैठी है पाँच साल से इसीलिए न।
बसमतिया परेशान-परेशान थी। परेशानियों से उबरने के लिए उसने चुप रहने व यथास्थिति को झेलते रहने के विकल्प को समसामयिक माना, फिर उसे थोड़ी सी राहत मिली लेकिन नींद उसे फिर भी न आई। वह इधर-उधर कभी बाएँ तो कभी दाएँ अपना पसरना ही तजबीजती रही तथा खूँखार पंजों के कष्टकर दबावों को सहलाती रही। यदि ऐसा उसे महसूस न हो रहा होता तो वह छठ व्रत के दूसरे अरघ की तैयारियों के बावत सोच रही होती तथा मलिकिनी के साथ रहते हुए छठ की पवित्रताओं का आनन्द ले रही होती, मलिकिनी की तरह। मलिकिनी तो मालिक की सेवा सुश्रुषा में लगी हुई थीं ताकि वे अपने प्रयासों से अपने सुहाग को बचा सकें जो जमीन पर पड़ा-पड़ा छटपटा रहा था। उनके सुहाग को पहली बार शायद इस कष्टकर अनुभव से दो-चार होना पड़ा होगा वरना बनिहारिनों की क्या औकात ? जो अपना सारा गोपन मलिकारों के सामने उघार न दें तथा एक साड़ी या कुछ रुपयों पर रीझ न जाएँ।
मालिक के अनुसार बसमतिया को भी रीझ जाना चाहिए था। रीझने की परिस्थितियों में बसमतिया हर कोणों से थी। पहला कोण था उसका अकेले रहना, पति का कई सालों से गायब होना। दूसरा था उसकी गरीबी तथा जीवन जीते रहने की लालसाएँ। अभिजात्य जीवन के प्रति कौन नहीं ललचाता ? फिर देह की भूख सबसे बड़ी तो होती ही है।
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