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कविता संग्रह >> संक्रान्त

संक्रान्त

कैलाश बाजपेयी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5811
आईएसबीएन :8126309350

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प्रस्तुत हैं उन्मुक्त कविताएँ - बस इतना याद है बर्फ़ के चाक़ू की तरह प्यार एक बहुत भद्दा मज़ाक था।

Sankrant

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

अपने प्रथम काव्य-संग्रह के पुनः प्रकाशित किये जाने की सूचना मिलने पर मेरी स्मृति में सोये पड़े अनेक पृष्ठ एकाएक खुल गये। बीसवीं शताब्दी काल के प्रवाह  में बह गयी। इस बीच न जाने कितने रचनाकार हमेशा-हमेशा के लिए दुनिया से चले गये। कुछ कच्चे झर गये, कुछ पककर गिरे।

जिस बर्बर सामाजिक संकट की चर्चा इन दिनों पूरे देश में हो रही है वह एक तरह की परिणति है। आज़ादी मिलने के दस-बारह वर्ष बाद ही यह समझ में आने लगा था कि पण्डित नेहरू द्वारा पारित नीतियों में एक तरह की विसंगति है। साम्प्रदायिकता के आधार पर विभाजित इस देश में दो तरह का  विधि-विधान आगे के वर्षों में कितनी जटिल समस्या बन जाएगा इसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी।

वे सोचते रहे कि ऐसी और इस तरह की संकीर्णता एक-न-एक दिन स्वतः सुलझ जाएगी। इसी तरह मैकाले और मेटकाफ़ की गहरी सूझबूझ पर बिना कोई ध्यान दिये न तो उन्होंने नौकरीशाही में कोई फेरबदल की और न ही राष्ट्रभाषा की समस्या को सही तरह समझा। बिना राष्ट्रभाषा के राष्ट्रवाद की कल्पना काफ़ी कुछ दुर्बोध लगती है।

लखनऊ विश्वविद्यालय में, आधुनिक हिन्दी कविता पर शोध करते हुए मुझे क्या-क्या पढ़ने का सुअवसर नहीं मिला ! मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मनूँगा कि जहाँ एक ओर विद्यार्थी जीवन में मुझे आचार्य नरेन्द्रदेव, डॉ. राधाकमल मुखर्जी, अवधकिशोर शरण एवं डॉ. देवराज जैसे मनीषियों का सान्निध्य प्राप्त हुआ वहीं दूसरी ओर सज्जाद ज़हीर, यशपाल, इलाचन्द्र जोशी, भगवतीचरण वर्मा, अमृतलाल नागर और मजाज़ जैसे रचनाकारों की संगत में बैठने को मिला। उन दिनों मैं छन्दबद्ध रचनाएँ अधिक किया करता था। बाद में डॉ. प्रेमशंकर और ‘युगचेतन’ के सम्पादकों की प्रेरणा से मैं मुक्त छन्द की ओर मुड़ा।

सन् 1960 के प्रारम्भ में मुझे पहली नौकरी टाइम्स ऑफ़ इण्डिया, मुम्बई में मिली। वहाँ बड़ी खोज के बाद चेतना पब्लिशर्स के मालिक सुधाकर दीक्षित और डॉ. मोतीचन्द्र मिले। डॉ. धर्मवीर भारती का सान्निध्य तो सहज ही प्राप्त था। इसलिए कि वे भी तभी ‘धर्मयुग’ के सम्पादक होकर मुम्बई आये थे। मुम्बई में रहते हुए सात-आठ महीनों के उपरान्त मुझे यह लगने लगा कि यह नगर फ़िल्म से जुड़े लोगों के ही अनुभूति है। डॉ. भारती के लाख मना करने के बावजूद मैं वह नौकरी छोड़कर दिल्ली चला आया। मेरे इस संकलन में कई रचनाएँ ऐसी हैं जो मैंने मुम्बई के गेट वे ऑफ़ इण्डिया के पास बैठकर रचीं। मुम्बई के अभिनेता-भरे नगर से भागकर जब दिल्ली आया तो मुझे अभिनेताओं से भी गये गुज़रे नेता मिले। मगर इसी के साथ दिल्ली का एक उजला पक्ष यह भी रहा कि डॉ. लोहिया के यहाँ शाम को रघुवीर सहाय, ओमप्रकाश दीपक, बदरी विशाल पित्ती, राजनारायण, जार्ज फरनांडिस और श्रीकान्त आदि से भी भेंट होने लगी। इस संग्रह में संकलित रचना ‘राजधानी’ श्री बदरी विशाल पित्ती को ऐसी भाई कि वे ‘कल्पना’ पत्रिका में प्रकाशित करने के लिए हैदराबाद ले गये।

 ‘राजधानी’ मेरे लिए ख़ासी मुसीबत का कारण बनी। इसलिए कि मैंने इसे एक रेडियो गोष्ठी में पढ़ दिया और नतीज़ा यह कि मुझे एण्ट्री पैट्रियाटिक करार देते हुए, अधिकारियों ने ब्लैकलिस्ट कर दिया। पण्डित नेहरू के ‘पंचशील’ और ‘हिन्दी चीनी भाई भाई’ के बावजूद सन् 1962 में चीन ने हम पर आक्रमण कर दिया। हमारा मानसरोवर हमसे छीन लिया। दिल्ली रेडियो ने पुनः एक कवि-गोष्ठी का आयोजन किया और संकट की उन घड़ियों में, सागर निज़ामी ने फ़ोन पर यह इसरार किया कि मैं काव्यपाठ के लिए ज़रूर आऊँ। इस सग्रह में संगृहीत वह रचना ‘मेरा आकाश छोटा हो गया है।’ भयंकर तनाव और हताशा के क्षणों में लिखी गयी ऐसा मुझे अभी भी याद है।

इस संग्रह में जहाँ एक ओर नितान्त निजी पीड़ा को ध्वनित करनेवाली पक्तियाँ हैं। वहीं दूसरी ओर अनेक समाजोन्मुख रचनाएं भी हैं। मेरा ऐसा मानना रहा है कि व्यक्ति और समाज बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद की तरह ओतप्रोत हैं। रचनाकार व्यक्ति भी है समाज भी। समाज उसे क्या-क्या नहीं देता-सभी कुछ समाज की ही देन है, तब भी जहाँ तक आन्तरिकता का प्रश्न है वहाँ रचनाकार बहुत अकेला है। प्रश्न यह उठता है कि क्या व्यक्ति समाज अथवा विचारधाराओं का साधन मात्र है ? तब फिर उसके निजत्व का क्या किया जाए ? देखा यह गया है कि विचारधाराएँ जाने-अनजाने व्यक्ति को एक कठपुतली की तरह नचाने लगती हैं। परिमाण यह होता है कि रचना के क्षेत्र में स्वतः स्फूर्ति आन्तरिक बेमानी होने लगती है दूसरे दर्जे की कला को अधिक महत्त्व मिलने लगता है। पंथपरकता अथवा विचारधाराओं ने इस दृष्टि से कलाओं को गम्भीर क्षति पहुँचायी है। समाज का अर्थ है पारस्परिक प्रेम सम्बन्ध। मगर हम यदि अपने आसपास निगाह दौड़ाकर देखें तो पाएँगे कि हम आपस में तरह-तरह से विभक्ति हैं। एक ही समाज में रहते हुए, अपने-अपने विश्वासों, अपनी धारणाओं के कारण, हर उस व्यक्ति के प्रति विद्वेष रखते हैं जो हमारी मान्यताओं के विपरीत स्वतन्त्रचेता हैं, अपने ढंग से रचनारत है।
इस संग्रह में ऐसी बहुत-सी रचनाएँ हैं जिन्हें पढ़कर लगेगा जैसे उनकी रचना अभी कल हुई हो।


विजयादशमी 2003

-कैलाश वाजेपेयी  


परास्त बुद्धिजीवी का वक्तव्य



न हमारी आँखें हैं आत्मरत
न हमारे होंठों पर शोक गीत
जितना कुछ ऊब सके ऊब लिये
हमें अब किसी भी व्यवस्था में  डाल दो
(जी जाएँगे)

ऊर्ध्व संगमरमर पर लगे हुए छत्ते-सी
यह सारी दुनियाः
जिसे हम न पा सके
हमारी डंक-छिदी देह को नहीं पाता
वहाँ कहीं शहद भी होता है
कटे हुए पैरों में
अपनी हर यात्रा लपेट कर
हम रेगिस्तानों-से फैले पड़े हैं
वर्जित हो यों तो अपनी
सुविधा के लिए
रेतीली छाती से पहिये निकाल दो
(जी जाएँगे)

पानी मटमैला है
या
खाली चेहरा
नहीं पता
बाहर दरारें हैं
 या
फटी आँखों में
नहीं पता
बस इतना याद है बर्फ़ के चाक़ू की तरह प्यार
एक बहुत भद्दा मज़ाक था।
जो भीतर घाव कर
भीतर पिघल गया
हमें अब न जीवन रविवार है।
न बूढ़ी माँ की मत्यु का समाचार
 डोरी से खींचकर लटका दो बाँस पर
(यदि हमें चाहो तो)
गौरवान्वित नहीं होंगे
पढ़े गये रद्दी अख़बार-सा
छितरा दो नंगे फुटपाथ पर
अपमानित न होंगे
चिल्लाती धूप में
बदहवासी रात में
कहीं किसी गटर पर
हम खुली पलकों सो जाएँगे
हमें अब किसी की व्यवस्था में डाल दो
(जी जाएँगे)
क्योंकि निराध्यात्म की
सब जगह सड़ाँध है
हर नगर अच्छा है
क्योंकि हर चेहरे पर
बैठा है ‘हायना’
हर मनुष्य सच्चा है।
(हमको अब सब कुछ स्वीकार है)।

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