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सलाखों से छलकी हुई सुगन्ध

अशोक कुमार शर्मा

प्रकाशक : शाश्वत प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5817
आईएसबीएन :81-86509-21-6

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एक सामाजिक उपन्यास......

Salakhon Se Chhalki Hui Sugandh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


स्वन्त्रन्ता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है, ऐसा प्रायः कहा जाता है ऐसा ही माना भी जाता है; परन्तु यथार्थ में व्यक्ति शायद ही कभी स्वतन्त्र होता है। जन्म से मृत्यु तक प्रत्येक पग उसके चारों ओर सलाखे हैं-लक्ष्मण-रेखाएँ हैंस कहीं राजनैतिक, सामाजिक, कहीं पारिवारिक, कहीं आर्थिक तो कहीं नैतिक मर्यादाओं की सीमा-रेखाएँ है। इन सीमाओं, इन अवरोधों अथवा इन सलाखों से पार जाने के लिए व्यक्ति के प्रयास और उसके संघर्ष का दूसरा नाम ही सम्भवतः जीवन है। इस प्रयास में वह कभी सफल होता है, कभी असफल। यही प्रयास, यही संघर्ष व्यक्ति कि जिजीविषा को ऊर्जा प्रदान करता है; निरन्तर उसकी इच्छाशक्तियों को सींचता है, उसे उर्वर बनाए रखता है। चहुँ ओर सलाखों से घिरा होने के बावजूद भी उसका मन कुलांचे भरता रहता है। सलाखें उसके मन को तो बन्धक बनाए रखती हैं; परन्तु मन एक सुगन्ध की भाँति सलाखों के बीच से बाहर सरक आता है। अपनी-अपनी सीमाओं और मर्यादाओं की सलाखों में कैद दो प्राणियों के कथा है, इस उपन्यास में। इन प्राणियों में सलाखों को तोड़ पाने का साहस और बल तो नहीं; परन्तु अपनी भावनाओं की सुगन्ध सलाखों के पार तक वे अवश्य बिखेरते रहते हैं।

प्राक्कथन

राज्य में साहित्यक परिवेश का निर्माण करने तथा नवोदित लेखकों को प्रोत्साहित करने हेतु हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा विभिन्न साहित्यिक योजनाएं कार्यन्वित की जा रही हैं। इन योजनाओं में पुस्तक प्रकाशनार्थ सहायतानुदान योजना भी सम्मिलित है। हरियाणा राज्य के जो लेखक हिन्दी एवं हरियाणवी में साहित्य रचना करते हैं, उन्हें अपनी अप्रकाशित पुस्तकों के प्रकाशन के लिए प्रयुक्त योजनाओं के अन्तर्गत सहायतानुदान प्रदान किया जाता है।
 
वर्ष 2002-2003 के दौरान आयोजित पुस्तक प्रकाशनार्थ सहायतानुदान योजना के अन्तर्गत अशोक कुमार शर्मा की ‘सलाखों से छलकी हुई सुगन्ध’ शीर्षक पाडुलिपि को अनुदान के लिए स्तरीय पाया गया है।
आशा है, सुधी पाठकों द्वारा लेखक के इस सफल प्रयास का स्वागत किया जाएगा।


डॉ. चन्द्र त्रिखा
निदेशक,
हरियाणा साहित्य अकादमी


सलाखों से छलकी हुए सुगन्ध 

1



सदैव ऐसा ही दृश्य होता है, यहाँ आफ़िस के बाहर। छुट्टी का समय होने में अभी कुछ पलों की देरी होती है; परन्तु बाहर, बड़े गेट के सामने तथा आफ़िस की बाहरी चाहरदीवारी के साथ-साथ सड़क पर एक अच्छी खासी भीड़-सी जमा हो जाती है। आफिस के कर्मचारियों को लिवाने आए लोगों का मजमा-सा लग जाता है, यहाँ !
अम्बाला छावनी के सैनिक क्षेत्र को स्पर्श कर रही एक चौड़ी-सी सड़क के किनारे; लगभग सुनसान-से क्षेत्र में बने इस बड़े–से केन्द्रीय सरकार के कार्यालय के बाहर इस समय का नजारा कोई बाहर से आया व्यक्ति या अजनबी देखे तो यही समझेगा कि कोई दुर्घटना घट गयी है या कोई तमाशा लगा है जिसके कारण इतनी भीड़ जमा है ! अथवा कोई चुनाव-प्रचार चल रहा है।

छुट्टी के समय दोनों बड़े गेट खुलते ही पुरुष कर्मचारी कन्धों पर अपने बैग टिफिन का फीता फँसाए तथा कोई-कोई एक हाथ में ब्रीफ़केस थामे, छोटे-छोटे झुण्डों में, बड़ी तेज़ रफ्तार से रेलवे स्टेशन और बस अड्डे की ओर जानेवाली सड़क पर भागते-नजर आएँगे-कुछ अपना साइकिल या स्कूटर थामे भीड़ में से रास्ता बनाने का प्रयास कर रहे होंगे और पैदल जानेवाले बाहर सड़क पर गेट से थोड़ा हटकर सड़क के किनारे खड़ी रेहड़ियों पर पान, गुटखा, सिगरेट और बीड़ी खरीदने के लिए भीड़ लगा लेंगे। कुछ चाय के खोखों के सामने पड़े बैंचों पर आसन जमा लेंगे और कुछ गेट के सामने सड़क के पार पेड़ों के झुण्ड के नीचे दायरा बनाकर खडे़ हो जाएँगे, यह तय करने के लिए कि अगली हड़ताल कब की जाए-हड़ताल करने का क्या कारण ढूँढा जाए और जब हड़ताल हो जाए तो कौन-से अधिकारी के विरुद्ध हड़ताल के दौरान नारे लगाएं जाएँ।

महिला कर्मचारियों की स्थिति थोड़ी भिन्न होती है। जिनके अनुबन्धित रिक्शा-वाले बाहर प्रतीक्षा कर रहे होते हैं, वे अपने-अपने रिक्शा को ढूँढ़ती हैं और  जिनके रिश्तेदार या ड्राइवर कार लेकर आए हैं, वे अधिकारियों की सफेद एम्बैसेडर कारों के बीच से रास्ता बनाती अपनी गाड़ी तक पहुँचने की कोशिश में जुट जाती हैं। कुछ-एक को लिवाने उनके पति, पिता या भाई स्कूटर, मोटर साइकिल लिए थोड़े-थोड़े अन्तर  पर सड़क-किनारे खड़े होते हैं। कुछ नवयौवनाओं के मित्र या प्रेमी भी किसी चौड़े तने-वाले पेड़ की ओट लिये स्कूटर, मोटर साइकिल स्टार्ट किए खड़े होते हैं।

मित्र या प्रेमिका इधर-उधर देखती हुई और सहकर्मियों की नज़र से बचने का प्रयास करती हुई, भागकर उन तक पहुँचती है-कन्धा पकड़कर बैठती हैं तथा उखड़ी साँसों पर काबू पाकर एक मुस्कान फेंकती हैं और स्कूटर या मोटर साइकिल फर्राटा भरता हुआ दृश्य से ओझल हो जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि एक प्रेयसी के लिए एकाधिक दोपहिया सवार आ जाते हैं। प्रेयसी भीड़ में छिपने का प्रयास करती है अथवा किसी सहकर्मी की कार में बैठकर अदृश्य हो जाती है और प्रेमियों का सिर-फुटौवल शुरू हो जाता है। कुछ एक महिलाएं अपने साइकिल मोपेड या स्कूटर भी लाती हैं। वे गेट के भीतर या बाहर अपनी सवारी का हैण्डिल थामे भीड़ छँटने की प्रतीक्षा करती हैं, जिससे उन्हें वहाँ से गुज़रने का आसान रास्ता मिल सके।

...महिलाओं के इसी झुण्ड के बीच हमेशा की तरह ही अपनी मोपेट का हैण्डिल थामे सुनीता भी खड़ी थी और भीड़ के कुछ कम होने की प्रतीक्षा कर रही थी; साथ ही हमेशा की तरह यह भी सूक्ष्मता से देख  रही थी कि दूसरों के साथ बैठकर जानेवाली कौन-सी महिला का कैसा अन्दाज है। जिनके पिता या भाई अथवा पुत्र लिवाने आए हैं- वे किस तरह थोड़ा-सा फ़ासिला रखकर पिछली सीट पर बैठती हैं। जिनके पति आए होते हैं। वे बैठते ही कैसे सट जाती हैं पति की कमर में हाथ डाल लेती हैं। नव विवाहिता किस तरह चूडे़ या अपनी रंगीन चूड़ियों से भरी कलाइ और चमकदार नेलपालिस से रंगे लम्बें नाखूनों-वाला हाथ पति की जाँघ पर टिका देती है और पति के गाल से गाल सटाकर बतियाना शुरू कर देती है। प्रेमिकाएँ किस तरह चिकोटी काटती हुई प्रेमी की कमीज़ पीठ से खींचती हैं और उनकी इस अदा से प्रेमियों की आँखों में कैसी चमक उभरती है। जिन महिलाओं के साथ कोई छोटा बच्चा भी आया होता है, वे किस तरह सीट पर बैठने से पहले बच्चे के कपड़े ठीक करती हैं- उनके बाल सँवारती हैं, दोनों हथेलियों के बीच चेहरे को दबाकर बच्चे का चेरा चूमती हैं। और उसे गोद में बिठा लेती हैं, और बच्चा अपने छोटे-छोटे हाथों से माँ का पल्लू या दुप्पटा खींचता या दोनों मुट्ठियों में माँ के बाल भरकर अपनी कोई नाराजगी प्रदर्शित करता है।

एक अर्से से सुनीता के लिए यह दृश्य मन को उदार करने वाला रहा है। पिता के पास स्कूटर भी है और चलाना भी सीख गए हैं; लेकिन उसे लेने आने की फुर्सत है, न इच्छा। भाई ईश्वर ने दिया ही नहीं है, पति का मिलना अभी तक मृगतृष्णा ही है और प्रेमी सुरेश अब किसी और का पति हो गया है। अपने विवाह से पहले वह प्रायः इस समय यहाँ आ जाया करता था। दूर चौराहे के किनारे घनी छाया और  चौड़े तने-वाले नीम के पेड़ की ओट में साइकिल समेत छिपा-सा उसकी प्रतीक्षा करता रहता था। वह स्वयं भी उस समय तक थोड़ा–सा अन्तर बनाकर चला करते थे। जैसे अजनबी हो। सैनिक अस्पताल को पार करने के पश्चात जैसे ही चौड़ी सड़कों-वाला सुनसान-सा सैनिक क्षेत्र आरम्भ होता, वे दोनों एक-दूसरे की बराबरी में अपनी-अपनी साइकिल ले आते। चलते-चलते एक दूसरे का हाथ थाम लेते, कभी कन्धा छू लेते। वे और दोनों के बीच कड़वी शिकायतों या मीठी बातों का अनन्त सिलसिला आरम्भ हो जाता, जो सिविल अस्पताल की इमारतों के पिछवाड़े-वाली सड़क के किनारे बने एक चाय के खोखे तक चलता रहता। सर्दियों के दिनों में जब उस समय तक अँधेरा घिर जाता था और बत्तियाँ जल उठती थीं। वे चाय के खोखे के बाहर खड़े और लकड़ी की कमजोर-सी दीवार की टेक लगाए चाय की चुस्कियों लेते  और अंधेरे का फायदा उठाकर चुम्बन-आलिंगन भी कर लेते। बाहरी तौर पर सुरेश से उसकी शरारतों पर नाराजगी प्रकट करती रहती थी; लेकिन उसके स्पर्श गुदगुदानेवाले और कभी-कभी उस ठण्ड में शरीर में आग भर देनेवाले होते थे।

इन स्पर्शों की जादुई गहराईयों का अहसास तब होता था, जब सुरेश उसे उनके घर की ओर जानेवाली गली के किनारे अकेला छोड़ तेजी से अपनी साइकिल चलाता हुआ आँखों से ओझल हो जाता था। काफ़ी देर तक ठगी-सी वह वहीं मोड़ पर ठहरी रहती थी। अतृप्ति किसी नाग-सा डसती थी और दूर जाता सुरेश ऐसे दिखता था जैसे अपने शरीर का कोई अंग टूटकर दूर जा रहा है अथवा जैसे रेगिस्तान में भटकते किसी प्यासे के होठों से लगा ठण्डे पानी का बर्तन उस व्यक्ति के पहला घूँट भरने से पहले ही हटा लिया गया हो। तड़पकर रह जाया करती थी, वह। सारा शरीर, जल से एकाएक बाहर फेंक दी गयी मछली-सा छटपटा उठता था। घर पहुँचती थी तो सारा घर उस जाल का विस्तार-सा दिखाई देता जिसमें फँसाकर उसे जल से बाहर पटका गया था।

घर पहुँचकर वह साइकिल सीढ़ियों के नीचे बने स्टोरनुमा खाली स्थान में पटक देती थी और कन्धे पर लटका बैग, अपने कमरे में बिछे पलंग पर फेंककर बाथरूम में घुस जाती थी। एक झटके में ही सारे कपड़े उतार फेंकती थी और वहाँ सदैव भरे रहने वाले टब के ठण्डे-बासी पानी में सिर डुबो देती थी  और तब कहीं जाकर, शरीर पर सुरेश के स्पर्शों से उभरे छालों की जलन कुछ कम होती थी। इसी कारण उसने अपने सिर के लम्बे रेशमी बाल कटवाकर बहुत छोटे करवा लिए थे ताकि उन्हें सुखाने में ज्यादा दिक्कत न हो। प्लास्टिक के बड़े मग में भर-भरकर ठण्डा पानी वह अपने शरीर पर उड़ेलती रहती थी। तब कहीं जाकर तन और मन सामान्य स्थिति में आते थे और वह स्वयं को इस स्थिति में अनुभव करती थी कि बाहर जाकर किसी का सामना सहज ढंग से कर सके।

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