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उपन्यास >> हिन्दोस्तान

हिन्दोस्तान

अब्दुल्लाह हुसैन

प्रकाशक : विज्ञान भारती प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5820
आईएसबीएन :81-903880-2-9

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इस उपन्यास में ‘हिन्दोस्तान’ की महक और भारत पाकिस्तान के आवाम की दर्दनाक चीखें और कराहों के साथ उस समय के लालची नेताओं के सियासी स्वार्थों का तथ्यात्मक विश्लेषण कहे या असलियत-अपनी पुरजोर ताकत से उकेरे गए हैं।

Hindostan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘हिन्दोस्तान’ की कहानी हिन्दुस्तान के सवर्ण जागीरदारी निज़ाम की गवाही देती है। रोशनपुर के जागीरदीर हैं-रोशनपुर के जागीरदार हैं—रोशन आगा। प्राचीन मुगल खानदान की यादगार नयाज़ बेग। नईम इस उपन्यास का केन्द्रीय चरित्र है। रोशन आगा के छोटे से खानदान में बेटे परवेज के अलावा एक बेटी अजरा भी है। इन परिवारों में गहरे रिश्ते हैं। उपन्यास के आरम्भिक हिस्सों में जागीरदारों की दुर्दान्त शोषक-छवि, अंग्रेजों से उनके रिश्ते और तेजी से बदलते परिवर्तनों को दर्शाया गया है-

उपन्यास में उस समय के सियासी दृश्य तेजी से अपना स्थान बदलते, बनाते हुए चलते रहते हैं। स्वदेशी आन्दोलन, मुस्लिम लीग के बढ़ते कदम, ज़लियांवाला बाग, साइमन कमीशन, किसान आन्दोलन-कुछ भी अब्दुल्ला हुसैन की पैनी नजर से नहीं बच पाता।

अब्दुल्ला हुसैन ने तंगनआरी और सीमित दायरों से आगे बढ़कर पूरी इंसानी दर्दमन्दी के साथ इस उपन्यास को तहरीर किया है।

इस उपन्यास में ‘हिन्दोस्तान’ की महक और भारत पाकिस्तान के आवाम की दर्दनाक चीखें और कराहों के साथ उस समय के लालची नेताओं के सियासी स्वार्थों का तथ्यात्मक विश्लेषण कहे या असलियत-अपनी पुरजोर ताकत से उकेरे गए हैं।

अब्दुल्ला हुसैन पाकिस्तान के ऐसे महान कथाकार हैं जो विभाजन से पहले ‘हिन्दुस्तान’ के ही नागरिक थे। पाकिस्तान में रहते हुए भी उनकी अन्तर्रात्मा पंजाब और उत्तर प्रदेश के गांवों-कस्बों-शहरों के कूचे-कूचे में भटक रही है। यह भटकन ही इस महागाथा ‘हिन्दोस्तान’ का उद्गम है। उनके भीतर की गहरी पीड़ा, उनके अन्दर उमड़-घुमड़ कर कहीं अपने को दरिया की तरह बहाना चाहता था। उनकी अन्तर्रात्मा की चीखें इस दरिया को एक धारदार की रवानगी देने में अपनी पूरी शिद्दत से जुटी ही नहीं वरन पाठक को बेचैन कर ऐसी दुनिया में ले जाती हैं जिसे हम अतीत समझते हैं। महागाथा में वर्णित घटनाएं इसी हिन्दोस्तान’ की धरती से बाबस्ता हैं। यह गाथा अग्रेजों के अत्याचारों को और अवाम की लाचारी को अपनी पूरी शिद्दत के साथ उकेरती है।

यह उपन्यास आजादी पूर्व शताब्दी की महान् घटनाएं हालांकि इतिहास में दर्ज हैं।

परन्तु इतिहास अक्सर एकांगी होता है या इतिहास लेखक की समझ पर आधारित। एक सतही आख्यान जिस पर समय की गर्द जमती जाएगी और वह कालखण्ड की गहराइयों में खो जाएगा। परन्तु अब्दुल्ला हुसैन की कलम की ताकत इस सच्चाई को झुठलाकर इन घटनाओं को पूरी शिद्दत से आने वाली पीढ़ियों को सच्चाई से रू-ब-रू कराती रहेगी।


मुशरर्फ़ आलम ज़ौक़ी


दो शब्द



अब्दुल्ला हुसैन पाकिस्तान के ऐसे महान कथाकार हैं जो विभाजन से पहले ‘हिन्दुस्तान’ के ही नागरिक थे। पाकिस्तान में रहते हुए भी उनका दिलोदिमाग यदि दूसरे शब्दों में कहे तो उनकी अन्तर्रात्मा पंजाब और उत्तरप्रदेश के गाँवो-कस्बों-शहरों के कूचे-कूचे में भटक रही है। यह भटकन ही इस महागाथा ‘हिन्दोस्तान’ का उद्गम है। उनके भीतर की गहरी पीड़ा कोई गहरा दिली-घाव व पछातावा उनके अन्दर घुमड़-घुमड़ कर कहीं अपने को दरिया की तरह बहाना चाहता था। अपनी इसी पीड़ा को वे दूसरे से बाँटना चाहते थे। उनकी अन्तर्रात्मा की चीखें, उनके दिलो-दिमाग में बसी अपनी ही नहीं गैरों की चीखें भी इस दरिया को एक धारदार रवानगी देने में अपनी पूरी शिद्दत से जुटी ही नहीं वरन् पाठक को बैचैन कर ऐसी दुनिया में ले जाती हैं जिसे हम अतीत समझते हैं। जबकि वह अतीत अब भी लगता है। वर्तमान में हमारे समक्ष उपस्थित है।

इस महागाथा में वर्णित घटनाएं इसी ‘हिन्दोस्तान’ धरती से बाबस्ता हैं। यह गाथा अंग्रेजों के अत्याचारों को और अवाम का लाचारी को अपनी पूरी शिद्दत के साथ उकेरती है।

यह उपन्यास आजादी-पूर्व शताब्दी की महान् घटनाओं पर आधारित है। ये घटनाएं हालांकि इतिहास में दर्ज हैं। परन्तु इतिहास अक्सर एकांगी होता है या इतिहास लेखक की समझ पर आधारित। एक सतही आख्यान जिस पर समय की गर्द जमती जाएगी और वह कालखण्ड की गहराइयों में खो जाएगा। परन्तु अब्दुल्ला हुसैन की कलम की ताकत इस सच्चाई को झुठलाकर इन घटनाओं को पूरी शिद्दत से आने वाली पीढ़ियों को सच्चाई से रू-ब-रू कराती रहेगी।

हिन्दोस्तान’ की कहानी हिन्दुस्तान के सवर्ण जागीरदारी निज़ाम की गवाही देती है। रोशनपुर के जागीरदीर हैं-रोशनपुर के जागीरदार हैं—रोशन आगा। प्राचीन मुगल खानदान की यादगार नयाज़ बेग। नईम इस उपन्यास का केन्द्रीय चरित्र है। रोशन आगा के छोटे से खानदान में बेटे परवेज के अलावा एक बेटी अजरा भी है। इन परिवारों में गहरे रिश्ते हैं। उपन्यास के आरम्भिक हिस्सों में जागीरदारों की दुर्दान्त शोषक-छवि, अंग्रेजों से उनके रिश्ते और तेजी से बदलते परिवर्तनों को दर्शाया गया है-
अहमद दीन अपने दरवाजे पर खड़ा क्रोध से चीख रहा था।
रोशन आगा का मुंशी घोड़ी की बाग था में अपने कुछ खास आदमियों से घिरा उसके सामने खड़ा था- ‘हम तुम्हारे घर की तलाशी लेंगे।’
तुम मेरे घर में कदम नहीं रख सकते। भाग जाओ, मेरे पास कुछ नहीं है...तुम.....’ उसने मुंशी की ओर उँगली हिलाई उसका गला बन्द हो गया।

नईम धीरे-धारे चलता हुआ अहमद दीन के पास जा खड़ा हुआ, जो बे-किवाड़ के दरवाजें में बैठ गया था।....
‘क्या बात है ?’ नईम ने पूछा।
‘मोटराना लेने आए थे।’
‘रोशन आगा (जागीरदार) ने मोटर खरीदी है।’
‘फिर ?’
‘हमें मोटराना देना पड़ता है। जागीरदार ने मोटर खरीदी है। हमें अनाज देना पड़ता है।
नईम इस उपन्यास का केन्द्रीयपात्र है। उपन्यास के अन्त में नईम की मानसिक अवस्था का चित्रण उल्लेखनीय है-

‘मैंने तुम्हारे लिए क्या किया है। तुम्हें अपने बहन-भाइयों का, माँ-बाप का, सारे घर का दुश्मन बना दिया है, ओह !’ उसने अजरा का हाथ मजबूती और रंज से दबाया, ‘मैंने तुम्हारे दिल में नफरत और खौफ का बीज बोया है। मैंने तुम्हें अपमानित किया है, सबके सामने। मैंने तुम्हें एक दुःखभरी जिंदगी दी है। तुम एक महान औरत हो। मैंने तुम्हें तबाह कर दिया है, मुहब्बत के बदले में, अब तबाह हो रहा हूँ। मैं क्या कर सकता हूँ। तुमने कहा था। आखिर जिंदगी में इतने पछतावे हैं..... अजरा मैं तंग आ चुका हूँ। मैं बाहर जाना चाहता हूँ, काम करना चाहता हूँ, कोई भी कुछ भी। क्या फर्क पड़ता है, जब मैं मर रहा हूँ। मैं अब लेट नहीं सकता ओह...’ उसने अपना गला बंद होता हुआ महसूस किया। वह जोर से खांसा और देर तक खांसता रहा। पुराने दुर्बल रोगी की तरह उसकी आँखों से पानी बहने लगा, ‘अजरा’ डाक्टर को मत आने दो। मैं कमजोर ....ओह....अजरा मैं रोना नहीं चाहता।’

आखिर वह कुछ न कर सका और बरसों की शारीरिक और आन्तरिक यातनाओं से टूट कर रोने लगा- एक स्वाभिमानी और बेबस बुड्ढे की तरह जो रो नहीं सकता लेकिन विविशता की पराकाष्ठता पर पहुँच कर आंसू भोंडेपन से बन्द होते हुए हलक में से निकलती हुई झटकेदार संक्षिप्त आवाज के साथ आने लगते हैं और चेहरे की आकृति मसखरेपन का नमूना पेश कर करती है, जिसे देखकर छोटी उम्र के नादान लोग हंसने लगते हैं।

अजरा ने इत्मीनान के साथ उसे सहारा देकर बिस्तर पर लिटा दिया। देर के बाद जब नईमा बड़ी क्षुधा के साथ खाना खा रहा था, वह आहिस्ता से मुस्करायी। उस रात वह लिपट कर उसके साथ सोई रही और अपनी गरम, खुश्क हथेलियां उसके नीम-मुर्दा जिस्म पर फेरती रही और बाहर के तूफान से उतनी ही बेखर रही जितने कि दूसरे लोग, हाँलाकि वह बेहद तूफानी रात थी।

नईम जंग (प्रथम विश्व युद्ध) के बाद ‘हिन्दोस्तान’ लौटता है लेकिन एक नए रूप में वह ‘हिन्दोस्तान’ की आजादी की लड़ाई में शामिल हो जाता है। वह कांग्रेसी तहरीक से जुड़ता, मुस्लिम लीग के बढ़ते कदमों की आहट से बाबस्ता है।

‘मैं पुलिस का आदमी नहीं हूं।’ नईम ने कहा लेकिन तीन तरफ से जमी हुई नजरों से उसे विवश कर दिया। उसने सहमकर चेहरे पर हाथ फेरा, मैं कांग्रेस का आदमी हूं।’

मदन आहिस्ता से उठकर बैठ गया। उसके बड़े से लजीजे चेहरे पर तीखापन और उपहास था, ‘कांग्रेस....’ उसके भाव को समझकर नईम ने बीच ही में हाथ को जुम्बिश दी-‘तुम नहीं समझते। कांग्रेस मेरी पार्टी है। मुझे देखो....मैं सीधा सादा किसान हूं,, हाथ सो काम करने वाला मजदूर...’

‘किसान हो !’ मदन ने उसकी बात काटी, ‘इसलिए उन्होंने तुम्हें निकाल दिया है। यहाँ भेज दिया है। वह गर्वनर की दावतों में जाते हैं और अपने बीच किसानों को सहन नहीं कर सकते। उन्होंने तुम्हें बेवकूफ बनाया है। बस, और तुम यहां क्या करने आए हो ?’ सुनों ?’ उसने दोबारा कहा और बड़ी तन्मतयता से बोलने लगा, ‘‘मेरा यह पक्का यकीन है कि अगर कायरता और हिंसा में चुनाव करना पड़ जाए तो कायरो की तरह अपमान और बेबसी का शिकार होने के बजाय हिन्दोस्तान को डटकर अपनी इज्जत की रक्षा करनी चाहिए। मगर मेरा यकीन है कि अहिंसा, हिंसा से कहीं ज्यादा ऊंचा और सजा देने से माफ कर देना कहीं ज्यादा मर्दानगी का काम है....
उपन्यास में उस समय के सियासी दृश्य तेजी से अपना स्थान बदलते, बनाते हुए रहते हैं। स्वदेशी आन्दोलन, मुस्लिम लीग के बढ़ते कदम, ज़लियांवाला बाग, साइमन कमीशन, किसान आन्दोलन कुछ भी अब्दुला हुसैन की पैनी नजर से नहीं बच पाता।

अब्दुल्ला हुसैन ने तंगनआरी और सीमित दायरे से आगे बढ़कर पूरी इंसानी दर्दमन्दी के साथ उपन्यास को तहरीर किया है, इसलिए वर्तमान ही नहीं वरन आने वाले समय में इस उपन्यास की हैसियत और अहमियत कई गुना बढ़ जाती है।

इस उपन्यास में ‘हिन्दोस्तान’ की महक और भारत पाकिस्तान के अवाम की दर्दनाक चीखें और कराहों के साथ उस समय के लालची, नेताओं के सियासी स्वार्थों का तथ्यात्मक विश्लेषण कहें या असलियत-अपनी पुरजोर ताकत से उकेर गए हैं।


सम्पादक


हिन्दोस्तान



गांव का सोया-सोया गर्द से भरा माहौल उसी तरह कायम था। इन बरसों में रोशनपुर में बीसियों नौजवान अजनबी देशों में हलाक हो गये थे। लड़ाई में मैदानों में बिखरे हुए सुन्दर मजबूत जिस्म तेज धूप में भाप बन कर उड़ गये और नये सैलाबों ने, नई आंधियों और तूफानों ने उसकी हड्डियां जमीन में दबा दी।

बीसियों औरतें बेवा हो गयीं और लड़कियां मुहब्बत में गरीब हो गयीं। रोशनपुर की जमीनों में सैलाब आये और फसले तबाह हो गयीं और किसान कर्ज और भूख के नीचे दब गये। जानवर बीमारी से मर गये या भूखे किसानों ने काट कर खा लिये। औरतों और भैंसों के दूध सूख गये और एक समय आया जब पागल आँखों वाले किसानों के ढांचे गलियों में आवारा फिरते थे और छतों पर बूढ़े हुए पेटों वाले दुर्बल बच्चे टाँगे लटका कर बैठते थे तो उस समय गांव पर जले हुए जंगलों या बमबारी से किसी तबाह-हाल किले शबहा होता था।

लेकिन नया मौसम अपने पूरे रंग –रूप और आब –ओ-ताब के साथ आया। सैलाब का पानी गया। और बारिश से गिरे मकानों की दीवारें खड़ी की गयीं और हरदम जवान होते हुए लड़कों, बैलों और बूढ़े होते हुए किसानों ने सैलाब की डाली हुई सियाह उपजाऊ मिट्टी में हल चलाया और गेहूँ, चने और दूसरा अनाज बोया। दिन रात की कड़ी मेहनत से खेतों में सब्ज रेशमी फसल उठी और गेहूँ के दानों में गूदा पड़ा और औरतों की छातियाँ दूध से भर गयीं। और उनकी कोख में इंसानी बीज बढ़ना शुरू हुआ और सृष्टि का शांत, स्वच्छ वातावरण हर ओर फैल गया।

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