नारी विमर्श >> त्रिपदी त्रिपदीआशापूर्णा देवी
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गृह-त्यागी तीनों पात्रों, दो युवक और एक युवती-की रोचक कहानी
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
बंगला की सुप्रसिद्ध कथा-लेखिका श्रीमती आशापूर्णा देवी की इधर काफी
रचनाएं हिन्दी में आ रही हैं। भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से अपनी श्रेष्ठ
रचना के लिए वह सम्मानित हो चुकी हैं। ‘त्रिपदी’ नाम
उनके बंगला उपन्यास का यह हिन्दी अनुवाद है। इसकी सहज सरल भाषा इसे एक
मौलिक कृति का दर्जा देती है । उपन्यास में गृह-त्यागी तीनों पात्रों दो
युवक और एक युवती-की रोचक कहानी है। समाज के नियम सिद्धान्तों को तोड़ना
कितना मुश्किल है। इन चरित्रों में यही दिखाया गया है।
त्रिपदी
रात काफी गहरा उठी है। सड़कों पर चलने वाले यान-वाहन विरल नहीं हुए हैं,
फिर भी कम तो हो ही गए हैं। निमंत्रितों में से अनेकों ने विदा ले ली है
और बाकी भी जाने को प्रस्तुत हैं। प्रतापराय के गेट पर से एक-एक, दो-दो
करके उपस्थित कारें खिसक रही हैं, वही कारें जो अभी तक सड़क के दोनों ओर
इस छोर से उस छोर अपने चिकने गंभीर चेहरे लिए लंबी लाइन लगाए हुए थीं।
प्रतापराय काफी दिन पूर्व ही दिवंगत हो चुके हैं, फिर भी इस मकान को लोग अभी ‘प्रतापराय की कोठी’ कहकर ही पुकारते हैं। संभवतः कोठी के वर्तमान मालिकों ने उपर्युक्त नाम को लोगों की स्मृति से पोंछ डालने का कोई प्रयास नहीं किया है, इसी कारण लोगों का पुराना अभ्यास बरकरार है।
अवश्य ही वर्तमान स्वामित्व दो व्यक्तियों में बंटा हुआ है। प्रदीपराय और उनका अविवाहित छोटा भाई संदीपराय। प्रतापराय के दो बच्चे हैं।
प्रदीपराय की उम्र चालीस पार होने को है और खोजने पर उनकी कनपटियों के एकाध बाल रुपहले भी मिल जाएंगे। सिर को गौर से देखने पर गंजेपन का आभास मिलता है, फिर भी सबल, स्वस्थ, दीर्घ देहयष्टि उन्हें राजकीय गौरव से युक्त करके उनके व्यक्तित्व को बहुतों से अधिक प्रभावशाली बना देती है। प्रदीप चेहरे-मोहरे से अपने बाप पर गये हैं। पिता प्रतापराय साठ वर्ष की अवस्था में सीधी, सतेज देह लेकर स्वर्गवासी हुए थे।
संदीप और तरह का है।
संदीप अपनी मां की तरह कोमल और ठिगने कद-काठी का है। मुख का लावण्य और ठुड्डी का सौकुमार्य भी बार-बार उसकी मां की ही याद दिलाता है। आकृति मां की तरह किंतु प्रकृति भी मां की ही तरह है क्या ?
वह मां की तरह ममतामय है अथवा बाप की तरह दृढ़निश्चयी ? प्रतापराय देखने में कोमल थे, किंतु उनके भीतर का आदमी इस्पात का था। संदीप क्या वैसे ही है ? तुलना करके देखने का कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि पिता प्रतापराय और माता कल्पना दोनों ही व्यक्ति इस समय चित्र बनकर दीवार पर झूल रहे हैं। चारों सन्तानें (दो लड़के दो लड़कियों) में से सबसे छोटे संदीप के प्रकृति-निर्माण के पूर्व ही उन्हें दीवार पर चित्र बनकर झूल जाना पड़ा।
तो भी संदीप की प्रकृति का जब निर्माण हुआ तो देखा गया कि उसमें पिता-माता दोनों की प्रकृतियों का समावेश था। वही दोनों प्रकृतियां जैसे विपरीत शक्तियों के समान उसकी व्यक्ति सत्ता पर धूप और छाया की तरह बारी-बारी से हावी होती रहती हैं। और संदीप अपनी उस सत्ता का ज्ञानोन्मेष के समय से ही बड़ी निष्ठा के साथ लालन-पालन करता आया है।
कौन जाने किस दैवी शक्ति ने बचपने से संदीप के माथे पर सबसे भिन्न, सबसे पृथक् होने का टीका लगा दिया था, इस कुल की परिपाटी से सर्वथा भिन्न।
किसने कहा यह नहीं मालूम पर किसी अदृश्य शक्ति का आदेश संदीप अपने बाल्यकाल से ही मानता आया है।
इसी कारण संदीप इस सुख शांतिमय राय परिवार में अशांति का स्फुलिंग और उस निरुपद्रव कोठी में नीरव उत्पात-सा है।
‘प्रतापराय की कोठी’ का एक अभिजातीय इतिहास रहा है। ब़ड़े लड़के प्रदीपराय ने उसकी रक्षा बड़े यत्न और अपने स्वभाव की महत्ता से की थी। प्रदीपराय की जाति-बिरादरी में इस समय नौ बरस के लड़के का यज्ञोपवीत कराते किसी को नहीं देखा जाता, कोई अपनी मर्जी के अनुसार करता है, कोई सीधे लड़के की शादी के समय एक ही नांदीपाठ में दोनों चालू कर देता है। किंतु प्रदीप ने अपने कुल की प्रथा को बचा रखा था। नौ बरस के बच्चे का यज्ञोपवीत किया था।
आज का उत्सव उसी के उपलक्ष्य में था।
लड़का उज्ज्वलदीप कल ‘दंडी घर’ से निकला है, आज भोज है। जैसा प्रचुर आयोजन है वैसी ही मनोहारी अतिथेयता भी है। सभी आड़ में कह रहे थे—‘‘एकदम बाप की तरह है’’ अथवा—‘‘आजकल इतना कौन करता है ? पैसा होने पर भी हिम्मत नहीं पड़ती। केवल धन होने से ही तो बात नहीं चलती, मन भी तो वैसा ही होना चाहिए’’—इत्यादि-इत्यादि।
निश्चय ही इस प्रकार की बातें वे लोग ही कह रहे थे जो वयस्क और आत्मीय थे जिन्होंने प्रतापराय के समय में आना-जाना और खाना-पीना किया था।
जो नए हैं अर्थात् जो प्रदीप के मित्र अथवा ऑफिस के लोग हैं, वे तो एकदम चकित हैं। तामझाम के लिए नहीं, सौजन्य के लिए। प्रदीप ने केवल आमंत्रितों का ही आदर-सम्मान किया यह बात भी नहीं है। कोठी से निकलकर प्रत्येक गाड़ी के ड्राइवर से स्वयं जाकर पूछा कि उसका भोजन हुआ या नहीं।
माधुरी ने कहा था—‘‘नीचे तल्ले में मेज लगाकर उन सभी को एक साथ बैठाकर खिला देने से भी तो बात वही होती।’’ किंतु प्रदीप उस बात में राजी नहीं हुआ था। कहा था उसने—‘‘यह कैसे होगा ? वे भी तो अच्छे घरों के लड़के हैं, उनका कोई आत्मसम्मान नहीं है क्या ? केवल निमन्त्रण पत्र ही तो उन्हें नहीं मिला है। खाने-पीने की चीजें किसी के घर अनायास घूमने आने पर भी खा ली जाती हैं।
एक प्रसिद्ध मिष्टान्नगृह से प्रदीप ने मिठाइयों का इंतजाम किया था। चार-पांच तरह की मिठाइयां और उसके साथ घर की बनी चाय और फ्राई की हुई चीजें। प्रदीप हर आदमी के पास जा-जाकर पूछ रहा था कि उन्होंने मुँह मीठा किया या नहीं ? ‘‘बच्चे को आशीर्वाद दीजिए।’’ इत्यादि।
प्रतापराय के पिता प्रभासराय अपने निज के तथा आत्मीय कुटुंबी, यहां तक कि पास-पड़ोस के घरों के नौकरों को बुलाकर बड़ आदर से खिलाते और तब तक स्वयं सामने खड़े रहते हैं जब तक कि वह आदमी ना न कर दे। वे कहते—‘‘खाओ भैया, खाओ, अच्छी तरह पेट भर कर खा लो। तुम्हीं लोगों के मुख से भगवान का भोजन होता है।’’ राय परिवार की यह परंपरा रही है कि धनी-गरीब सभी को बड़े यत्न से खिलाते-पिलाते किंतु इस जमाने में यह चीज दुर्लभ है, इसीलिए प्रदीप की नम्रता और सदाशयता से सभी लोग चकित हैं और उसकी प्रशंसा कर रहे हैं।
किंतु इधर जितना भी पूर्ण सब काम वह कर रहा है और आनंदित हो रहा है। उधर एक अपूर्णता भी उसके मन को सताती है। विशेषकर समारोह के अंत के समय।
घर में इतना बड़ा एक आयोजन हो रहा है और आज सवेरे से ही संदीप का कहीं पता नहीं है। खूब सवेरे बहन और भाभी के अनुरोध पर उसने घर में बनी कुछ मिठाइयां मुंह में डाली थीं। और शायद उसी समय उसने दोपहर के अपने खाने के लिए मना कर दिया था। कहा था—‘‘बस, अब इस वेला के लिए निश्चिंत। और किसी चीज की जरूरत नहीं है। अतएव श्रीमान् संदीपराय फकत आज-भर के लिए गायब हो सकते हैं।’’
किंतु यह बात सच हो सकती है अथवा उस बात को मानने योग्य बातों की श्रेणी में रखना होगा, ऐसा तो किसी ने सोचा तक नहीं था। इस परिवार का लड़का क्या इतना बेहया हो सकता है।
यह जो आयोजन हो रहा है उसके लिए तो उसने अपनी कानी उंगली तक नहीं हिलाई होगी। प्रदीप और उसके कार्यालय के कुछ साथियों ने सारा काम किया है। छोटदी ने बल्कि एक बार कहा भी—‘‘क्यों रे तेरी आँखों का पानी क्या एकदम मर गया है ? तू क्या घर का एक भी काम नहीं करेगा ? बड़े भाई का हाथ बंटाने में तुझे क्या मुश्किल गुजरती है ?’’
संदीप ने हँसकर कहा था हमारे ऊपर भरोसा ही कौन करता है ?’’
‘‘भरोसा ? किस बात का भरोसा रखा जाए तुझ पर ? तू कोई काम करता भी है ? क्यों, क्यों तेरे मुंह से नहीं निकलता—भैया, बताओ, कोई काम-वाम हो तो करूं। नहीं तो...।’’
‘‘अरे रुको न छोटदी, समुद्र पर पुल बांधने के काम में मैं गिलहरी की भूमिका नहीं निभाना चाहता।’’
‘‘तो फिर वीर हनुमान की भूमिका लेने से ही तुझे किसने मना किया था ? बड़ा हो गया है, भैया का दाहिना हाथ बनने लायक हो गया है।’’
‘‘गजब की बात करती हो दीदी, जिसके दोनों कंधों के नीचे दो-दो मजबूत हाथ साक्षात झूल रहे हों उसका दाहिना हाथ ! कमाल है, क्या तुम उस भले आदमी को तीन पैरों वाले बैल के समान तमाशा बनाना चाहती हो ? क्या उसके जैसा तेजस्वी व्यक्ति एक उसी तीसरे हाथ के भरोसे इतना बड़ा आयोजन कर रहा है ?’’
छोटदी नाराज होकर बोली—‘‘तो क्या तू घर को अपना घर नहीं समझेगा ?’’
‘‘यह लो, घर को घर नहीं समझता तो क्या मैदान समझता हूँ ? घर समझता हूँ, इसीलिए तो जब इच्छा होती है निकल पड़ता हूं, जब इच्छा होती है लौटता हूं, और फिर हाथ के पास भोजन देखकर एकदम कुंठित नहीं होता, मजे में हाथ बढ़ाकर मुंह में रखता जाता हूं।’’
‘‘चुप ही रहना। खाने की बात मुंह पर लाना भर मत। जो खाता है वह मेरा जाना हुआ है। ससुराल में हूं तो क्या तू समझता है कुछ घर की खबर नहीं रखती हूं ? भाभी सदा दुःखी रहती हैं कि तू कोई भी चीज कभी खाता ही नहीं है। मैंने सुना है तू कहता है—अच्छा भोजन तेरे अन्दर एलर्जी पैदा करता है ?’’
‘‘कोई झूठ कहता हूँ ? रत्ती भर भी नहीं। सच, दीदी, तुम लोगों के उन ‘सुंदर’ से विभूषित पदार्थों के प्रति मुझे एलर्जी है, शायद यही कारण है मैं तुम लोगों की आशा के अनुरूप न बन सका।’’
‘‘वह तो देख ही रही हूं। सोचा था अपनी ननद के साथ तेरे विवाह की चेष्टा करूंगी मगर...।’’
‘‘बाप रे ! जान बची। और दीदी, तुमने अपने उस शुभ विचार को कार्यरूप में नहीं परिणत किया इसके लिए तुम्हें अशेष धन्यवाद।’’
‘‘क्यों, क्या हमारी ननद इतनी सस्ती है ?’’ नाराज होकर दीदी ने पूछा थी—‘‘बदसूरत है या अयोग्य है ?’’
‘‘नहीं, बात ठीक इसकी उल्टी है। मैं तो कहना चाहता था कि अच्छा हुआ उस विदुषी, सुंदरी एवं महामूल्य वाली वस्तु को लेने के लिए मुझ जैसे तीन कौड़ी के आदमी को लेकर बाजार में नहीं जा खड़ी हुईं, इसलिए धन्यवाद।’’
‘‘मगर इस कारण तुझे अपने को इतना छोटा सोचने की भी जरूरत नहीं है। बाबूजी की आधी जायदाद का तो तू मालिक है ही। इतनी बड़ी कोठी....।’’
‘‘देखो छोटदी, अब तुम बड़ी सीरियस हुई जा रही हो, मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा। तुम नहीं जानती हो, मुझे सीरियस बातों के प्रति भी एलर्जी है।’’
इस पर छोटदी बहुत गुस्सा होकर उसके पास से उठ गई थीं। मगर ये सब बातें तो कई दिन आगे की हैं, जब प्रणति आई थी, अपने भतीजे के जनेऊ-संस्कार के आयोजन-पूर्व की पहली मीटिंग में।
वह सब तो ठीक है।
किंतु आज के दिन संदीप का यह क्या व्यवहार है ?
जाते-जाते प्रायः सभी अभ्यागत पूछ रहे हैं—‘‘भाई को नहीं देख रहे हैं ?’’ निकट संबंध की महिलाएं अलोचना की झोंक में पंचमुखी हो रही हैं। कोई इस पक्ष में, कोई उस पक्ष में। जो प्रदीप के सौजन्य को चालाकी, विनय को दिखावा, आयोजन की चतुरता को आडंबर बता रहे हैं, वे कह रहे हैं—‘‘वह तो ऐसे ही करता है, यह कह कर ही क्या निश्चिंत हुआ जा सकता है ? चिंता नहीं होती ? शायद बेचारे ने सारा दिन कुछ खाया ही नहीं। ताज्जुब है ! तिलमात्र किसी के चेहरे पर शिकन नहीं है। कलकत्ते में राह घाट में कितनी भीड़ होती है। ऐक्सीडेंट भी तो हो सकता है; मां-बाप होते तो क्या इस तरह निश्चिंत रह सकते थे ?’’
जरूर ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है।
अधिकांश लोग संदीप की निंदा कर रहे हैं। ऐसे लापरवाह और माया-ममता से हीन लड़के ही तो घर-घर में हैं, यह बात भी लोग कह रहे हैं। वे यह भी मीमांसा कर रहे हैं कि ये कलयुगी लड़के क्यों अपने घर को अपना नहीं समझ पा रहे हैं। इन मीमांसकों में रथी भी हैं और पैदल भी, डेक्रान भी है और अद्धी की साड़ियां भी, गोल्ड-फ्लेक भी हैं और चारमीनार भी।
और उधर-मतलब अंदर की बात नहीं कह रहा हूं। अंदर, अंतःपुर आदि आज समाप्त हो गए हैं। संभ्रांत घरों में तो और भी नहीं। सवाल ही नहीं उठता। किंतु शायद जातिभेद विधाता की सृष्टि है, इसीलिए साज-सज्जा, बोलचाल में फर्क पाया जाता है।
हां, तो उधर जहां रूखे बाल, बड़े पालिश्ड नख, रंगे होंठ थे, तो भरहाथ चूड़ी, बीस तोले का हार, शांतिपुरी साड़ी भी थी।
सामाजिक कार्यों में समाज के सभी स्तर के लोगों में से अभ्यागतों को चुना जाता है। और ये लोग एकत्रित होकर क्या करते हैं ? वह उसको देखकर मुंह बिचकाता है, वह उसको देखकर हंसता है। फिर भी मजे की बात यह है कि दोनों पक्षों की आलोचनाओं को गौर से सुनिए तो पाइएगा उनकी विषयवस्तु प्रायः एक होती है।
मनुष्य की यह प्रकृति आदिकालीन है।
वही आत्मगरिमा और परचर्चा।
जैसे मनुष्य युग-युग से प्रेम करता आया है, वैसे ही यह सब भी। मनुष्य मंगल ग्रह पर पहुंच जाए अथवा चंद्रमा पर सैर करे, यह सब चलेगा। दो आदमी जहां एकत्र हुए नहीं कि यह सब चला।
यह रहेगा।
इसलिए है।
रायकोठी में भी था। उसी की जैसी खेती हो रही थी। फिर क्रमशः हल्का हो गया और फिर रुक गया। एक-एक करके बहुत सारी गाड़ियां चली गईं और बाकी भी जा रही थीं। जो हैं अर्थात् महिलाओं के वाक्-चातुर्य की अंतिम गोष्ठी की समाप्ति की प्रतीक्षा में रुकने को बाध्य हैं, उनके चालक और स्वामिगण बार-बार कलाई उठा-उठाकर घड़ी के कांटे देख रहे हैं।
इस अंतिम किस्त के एक व्यक्ति ने दुःख प्रकट किया--‘‘आखिर संदीप से भेंट नहीं हो सकी।’’
ये प्रदीप के एक दूर के रिश्ते के साढ़ू लगते थे और इत्तफाक से एक ब्याह देने योग्य पुत्री-रत्न पिता होने का गौरव उन्हें प्राप्त था। पत्नी और पुत्री समेत आए थे। इच्छा थी एक बार अपनी सुसज्जिता कन्या को संदीप के दृष्टिपात में रखने का अवसर प्राप्त करते। प्रत्येक कन्यागर्वित पिता की तरह उसकी भी धारणा थी कि एक बार लड़की को किसी प्रकार लड़के की नजर के सामने डालने-भर की देर है, बस।
टाल-टूलकर एक आदमी का वहां और कितनी रात तक रुकना संभव था। हार मानकर विदा हुए वे लोग। कोई भी बाहर का आदमी न रहा। हां, बहनों को भी यदि अभ्यागतों में गिना जाए तो केवल दो परिवार अब रायकोठी में रह गए। संदीप की बड़ी बहन, बड़े दामाद और उनके कन्या-पुत्र, छोटदी और तस्य-तस्य।
प्रदीप से बहने छोटी हैं। इसलिए प्रदीप और संदीप की आयु में इतना अंतर है। अल्प आयु में ही मातृ-पितृहीन हुए छोटे भाई को मां-बाप और भाई तीनों के स्नेह देने की चेष्टा की थी प्रदीप ने, किंतु संदीप के बाल्यकाल से ही प्रदीप को पता चल गया था कि उसे पकड़े रहना असम्भव कार्य है और स्नेह का बंधन भी उसे बाँध सकने में सक्षम नहीं है।
स्नेह, प्रेम, ममता, प्रीति जैसी चीजें संदीप के लिए अत्यंत हास्यकर हो उठती हैं। इसलिए छुटपन से ही वह परिवार के लिए समस्या बना हुआ है। माधुरी लड़की बुरी नहीं है, किंतु यह सच है कि वह संदीप की सगी बहन नहीं है, दूसरे की लड़की है, संदीप की भाभी। बार-बार अस्वीकृत और प्रतिहत होकर वह कितनी दफा अयाचित अभ्यर्थना करती रहेगी ! संदीप से बहुत बड़ी भी नहीं है वह कि उसकी सारी बातों को बचपना कहकर उड़ा दे सकेगी। संदीप जैसे-जैसे बड़ा हुआ वैसे-वैसे ही माधुरी उसके पास से हटती गई है, कठिन होती गई है।
प्रदीप के साथ भी वैसा ही हुआ है।
फिर भी फल्गु नदी के समान बालू के नीचे जो स्नेहधारा प्रवाहित हो रही है, बीच-बीच में वह आत्मप्रकाश किए बिना नहीं रहती है।
किंतु अब और उस स्नेह धारा का अप्रतिहत रहना संभव नहीं दीखता।
भीतर से भी जैसे वह सूखती जा रही है। यह क्या है ? ऐसा क्यों हुआ ? इस तरह की असभ्यता का क्या अर्थ है ?
बड़े जीजा सुरजित आकर बोले—‘‘भाई साहब, हम लोग तो और रुक नहीं पा रहे हैं, बच्चा सो गया है। और बाकी दोनों का स्कूल है।’’
प्रदीप ने थके कंठ से कहा—‘‘अच्छा भाई...।’’
सुरजित जाते-जाते बोले—‘‘समझ में नहीं आ रहा है छोटे को क्या हुआ। घर पहुंचकर एक बार फोन करूंगा। हो सकता है। सचमुच...।’’
चिंता की कोई बात नहीं है। थोड़ी देर बाद आ जायेगा।’’ प्रदीप ने कहा। ‘‘भीड़ कम होने के बाद ही जैसे उसे शांति मिलेगी।’’
बहुत पहले से ही उसके मुख की उज्ज्वलता का लोप हो गया है, शारीरिक क्लांति से नहीं मानसिक थकान से। पिता की बहुत-बहुत याद आ रही है। अपने जनेऊ की भी याद आ रही है। उस दिन भी काफी आदमियों ने भोजन किया था। प्रदीप को ठीक याद है, सभी लोगों के भोजन कर लेने के बाद, यहां तक कि जब नौकर-चाकर भी खा-पीकर चले गए तो रात दो बजे के लगभग पिताजी ने गुहार लगाई थी—‘‘अरे भाई कोई है, अब हमारा खाना ले आओ। हमारे लिए सब चीजें बची हैं न ? भई मैं तो लिस्ट मिलाकर खाऊँगा।’’ इन शब्दों में आह्लाद की कैसी झंकार थी।
काकी और मौसी दौड़कर थाल में सजाकर सब सामान ले आईं। पिताजी ने उस रात कितने संतोष के साथ जमकर खाया। बचपन में प्रदीप कुछ दुर्बल था, इसी कारण पिताजी उसे ‘पिद्दीप मामा’ कहते थे। खाने के बाद उन्होंने पूछा था—‘‘अब ले आओ, देखें पिद्दीप मामा की झोली में क्या-क्या पड़ा है।’’ इसी की प्रतीक्षा में उतनी रात तक जागता रहा था। पिताजी देखेंगे तो सही, उसे कितनी अच्छी-अच्छी चीजें मिली हैं।
पिताजी प्रदीप के लिए देवता के समान थे। उसी पिता को अत्यन्त अल्प आयु में ही संदीप ने खो दिया था, इसी कारण प्रदीप शुरू से ही संदीप के प्रति अतिरक्त स्नेहशील हो उठा था। प्रदीप सोचता, वह पिता की तरह बनेगा। किंतु चाहने मात्र से कोई बात हो सकती है क्या ? समय बदल गया और अब पिताजी की तरह बनना क्या संभव होगा ?
खैर, तो उस दिन उसने अपनी भिक्षा की झोली पिताजी के सामने लाकर उलट दी थी। आजकल की तरह उस समय जनेऊ में उपहार देने का रिवाज इतना प्रचलित नहीं हुआ था। प्रदीप को ठीक याद है, उसने बहुत-से रुपये ही पाये थे, कोई और वस्तु अधिक नहीं थी। आजकल की तरह कागज के रुपये नहीं चांदी के थे। वे रुपये भिक्षा के चावल में मिल गए थे।
मौसीजी बार-बार चावल में हाथ डालकर रुपये निकालती थीं। रुपये के अतिरिक्त उसने दो-चार ही चीजें पाई थीं। प्रदीप की मौसी ने उसे एक चटक लाल पेलिकन कमल दी थी। और दादाजी ने एक हाथघड़ी। नौ साल का लड़का घड़ी लेकर भला क्या करेगा, इस बात पर सभी लोग हंसे थे। किंतु यह किसी ने नहीं सोचा कि नौ बरस का लड़का तीन-चार जोड़े सोने के बटन या एक मुट्ठी अंगूठी ही लेकर क्या करेगा, क्योंकि यह देने की प्रथा थी उन दिनों।
पिताजी देखकर कितने खुश हुए थे। जैसे सचमुच लड़का बहुत बड़े ऐश्वर्य का स्वामी हो गया है। फिर पिताजी ने प्रदीप के सिर पर हाथ रखकर कहा था—‘‘प्रदीप इतने दिन तक तुम ब्राह्मण के लड़के थे, आज से तुम स्वयं ब्राह्मण हो गए। समझे न ! ब्राह्मण माने तो बहुत कुछ होता है। वह सब समझना होगा, सीखना होगा। मैं आशीर्वाद देता हूं कि तुम वास्तविक ब्राह्मण बनो।’’
पिताजी का आशीर्वाद पत्थर पर बीज रोपना था या और कुछ किंतु वह तो अपने बच्चे को ऐसा आशीर्वाद नहीं दे पाएगा। यदि आशीर्वाद दे भी तो कहेगा—‘‘सुखी होओ, स्वस्थ रहो, विद्वान बनो,’’ और क्या कहेगा वह ?
जनेऊ प्रथापालन के लिए उतना नहीं आयोजित किया गया था जितना घर में एक विराट् आयोजन कर पाने के सुयोग के लिए। एक बड़ा काम घर में हो इसी इच्छा के वशीभूत होकर, इसी उत्साह को लेकर वह इस काम में आगे बढ़ा था। इसके अलावा यह भी डर था कि कहीं थोड़ा और बड़ा होने पर लड़का कह दे मैं जनेऊ नहीं कराऊंगा। जैसे संदीप ने कह दिया था।
पिताजी की आकस्मिक मृत्यु के कारण उसका जनेऊ उपयुक्त समय से न हो सका। जब वह सोलह साल का हुआ तो जनेऊ की बात पर उसने साफ कर दिया कि वह जनेऊ नहीं करेगा। बहुत समझाने-बुझाने के बाद और वादा करने के बाद कि उसने दंडी घर में नहीं रहना होगा, मुंडन कराने की भी कोई जरूरत नहीं है, उसे गंगाजल में डुबाकर शीघ्रता से यज्ञोपवीत पहना दिया गया। किंतु कुछ दिन बाद एक दिन वह सूतों का गुच्छा कमीज के साथ गले से निकलकर धोबी के यहां चला गया था, उसके यहां से लौटकर ही नहीं आया, इसी डर से उज्ज्वलकी बारी आने पर समय रहते वह काम निपटा लेने की बात सोची गई, सब कुछ बड़ा सुन्दर हुआ। किंतु घर के ही एक लड़के ने व्यर्थ अहंकार के वशीभूत होकर एक ऐसा काम किया कि सब मिट्टी हो गया।
शाम को अभ्यागतों का स्वागत करते समय प्रदीप का मुख आनंद से उज्ज्वल हो उठा था। किंतु ज्यों-ज्यों रात होती गई उसका मुख निष्प्रभ होता गया। लोगों ने समझा थकान है।
प्रतापराय काफी दिन पूर्व ही दिवंगत हो चुके हैं, फिर भी इस मकान को लोग अभी ‘प्रतापराय की कोठी’ कहकर ही पुकारते हैं। संभवतः कोठी के वर्तमान मालिकों ने उपर्युक्त नाम को लोगों की स्मृति से पोंछ डालने का कोई प्रयास नहीं किया है, इसी कारण लोगों का पुराना अभ्यास बरकरार है।
अवश्य ही वर्तमान स्वामित्व दो व्यक्तियों में बंटा हुआ है। प्रदीपराय और उनका अविवाहित छोटा भाई संदीपराय। प्रतापराय के दो बच्चे हैं।
प्रदीपराय की उम्र चालीस पार होने को है और खोजने पर उनकी कनपटियों के एकाध बाल रुपहले भी मिल जाएंगे। सिर को गौर से देखने पर गंजेपन का आभास मिलता है, फिर भी सबल, स्वस्थ, दीर्घ देहयष्टि उन्हें राजकीय गौरव से युक्त करके उनके व्यक्तित्व को बहुतों से अधिक प्रभावशाली बना देती है। प्रदीप चेहरे-मोहरे से अपने बाप पर गये हैं। पिता प्रतापराय साठ वर्ष की अवस्था में सीधी, सतेज देह लेकर स्वर्गवासी हुए थे।
संदीप और तरह का है।
संदीप अपनी मां की तरह कोमल और ठिगने कद-काठी का है। मुख का लावण्य और ठुड्डी का सौकुमार्य भी बार-बार उसकी मां की ही याद दिलाता है। आकृति मां की तरह किंतु प्रकृति भी मां की ही तरह है क्या ?
वह मां की तरह ममतामय है अथवा बाप की तरह दृढ़निश्चयी ? प्रतापराय देखने में कोमल थे, किंतु उनके भीतर का आदमी इस्पात का था। संदीप क्या वैसे ही है ? तुलना करके देखने का कोई रास्ता नहीं है, क्योंकि पिता प्रतापराय और माता कल्पना दोनों ही व्यक्ति इस समय चित्र बनकर दीवार पर झूल रहे हैं। चारों सन्तानें (दो लड़के दो लड़कियों) में से सबसे छोटे संदीप के प्रकृति-निर्माण के पूर्व ही उन्हें दीवार पर चित्र बनकर झूल जाना पड़ा।
तो भी संदीप की प्रकृति का जब निर्माण हुआ तो देखा गया कि उसमें पिता-माता दोनों की प्रकृतियों का समावेश था। वही दोनों प्रकृतियां जैसे विपरीत शक्तियों के समान उसकी व्यक्ति सत्ता पर धूप और छाया की तरह बारी-बारी से हावी होती रहती हैं। और संदीप अपनी उस सत्ता का ज्ञानोन्मेष के समय से ही बड़ी निष्ठा के साथ लालन-पालन करता आया है।
कौन जाने किस दैवी शक्ति ने बचपने से संदीप के माथे पर सबसे भिन्न, सबसे पृथक् होने का टीका लगा दिया था, इस कुल की परिपाटी से सर्वथा भिन्न।
किसने कहा यह नहीं मालूम पर किसी अदृश्य शक्ति का आदेश संदीप अपने बाल्यकाल से ही मानता आया है।
इसी कारण संदीप इस सुख शांतिमय राय परिवार में अशांति का स्फुलिंग और उस निरुपद्रव कोठी में नीरव उत्पात-सा है।
‘प्रतापराय की कोठी’ का एक अभिजातीय इतिहास रहा है। ब़ड़े लड़के प्रदीपराय ने उसकी रक्षा बड़े यत्न और अपने स्वभाव की महत्ता से की थी। प्रदीपराय की जाति-बिरादरी में इस समय नौ बरस के लड़के का यज्ञोपवीत कराते किसी को नहीं देखा जाता, कोई अपनी मर्जी के अनुसार करता है, कोई सीधे लड़के की शादी के समय एक ही नांदीपाठ में दोनों चालू कर देता है। किंतु प्रदीप ने अपने कुल की प्रथा को बचा रखा था। नौ बरस के बच्चे का यज्ञोपवीत किया था।
आज का उत्सव उसी के उपलक्ष्य में था।
लड़का उज्ज्वलदीप कल ‘दंडी घर’ से निकला है, आज भोज है। जैसा प्रचुर आयोजन है वैसी ही मनोहारी अतिथेयता भी है। सभी आड़ में कह रहे थे—‘‘एकदम बाप की तरह है’’ अथवा—‘‘आजकल इतना कौन करता है ? पैसा होने पर भी हिम्मत नहीं पड़ती। केवल धन होने से ही तो बात नहीं चलती, मन भी तो वैसा ही होना चाहिए’’—इत्यादि-इत्यादि।
निश्चय ही इस प्रकार की बातें वे लोग ही कह रहे थे जो वयस्क और आत्मीय थे जिन्होंने प्रतापराय के समय में आना-जाना और खाना-पीना किया था।
जो नए हैं अर्थात् जो प्रदीप के मित्र अथवा ऑफिस के लोग हैं, वे तो एकदम चकित हैं। तामझाम के लिए नहीं, सौजन्य के लिए। प्रदीप ने केवल आमंत्रितों का ही आदर-सम्मान किया यह बात भी नहीं है। कोठी से निकलकर प्रत्येक गाड़ी के ड्राइवर से स्वयं जाकर पूछा कि उसका भोजन हुआ या नहीं।
माधुरी ने कहा था—‘‘नीचे तल्ले में मेज लगाकर उन सभी को एक साथ बैठाकर खिला देने से भी तो बात वही होती।’’ किंतु प्रदीप उस बात में राजी नहीं हुआ था। कहा था उसने—‘‘यह कैसे होगा ? वे भी तो अच्छे घरों के लड़के हैं, उनका कोई आत्मसम्मान नहीं है क्या ? केवल निमन्त्रण पत्र ही तो उन्हें नहीं मिला है। खाने-पीने की चीजें किसी के घर अनायास घूमने आने पर भी खा ली जाती हैं।
एक प्रसिद्ध मिष्टान्नगृह से प्रदीप ने मिठाइयों का इंतजाम किया था। चार-पांच तरह की मिठाइयां और उसके साथ घर की बनी चाय और फ्राई की हुई चीजें। प्रदीप हर आदमी के पास जा-जाकर पूछ रहा था कि उन्होंने मुँह मीठा किया या नहीं ? ‘‘बच्चे को आशीर्वाद दीजिए।’’ इत्यादि।
प्रतापराय के पिता प्रभासराय अपने निज के तथा आत्मीय कुटुंबी, यहां तक कि पास-पड़ोस के घरों के नौकरों को बुलाकर बड़ आदर से खिलाते और तब तक स्वयं सामने खड़े रहते हैं जब तक कि वह आदमी ना न कर दे। वे कहते—‘‘खाओ भैया, खाओ, अच्छी तरह पेट भर कर खा लो। तुम्हीं लोगों के मुख से भगवान का भोजन होता है।’’ राय परिवार की यह परंपरा रही है कि धनी-गरीब सभी को बड़े यत्न से खिलाते-पिलाते किंतु इस जमाने में यह चीज दुर्लभ है, इसीलिए प्रदीप की नम्रता और सदाशयता से सभी लोग चकित हैं और उसकी प्रशंसा कर रहे हैं।
किंतु इधर जितना भी पूर्ण सब काम वह कर रहा है और आनंदित हो रहा है। उधर एक अपूर्णता भी उसके मन को सताती है। विशेषकर समारोह के अंत के समय।
घर में इतना बड़ा एक आयोजन हो रहा है और आज सवेरे से ही संदीप का कहीं पता नहीं है। खूब सवेरे बहन और भाभी के अनुरोध पर उसने घर में बनी कुछ मिठाइयां मुंह में डाली थीं। और शायद उसी समय उसने दोपहर के अपने खाने के लिए मना कर दिया था। कहा था—‘‘बस, अब इस वेला के लिए निश्चिंत। और किसी चीज की जरूरत नहीं है। अतएव श्रीमान् संदीपराय फकत आज-भर के लिए गायब हो सकते हैं।’’
किंतु यह बात सच हो सकती है अथवा उस बात को मानने योग्य बातों की श्रेणी में रखना होगा, ऐसा तो किसी ने सोचा तक नहीं था। इस परिवार का लड़का क्या इतना बेहया हो सकता है।
यह जो आयोजन हो रहा है उसके लिए तो उसने अपनी कानी उंगली तक नहीं हिलाई होगी। प्रदीप और उसके कार्यालय के कुछ साथियों ने सारा काम किया है। छोटदी ने बल्कि एक बार कहा भी—‘‘क्यों रे तेरी आँखों का पानी क्या एकदम मर गया है ? तू क्या घर का एक भी काम नहीं करेगा ? बड़े भाई का हाथ बंटाने में तुझे क्या मुश्किल गुजरती है ?’’
संदीप ने हँसकर कहा था हमारे ऊपर भरोसा ही कौन करता है ?’’
‘‘भरोसा ? किस बात का भरोसा रखा जाए तुझ पर ? तू कोई काम करता भी है ? क्यों, क्यों तेरे मुंह से नहीं निकलता—भैया, बताओ, कोई काम-वाम हो तो करूं। नहीं तो...।’’
‘‘अरे रुको न छोटदी, समुद्र पर पुल बांधने के काम में मैं गिलहरी की भूमिका नहीं निभाना चाहता।’’
‘‘तो फिर वीर हनुमान की भूमिका लेने से ही तुझे किसने मना किया था ? बड़ा हो गया है, भैया का दाहिना हाथ बनने लायक हो गया है।’’
‘‘गजब की बात करती हो दीदी, जिसके दोनों कंधों के नीचे दो-दो मजबूत हाथ साक्षात झूल रहे हों उसका दाहिना हाथ ! कमाल है, क्या तुम उस भले आदमी को तीन पैरों वाले बैल के समान तमाशा बनाना चाहती हो ? क्या उसके जैसा तेजस्वी व्यक्ति एक उसी तीसरे हाथ के भरोसे इतना बड़ा आयोजन कर रहा है ?’’
छोटदी नाराज होकर बोली—‘‘तो क्या तू घर को अपना घर नहीं समझेगा ?’’
‘‘यह लो, घर को घर नहीं समझता तो क्या मैदान समझता हूँ ? घर समझता हूँ, इसीलिए तो जब इच्छा होती है निकल पड़ता हूं, जब इच्छा होती है लौटता हूं, और फिर हाथ के पास भोजन देखकर एकदम कुंठित नहीं होता, मजे में हाथ बढ़ाकर मुंह में रखता जाता हूं।’’
‘‘चुप ही रहना। खाने की बात मुंह पर लाना भर मत। जो खाता है वह मेरा जाना हुआ है। ससुराल में हूं तो क्या तू समझता है कुछ घर की खबर नहीं रखती हूं ? भाभी सदा दुःखी रहती हैं कि तू कोई भी चीज कभी खाता ही नहीं है। मैंने सुना है तू कहता है—अच्छा भोजन तेरे अन्दर एलर्जी पैदा करता है ?’’
‘‘कोई झूठ कहता हूँ ? रत्ती भर भी नहीं। सच, दीदी, तुम लोगों के उन ‘सुंदर’ से विभूषित पदार्थों के प्रति मुझे एलर्जी है, शायद यही कारण है मैं तुम लोगों की आशा के अनुरूप न बन सका।’’
‘‘वह तो देख ही रही हूं। सोचा था अपनी ननद के साथ तेरे विवाह की चेष्टा करूंगी मगर...।’’
‘‘बाप रे ! जान बची। और दीदी, तुमने अपने उस शुभ विचार को कार्यरूप में नहीं परिणत किया इसके लिए तुम्हें अशेष धन्यवाद।’’
‘‘क्यों, क्या हमारी ननद इतनी सस्ती है ?’’ नाराज होकर दीदी ने पूछा थी—‘‘बदसूरत है या अयोग्य है ?’’
‘‘नहीं, बात ठीक इसकी उल्टी है। मैं तो कहना चाहता था कि अच्छा हुआ उस विदुषी, सुंदरी एवं महामूल्य वाली वस्तु को लेने के लिए मुझ जैसे तीन कौड़ी के आदमी को लेकर बाजार में नहीं जा खड़ी हुईं, इसलिए धन्यवाद।’’
‘‘मगर इस कारण तुझे अपने को इतना छोटा सोचने की भी जरूरत नहीं है। बाबूजी की आधी जायदाद का तो तू मालिक है ही। इतनी बड़ी कोठी....।’’
‘‘देखो छोटदी, अब तुम बड़ी सीरियस हुई जा रही हो, मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा। तुम नहीं जानती हो, मुझे सीरियस बातों के प्रति भी एलर्जी है।’’
इस पर छोटदी बहुत गुस्सा होकर उसके पास से उठ गई थीं। मगर ये सब बातें तो कई दिन आगे की हैं, जब प्रणति आई थी, अपने भतीजे के जनेऊ-संस्कार के आयोजन-पूर्व की पहली मीटिंग में।
वह सब तो ठीक है।
किंतु आज के दिन संदीप का यह क्या व्यवहार है ?
जाते-जाते प्रायः सभी अभ्यागत पूछ रहे हैं—‘‘भाई को नहीं देख रहे हैं ?’’ निकट संबंध की महिलाएं अलोचना की झोंक में पंचमुखी हो रही हैं। कोई इस पक्ष में, कोई उस पक्ष में। जो प्रदीप के सौजन्य को चालाकी, विनय को दिखावा, आयोजन की चतुरता को आडंबर बता रहे हैं, वे कह रहे हैं—‘‘वह तो ऐसे ही करता है, यह कह कर ही क्या निश्चिंत हुआ जा सकता है ? चिंता नहीं होती ? शायद बेचारे ने सारा दिन कुछ खाया ही नहीं। ताज्जुब है ! तिलमात्र किसी के चेहरे पर शिकन नहीं है। कलकत्ते में राह घाट में कितनी भीड़ होती है। ऐक्सीडेंट भी तो हो सकता है; मां-बाप होते तो क्या इस तरह निश्चिंत रह सकते थे ?’’
जरूर ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है।
अधिकांश लोग संदीप की निंदा कर रहे हैं। ऐसे लापरवाह और माया-ममता से हीन लड़के ही तो घर-घर में हैं, यह बात भी लोग कह रहे हैं। वे यह भी मीमांसा कर रहे हैं कि ये कलयुगी लड़के क्यों अपने घर को अपना नहीं समझ पा रहे हैं। इन मीमांसकों में रथी भी हैं और पैदल भी, डेक्रान भी है और अद्धी की साड़ियां भी, गोल्ड-फ्लेक भी हैं और चारमीनार भी।
और उधर-मतलब अंदर की बात नहीं कह रहा हूं। अंदर, अंतःपुर आदि आज समाप्त हो गए हैं। संभ्रांत घरों में तो और भी नहीं। सवाल ही नहीं उठता। किंतु शायद जातिभेद विधाता की सृष्टि है, इसीलिए साज-सज्जा, बोलचाल में फर्क पाया जाता है।
हां, तो उधर जहां रूखे बाल, बड़े पालिश्ड नख, रंगे होंठ थे, तो भरहाथ चूड़ी, बीस तोले का हार, शांतिपुरी साड़ी भी थी।
सामाजिक कार्यों में समाज के सभी स्तर के लोगों में से अभ्यागतों को चुना जाता है। और ये लोग एकत्रित होकर क्या करते हैं ? वह उसको देखकर मुंह बिचकाता है, वह उसको देखकर हंसता है। फिर भी मजे की बात यह है कि दोनों पक्षों की आलोचनाओं को गौर से सुनिए तो पाइएगा उनकी विषयवस्तु प्रायः एक होती है।
मनुष्य की यह प्रकृति आदिकालीन है।
वही आत्मगरिमा और परचर्चा।
जैसे मनुष्य युग-युग से प्रेम करता आया है, वैसे ही यह सब भी। मनुष्य मंगल ग्रह पर पहुंच जाए अथवा चंद्रमा पर सैर करे, यह सब चलेगा। दो आदमी जहां एकत्र हुए नहीं कि यह सब चला।
यह रहेगा।
इसलिए है।
रायकोठी में भी था। उसी की जैसी खेती हो रही थी। फिर क्रमशः हल्का हो गया और फिर रुक गया। एक-एक करके बहुत सारी गाड़ियां चली गईं और बाकी भी जा रही थीं। जो हैं अर्थात् महिलाओं के वाक्-चातुर्य की अंतिम गोष्ठी की समाप्ति की प्रतीक्षा में रुकने को बाध्य हैं, उनके चालक और स्वामिगण बार-बार कलाई उठा-उठाकर घड़ी के कांटे देख रहे हैं।
इस अंतिम किस्त के एक व्यक्ति ने दुःख प्रकट किया--‘‘आखिर संदीप से भेंट नहीं हो सकी।’’
ये प्रदीप के एक दूर के रिश्ते के साढ़ू लगते थे और इत्तफाक से एक ब्याह देने योग्य पुत्री-रत्न पिता होने का गौरव उन्हें प्राप्त था। पत्नी और पुत्री समेत आए थे। इच्छा थी एक बार अपनी सुसज्जिता कन्या को संदीप के दृष्टिपात में रखने का अवसर प्राप्त करते। प्रत्येक कन्यागर्वित पिता की तरह उसकी भी धारणा थी कि एक बार लड़की को किसी प्रकार लड़के की नजर के सामने डालने-भर की देर है, बस।
टाल-टूलकर एक आदमी का वहां और कितनी रात तक रुकना संभव था। हार मानकर विदा हुए वे लोग। कोई भी बाहर का आदमी न रहा। हां, बहनों को भी यदि अभ्यागतों में गिना जाए तो केवल दो परिवार अब रायकोठी में रह गए। संदीप की बड़ी बहन, बड़े दामाद और उनके कन्या-पुत्र, छोटदी और तस्य-तस्य।
प्रदीप से बहने छोटी हैं। इसलिए प्रदीप और संदीप की आयु में इतना अंतर है। अल्प आयु में ही मातृ-पितृहीन हुए छोटे भाई को मां-बाप और भाई तीनों के स्नेह देने की चेष्टा की थी प्रदीप ने, किंतु संदीप के बाल्यकाल से ही प्रदीप को पता चल गया था कि उसे पकड़े रहना असम्भव कार्य है और स्नेह का बंधन भी उसे बाँध सकने में सक्षम नहीं है।
स्नेह, प्रेम, ममता, प्रीति जैसी चीजें संदीप के लिए अत्यंत हास्यकर हो उठती हैं। इसलिए छुटपन से ही वह परिवार के लिए समस्या बना हुआ है। माधुरी लड़की बुरी नहीं है, किंतु यह सच है कि वह संदीप की सगी बहन नहीं है, दूसरे की लड़की है, संदीप की भाभी। बार-बार अस्वीकृत और प्रतिहत होकर वह कितनी दफा अयाचित अभ्यर्थना करती रहेगी ! संदीप से बहुत बड़ी भी नहीं है वह कि उसकी सारी बातों को बचपना कहकर उड़ा दे सकेगी। संदीप जैसे-जैसे बड़ा हुआ वैसे-वैसे ही माधुरी उसके पास से हटती गई है, कठिन होती गई है।
प्रदीप के साथ भी वैसा ही हुआ है।
फिर भी फल्गु नदी के समान बालू के नीचे जो स्नेहधारा प्रवाहित हो रही है, बीच-बीच में वह आत्मप्रकाश किए बिना नहीं रहती है।
किंतु अब और उस स्नेह धारा का अप्रतिहत रहना संभव नहीं दीखता।
भीतर से भी जैसे वह सूखती जा रही है। यह क्या है ? ऐसा क्यों हुआ ? इस तरह की असभ्यता का क्या अर्थ है ?
बड़े जीजा सुरजित आकर बोले—‘‘भाई साहब, हम लोग तो और रुक नहीं पा रहे हैं, बच्चा सो गया है। और बाकी दोनों का स्कूल है।’’
प्रदीप ने थके कंठ से कहा—‘‘अच्छा भाई...।’’
सुरजित जाते-जाते बोले—‘‘समझ में नहीं आ रहा है छोटे को क्या हुआ। घर पहुंचकर एक बार फोन करूंगा। हो सकता है। सचमुच...।’’
चिंता की कोई बात नहीं है। थोड़ी देर बाद आ जायेगा।’’ प्रदीप ने कहा। ‘‘भीड़ कम होने के बाद ही जैसे उसे शांति मिलेगी।’’
बहुत पहले से ही उसके मुख की उज्ज्वलता का लोप हो गया है, शारीरिक क्लांति से नहीं मानसिक थकान से। पिता की बहुत-बहुत याद आ रही है। अपने जनेऊ की भी याद आ रही है। उस दिन भी काफी आदमियों ने भोजन किया था। प्रदीप को ठीक याद है, सभी लोगों के भोजन कर लेने के बाद, यहां तक कि जब नौकर-चाकर भी खा-पीकर चले गए तो रात दो बजे के लगभग पिताजी ने गुहार लगाई थी—‘‘अरे भाई कोई है, अब हमारा खाना ले आओ। हमारे लिए सब चीजें बची हैं न ? भई मैं तो लिस्ट मिलाकर खाऊँगा।’’ इन शब्दों में आह्लाद की कैसी झंकार थी।
काकी और मौसी दौड़कर थाल में सजाकर सब सामान ले आईं। पिताजी ने उस रात कितने संतोष के साथ जमकर खाया। बचपन में प्रदीप कुछ दुर्बल था, इसी कारण पिताजी उसे ‘पिद्दीप मामा’ कहते थे। खाने के बाद उन्होंने पूछा था—‘‘अब ले आओ, देखें पिद्दीप मामा की झोली में क्या-क्या पड़ा है।’’ इसी की प्रतीक्षा में उतनी रात तक जागता रहा था। पिताजी देखेंगे तो सही, उसे कितनी अच्छी-अच्छी चीजें मिली हैं।
पिताजी प्रदीप के लिए देवता के समान थे। उसी पिता को अत्यन्त अल्प आयु में ही संदीप ने खो दिया था, इसी कारण प्रदीप शुरू से ही संदीप के प्रति अतिरक्त स्नेहशील हो उठा था। प्रदीप सोचता, वह पिता की तरह बनेगा। किंतु चाहने मात्र से कोई बात हो सकती है क्या ? समय बदल गया और अब पिताजी की तरह बनना क्या संभव होगा ?
खैर, तो उस दिन उसने अपनी भिक्षा की झोली पिताजी के सामने लाकर उलट दी थी। आजकल की तरह उस समय जनेऊ में उपहार देने का रिवाज इतना प्रचलित नहीं हुआ था। प्रदीप को ठीक याद है, उसने बहुत-से रुपये ही पाये थे, कोई और वस्तु अधिक नहीं थी। आजकल की तरह कागज के रुपये नहीं चांदी के थे। वे रुपये भिक्षा के चावल में मिल गए थे।
मौसीजी बार-बार चावल में हाथ डालकर रुपये निकालती थीं। रुपये के अतिरिक्त उसने दो-चार ही चीजें पाई थीं। प्रदीप की मौसी ने उसे एक चटक लाल पेलिकन कमल दी थी। और दादाजी ने एक हाथघड़ी। नौ साल का लड़का घड़ी लेकर भला क्या करेगा, इस बात पर सभी लोग हंसे थे। किंतु यह किसी ने नहीं सोचा कि नौ बरस का लड़का तीन-चार जोड़े सोने के बटन या एक मुट्ठी अंगूठी ही लेकर क्या करेगा, क्योंकि यह देने की प्रथा थी उन दिनों।
पिताजी देखकर कितने खुश हुए थे। जैसे सचमुच लड़का बहुत बड़े ऐश्वर्य का स्वामी हो गया है। फिर पिताजी ने प्रदीप के सिर पर हाथ रखकर कहा था—‘‘प्रदीप इतने दिन तक तुम ब्राह्मण के लड़के थे, आज से तुम स्वयं ब्राह्मण हो गए। समझे न ! ब्राह्मण माने तो बहुत कुछ होता है। वह सब समझना होगा, सीखना होगा। मैं आशीर्वाद देता हूं कि तुम वास्तविक ब्राह्मण बनो।’’
पिताजी का आशीर्वाद पत्थर पर बीज रोपना था या और कुछ किंतु वह तो अपने बच्चे को ऐसा आशीर्वाद नहीं दे पाएगा। यदि आशीर्वाद दे भी तो कहेगा—‘‘सुखी होओ, स्वस्थ रहो, विद्वान बनो,’’ और क्या कहेगा वह ?
जनेऊ प्रथापालन के लिए उतना नहीं आयोजित किया गया था जितना घर में एक विराट् आयोजन कर पाने के सुयोग के लिए। एक बड़ा काम घर में हो इसी इच्छा के वशीभूत होकर, इसी उत्साह को लेकर वह इस काम में आगे बढ़ा था। इसके अलावा यह भी डर था कि कहीं थोड़ा और बड़ा होने पर लड़का कह दे मैं जनेऊ नहीं कराऊंगा। जैसे संदीप ने कह दिया था।
पिताजी की आकस्मिक मृत्यु के कारण उसका जनेऊ उपयुक्त समय से न हो सका। जब वह सोलह साल का हुआ तो जनेऊ की बात पर उसने साफ कर दिया कि वह जनेऊ नहीं करेगा। बहुत समझाने-बुझाने के बाद और वादा करने के बाद कि उसने दंडी घर में नहीं रहना होगा, मुंडन कराने की भी कोई जरूरत नहीं है, उसे गंगाजल में डुबाकर शीघ्रता से यज्ञोपवीत पहना दिया गया। किंतु कुछ दिन बाद एक दिन वह सूतों का गुच्छा कमीज के साथ गले से निकलकर धोबी के यहां चला गया था, उसके यहां से लौटकर ही नहीं आया, इसी डर से उज्ज्वलकी बारी आने पर समय रहते वह काम निपटा लेने की बात सोची गई, सब कुछ बड़ा सुन्दर हुआ। किंतु घर के ही एक लड़के ने व्यर्थ अहंकार के वशीभूत होकर एक ऐसा काम किया कि सब मिट्टी हो गया।
शाम को अभ्यागतों का स्वागत करते समय प्रदीप का मुख आनंद से उज्ज्वल हो उठा था। किंतु ज्यों-ज्यों रात होती गई उसका मुख निष्प्रभ होता गया। लोगों ने समझा थकान है।
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