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हास्य-व्यंग्य >> बंदे आगे भी देख

बंदे आगे भी देख

रामदेव धुरंधर

प्रकाशक : झारीसन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :230
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5837
आईएसबीएन :81-8099-045-1

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प्रस्तुत है रोचक व्यंग्य

Bande Aage Bhi Dekh a hindi book by Ramdev Dhurandhar - बंदे आगे भी देख - रामदेव धुरंधर

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पूर्व कथन

मोरिशस के हिन्दी साहित्यकारों को व्यंग्य लेखक बनने की सनक पालनी नहीं चाहिये। मैंने पाल ली तो पाल ली, अतः वाहवाही मेरी, धुनाई भी मेरी। आप साहित्यकार जहाँ हैं, वहीं जमे रहिये। कविता का बाज़ार मंद पड़ा हुआ है, सिर पर मार कर फाटक तोड़िये ताकि कविता सदाबहार लूट सके। प्रेम कहानी लिखने वाले पता नहीं कहाँ खोये हुए हैं। कहानी न होती हो प्रेम की भाषा कौन बोलेगा ? भुक्कड़ गली अथवा सभा सोसाइटी में प्रेम-प्रेम तो रटा जा रहा है, लेकिन प्रेम कहानी के अभाव में प्रेम ही सुन्न है। नाटक का भी हाल यही है, नाटक के नाम पर घात गतिमान है और नाटक नदारद ही नदारह है।

मेरे देश के सच्चे-सच्चे और दूध के धुले साहित्यकारों को अपने पाँव फैलाने के लिए (व्यंग्य छोड़कर) यदि साहित्य की ज़मीन कम लगे तो काम और भी तमाम हैं, अतः अपने को नाकाम मानने की गलती न करें। भई, साधु बन लें और यह मात्र दाढ़ी रख लेने से अपने आप ही हो जायेगा। दाढ़ी जहाँ भी हो, लेकिन साधुपन पहले पाँव के अंगूठे में झिलमिलायेगा, तद्पश्चात् जाँघों से होते हुये सिर के बालों में चमत्कृत होता दिखाई देने लगेगा। फिर भी साधु बनने में लज्जा आये तो निर्लज्ज प्रमाणित होने के लिये राजनेता बनना सहज होता है, अतः इसके लिये केवल ‘हाँ’ कहें और ‘ना’ को पेट के किसी कोने में दुबके रहने के लिए छोड़ दें। राजनेता बनने के लिए पहला काम इतना ही होता है कि वोट के लिए जीभ को लप-लुप करना सिखा दें और राजनीति के अगले महायज्ञ में निश्चित मान लें कि जनता को जूते बनाकर अपने पाँवों में ठूँसे रहना है। इतने से ही हो जायेंगे तगड़े नितंब के महा राजनेता ! फिर भी; साधु न बनें, और राजनेता बनने में शरम आये तो बेशरमी के और भी द्वार लाख-लाख खुले हैं। मसलन, अब पेशाब की कला में माहिर बनाने के लिए ट्रेनिंग दी जाती है। एक आँख की कोर कैसे हिलायें, कैसे सूँघें, कैसे देखें, दिल कैसे धड़कायें, अंग-प्रत्यंग कैसे झुलायें, लड़की कैसे पटायें, सब ट्रेनिंग के अधीन हो गया है। इसमें जब पैसा ही पैसा है तो आश्चर्य कि लोग लेखक बनने में क्यों मज़ा लेते हैं।

यह तो घर का आटा गीला करने और सोना-जागना फीका करने का महारोग है। सच पूछें तो लेखन के मामले में धूल-धक्कड़ और भी है। ट्रेनिंग की सनक यहाँ भी है, लेकिन प्रतिफल में सुखद सनक की गुंजाइश कम है। दिल धड़काने के लिए ट्रेनिंग लें और सफल हो जायें तो संतोष करेंगे कि पहाड़ तोड़ कर चुहिया नहीं, बल्कि हाथी निकाला। परंतु मोरिशसीय हिन्दी में एक रोड़ा यह भी देखा गया है कि भारत में तगड़ा पैसा देकर लेखन के मामले में ट्रेनिंग तो ली, लेकिन अपने मोरिशस बने तो लंगड़ा लेखक। परिचय में लिखा कि भूतल के स्वर्ग ‘भारत’ से स्वर्ग कॉलेज अथवा राम राज्य संस्था से लेखन की ट्रेनिंग में स्वर्ण पदक हासिल। परिचय जब इतना बड़ा तो मेरी निश्छल कामना जरूर यह होना चाहिये कि लेखन सड़ा-सड़ा नज़र न आये।

मोरिशस की हिन्दी की बगिया अब काँटों से लदी हुई है। देखने वाले अंधे और सुनने वाले बहरे हों तो उनके लिए मोरिशसीय हिन्दी एक सुखद परिस्थिति का नाम हो सकती है और यह क्षम्य हो सकता है। क्योंकि यह अंधे और बहरे की मीमांसा है। जबकि अंदरूनी हालत यह है कि दीमक से पाला पड़ा है। वोट का मामला होने से हिन्दी भी एक मामला है। पता नहीं, विश्व हिन्दी सचिवालय मोरिशस में स्थापित होने से कौन-सा मामला हाथ लगे !
खैर, बातें बहुत हैं मैं मानता हूँ कि मेरी इस पुस्तक की यह छोटी-सी भूमिका उन सारी बातों को थामने के लिए बहुत छोटी है। फिलहाल, अपने देश के हिन्दी लेखकों से मेरी चुहलबाज़ी इतनी है कि मुझे व्यंग्य लेखक की शुभकामना दें और स्वयं जो लिखें मेरी दुआ उनके साथ है। रहे भारत के पाठक, वे भारत में हमारे लिए थोड़ी जगह अवश्य छोड़ें ताकि घुसपैठिये बनकर हम अपने कुछेक हिन्दी पाठक पा सकें।

रामदेव धुरंधर

पुरोवाक्


रामदेव धुरंधर विश्व हिन्दी के समकालीन कथा लेखकों में अग्रणी रचनाकार हैं। उनकी कहानियों का प्रकाशन हिन्दी की लोकप्रिय पत्रिकाओं में जब आरम्भ हुआ तब अनेक लोग इस तथ्य से परिचित नहीं थे कि वे भारतेतर लेखक हैं। स्पष्ट है उनकी भाषा में जैसी संप्रेष्य गुणधर्मिता मौजूद है जिसके चलते यह कहना कठिन था कि उनमें हिन्दीतर भाषा विन्यास का कोई अलगाव रखने वाला पक्ष है। भाषा के प्रति यह सजगता पात्रानुरूप भाषागत विशेषता उपजाने वाले लेखक की ही हो सकती है क्योंकि इससे अनेक प्रकार के भाषाई व्यवहार के गुणों को यथावसर पर प्रयोग करने की सुविधा हासिल होती है। रामदेव धुरंधर इस अर्थ में अच्छी, गुणानुरूप भाषा के अद्भूत प्रयोगकर्ता भी हैं। उनकी आरम्भिक कहानियों ने रचनाकारों और आलोचकों का ध्यान केवल इसलिए नहीं आकर्षित किया कि उनके नाम के साध ‘‘धुरंधर’’ जैसा विशेषण जुड़ा था बल्कि उनके नामानुकूल उनकी धाक से उस संज्ञा के प्रति विश्वास जागा जिसे भाषागत प्रकरण में हम विशेषण मानते हैं किंतु वह एक संज्ञा के रूप में ही बाद के वर्षो में लोकप्रियता के शिखरों तक आकृष्ट करती रही।

एक प्रयोगधर्मी कथाकार के रूप में उन्होंने मोरिशस की जटिल सामाजिक स्थितियों को, एक ऐसे नए बनते समाज की रचना-रूपाकृति को सृजनात्मक कार्य में अन्वेषित किया जो एक बहुभाषी, बहुजातीय आधुनिक समाज में रूपायित हो रहा था। भारतीय पाठकों को एक साथ भारतीय संस्कृति के मूलबद्ध भारतीय केन्द्र की सूचनाएँ मिलीं और एक आधुनिक प्रजातन्त्रीय समाज में उन नए मूल्यों के संचरण की सकारात्मक अनुगूंज मिली जो प्राचीन समाजों में आज भी संक्रमण की स्थिति में है। मोरिशस के विकासशील समाज में वर्ण, जाति, गोत्रगत असमानताएँ उस किस्म की नहीं हैं जो भारतीय उपमहाद्वीप में हैं। भारतीय संस्कृति का एक बदला हुआ स्वरूप मोरिशस में है और रामदेव धुरंधर जैसे लेखकों की कहानियों से हम पाते हैं कि संस्कृति और मूल्यों के मूलाधार निर्विघ्न रूप से जब विकसित होते हैं तो उनकी वैश्विक विस्तृति के कारणों के आधार भी स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं।

रामदेव धुरंधर एक रचनाकार के रूप में कुछ कदम आगे बढ़कर वास्तविकताओं के मूल को संप्रेषित करते हैं और वह कदम है उनकी रचनाओं में अद्भुत प्रकार की व्यंजनात्मकता। कहा जा सकता है आज जो रामदेव धुरंधर अचानक ‘व्यंग्य’ की ओर चले आये हैं तो इसके पीछे साफ-साफ आधार यही है कि वे यथार्थ, खासतौर से वे आधुनिक समाजों में अति वैशेषिक ज्ञानाधारों से उत्पन्न जटिल यथार्थ के मर्म को पकड़ उसे जनोन्मुख करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। रामदेव धुरंधर के गद्य, कथात्मक गद्य के विकास क्रम को समझने के लिए भी यह जानना आवश्यक होगा कि उन्होंने व्यंग्य के क्षेत्र में आना क्यों स्वीकार किया ? और जैसे पहले कहा जा चुका है कि हमारे आधुनिक समाज जटिल हैं वे इतनी तहों वाले हैं कि हम जब एक तह की सच्चाई से वाकिफ होते हैं तब तक किसी दूसरी तह के नीचे ज्यादा खौफनाक वास्तविकता सामाजिक जीवन को अपनी गिरफ्त में लेकर सामाजिक क्रिया व्यवहार यथा आचरणों में परिवर्तन डालती है। सच्चाई के रूपाकारों की इस विविधता की विडम्बना को किसी बहुरूपी सांकेतिक विधि द्वारा है व्यक्त किया जा सकता है। इस अर्थ में व्यंग्य विधा सर्वथा सक्षम है, वह जटिलताओं के मूल आशयों को सहज रूप से पहचान के दायरे में ले आती है।

मोरिशस के सशक्त हिन्दी हस्ताक्षर की व्यंग्य रचनाओं की यह संचयन हिन्दी पाठकों को हिन्द महासागर के दिग् काल का नया आस्वाद देगा और भारतीय उपमहाद्वीप और अफ्रीका महाद्वीप में बदलाव के नियति-चक्र की सांकेतिक खबरें देगा। निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि रामदेव धुरंधर की रचनाएँ नए सामाजिक प्रारूपों के आलोक में अपना नया संसार निर्मित करती हैं।

-गंगा प्रसाद विमल

1

दोनों जूते एक ही पाँव के


कहते हैं कि कुम्हड़े को छोड़ टमाटर हर तरकारी में मिल जाती है। रानू ने इस मुहावरे की भी नाक तोड़ी। उसे सबमें मिलना आया और कमाल यह रहा कि मिलने में संतुलन नहीं था। तात्पर्य यह कि वह सज्जन और दुर्जन दोनों में पचास-पचास प्रतिशत घुसपैठ करता तो समझ में आता कि उसके चावल में कंकड़ नहीं हैं। उसे कंकड़ का प्रावधान अधिक किया इसलिये सभी की आँखें उस पर जाने के लिये मजबूर हुईं। मजबूरी केवल आँखों की नहीं थी, जुबान की भी थी। बस, जुबान चोखी करनी है ताकि गालियों से आरती उतार सकें।

उसने इस बार जब हिन्दुओं को ईसाईयत में दीक्षित कराने के लिये पादरियों का साथ दिया तो लोगों से रहा नहीं गया। एक आदमी ने तो उस पर कीचड़ फेंकने के लिये रास्ते के किनारे छिपकर घंटों इंतजार किया। वह जब नहीं आया तो आदमी ने कीचड़ अपने ही ऊपर उड़ेल लिया और पागल की तरह चारों ओर घूमता दिखाई दिया। उसका रोना इस बात को लेकर था कि कीचड़ को यूँ ही खेल-खेल में गँवाना नहीं था। रानू की किस्मत अच्छी थी कि कीचड़ से बच गया। अपनी किस्मत बुरी थी कि उसे कीचड़ से नहला नहीं सका। अतः अपनी बुरी किस्मत के लिये यही विकल्प ठीक हो सकता था कि कीचड़ स्वयं पर उंड़ेल ले।

कल ही की तो बात थी कि रानू ने ‘हिंदू एकता’ बैठक में अपनी उपस्थिति दर्ज की थी और भाषण भी दिया था। उसके भाषण का निचोड़ था कि अपने धर्म के लिये हमें सतर्क रहना है। पादरियों ने हमें निर्बल समझ लिया है और चले आते हैं हम अपनी ईसाईयत लादने।

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