लोगों की राय

व्यवहारिक मार्गदर्शिका >> देर न हो जाए

देर न हो जाए

कानन झींगन

प्रकाशक : गलैक्सी पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :188
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5838
आईएसबीएन :9788190482127

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

235 पाठक हैं

‘हिन्दुस्तान’ के रविवासरीय में ‘अनन्त’ और सम्पादकीय पृष्ठ पर ‘अनहद’ शीर्षक स्तम्भों के अन्तर्गत छपे विस्तृत और लघु लेखों का संकलन।

Der Na Ho Jaye - A Hindi Story Book on Dharm and Philosophy by Kanan Jhingan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अपने आपको दूर कर देख पाना मुश्किल तो है पर नामुमकिन नहीं। जैसे माँ अपने मनचले बच्चे की दूर से निगरानी करती है, वह आंगन में खेल रहा हो, पल-पल माँ की नजर में रहता है। कभी वह उसे चेताती है, कभी चपत भी लगा देती है। इस तरह उसे अनिष्ट से बचाती रहती है। यही स्थिति हमारे मन की है। कभी-कभी वह पाँचों इन्द्रियों को सारथी बन बैठता है, ऐसी रफ़्तार से दौड़ाता है कि व्यक्ति मुंह के बल गिर पड़ता है। इस मन को कौन चेता सकता है ? जानते बूछते खाई गिरने से कौन बचाएगा ? इसके लिए ‘मैं’ से ‘वह’ बनना पड़ेगा। दर्श की शब्दावली में इसी स्थिति को ‘दृष्टाभाव’ कहा गया है।

आधार

संतसाहित्य का अध्ययन और मनन मुझे बहुत प्रिय है। उससे मेरे मन में ज्ञान की आँधी आई हो और कबीर की तरह मेरे भ्रम उड़ गए हों ऐसा दावा नहीं कर सकती। परन्तु आँधी के बाद होने वाली वर्षा के निर्मल आनंद का अनुभव कई बार हुआ है। जीवन में अनेक बार दुर्गम समस्याएँ सामने आईं पर संतों की उक्तियों के सहारे उन तनावों को पार किया। बहुत बार अनुभव हुआ कि किसी अदृश्य सत्ता ने गोद में उठाकर धराशायी होने से बचा लिया। ऐसे ही क्षणों से उपजे भाव ‘देर न हो जाए’ में सँजोए गए हैं।

‘हिन्दुस्तान’ के रविवासरीय में ‘अनन्त’ और सम्पादकीय पृष्ठ पर ‘अनहद’ शीर्षक स्तम्भों के अन्तर्गत छपे विस्तृत और लघु लेखों का संकलन इस पुस्तक में किया गया है। ये लेख जून 2005 से जून 2007 के बीच प्रकाशित हुए। श्रीमती मृणाल पाण्डेय के निरन्तर आग्रह और प्रेरणा का प्रतिफल हैं यह रचनाएँ।

इन लेखों को मैंने अनन्त, आस्था, आचरण, अनासक्ति, आत्मदान और उत्सव शीर्षकों में विभाजित किया है। अनादि-अनन्त ईश्वरीय सत्ता का आभास कृष्ण, राम, शिव, ईसामसीह, गुरुनानक, मुहम्मद, खुदा किसी भी आकार में रूपायित हो सकता है।

इस अदृश्य शक्ति के प्रसार को सम्पूर्ण विश्व में जिसने देख लिया वह आस्थावान हो ही जाता है। आस्था हमें दु:ख झेलने की शक्ति देती है। अपने भाग्य को या स्वयं को जिम्मेदार मानने से हम कभी अहंकार तो कभी अवसाद के शिकार होते हैं। ईश्वर की कृपाशीलता के प्रति विश्वास हमें भयमुक्त और सहनशील बनाता है। यह दृष्टिकोण परिवार, समाज और देश के प्रति हमारे आचरण को प्रभावित करता है। अपने दायित्वों को अपेक्षा या प्रत्याशा के बिना निभाना हमें अनासक्ति की ओर ले जाता है। अनजाने, अनायास जीवन में निष्काम कर्म योग उतरने लगता है। दूसरों के लिए अपने को दे डालने की भावना जन्म लेती है। इसी को आत्मदान कहा है। मन सुख-दुख में सामंजस्य कर लेता है तो जीवन उत्सव हो जाता है।

देर हो जाए इससे पहले उस परमपिता के प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन करना चाहती हूँ। उसने मुझे जीवन में बड़ी बहन श्रीमती सुरेन्द्र कौशल, भाई बृजभूषण और पति चिरंजीव जैसे आधार स्तम्भ दिए। इनके संरक्षण और दिशा निर्देशन में जीवन राजमार्ग बना रहा। परिवार, मित्रों और छात्रों से मिले भरपूर निर्मल स्नेह ने यात्रा को आनन्दमय बना दिया।

मेरी अभिन्न मित्र डा. कृष्णा चतुर्वेदी ने सम्पादक की दृष्टि से इन लेखों का अध्ययन क्या। उसके अमूल्य सुझावों के लिए मेरा स्नेहसिक्त आभार। डॉ. सुदर्शन कौशिक, डॉ. सुरभि सेठ, डॉ. भक्ति श्रीवास्तव ने समय-असमय संस्कृत साहित्य संबंधी जिज्ञासाओं का समाधान किया। डॉ. सुधा प्रकाश ने वनस्पति विज्ञान की जानकारी दी। इन सबके प्रति कृतज्ञ हूँ।

श्री सुधीर पुरी (आत्माराम एंड संस) ने खलील जिब्रान : लोकप्रिय कृतियाँ (अनुवाद) को बड़े उत्साह से प्रकाशित किया। अब वे ‘देर न हो जाए’ को हिन्दी जगत के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। धन्यवाद।
रामनवमी 2007

कानन झींगन

अनन्त

कृष्ण तत्त्व की अनुपस्थिति में


कृष्ण की इच्छा थी कि उनके देह-विसर्जन के पश्चात् द्वारकावासी अर्जुन की सुरक्षा में हस्तिनापुर चले जाएँ। सो अर्जुन अन्त:पुर की स्त्रियों और प्रजा को लेकर जा रहे थे। रास्ते में डाकुओं ने लूटमार शुरू कर दी। अर्जुन ने तत्काल गाण्डीव के लिए हाथ बढ़ाया। पर यह क्या ! गाण्डीव तो इतना भारी हो गया था कि प्रत्यंचा खींचना तो दूर धनुष को उठाना ही संभव नहीं हो पा रहा था। महाभारत के विजेता, सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी विवश होकर अपनी आँखों के सामने अपना काफ़िला लुटता देख रहे थे। विश्वास नहीं हो रहा था कि वह वही है जिसने अजेय योद्धाओं को मार गिराया था। बिजली की कौंध से शब्द उनके मन में गूँज गए ‘‘तुम तो निमित्त मात्र हो पार्थ।’’

‘श्रीमद्भावगत’ का यह प्रसंग जितना मार्मिक है उतना ही एक अखंड सत्य का उद्घोषक भी। जीवन में जब-जब कृष्ण तत्व अनुपस्थित होता है, तब-तब मनुष्य इसी तरह ऊर्जा रहित हो जाता है। कृष्ण के न रहने का मतलब है, जीवन में शाश्वत मूल्यों का ह्रास। उनका जीवन प्रतीक है अन्याय के प्रतिकार का, प्रेम के निर्वाह का, कर्म के उत्सव का, भावनाओं की उन्मुक्त अभिव्यक्ति का, शरणागत की रक्षा का। उनकी जीवन शैली हमें गौरव से जीना और गरिमा से मरना सिखाती है। जड़-सिद्धांत के या किन्हीं सम्प्रदायों के लिए हठ का उनके विचारों में कोई स्थान न था।

वे प्रतिबद्ध थे कर्म के प्रति। कहीं कोई निजी हित या प्रयोजन प्रेरित कर्म न था, इसलिए कर्मफल से लगाव भी नहीं था। कंस के रूप में, अत्याचार का अन्त करके मथुरा का आधिपत्य अधिकारी को सौंप कर निर्द्वन्द्व भाव से द्वारका बसाने चल दिए। गोकुल में उनकी लीलाएँ अनाचारी व्यवस्था का विरोध थी; ग्रामवासियों को अपने अधिकारों के प्रति सचेत करके, स्वावलम्बी बनाना ही उनका प्रयोजन था। मथुरागमन के बाद का जीवन भी असत्य और निरंकुशता का दमन करते हुए निष्कलंक निकल आने का आदर्श प्रस्तुत करता है। जरासन्ध-शिशुपाल जैसी समाज विरोधी शक्तियों का विनाश किया पर उससे पहले सुधार का भरपूर अवसर दिया। विनाशकारी महाभारत के युद्ध से पूर्व शान्ति दूत बनकर हर सम्भव प्रयास किया युद्ध टालने का।

जीवन में अनेक बार हित करते हुए भी चरित्र पर कलंक लग जाता है। कृष्ण ने सत्राजित से अनुरोध किया था कि स्वर्ण की अक्षय स्रोत्र स्यमंतक मणि राष्ट्रकोष को दे दें। श्रम से प्राप्त सम्पदा व्यक्तिगत होती है परन्तु कृपा से प्राप्त वस्तु सामूहिक कल्याण में जानी चाहिए। सत्राजित ने वह मणि अपने भाई प्रसेन की सुरक्षा में रखवा दी। वह जंगल में शिकार के लिए गया तो मणि गले में पहने था। एक सिंह ने उस पर आक्रमण कर दिया। वह मारा गया। मणि छिटक कर कहीं दूर जा गिरी। उसी वन में रह रहे जाम्बवान को पड़ी मिली तो उसने बच्चे को खेलने के लिए दे दी। उधर राजदरबार में सबको मणि के लिए हत्या करने का संदेह कृष्ण पर हो गया। कृष्ण ने जब तक जाम्बवान से मणि पुन: प्राप्त नहीं की, चैन नहीं लिया। किसी भी परस्थिति में हार कर बैठ जाना उचित नहीं- यह संदेश दिया।

शत्रु के अधिक शक्तिशाली होने पर व्यर्थ का जनसंहार बचाने के लिए रणभूमि छोड़कर चले आने में भी कोई संकोच नहीं किया।

अपने कर्मों का दायित्व लेना सीखना हो तो फिर इस जगद्गुरु कृष्ण की ही शरण में जाना होगा। गांधारी के शाप से सम्पूर्ण यदुकुल का नाश हुआ। प्रभास क्षेत्र में अश्वत्थ की छाया में विश्राम करते हुए ‘जरा’ नाम व्याध के बाण का शिकार बने। पाँव से रक्तधारा बहती रही। व्याध को भी उपचार नहीं करने दिया। शाप फलीभूत होना तो था ही। ‘जरा’ का अर्थ है वृद्धावस्था और विनाश। किस पर नहीं आता। मुस्कुराते हुए यादव वंश की अन्तिम किरण को समेट लिया।

यह कृष्ण के पार्थिव शरीर का विलय था। उनकी अजस्र का प्रवाह आस्था के रूप में हमारे भीतर बहता रहता है। अपने जिए जीवन का सिद्धान्त कृष्ण ने गीता में गाया। निरन्तर कर्म की प्रेरणा से युक्त रहना ही कृष्ण तत्व को साकार करना है। अच्छे बुरे फल को कृष्णार्पित कर ही जीने का मूल है। कृष्ण स्पंज है सब सोख लेंगे। बस कृष्ण तत्त्व को जीवन में बनाए रखना होगा।

कदम्ब की छैंयाँ मुरलिया बाज उठी

कदम्ब वृक्ष की घनी छाया तले, शीश पर मोर-मुकुट, कानों में मकराकृति-कुण्डल, अधरों पर मुरली, गले में वैजयन्तीमाला, कटि में पीताम्बर धारण किए त्रिभंगी मुद्रा में आधी खुली आँखें, मग्न भाव, पीछे गाय, पार्श्व में राधा, सब मिलकर अलौकिक छवि की रचना करते हैं।

पूरे मधुबन में कदम्ब का वृक्ष कृष्ण को बहुत प्रिय था। यह अकारण न था। इसकी विशिष्टता खोजने के लिए वनस्पति और उसके वर्गीकरण विज्ञान (टैक्सोनोमी) तथा मूल शब्द का आधार लेना उपयुक्त होगा।

इस वृक्ष का वानस्पतिक अधुनातन नाम है- ‘रूबियेसी कदम्बा’। उसका पुराना नाम था ‘नॉक्लिया कदम्बा’। इसे रूबियेसी परिवार से संबंधित माना जाता है। यह मुख्य रूप से अंडमान, बंगाल तथा आसाम में पाया जाता है। यह पेढ़ बहुत जल्दी बढ़ता है। इसकी ऊँचाई 20-40 फ़ीट की मध्यम कोटि तक होती है। पत्ते महुवा से मिलते हैं, पर थोड़े छोटे और चमकीले होते हैं। वर्षा ऋतु पर इस पर फूल आते हैं। इसके डंठल पर चक्राकार पीले गुच्छे के रूप में बहुत छोटे सुगंधमय फूल होते हैं। कहा जाता है कि बादलों की गर्जना से इसके फूल अचानक खिल उठते हैं। पीला पराग झरने के बाद, पकने पर लाल हो जाते हैं। इसे हरिद्र और नीप भी कहा जाता था। फूलों में से इत्र निकाला जाता है। औरतें इनसे अपना श्रृंगार करती हैं।

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai