नाटक-एकाँकी >> दिमागे हस्ती दिल की बस्ती है कहाँ है कहाँ दिमागे हस्ती दिल की बस्ती है कहाँ है कहाँमहेन्द्र भल्ला
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प्रस्तुत है चर्चित नाटक........
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दिमाग़े हस्ती दिल की बस्ती...
एक गठी हुई, सजग नाट्य भाषा में, सामाजिक पारिवारिक ताने-बाने के ऐन बीच
बुना गया महेन्द्र भल्ला का यह नाटक हमारे समय के उन रेशों को पकड़ने की
एक जबरदस्त कोशिश है, जहाँ स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के तनाव हैं, उनके बीच
बच्चों और किशोरों का ‘फँसा’ हुआ जीवन है, और एक
अलगाव झेल
रहे बुजुर्गों की आन्तरिक कथा है, जिनकी सन्ततियों की फिर अपनी अन्तःकथाएँ
हैं। और सबसे ऊपर यह कि तमाम त्रासद और कॉमिक-सी स्थितियों के बीच मनुष्य
की गरिमा को नये सिरे से रेखांकित करने का यत्न है।
कुछ मध्यवर्गीय परिवारों के प्रसंग से महानगरीय जीवन के बहुतेरे नये-पुराने रंग भी इस नाटक में सहज ही उभरते हैं, पर कुल मिलाकर तो इसके घटनाक्रम में मनुष्य की कुछ बुनियादी आकांक्षाओं, स्वप्नों और अस्तित्वगत स्थितियों की एक नयी पड़ताल है। मनुष्य मात्र के प्रति शुभेच्छाओं की एक करुण-धारा भी इसकी कथा-अन्तःकथा में प्रवाहित है, जो इसे कई तरह के तनावों के बीच भी द्रवित रखती है-बिना किसी तरह की भावुकता को पोसे हुए। निश्चय ही ‘दिमाग़े-हस्ती दिल की बस्ती है कहाँ ? है कहाँ ?’ एक ऐसी कृति है जो बाँधती है। विचलित करती है। कई काले-अँधेरे कोनों को उजागर करती हुई, कई प्रसंगों में मानव मन के आन्तरिक सौन्दर्य को भी सहज ही उभारती है।
महेन्द्र भल्ला का कथाकार-उपन्यासकार और कवि रूप, हिन्दी में अपनी एक अलग पहचान रखता है। और उनका यह नाटक भी अपने लिए एक विशिष्ट स्थान का अधिकारी है। सुपरिचित रंगकर्मी राम गोपाल बजाज के कुशल और संधानी निर्देशन में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल ने इसे देश के विभिन्न अंचलों में मंचित किया है, और यह सभी जगह प्रशंसित चर्चित हुआ है।
इसकी नाट्य-भाषा में नयी आहटें हैं जो हिन्दी के नाट्य साहित्य के लिए निश्चय ही एक खुशखबरी है, क्योंकि महेन्द्र इसी नाटक पर नहीं रुक गये हैं : इस बीच उन्होंने कुछ और नाट्य-कृतियों की रचना की है। हिन्दी के एक समर्थ रचनाकार का यह नया रुझान कितना ऊर्जावान है यह इसी से जाहिर है कि जिस तरह उनका पहला उपन्यास ‘एक पति के नोट्स’ आज से पचास वर्ष पूर्व छपते ही चर्चा में आया था, और आज तक बना हुआ है-उसी तरह यह पहला मंचित-प्रकाशित नाटक रंग-जगत और साहित्य-जगत का ध्यान निरन्तर आकर्षित कर रहा है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के त्रैमासिक वृत्त ‘रंग प्रसंग’ में प्रकाशित होने के बाद इसका पुस्तकाकार प्रकाशन निश्चय ही इसे और अधिक पाठक और दर्शक प्रदान करेगा, इसमें कम से कम मुझे कोई सन्देह नहीं है।
कुछ मध्यवर्गीय परिवारों के प्रसंग से महानगरीय जीवन के बहुतेरे नये-पुराने रंग भी इस नाटक में सहज ही उभरते हैं, पर कुल मिलाकर तो इसके घटनाक्रम में मनुष्य की कुछ बुनियादी आकांक्षाओं, स्वप्नों और अस्तित्वगत स्थितियों की एक नयी पड़ताल है। मनुष्य मात्र के प्रति शुभेच्छाओं की एक करुण-धारा भी इसकी कथा-अन्तःकथा में प्रवाहित है, जो इसे कई तरह के तनावों के बीच भी द्रवित रखती है-बिना किसी तरह की भावुकता को पोसे हुए। निश्चय ही ‘दिमाग़े-हस्ती दिल की बस्ती है कहाँ ? है कहाँ ?’ एक ऐसी कृति है जो बाँधती है। विचलित करती है। कई काले-अँधेरे कोनों को उजागर करती हुई, कई प्रसंगों में मानव मन के आन्तरिक सौन्दर्य को भी सहज ही उभारती है।
महेन्द्र भल्ला का कथाकार-उपन्यासकार और कवि रूप, हिन्दी में अपनी एक अलग पहचान रखता है। और उनका यह नाटक भी अपने लिए एक विशिष्ट स्थान का अधिकारी है। सुपरिचित रंगकर्मी राम गोपाल बजाज के कुशल और संधानी निर्देशन में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल ने इसे देश के विभिन्न अंचलों में मंचित किया है, और यह सभी जगह प्रशंसित चर्चित हुआ है।
इसकी नाट्य-भाषा में नयी आहटें हैं जो हिन्दी के नाट्य साहित्य के लिए निश्चय ही एक खुशखबरी है, क्योंकि महेन्द्र इसी नाटक पर नहीं रुक गये हैं : इस बीच उन्होंने कुछ और नाट्य-कृतियों की रचना की है। हिन्दी के एक समर्थ रचनाकार का यह नया रुझान कितना ऊर्जावान है यह इसी से जाहिर है कि जिस तरह उनका पहला उपन्यास ‘एक पति के नोट्स’ आज से पचास वर्ष पूर्व छपते ही चर्चा में आया था, और आज तक बना हुआ है-उसी तरह यह पहला मंचित-प्रकाशित नाटक रंग-जगत और साहित्य-जगत का ध्यान निरन्तर आकर्षित कर रहा है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के त्रैमासिक वृत्त ‘रंग प्रसंग’ में प्रकाशित होने के बाद इसका पुस्तकाकार प्रकाशन निश्चय ही इसे और अधिक पाठक और दर्शक प्रदान करेगा, इसमें कम से कम मुझे कोई सन्देह नहीं है।
-प्रयाग शुक्ल
मुख्य पात्र
देस दीपक मल्होत्रा
(58)
: ‘कालिदास’
रुचि (53) : कालिदास की पत्नी
आलोक महाजन (50-51)
अनुराग (29) : कालिदास और रुचि का बेटा
नीलिमा (26) : अनुराग की पत्नी
राहुल (एक-डेढ़ वर्ष) : अनुराग और नीलिमा का बेटा (डम्मी)
राजेश कपूर (60 से ऊपर)
कौशल्या (60) : राजेश की पत्नी
लक्ष्मी (32) : राजेश-कौशल्या की नौकरानी
रक्षा महाजन (46) : आलोक की पत्नी
नेहा (17), संजीव (12) : आलोक और रक्षा के बच्चे
ज्ञान खन्ना (60)
माया : (ज्ञान की पत्नी) वह दिखाई नहीं देती सिर्फ़ फ़ोन पर सुनाई देती है।
विकास (30) : राजेश और कौशल्या का लड़का
सोनिया (28) : विकास की पत्नी
रुचि (53) : कालिदास की पत्नी
आलोक महाजन (50-51)
अनुराग (29) : कालिदास और रुचि का बेटा
नीलिमा (26) : अनुराग की पत्नी
राहुल (एक-डेढ़ वर्ष) : अनुराग और नीलिमा का बेटा (डम्मी)
राजेश कपूर (60 से ऊपर)
कौशल्या (60) : राजेश की पत्नी
लक्ष्मी (32) : राजेश-कौशल्या की नौकरानी
रक्षा महाजन (46) : आलोक की पत्नी
नेहा (17), संजीव (12) : आलोक और रक्षा के बच्चे
ज्ञान खन्ना (60)
माया : (ज्ञान की पत्नी) वह दिखाई नहीं देती सिर्फ़ फ़ोन पर सुनाई देती है।
विकास (30) : राजेश और कौशल्या का लड़का
सोनिया (28) : विकास की पत्नी
अंक एक
दृश्य एक
[दिल्ली : जनवरी 1997 का एक इतवार। जमनापार पटपड़गंज की एक हाउसिंग
सोसाइटी के मध्यमवर्गीय फ़्लैट के ड्राइंग रुम में दोपहर के बाद की
सुस्ती, चुप्पी बोरडम और निराशा का मिला-जुला वातावरण।
रुचि मल्होत्रा और उसका पति देस दीपक ‘कालिदास’ सोफों पर से बैठे अधलेटे से हैं कि लगता है काफ़ी देर से वे ऐसे ही हैं; सोफे डाइनिंग टेबल आदि की तरह कमरे की चुप्पी और निराशा का हिस्सा लगते हैं। रुचि बड़े सोफ़े के कोने में उस पार टाँगें पसारे अधलेटी सी है। एक छोटी शाल उसकी टाँगों पर है और दूसरी उसके कन्धों पर। उसकी गर्दन सोफ़े की बाँह पर लुढ़की-सी है, उसका मुँह दर्शकों की तरफ़ है और वह बोरडम में छत की तरफ़ देख रही है। वह सलवार कमीज़ पहने हुए है और आधी बाँहों का स्वेटर जो इस वक़्त दिखाई नहीं देता। देस दीपक ‘कालिदास’ उसके साथ वाले छोटे सोफ़े पर गठरी-सा बैठा है। एक बड़ी शाल में लिपटा-सा। वह दर्शकों को ऐन सामने देख सकता है। वह कुर्ता-पाज़ामा और पूरी बाँहों का स्वटेर पहने है, गले में मफ़लर और पाँवों में जुराबें भी हैं। उसके साथ ही दूसरा छोटा सोफ़ा रखा है और उसके आगे टी.वी. और टी.वी. के साथ बड़े सोफे के सामने और समानान्तर दो तीन छोटी स्टूलनुमा कुर्सियाँ पड़ी हैं। बीच में सेंट्रल टेबल पर कुछ पत्रिकाएँ ‘इंडिया टुडे’, ‘संडे’, आदि और दो अख़बार ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ और ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ पड़े हैं। वहीं टी.वी. का रिमोट कंट्रोल पड़ा है जो रुचि की तरफ़ वाले हिस्से में है।
कुछ देर तक दोनों को निश्चेष्ट सा दिखाया जाता है। फिर कालिदास अखबार उठाता है, मगर बिना पढ़े ही वापस रख देता है। उसके बाद रुचि करवट बदलती है। उसका मुँह थोड़ा सोफे की पीठ की तरफ हो जाता है मगर तुरन्त ही वह वापस पहले वाली मुद्रा में मुड़ती है और लेटे-लेटे ही रिमोट कंट्रोल उठाती और टी.वी. चलाती है, कुछ चैनल बदलती है और ‘बकवास ! बकवास ! सब बकवास !’ कह कर उसे बन्द कर देती है, रिमोट कंट्रोल को मेज़ पर फेंक-सा देती है और अपना सिर शाल से ढाँपकर सोने की कोशिश करती है-पहले सोफ़े पर पूरे लम्बे लेटकर मगर फिर वापस अपनी पहली वाली स्थिति में आ जाती है।]
कालिदास : (थोड़ा ऊपर को होकर रुचि को कुछ देर तक देखता है) चाय और चलेगी ?
रुचि : (खीझे स्वर में) नहीं।
कालिदास : हीटर चला दूँ ?
रुचि : (उसी लहज़े में) नहीं। तुम्हें मालूम है मुझसे हीटर बर्दाश्त नहीं होता। सिर को चढ़ता है। तुम बस मेहरबानी करके चुप रहो। बस !
कालिदास : (उसे कुछ कहना चाहता है मगर चुप रहता है और मेज़ से अख़बार फिर उठा लेता है मगर तुरन्त ही फिर उसे वापस रख देता है, खड़ा हो जाता है, शाल ठीक से लेता है, इधर-उधर देखता है मानो अपनी इस स्थिति में कोई रास्ता ढूंढ़ रहा हो मगर न पाकर फिर बैठ जाता है और टाँगें ऊपर करके अपने को पूरी तरह से शाल में जो कि एक धुस्सा है, लपेट लेता है) ठंड बहुत है। बहुत ही ठंड है।
रुचि उसकी तरफ़ गुस्से से देखती है मगर कोई जवाब नहीं देती। एकाएक फोन की घंटी बजने लगती है। दोनों चौंकते हैं। रुचि लेटी रहती है, पर कालिदास धुस्सा उतार फेंकता हुआ छलाँग-सी मारकर फ़ोन की तरफ जाता है जो रुचि वाले सोफ़े के सामने वाली दीवार के साथ रखे रैक पर पड़ा है, जहाँ उनके लड़का-लड़की और बहू-दामाद और पोते के दो तीन फ्रेम किए हुए फ़ोटो भी पड़े हैं। उनके पास ही गणेश जी की एक मूर्ति भी पड़ी है।)
रुचि : मैं कहती हूँ छलाँग तो ऐसे मारके फ़ोन सुनने जाते हो जैसे स्वयं भगवान का फ़ोन हो। रांग नम्बर होगा। पूछेगा भाटिया साहब हैं या कालरा साहब आ गये क्या, या फिर करोलबाग से बोल रहे हैं या बल्लीमाराँ से या फिर..अगर मैं सुनती तो कहता हाय जानी ! अगर भलामानस सा होता तो, वरना-
(कालिदास चलते-चलते क्षण भर रुककर मुड़कर रुचि को देता है और उससे सहमत-सा होता हुआ बाकी रास्ता बिना उत्साह के धीरे-धीरे तय करता है और उसी भाव से फ़ोन उठाता है। रुचि शाल में मुँह लपेट लेती है।)
कालिदास फोन पर बात करता दिखाया जाएगा मगर कोई बात सुनाई नहीं पड़ेगी। रोशनी का घेरा उस पर पड़ेगा। जिसमें वह शुरू में जरा उदासीनता से मगर बाद में उत्साह से बात करेगा। रुचि पर और उसकी तरफ वाले हिस्से में रोशनी मद्धिम हो जाएगी, लगभग अँधेरे वाली। फोन सुनकर कालिदास थोड़ी चुस्ती से स्टेज पर दर्शकों के पास ऐन आगे आ जाता है। रोशनी का गोल पुंज भी उसके साथ-साथ उस पर पड़ता जाता है।
रुचि मल्होत्रा और उसका पति देस दीपक ‘कालिदास’ सोफों पर से बैठे अधलेटे से हैं कि लगता है काफ़ी देर से वे ऐसे ही हैं; सोफे डाइनिंग टेबल आदि की तरह कमरे की चुप्पी और निराशा का हिस्सा लगते हैं। रुचि बड़े सोफ़े के कोने में उस पार टाँगें पसारे अधलेटी सी है। एक छोटी शाल उसकी टाँगों पर है और दूसरी उसके कन्धों पर। उसकी गर्दन सोफ़े की बाँह पर लुढ़की-सी है, उसका मुँह दर्शकों की तरफ़ है और वह बोरडम में छत की तरफ़ देख रही है। वह सलवार कमीज़ पहने हुए है और आधी बाँहों का स्वेटर जो इस वक़्त दिखाई नहीं देता। देस दीपक ‘कालिदास’ उसके साथ वाले छोटे सोफ़े पर गठरी-सा बैठा है। एक बड़ी शाल में लिपटा-सा। वह दर्शकों को ऐन सामने देख सकता है। वह कुर्ता-पाज़ामा और पूरी बाँहों का स्वटेर पहने है, गले में मफ़लर और पाँवों में जुराबें भी हैं। उसके साथ ही दूसरा छोटा सोफ़ा रखा है और उसके आगे टी.वी. और टी.वी. के साथ बड़े सोफे के सामने और समानान्तर दो तीन छोटी स्टूलनुमा कुर्सियाँ पड़ी हैं। बीच में सेंट्रल टेबल पर कुछ पत्रिकाएँ ‘इंडिया टुडे’, ‘संडे’, आदि और दो अख़बार ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ और ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ पड़े हैं। वहीं टी.वी. का रिमोट कंट्रोल पड़ा है जो रुचि की तरफ़ वाले हिस्से में है।
कुछ देर तक दोनों को निश्चेष्ट सा दिखाया जाता है। फिर कालिदास अखबार उठाता है, मगर बिना पढ़े ही वापस रख देता है। उसके बाद रुचि करवट बदलती है। उसका मुँह थोड़ा सोफे की पीठ की तरफ हो जाता है मगर तुरन्त ही वह वापस पहले वाली मुद्रा में मुड़ती है और लेटे-लेटे ही रिमोट कंट्रोल उठाती और टी.वी. चलाती है, कुछ चैनल बदलती है और ‘बकवास ! बकवास ! सब बकवास !’ कह कर उसे बन्द कर देती है, रिमोट कंट्रोल को मेज़ पर फेंक-सा देती है और अपना सिर शाल से ढाँपकर सोने की कोशिश करती है-पहले सोफ़े पर पूरे लम्बे लेटकर मगर फिर वापस अपनी पहली वाली स्थिति में आ जाती है।]
कालिदास : (थोड़ा ऊपर को होकर रुचि को कुछ देर तक देखता है) चाय और चलेगी ?
रुचि : (खीझे स्वर में) नहीं।
कालिदास : हीटर चला दूँ ?
रुचि : (उसी लहज़े में) नहीं। तुम्हें मालूम है मुझसे हीटर बर्दाश्त नहीं होता। सिर को चढ़ता है। तुम बस मेहरबानी करके चुप रहो। बस !
कालिदास : (उसे कुछ कहना चाहता है मगर चुप रहता है और मेज़ से अख़बार फिर उठा लेता है मगर तुरन्त ही फिर उसे वापस रख देता है, खड़ा हो जाता है, शाल ठीक से लेता है, इधर-उधर देखता है मानो अपनी इस स्थिति में कोई रास्ता ढूंढ़ रहा हो मगर न पाकर फिर बैठ जाता है और टाँगें ऊपर करके अपने को पूरी तरह से शाल में जो कि एक धुस्सा है, लपेट लेता है) ठंड बहुत है। बहुत ही ठंड है।
रुचि उसकी तरफ़ गुस्से से देखती है मगर कोई जवाब नहीं देती। एकाएक फोन की घंटी बजने लगती है। दोनों चौंकते हैं। रुचि लेटी रहती है, पर कालिदास धुस्सा उतार फेंकता हुआ छलाँग-सी मारकर फ़ोन की तरफ जाता है जो रुचि वाले सोफ़े के सामने वाली दीवार के साथ रखे रैक पर पड़ा है, जहाँ उनके लड़का-लड़की और बहू-दामाद और पोते के दो तीन फ्रेम किए हुए फ़ोटो भी पड़े हैं। उनके पास ही गणेश जी की एक मूर्ति भी पड़ी है।)
रुचि : मैं कहती हूँ छलाँग तो ऐसे मारके फ़ोन सुनने जाते हो जैसे स्वयं भगवान का फ़ोन हो। रांग नम्बर होगा। पूछेगा भाटिया साहब हैं या कालरा साहब आ गये क्या, या फिर करोलबाग से बोल रहे हैं या बल्लीमाराँ से या फिर..अगर मैं सुनती तो कहता हाय जानी ! अगर भलामानस सा होता तो, वरना-
(कालिदास चलते-चलते क्षण भर रुककर मुड़कर रुचि को देता है और उससे सहमत-सा होता हुआ बाकी रास्ता बिना उत्साह के धीरे-धीरे तय करता है और उसी भाव से फ़ोन उठाता है। रुचि शाल में मुँह लपेट लेती है।)
कालिदास फोन पर बात करता दिखाया जाएगा मगर कोई बात सुनाई नहीं पड़ेगी। रोशनी का घेरा उस पर पड़ेगा। जिसमें वह शुरू में जरा उदासीनता से मगर बाद में उत्साह से बात करेगा। रुचि पर और उसकी तरफ वाले हिस्से में रोशनी मद्धिम हो जाएगी, लगभग अँधेरे वाली। फोन सुनकर कालिदास थोड़ी चुस्ती से स्टेज पर दर्शकों के पास ऐन आगे आ जाता है। रोशनी का गोल पुंज भी उसके साथ-साथ उस पर पड़ता जाता है।
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लोगों की राय
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