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उपन्यास >> न जाने क्यों

न जाने क्यों

स्नेह लता

प्रकाशक : अमृत बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :116
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5849
आईएसबीएन :81-288-1531-8

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प्रस्तुत है उपन्यास...

Na Jane Kyaun

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

न जाने क्यों ? उपन्यास आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूं। मैं नहीं जानती प्रबुद्ध पाठक इसका आकलन किस रूप में करेंगे। जिंदगी में बहुत सी घटनाएं होती हैं जिन्हें हम घटित होता हुआ देखते रहते हैं- एक मूकदर्शक की तरह ! लेकिन उन घटनाओं का प्रभाव इतना शक्तिशाली होता है कि वह मन के द्वारे दस्तक देती रहती हैं। कुछ पात्र ऐसे लगते हैं जैसे कह रहे हो, मुझे कुछ कहना है, मेरी व्यथा को शब्द दो। ऐसे ही पात्र हैं सांवरी और सत्यवती। न चाहकर भी जीवन चक्र में उलझना जिनकी नियति है। शायद उनकी वेदना आपको भी महसूस हो इसी विचार के साथ प्रस्तुत है।

स्नेह लता

न जाने क्यों ?


सूरज की किरणों ने अपनी सतरंगी आभा से बादलों के ऊपर अजीब-सी चित्रकारी कर दी थी। काले बादलों के बीच से झांकती किरणों की छटा ऐसी लग रही थी जैसे किरणें सूरज से आँख मिचौनी खेल रही हों। आकाश में बादल कहीं काले, कहीं भूरे दिखाई पड़ रहे थे। कहीं-कहीं लाल रंग आसमान में ऐसा बिखरा था जैसे चित्रकारी करते-करते कलाकार के रंग लुढ़क गए हों। सूरज से दूर कुछ सफेद बादल पंख फैलाए ऐसे उड़ रहे थे जैसे ढेर सारे सफेद बगुले हों या आसमान में ढेर सारी धुनी हुई रुई फैली हो।

सांझ होने को थी। पेड़ों की छाया लम्बी होने लगी थी। किसान अपने-अपने कंधों पर हल रखे वापस लौट रहे थे। क्या करें ? कहाँ तक करें ? दिन भर की थकान और जीवन की गाड़ी वहीं की वहीं। लगता है जैसे नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाली कहावत भी यहाँ लागू नहीं होती। बिलासी, मैकू, रम्भू, रमलू सबके बाप भी यही करते थे और यह भी करते रहेंगे। बच्चों के लिए भी जैसे यही लीक ईश्वर ने पहले से रच दी है। प्रकृति का परिवर्तन इनके लिए कोई अर्थ नहीं रखता। जीवन की गाड़ी में पैदा होते ही जुट जाना इनके जीवन का दुर्भाग्य है।

नारायण दास घर की दुबारी में बैठे यही सोच रहे हैं। बुढ़ापा अपने आप में कष्टकारी है उस पर बीमारी कोढ़ में खाज का काम करती है। छप्पर वाली छत का कमरा उनका आश्रय है जब दीन जहान से थक जाते हैं उसी छप्पर में बैठकर हुक्का गुडगुड़ा लेते हैं। कभी-कभी उनके दोस्त गंगासहाय भी आ जाते हैं। एक गंगासहाय भी ऐसे हैं जो उनके मन की व्यथा को ठीक से समझते हैं। नारायणदास की पहली बीवी मर चुकी है दूसरी से आठ बच्चे हैं। चार लड़के, चार लड़कियाँ।

गंगासहाय ने बचपन से ही गरीबी की मार झेली। छोटे थे तभी पिताजी मर गए थोड़े दिन बाद अम्मा भी चल बसीं। चौदह साल के गंगासहाय-छोटे दो भाई। बिहारी और बिलासी। घर में पूंजी के नाम पर धेला भी नहीं। एक बीघा खेती भी नहीं। बस रहने को एक टूटी सी मड़ैया जिसे गाँव के जमींदार साहब ने अपने बड़े लड़के के पैदा होने पर खुश होकर उनके पिताजी को इनाम में दी थी। गंगासहाय के पिताजी चाकरी करते-करते मर गए। अब जिंदगी का सारा बोझ गंगासहाय के कंधों पर आ गया।

जैसे-तैसे मजदूरी करके दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करते। छोटे भाइयों को बड़ा किया। भाइयों को बड़ा करते-करते जैसे बेचारे की उम्र ही बीत गई। समय से पहले बूढ़े दिखने लगें उम्र की छाया भी किसी रहस्यमयी लोक के बाशिन्दे जैसी रहती है। गरीबों पर सभी जुल्म करते हैं। उम्र का प्रभाव भी गरीबों पर ही ज्यादा असर करता है। लक्ष्मी हो तो रूप भी आ जाता है। गरीब आदमी तो बदरंग और लुटा-पिटा ही दिखेगा। गंगासहाय भी बेचारे समय से पहले ही पिचके गालों और उलझें बालों वाले हो गए भला ऐसे आदमी को कौन अपनी बेटी देता।

उम्र बीतती गई। पहले भाइयों को बड़ा करने की चिंता फिर उनके घर बसाने की चिंता। दूसरों की चिंता करते-करते जीवन ऐसे बीता कि अपनी चिंता  करनेवाला कोई नहीं रहा। न अपनी बीवी न अपने बच्चे। भाई अपने घर-परिवार की चिंता में डूब गए। गंगासहाय के सुख-दु:ख सुनने वाला कोई नहीं था इसलिए नारायण दास के पास आकर बैठ जाते। नारायण दास उनके मालिक भी थे और मित्र भी।

महोला गांव काफी बड़ा था। दो-तीन लोगों ने ज़मींदारी खरीद रखी थी वहीं पूरे गाँव पर शासन करते थे। यूँ तो गाँव में हर जाति और वर्ग के लोग थे फिर भी ठाकुरों की संख्या ज्यादा थी। अंग्रेजों का राज, लोग पहले ही गरीब थे। गाँव में कुछ लोगों के पास ही खेती थी बाकी लोग मजदूर थे जो दूसरों के खेतों में काम करके अपना गुजारा करते थे।

नारायण दास के पास थोड़ी-सी खेती थी बाकी पंडिताई करके अपना गुजारा करते थे। हिन्दुओं के त्यौहार साल भर चलते रहते हैं। थोड़ी-सी दक्षिणा मिल गई उसी में खुश हो जाते। संतोषी जीव थे। ज्यादा हाय-हाय नहीं। जो दे उसका भला जो न दे उसका भी भला।

गाँव में हाकिम सिंह की तूती बोलती थी। हाकिमसिंह का जैसा नाम वैसा काम ! गांव में जब घूमने निकलते लोगों के होश उड़ जाते थे। गांव के जमींदार थे। काला रंग, गंजा सिर, लंबी-चौड़ी काया। देखने में किसी दैत्य से कम नहीं लगते थे।

हाकिम सिंह ने दो शादियाँ की थीं। उनके आठ लड़के थे। सब के सब लाठी लिए लड़ने-मरने को तैयार रहते। किसकी मजाल जो हाकिम सिंह के खिलाफ कुछ बोल दे। कोर्ट कचहरी का कोई मतलब नहीं। पुलिस आएगी भी तो भी हाकिम सिंह के दरवाजे पर ही रुकेगी। वहीं जिससे जो पूछना है पूछ लिया जाएगा। हाकिम सिंह जो रिपोर्ट दे देंगे वही मानी जाएगी। जो जरा उनके खिलाफ बोलने की कोशिश करेगा उसे बाद में समझाने के लिए हाकिम सिंह का हंटर काफी था।

रघुवर दयाल नरायण दास के छोटे भाई थे। रघुवर दयाल बड़ी-बड़ी मूँछें, काफी तंदुरुस्त पुलिस में दरोगा थे। बचपन से ही बड़े खूँखार थे सब पर रौब करते। उनके घर में आते ही सन्नाटा छा जाता। नारायण दास के पिताजी बचपन में ही मर गए थे। नरायण दास ने ही रघुवर दयाल को पाल-पोस कर बड़ा किया। नारायण दास ने खुद कष्ट उठाए पर रघुवर दयाल की पढ़ाई में कमी नहीं आने दी। उनकी तमन्ना थी कि पढ़-लिख कर उनका भाई बड़ा आदमी बनेगा। रघुवर दयाल पढ़ने-लिखने में काफी तेज थे। अंग्रेजी राज में पुलिस की नौकरी बड़ी शान की बात मानी जाती थी। रघुवर दयाल जब गांव आते नरायण दास को लगता उनका सिर गर्व से ऊँचा उठ गया है।

बाग गांव से थोड़ी दूर था। बाग में कटहल, नींबू, जामुन, अमरूद और करौंदे के पेड़ लगे थे। गर्मियों में जब बाग में आम लगते बच्चे पूरी दोपहर बाग में घूमते रहते। नरायण दास ने बाग की रखवाली के लिए सुक्खू को रख दिया था। सुक्खू दिन भर चिड़ियों, तोतों को उड़ाता फिर भी शाम तक तोते दस-पंद्रह आम काट ही डालते थे।

रामभरोसे, हरीराम, राजेन्द्र, सत्यवती, हेमवती, रामबरख सब बच्चे बाग में जुटे रहते। कई बार लड़ाई भी हो जाती। रामभरोसे सबसे बड़े थे। छोटे भाई-बहन जब देखो तब भैया आम तोड़ो कि जिद करते। रामभरोसे कह देते खुद क्यों नहीं तोड़ लेते।

ढेला फेंका इधर-उधर एक-दूसरे के लग जाता। बस लड़ाई शुरु हो गई। बचपन में भाई-बहनों की कैसी लड़ाई, कैसी सलाह। बचपन की उम्र ही ऐसी होती है। पल में लड़ाई पल में सलाह। न काम की चिंता न जिम्मेदारियों का बोझ।

सत्यवती को बचपन की तमाम बातें याद हैं- आटा घर में पीसा जाता था। सुबह हुई नहीं कि जिया चिल्लाना शुरू कर देतीं।
नरिहाई रांड़न नै खून पियो है। दोपहर लौ सोती हैं। धाम निकर आई। कब चकिया पीसैंगी। खसम के घर जाएगीं वहीं हौं सोवंगी।
चोटी पकड़कर घसीटकर मारतीं। लम्बे-लम्बे बाल। जिया चिल्लातीं-आग लगाय दूंगी। सत्यानासी, नासपीटी। चक्की पीसो, पानी भरो, खाना बनाओ, छोटे भाई-बहनों को गोदी खिलाओ बस यही दिनचर्या।

पन्द्रह-सोलह लोगों का परिवार खाना बनता ही रहता था। सुबह को मजदूरों के लिए रोटी बनी खेत पर गई घर के बच्चों ने कुछ खाई-पी। दोपहर को फिर रोटी बनी। दोपहर की रोटी निबटी नहीं कि शाम की तैयारी फिर शुरु हो गई। जैसे-तैसे मर खप के रोटी बनाई जिया की चिल्लाहट शुरु।

चार रोटी का बनाईं सींज गईं। कहूँ की महारानी बनंगी। चुड़ैल बीछी की औलाद हैं।
छोटे भाई-बहन हर समय रो-रोकर गोदी लदने को तैयार रहते। सत्यवती का मन करता जमीन से दे मारो। मगर जिया के डर से लादना ही पड़ता था।

भैंस को अक्सर पानी पिलाने तालाब पर ले जाना पड़ता था। बड़ी दुष्ट भैंस थी। तालाब में घुस कर बैठ जाती। घंटों बाहर निकलने का नाम ही नहीं लेती थी। कहीं छोड़कर चले जाओ तब और मुसीबत। अगर धन्ना के खेत में घुस जाती। तो धन्ना ने भैंस देखी और चार लाठी जमाईं। फिर डर लगता, कहीं जिया को पता चल गया फिर पिटाई होगी।

माँ शब्द कितना ममतामयी होता है मगर मुझे नहीं लगता मेरी माँ ने कभी मुझे प्यार किया हो। हमेशा गाली देकर बात करती। जिंदगी में प्यार से बोलना कभी सीखा ही नहीं था। चाहे जितना काम करो कभी यह नहीं कहा कि बेटा आज थक गई होगी थोड़ा आराम कर लो।

जिया ऐसी क्यों थी ? शायद उस जमाने में अधिकतर लोग चिड़चिड़े थे। देश में खुशहाली नहीं थी। जिया पिताजी की तीसरी पत्नी थी। दो पहले ही मर चुकी थीं। पहली पत्नियों से कोई बच्चे नहीं थे। जिया की सास और जिया दोनों एक ही गांव की थीं। जब जिया की शादी हुई तब उनकी उम्र मात्र सोलह साल की थी। गरीबी की मार से मजबूर बाप ने पैंतीस साल के नारायण दास को ब्याह दी थी। भले ही वह पढ़ी-लिखी नहीं थीं मगर मन की भाषा तो जानती ही थीं। जिया की सास कमला ने भी उन पर अत्याचार करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। पिताजी को जिया से कोई वास्ता नहीं था सिवाय बच्चे पैदा करने के। बीस साल में दस बच्चे पैदा कर दिए।

       

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