लोगों की राय

नारी विमर्श >> दोलना

दोलना

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : राजभाषा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :99
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5854
आईएसबीएन :00000

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

29 पाठक हैं

आशापूर्ण देवी का एक सशक्त उपन्यास ‘दोलना’...

Dolana

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आशापूर्ण देवी के सशक्त उपन्यासों में ‘दोलना’ का प्रमुख स्थान हैं यह एक ऐसी विद्रोहिणी नारी की रोमांचक कहानी है जो कुंआरी रहते हुए भी एक शिशु की ममता के कारण मां-बाप, चाचा-चाची, यहां तक कि अपने प्रेमी को भी त्यागने को तत्पर है। मानसिक अंतर्द्वन्द्व, सामाजिक संघर्ष और नारी के विद्रोह स्वभाव की यह भरपूर मार्मिक कहानी है।
‘दोलना’ नारी की ममता और ममता के लिए विद्रोही की जीवंत गाथा है जो स्त्री की गरिमा का प्रतीक-चिह्न बन गई है।
इस उपन्यास पर बंगला में अत्यन्त सफल फिल्म भी बन चुकी है।

दोलना


सुमना कहीं पागल तो नहीं हो गईं ?
उसके इस दुस्साहसपूर्ण कार्य ने भरे-पूरे परिवार के शांत, घटना विहीन जीवन की समूची आशा-आकांक्षाओ पर पानी फेर दिया था। घर की मर्यादा, प्रतिष्ठा, मान-इज्जत सभी कुछ मानों दांव पर लगा बैठी थी वह। आखिर उसे इस भयानक खयाल के कैसे मुक्त किया जाए, यही चिंता घरवालों को बेचैन किए थी।
मां-बाप की लाड़ली, नाजों की पली सुमना कुछ वैसा ही कार्य कर बैठी थी जो किसी भी सभ्य समाज में कुंआरी लड़कियों के लिए अस्वाभाविक ही नहीं बल्कि गर्हित भी माना जाता है।
घरवालों ने सर पीट लिया। उन्हें तो स्वप्न में भी अनुमान न था कि उनकी सबसे अनमोल पूंजी ‘सुमना’ ही इस प्रकार उन्मादिनी बन कर लोक-लाज को तिलांजलि दे बैठेगी।

पिछले कई महीनों से जिगर की बीमारी के कारण सुमना का स्वास्थ्य दिनों-दिन गिरता चला जा रहा था। अत: बी.ए. की परीक्षा समाप्त होते ही ‘बेटी’ को लेकर कांतिकुमार ‘सांथाल परगना’ के इस स्वास्थ्यप्रद अंचल ‘शिमूलतला ग्राम में आए हुए थे। साथ में थी पत्नी सुजाता। कलकत्ते में भरा-पूरा संयुक्त परिवार था ही, सो बाकी बच्चों को वहीं छोड़ आने में कोई दिक्कत न हुई। पर यहां तो लेन-के-देन ही पड़ गए। कौन जानता था कि शारिरिक व्याधि से छुटकारा पाने के उद्देश्य से ‘चेंज’ के लिए आई हुई सुमना इस प्रकार मानसिक रोग का शिकार बन बैठेगी। भले-बुरे का ज्ञान खो बैठना मानसिक विकार नहीं तो और क्या है ?

बेटी की करनी पर सुजाता ने पहले तो आसमान पर सिर उठा लिया था। कांतिबाबू ने भी भौंहे सिकोड़कर असंतोष व्यक्त किया था। पर सुमना को उसके हठ से डिगाना मानो बालू में दूब उगाना था।
विवश होकर कांतिबाबू को धमकियों का सहारा लेना पड़ा और सुजाता को उपदेश का।
पुत्री को समझाते हुए कहा था सुजाता ने ‘‘सुमि, तू स्वयं ही ठंडे दिमाग से सोच-विचार कर देख, जिस कार्य पर तू तुली हुई है, वह कहां तक उचित है। अपने दिलोदिमाग से उस ‘प्राणी’ को कुछ क्षणों के लिए भुला कर, अपनी भावुकता को एक ओर रखकर सोच तो सही। एक बार याद कर कलकत्ते के अपने घर वालों को और फिर विचार कर देख कि किस सर्वनाशी पथ पर तूने कदम बढ़ाए हैं।’’

‘‘सोचा है मां, मैंने अच्छी तरह सोचा है।’’ नीचे झुकी नजर को किंचित ऊपर उटाते हुए सुमना ने जवाब दिया। ‘‘ओ, तो सोच-विचार कर इस फैसले पह पहुंची है ?’’ क्षोभ और निराशा से सुजाता का हृदय भर गया था- ‘‘तब तो तेरे पिताजी ठीक ही कहते हैं। लगता है, सचमुच तेरा दिमाग फिर गया है।’’
सुमना मौन थी। देखती रही उन्मुक्त आसमान की ओर.....वातावरण में कुछ देर स्तब्धता छाई रही।
सन्नाटा भंग करते हुए कांतिबाबू अत्यन्त गंभीरतापूर्वक बेटी से बोले- ‘‘हमारे मुंह पर कालिख पोतकर क्या तुग यही चाहती हो कि हम समाज में कहीं मुंह दिखाने लायक न रहें ? लाज-शरम सब-कुछ उठाकर ताक पर रख दी है तुमने ?’’ सुमना की आंखें छलछला आईं।

जीवन में पहली बार शायद पिता से ऐसे कठोर वचन सुनने पड़े थे उसे। इसके पहले भी कांतिबाबू ने उसे झिड़कियां दी थीं अवश्य, पर वह और कुछ नहीं ‘दुलार’ का ही प्रच्छन्न रूप था। अक्सर वह पुत्री से जवाब-तलब करते ही रहते थे कि क्यों उसने अब तक दवा नहीं ली....इतनी सर्द हवा में भी क्यों उसने इतने महीन वस्त्र पहन रखे हैं अथवा अब तक उसने फल का रस क्यों नहीं लिया आदि आदि....पर आज बेटी की जिद ने उनके स्नेहसिक्त हृदय की सरसता को बंजर मरुभूमि बना डाला था। बेटी के कुम्हलाए चेहरे की ओर देखकर उनका कलेजा नहीं पसीजा बल्कि समाज के सामने अपना मस्तक नीचा होने की चिंता ने उन्हें बेचैन कर रखा था।

पिता की उक्ति से नेत्रों में बरबस छलक आए आंसुओं को जबरन रोकती हुई सुमना ने जवाब दिया- ‘‘इसमें आप लोगों का तो कोई दोष नहीं नहीं पिताजी। आप लोगों को क्यों.....’’
कांतिबाबू के माथे पर बल पड़ गए। भौंहें सिकोड़ते हुए बोले- ‘‘तुम अब दूध पीती बच्ची नहीं रही सुमना। इस ‘क्यों’ का तात्पर्य क्या हो सकता है यह भलीभांति समझ सकती हो। तुम्हें यह भी अच्छी तरह मालूम है कि ‘बीमारी’ की हालत में ही तुम्हें लेकर दो महीने के चेंज के लिए आए हैं हम सब। अब यदि अचानक इस तरह की एक समस्या को लेकर लौटते हैं तो लोग-बाग....’’ कांतिबाबू से और अधिक न कहा गया। इससे अधिक और कह भी क्या सकते थे !
सुमना का गला भर आया। मां के साथ जैसा तर्क कर सकती थी पिता के समक्ष वह तर्क में टिक नहीं सकती थी। भर्रायी आवाज में बोली, ‘‘ठीक है, मेरे ही कारण यदि समाज में आप लोगों का मुंह नीचा होता है, प्रतिष्ठा पर आँच आती है तो बेहतर यही होगा पिताजी कि आप लोग मेरा परित्याग कर दें।’’
कांतिकुमार सन्न रह गए। बेटी के इस अप्रत्याशित निर्णय ने स्तब्ध कर दिया उन्हें। कुछ क्षण रुककर गहरी सांस खींचकर बोले- ‘‘क्या यही तुम्हारी मंशा है।’’

‘‘इसके सिवा जब दूसरा कोई उपाय ही नहीं.....’’ गला साफ करते हुए स्पष्ट आवाज में सुमना ने कहा।
‘‘क्यों, इसके सिवा क्या समाधान का और कोई जरिया तुम्हारे दिमाग में नहीं आया ? आश्चर्य होता है तुम्हारी बुद्धि पर ! तुम्हारी अक्ल पर पत्थर पड़ गए हैं सुमना, वरना तुम ऐसा न करतीं।’’
कांतिबाबू की आवाज में क्षोभ और वेदना व्याप्त थी। सुमना चुप रही। देखती रही आकाश की ओर मानो किसी खोए हुए आश्रय का संधान कर रही हो। क्या सचमुच वह नई शक्ति और साहस प्राप्त कर सकती है उस खुले निरभ्र आसामान से !
उत्तर की कुछ देर तक प्रतीक्षा कर कांतिबाबू फिर बोले- ‘‘तो तुम्हारे लिए उसको ‘छोड़ना’ असंभव है ! उसके बदले तुम हम सबसे संबंध-विच्छेद करने को तैयार हो ? क्या अब विश्वास करना ही पड़ेगा सुमना, कि तुम सचमुच पागल हो गई हो !’’
सुमना ने सिर झुकाकर नम्रतापूर्वक कहा- ‘‘मैंने आप लोगों को भयानक संकट में डाल दिया है, यह अच्छी तरह समझ रही हूं पिताजी। तभी तो वैसी बात मुंह से निकाल सकी हूं। लेकिन पिताजी....’’ सुमना के शब्दों में आग्रह था, ‘‘यदि आप चाहें तो उसे स्वीकार भी तो कर सकते हैं। आप लोगों के लिए यह........’’

‘‘नहीं, नहीं, यह कभी नहीं हो सकता.....’’ बीच में ही टोकते हुए कांतिकुमार बोले। यदि संभव होता तो फिर तुम्हें इतना आग्रह नहीं करना पड़ता। तुम्हारी बुद्धि पर पर्दा पड़ गया है सुमि, वरना तुम स्वयं समझ पातीं कि तुम्हारा यह आग्रह कितना बेतुका और असंभव है !
‘‘लेकिन पिताजी....’’ कहते-कहते रुक गई सुमना। बात जबान तक आकर वहीं अटक गई।
रुद्ध अभिमान से आहत सुमना के चेहरे पर वेदना की छाया उसके हृदय की पीड़ा को मुखरित कर रही थी। देखकर कांतिबाबू को पीड़ा अवश्य हुई पर हृदय अविचल बना रहा। यदि कोई जान-बूझकर कुए में गिरता है तो फिर उसके लिए आंसू बहाने को जी नहीं चाहता- चाहे कितना ही स्नेह-पात्र वह क्यों न हो ! सुमना का सिर-दर्द भी तो स्वनिर्मित था। दृढ़ स्वरों में बोले- ‘‘रुक क्यों गई, कहे जाओ क्या कहना चाहती हो ?’’

‘‘पिताजी’’, सजल नेत्रों से पिता की ओर देखती हुई दृढ़तापूर्वक सुमना ने कहा- ‘‘अब आप लोग मेरी चिन्ता न ही करें तो अच्छा होगा पिताजी। मुझे अपनी व्यवस्था स्वयं ही करने दें। रही रुपये-पैसे की बात, सो आप लोगों के दिए गए बहुत-से उपहारों को मैंने सहेजकर रख छोड़ा......इसके अलावा कुछ गहने भी हैं मेरे पास...’’
‘‘सुमना !....धृष्टता की भी एक सीमा होती है !’’ उबल पड़े कांतिबाबू। पुत्री की हठधर्मिता से धैर्य का बांध टूट गया था उनका। यों तो बहुत ही संयत प्रकृति के व्यक्ति थे वह। आज तक किसी ने जोर से दो शब्द दो शब्द भी न सुने होंगे उनके मुंह से। पर आज....चंदन ने आगे फेंक दी थी।

कठोर शब्दों में बोले- ‘‘तुम्हारे इस बहके विचार को मैं किसी भी हालत में प्रश्रय नहीं दे सकता। सोचा था, समझा-बुझाकर तुम्हारी अक्ल ठिकाने पर ला सकूँगा। पर देखता हूं, सीधी उंगली से घी नहीं निकलनेवाला। अब कान खोलकर सुन लो, कल ही हमारे साथ तुम्हें चलना है और अकेले ही चलना है।’’
पिता की धमकी ने सुमना के हठ पर कठोरता की एक और पर्त चढ़ी दी। नेत्रों के आंसू सूख गए पल-भर में। ‘‘और....और उसका क्या होगा ?’’ आवाज में स्थिरता भरकर बोली।
‘‘उसका जिम्मा मुझ पर छोड़ दो। जैसी भी व्यवस्था उपयुक्त समझूंगा, करूंगा।’’
अज्ञात आशंका से सुमना का कलेजा कांप उठा। कहीं उस गरीब की जान पर न बन जाए। तो क्या पिताजी ने .ही सोच रखा है। कहीं उसको सदा के लिए समाप्त करने जा रहे हैं ना आप ?’’ अपने कोमल होंठों को किंचित व्यंग्य से मोड़ती हुई सुमना ने कहा।

आग बरसाती हुई वे आंखें और व्यंग्य से भरे ये वचन- कांतिबाबू हतप्रभ-से हो गए। क्या सचमुच उन्हें आघात पहुंचाने के लिए ही सुमना ने यह सब कहा था या उसका दिमाग ही खराब हो गया है। नहीं पागलपन यह नहीं हो सकता। तो क्या जान-बूझकर ही वह पिता को चोट पहुंचाना चाहती है ?
कांतिकुमार को मानो काठ मार गया।

चित को दृढ़ किया उन्होंने। स्तब्धता भंग करते हुए बोले- ‘‘अच्छी बात है, यदि इतनी बड़ी बात तुम्हारी जबान से निकल ही गई तो अब मैं तुम्हारी आजादी में कोई रुकावट न डालूँगा। जो जी में आए, तुम कर सकती हो। सोचा था, नासमझी में जो गलत कदम उठा रही हो, समझा-बुझाकर सीधी राह पर ले आऊंगा...लेकिन यह मेरी भूल थी....समझ गया आज तुम बच्ची नहीं, बालिग हो गई हो। अपना भला-बुरा स्वयं सोचने की अक्ल आ गई है तुम में अब।’’ कहते हुए कांतिबाबू ने पत्नी की ओर देखा और बोले- ‘‘तुम भी अच्छी तरह सुन लो सुजाता, सुमना को अपनी मनमानी करने दो। छोड़ दो उसे। अब जो कुछ आगे आएगा, देखा जाएगा।’’

सुजाता जैसे इसके लिए तैयार न थी। झल्लाकर बोली- ‘‘जो मन में आए वही करने दूं ? क्या भले घर की लड़कियां ऐसा कुछ कर सकती हैं ? बेटी को सिर पर चढ़ा रखा है बचपन से, यह उसी का नतीजा है। और भी तो तीन बच्चे हैं तुम्हारे, उन्हें तो कभी ऐसा लाड़-दुलार नहीं दिया तुमने ?’’
‘‘तुम्हारा यह अभियोग गलत है सुजाता।’’ इस गंभीर वातावरण में भी कांतिबाबू के अधरों पर स्मिति खेल गई। ‘‘इतने बड़े परिवार में दीर्घ काल तक इकलौती संतान ही तो थी सुमना। इसी वजह से तो सबका भरपूर लाड़-प्यार इसे मिलता रहा। अब यदि सर पर इसके ‘जिद’ का भूत सवार है तो इसकी सजा सबको भुगतनी पड़ेगी। इसके लिए सिर्फ मैं ही तो दोषी नहीं !’’ सफाई देते हुए कांतिबाबू बोले।
‘‘और हां, यहां से बोरियां-बिस्तर बांधकर कल ही चलने की तैयारी करो।’’
‘‘उस ‘जंजाल’ को भी साथ ले चलना है ?’’
‘‘हां।’’

यद्यपि उस ग्राम्य-अंचल के कांतिबाबू का मन अभी भरा न था, पर स्थिति कुछ ऐसे जटिल हो चुकी थी कि एक क्षण के लिए भी वहां रहना अब वे मुनासिब नहीं समझते थे। उनकी धारणा थी कि यहां से हटते ही सुमना का यह ‘दिमागी फितूर’ भी धीरे-धीरे दूर हो जाएगा पर बेटी के फैसले ने उनकी समूची योजना पर पानी फेर कर रख दिया।
कांतिबाबू के जीवन के पचास वर्षों के शांत, घटनाविहीन पथ पर भाग्य की प्रतिकूलता की आंधी कभी नहीं चली थी। आज यदि तूफान आता ही है। तो उसका मुकाबला करना ही पड़ेगा। हिम्मत हारकर बैठने से तो कुछ नहीं होने वाला। जीवन की चुनौती स्वीकार करनी ही पड़ेगी।
यही सब सोचकर छोटे भाई को उन्होंने तार भेज दिया कि निश्चित समय के पूर्व ही वे यहां से लौटने को बाध्य हो रहे हैं। साथ में एक और प्राणी आ रहा है जिसे लेकर शायद कुछ झमेला भी खड़ा हो, पर अब दूसरा कोई उपाय नहीं है।



प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book