कहानी संग्रह >> तांत्रिक कहानियाँ तांत्रिक कहानियाँरमेशचन्द्र श्रीवास्तव
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प्रस्तुत हैं रहस्य और रोमांच से भरी हुए कहानियाँ....
Tantrik Kahaniyan
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द आपसे
जीवन में प्रत्येक व्यक्ति बहुत कुछ पाता है तो बहुत कुछ खोता भी है मेरे स्वयं के जीवन में भी ऐसा ही कुछ रहा है। जीवन यात्रा बड़ी कठिन थी। मेरी हालांकि मैं आभावों में नहीं पाला-बढा किन्तु नियति को जो मन्जूर होता है वही तो होगा।
और वही मेरे साथ भी होता रहा। शिक्षाकाल से कहानी कविता से लेखन प्रारम्भ हुआ। घर-परिवार वालो के विरोध के बावजूद लेखनी चलती रही उपन्यास छपने लगे और ख्याति भी होने लगी पत्रकारिता से जुड़ा तो सम्पादक चीफ रिपोर्टर तक की यात्रा भी की। यश मिलता रहा धन मिला या नहीं मिला फिर भी खर्च चलता रहा। नौकरी की नौकरी से अवकाश लेकर पत्रिका सम्हाली फिर साध्य सामाचार निकाला।
परन्तु प्यासी आत्मा पूर्वजन्म के सस्कारो के कारण इस जन्म में भी प्यासी ही रही। मन रमा तो माँ की गोद में। ममता का आँचल मिला तो शारदा माँ के वक्ष से लग गया।
अब भटकाव नहीं। मन उन्हीं के चरणों में रमा है, रमा रहेंगा और दूसरो को, आपको भी उन्हीं के चरणों में लगाने की प्रेरणा देता रहूँगा।
पूर्व जन्मों से प्रारब्ध एंव संस्कार चले आ रहे हैं, तभी तो भक्ति-भावना से परिपूर्ण परिवार में मेरी आत्मा ने शरीर धारण किया। माता-पिता राम+शिव भक्त थे। भाई राम + शिव भक्त थे। एक भाई देवी माँ के साथ सभी देवी-देवताओं के भक्त हैं। फिर बचपन से शक्ति साधना की ओर मेरा खिंचा मन रहता। शिव-शक्ति क उपासक सेवक स्वकग तंत्र –मंत्र में प्रवेश कर गया। मैहर की शारदा माँ की कृपा जन्म से थी, परन्तु समझा अब। पहली बार 9वीं कक्षा में 13 वर्ष की उम्र में यों ही अकेले दर्शन को चला गया था। उन्होंने बुलाया होगा तब न !
तंत्र-मन्त्र पर लेख, कहानी, उपन्यास, पुस्तकें लिखनें का क्रम जारी है। केवल लिखता ही नहीं वरन् वह लिखता हूँ जो भोगा हुआ है, देखा हुआ है, सुना और पढ़ा हुआ है फिर भी वैज्ञानिक है। यह तांत्रिक कहानियाँ केवल कुछ साधनाओं के नमूने हैं।
मेरी लिखी सत्य एवं काल्पनिक तांत्रिक कहानियों का संग्रह किया जाए तो हजार पेज कम पड़ेगे। इसलिए कुछ चुनी हुई कहानियाँ इस पुस्तक में दे रहा हूँ।
पाठकों की रुचि तांत्रिक कहानियों में बढ़ती जा रही है। अतः पूर्व प्रकाशित वह कहानियाँ इस पुस्तक में संकलित कर दिया है जिन्हें पाठक बार-बार पढना चाहते हैं।
आशा है, यह कहानियाँ आपका मनोरंजन भी करेगी और ज्ञानवर्द्धन भी करेंगी।
और वही मेरे साथ भी होता रहा। शिक्षाकाल से कहानी कविता से लेखन प्रारम्भ हुआ। घर-परिवार वालो के विरोध के बावजूद लेखनी चलती रही उपन्यास छपने लगे और ख्याति भी होने लगी पत्रकारिता से जुड़ा तो सम्पादक चीफ रिपोर्टर तक की यात्रा भी की। यश मिलता रहा धन मिला या नहीं मिला फिर भी खर्च चलता रहा। नौकरी की नौकरी से अवकाश लेकर पत्रिका सम्हाली फिर साध्य सामाचार निकाला।
परन्तु प्यासी आत्मा पूर्वजन्म के सस्कारो के कारण इस जन्म में भी प्यासी ही रही। मन रमा तो माँ की गोद में। ममता का आँचल मिला तो शारदा माँ के वक्ष से लग गया।
अब भटकाव नहीं। मन उन्हीं के चरणों में रमा है, रमा रहेंगा और दूसरो को, आपको भी उन्हीं के चरणों में लगाने की प्रेरणा देता रहूँगा।
पूर्व जन्मों से प्रारब्ध एंव संस्कार चले आ रहे हैं, तभी तो भक्ति-भावना से परिपूर्ण परिवार में मेरी आत्मा ने शरीर धारण किया। माता-पिता राम+शिव भक्त थे। भाई राम + शिव भक्त थे। एक भाई देवी माँ के साथ सभी देवी-देवताओं के भक्त हैं। फिर बचपन से शक्ति साधना की ओर मेरा खिंचा मन रहता। शिव-शक्ति क उपासक सेवक स्वकग तंत्र –मंत्र में प्रवेश कर गया। मैहर की शारदा माँ की कृपा जन्म से थी, परन्तु समझा अब। पहली बार 9वीं कक्षा में 13 वर्ष की उम्र में यों ही अकेले दर्शन को चला गया था। उन्होंने बुलाया होगा तब न !
तंत्र-मन्त्र पर लेख, कहानी, उपन्यास, पुस्तकें लिखनें का क्रम जारी है। केवल लिखता ही नहीं वरन् वह लिखता हूँ जो भोगा हुआ है, देखा हुआ है, सुना और पढ़ा हुआ है फिर भी वैज्ञानिक है। यह तांत्रिक कहानियाँ केवल कुछ साधनाओं के नमूने हैं।
मेरी लिखी सत्य एवं काल्पनिक तांत्रिक कहानियों का संग्रह किया जाए तो हजार पेज कम पड़ेगे। इसलिए कुछ चुनी हुई कहानियाँ इस पुस्तक में दे रहा हूँ।
पाठकों की रुचि तांत्रिक कहानियों में बढ़ती जा रही है। अतः पूर्व प्रकाशित वह कहानियाँ इस पुस्तक में संकलित कर दिया है जिन्हें पाठक बार-बार पढना चाहते हैं।
आशा है, यह कहानियाँ आपका मनोरंजन भी करेगी और ज्ञानवर्द्धन भी करेंगी।
रमेश चन्द्र श्रीवास्तव
1
यात्रा सूक्ष्म शरीर से
श्रीमती नीलिमा श्रीवास्तव द्वारा भोगा हुआ एक सत्य संस्मरण जो मेरी साधना का एक अंश है।
7 अक्टूबर, 82 की वह भोर मुझे अब तक के जीवन में अत्यन्त दुविधात्मक लगी थी। मन में आशंकाओं के बादल मँडराने लगे थे और आँखों में आँसुओं की झड़ी लग रही थी। किसी मां की बेटी अस्पताल में मरणासन्न हो और वह उसके पास जा भी न सकती हो इससे बड़ी दुःखद बात और हो भी क्या सकती है-कैसी भंयकर विडम्बना थी।
प्रातः के पाँच बजे थे। रात भर गोद की बच्ची अचानक तीव्र ज्वर के कारण तड़पी थीं, रोई थी। प्रातः कुछ नींद का झटका लगा था। बच्ची भी मेरे आँचल में मुँह मेरे पति (श्री रमेशचन्द्र श्रीवास्तव) फर्श पर चटाई डाले। लेटे थे। कुछ देर पूर्व से ही वे माँ भगवती के स्त्रोत्र पढ़ रहे थे और करवट बदल रहे थे। रात भर बच्ची के रोने के कारण वे भी सो नहीं सके थे। ‘खट-खट’ सुनकर उन्होंने स्वयं उस व्यक्ति का नाम लेकर सम्बोधित किया-‘‘कौन ओम प्रकाश ?’’
‘‘जी, खेलिये।’’
‘‘ओह......तू आ ही गया।’’ बड़बड़ाते हुए उन्होंने उठकर द्वार खोल दिया मैं ओमप्रकाश के आने से चौंक गयी थी। आलस्य के कारण मन उठने का नहीं कर रहा था फिर भी उठती हुई बोली-‘ओमप्रकाश कहाँ से आ रहे हो सबेरे-सबेरे ? सब ठीक तो है न ?’’
उसकी आँखें डबडबा आयीं और वह अवरूद्ध कण्ठ से बोला-‘‘रुचि की तबियत बहुत खराब है वह......। उसकी बात पूरी होने से पहले मैं घबराकर पूछ बैठी क्या हुआ रुचि को ? यहाँ से तो वह भली-चंगी गई थी।’’
‘‘परसों से उसकी तबीयत खराब थी। कल सुबह डाक्टर को दिखाया गया, किन्तु उससे कोई लाभ नहीं हुआ। शाम को कटरा का रामदल निकलना था, सब लोग त्यौहार की खुशी में थे तभी उसकी तबियत बिगड़ती चली गयी। कल रात को उसकी हालत इतनी बिगडी गयी कि उसकी आँखें उलट गयीं और हिचकी लेने लगी। हिचकी के दौरान उसके मुँह से अजीब किस्म का झाग निकलता था।’’
‘‘सब अपने-अपने में मस्त रहे होगें, किसी ने उसे ठीक समय से उसे दवा न दिया होगा।’’ मेरी ममता अपने मायके वालों पर बिगड़ पड़ी।
‘‘नहीं ....ऐसी कोई बात नहीं, सब लोग रुचि के पास ही बैठे रहे। समय-समय से मौसी-नानी दवा देतीं रहीं, किंतु पता नहीं क्यों कोई दवा फायदा ही न की।’’
‘‘अब कैसी है ?’’ मेरे पति ने उससे पूछा।
‘‘जब उसकी आँखें उलट गयीं और मुँह से झाग जैसा निकलने लगा नानी रोने लगी। उसी समय मौंसी की समझ में न जाने क्या हुआ कि उसने बिना कपड़े बदले ही रुचि को गोद में उठा लिया और ऊपर से नीचे चली आयी।’’ अब इसे तुरन्त अस्पताल ले चलना चाहिए।’’
मौसी के पीछे नानी, मामा और नीचे रहने वाले बाँके भी दौड़ पड़े। मौसी ने रिक्शे की परवाह नहीं की। वह रुचि को कंधे पर उठाये तेजी से सड़क पर चली जा रही थी।
‘‘तो इस समय अस्पताल मे है रुचि ?’’ मेरे पतिदेव ने पूछा।
‘‘हाँ, डाक्टर ने एडमिट कर लिया है और दवा दी, सुई लगाई।’’ ओमप्रकाश ने बताया।
‘‘अब कैसी है हमारी रुचि ?’’
जब तक मैं चला था तब तक हालत ठीक नहीं थी, नानी ने आप को तुरन्त बुलाया है। ओमप्रकाश की आँखें डबडबा आयी थीं। डाक्टरों ने क्या कहा ? पतिदेव ने पूछा तो ओमप्रकाश का गला और भर आया, वह रोते हुए बोला-‘‘डाक्टर कहते है कि आजकल इस तरह का रोग बच्चों को काफी हो रहा है, सुबह तक बच जाए तो....।
‘‘पागल है डाक्टर, उसे कुछ और नहीं हुआ वही पसली चलने वाली बीमारी है। शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा से पहले उसे प्रायः पसली चलने का अटैक हो जाता है और पूर्णिमा के बाद ठीक हो जाता है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है।’’ उन्होंने हम लोगों को समझाया।
किंतु मैं देख रही थी कि उनके शान्त चेहरे पर भी इस समय विषाद एवं चिन्ताओं की रेखाये खिंच गयी थीं। मैं अपने पति की बातों का विरोध नहीं करना चाहती थी। फिर भी उनकी बातें और बेटी की मरणासन्न स्थित का विवरण सुनकर नाराज हो गयी।
‘‘इस तरह उसकी पसली कभी नहीं चलीं किं आँखें उलट जायें और मुँह से झाग निकलने लगे। आप तो हर बात को इतना साधारण बना देते हैं कि कुछ कहा नहीं जा सकता है।’’ मेरे स्वर में कुछ गुस्सा भी था।
‘‘बेटी सिर्फ तुम्हारी ही नहीं है, मेरी भी है। मैं कहता हूँ उसे कुछ न होगा फिर भी तुम तैयार होकर ओमप्रकाश के साथ टैक्सी से इलाहाबाद चली जाओ।’’ उन्होंने अत्यन्त सरल स्वर में कहा।
‘‘और आप ?’’ मैंने प्रश्न किया।
‘‘मैं कैसे जा सकता हूँ ?’’
‘‘क्यों .......आपकों बेटी का मोह नहीं है ?’’
‘‘पगला गई हो क्या ? माँ भगवती की पूजा छोड़कर मैं इलाहाबाद जाऊँगा। आज ही नवमी है। आज पूर्णाहुति होनी है। बिना पूर्णाहुति किये कभी नहीं गया हूँ जो आज ही चला जाउँगा।’’
मेरे होश उड़ गये अब तक मैं भूल गयी थी कि हमारे यहाँ नवरात्रि की पूजा चल रही है और मेरे मेरे पति पूजन छोड़ कर किसी देवी धाम को भी नहीं जाते फिर पूर्णाहुति के दिन तो और भी असम्भव था। मैंने कुछ पल सोचने में बिताएँ फिर रूखे स्वर से बोली-‘‘चाहे रुचि मर जाए पर आप......।’’ कहते मेरी आँखों से आँसू टपकने लगे।
‘‘बेकार की बातें मत करों मरना जीना तुम्हारे हाथ में है क्या ? सब माँ भगवती देखती है। यदि उन्हें रुचि को मारना होगा तो हम कुछ भी करें वह मर जायेगी और यदि उन्हें बचाना होगा, तो कोई शक्ति भी उसे नहीं मार सकती। वह जगत जननी हैं, सब की माँ हैं। इतना पूजन-अर्चन करने के बाद भी तुम्हारे अन्दर माँ पर विश्वास नहीं जगा, मोह में अन्धी हो रही हो। मैं कहता हूँ, मां की पूजा से बढ़कर भी तुम्हारी बेटी है ?’’
मैं रोने लगी, रो-रोकर कहने लगी-‘‘कितनी श्रद्धा से, कितनी लगन से, हम लोग है माँ की पूजा करते हैं. परन्तु हर नवरात्रि में कुछ न कुछ अघटित घट ही जाता है .......क्या करूं ? आखिर मैं भी तो माँ हूँ।’’
‘‘तो तुम चली जाओ। उनका स्वर पहले की अपेक्षा सख्त हो गया था। शायद मेरे आँसुओं ने सख्त कर दिया था।
‘‘क्या जाना उचित होगा ?’’ मेरे मन में देवी पूजन से चले जाने का भय व्याप्त हो गया था। कभी अनुष्ठान छोड़कर नहीं जाना चाहिए, यह पढ़ा-सुना था मैंने।
‘‘सत्य जानना चाहती हो तो पूजा छो़ड़ कर जाना उचित नहीं हैं। वह भी पूर्णाहुति के दिन, दूसरा दिन होता तो सोचा जाता।’’
‘‘तब .......?’’ पति के मुँह से स्पष्ट बात सुनकर मैं उनका मुँह ताकने लगी। दुर्गा माँ के चित्र की ओर अपलक कुछ पल देखते रहने और सोचने के बाद वह बोले ऐसा करों नित्य की भाँति पूजन कर लो, देवी माँ का श्रृंगार कर दो, फिर क्षमा याचना करके चली जाओं।’’
मुझे पति की यह बात उचित लगी। मैं ने कहा ठीक है मैं पूजा करके ओमप्रकाश के साथ चली जाऊँगी। देवी मां से क्षमा माँग लूँगी, वे सब जानती हैं।’’
‘‘इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।’’ वे चटाई से उठते हुए बोले।
मैं भी गोद की बच्ची को ओमप्रकाश की गोद में देती हुई उठ गयी। मेरा हृदय उस समय इतना दुःखी था कि कुछ कह नहीं सकती। बेटी मरणासन्न हो और उसके पिता अपनी पूजा छोड़कर न जाने का निश्चय कर चुके हो। मैं भी पूजा छोड़ना नहीं चाहती थी, परन्तु दूसरी ओर बेटी की ममता पुकार रही थी। उठते-उठते मैंने पूछ ही लिया-आप पूर्णाहिति करके रात की ट्रेन से आ जाइयेगा। मै जानती हूँ रुचि पापा-पापा रट रही होगी।’’
प्रातः के पाँच बजे थे। रात भर गोद की बच्ची अचानक तीव्र ज्वर के कारण तड़पी थीं, रोई थी। प्रातः कुछ नींद का झटका लगा था। बच्ची भी मेरे आँचल में मुँह मेरे पति (श्री रमेशचन्द्र श्रीवास्तव) फर्श पर चटाई डाले। लेटे थे। कुछ देर पूर्व से ही वे माँ भगवती के स्त्रोत्र पढ़ रहे थे और करवट बदल रहे थे। रात भर बच्ची के रोने के कारण वे भी सो नहीं सके थे। ‘खट-खट’ सुनकर उन्होंने स्वयं उस व्यक्ति का नाम लेकर सम्बोधित किया-‘‘कौन ओम प्रकाश ?’’
‘‘जी, खेलिये।’’
‘‘ओह......तू आ ही गया।’’ बड़बड़ाते हुए उन्होंने उठकर द्वार खोल दिया मैं ओमप्रकाश के आने से चौंक गयी थी। आलस्य के कारण मन उठने का नहीं कर रहा था फिर भी उठती हुई बोली-‘ओमप्रकाश कहाँ से आ रहे हो सबेरे-सबेरे ? सब ठीक तो है न ?’’
उसकी आँखें डबडबा आयीं और वह अवरूद्ध कण्ठ से बोला-‘‘रुचि की तबियत बहुत खराब है वह......। उसकी बात पूरी होने से पहले मैं घबराकर पूछ बैठी क्या हुआ रुचि को ? यहाँ से तो वह भली-चंगी गई थी।’’
‘‘परसों से उसकी तबीयत खराब थी। कल सुबह डाक्टर को दिखाया गया, किन्तु उससे कोई लाभ नहीं हुआ। शाम को कटरा का रामदल निकलना था, सब लोग त्यौहार की खुशी में थे तभी उसकी तबियत बिगड़ती चली गयी। कल रात को उसकी हालत इतनी बिगडी गयी कि उसकी आँखें उलट गयीं और हिचकी लेने लगी। हिचकी के दौरान उसके मुँह से अजीब किस्म का झाग निकलता था।’’
‘‘सब अपने-अपने में मस्त रहे होगें, किसी ने उसे ठीक समय से उसे दवा न दिया होगा।’’ मेरी ममता अपने मायके वालों पर बिगड़ पड़ी।
‘‘नहीं ....ऐसी कोई बात नहीं, सब लोग रुचि के पास ही बैठे रहे। समय-समय से मौसी-नानी दवा देतीं रहीं, किंतु पता नहीं क्यों कोई दवा फायदा ही न की।’’
‘‘अब कैसी है ?’’ मेरे पति ने उससे पूछा।
‘‘जब उसकी आँखें उलट गयीं और मुँह से झाग जैसा निकलने लगा नानी रोने लगी। उसी समय मौंसी की समझ में न जाने क्या हुआ कि उसने बिना कपड़े बदले ही रुचि को गोद में उठा लिया और ऊपर से नीचे चली आयी।’’ अब इसे तुरन्त अस्पताल ले चलना चाहिए।’’
मौसी के पीछे नानी, मामा और नीचे रहने वाले बाँके भी दौड़ पड़े। मौसी ने रिक्शे की परवाह नहीं की। वह रुचि को कंधे पर उठाये तेजी से सड़क पर चली जा रही थी।
‘‘तो इस समय अस्पताल मे है रुचि ?’’ मेरे पतिदेव ने पूछा।
‘‘हाँ, डाक्टर ने एडमिट कर लिया है और दवा दी, सुई लगाई।’’ ओमप्रकाश ने बताया।
‘‘अब कैसी है हमारी रुचि ?’’
जब तक मैं चला था तब तक हालत ठीक नहीं थी, नानी ने आप को तुरन्त बुलाया है। ओमप्रकाश की आँखें डबडबा आयी थीं। डाक्टरों ने क्या कहा ? पतिदेव ने पूछा तो ओमप्रकाश का गला और भर आया, वह रोते हुए बोला-‘‘डाक्टर कहते है कि आजकल इस तरह का रोग बच्चों को काफी हो रहा है, सुबह तक बच जाए तो....।
‘‘पागल है डाक्टर, उसे कुछ और नहीं हुआ वही पसली चलने वाली बीमारी है। शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा से पहले उसे प्रायः पसली चलने का अटैक हो जाता है और पूर्णिमा के बाद ठीक हो जाता है, इसके अतिरिक्त कुछ नहीं है।’’ उन्होंने हम लोगों को समझाया।
किंतु मैं देख रही थी कि उनके शान्त चेहरे पर भी इस समय विषाद एवं चिन्ताओं की रेखाये खिंच गयी थीं। मैं अपने पति की बातों का विरोध नहीं करना चाहती थी। फिर भी उनकी बातें और बेटी की मरणासन्न स्थित का विवरण सुनकर नाराज हो गयी।
‘‘इस तरह उसकी पसली कभी नहीं चलीं किं आँखें उलट जायें और मुँह से झाग निकलने लगे। आप तो हर बात को इतना साधारण बना देते हैं कि कुछ कहा नहीं जा सकता है।’’ मेरे स्वर में कुछ गुस्सा भी था।
‘‘बेटी सिर्फ तुम्हारी ही नहीं है, मेरी भी है। मैं कहता हूँ उसे कुछ न होगा फिर भी तुम तैयार होकर ओमप्रकाश के साथ टैक्सी से इलाहाबाद चली जाओ।’’ उन्होंने अत्यन्त सरल स्वर में कहा।
‘‘और आप ?’’ मैंने प्रश्न किया।
‘‘मैं कैसे जा सकता हूँ ?’’
‘‘क्यों .......आपकों बेटी का मोह नहीं है ?’’
‘‘पगला गई हो क्या ? माँ भगवती की पूजा छोड़कर मैं इलाहाबाद जाऊँगा। आज ही नवमी है। आज पूर्णाहुति होनी है। बिना पूर्णाहुति किये कभी नहीं गया हूँ जो आज ही चला जाउँगा।’’
मेरे होश उड़ गये अब तक मैं भूल गयी थी कि हमारे यहाँ नवरात्रि की पूजा चल रही है और मेरे मेरे पति पूजन छोड़ कर किसी देवी धाम को भी नहीं जाते फिर पूर्णाहुति के दिन तो और भी असम्भव था। मैंने कुछ पल सोचने में बिताएँ फिर रूखे स्वर से बोली-‘‘चाहे रुचि मर जाए पर आप......।’’ कहते मेरी आँखों से आँसू टपकने लगे।
‘‘बेकार की बातें मत करों मरना जीना तुम्हारे हाथ में है क्या ? सब माँ भगवती देखती है। यदि उन्हें रुचि को मारना होगा तो हम कुछ भी करें वह मर जायेगी और यदि उन्हें बचाना होगा, तो कोई शक्ति भी उसे नहीं मार सकती। वह जगत जननी हैं, सब की माँ हैं। इतना पूजन-अर्चन करने के बाद भी तुम्हारे अन्दर माँ पर विश्वास नहीं जगा, मोह में अन्धी हो रही हो। मैं कहता हूँ, मां की पूजा से बढ़कर भी तुम्हारी बेटी है ?’’
मैं रोने लगी, रो-रोकर कहने लगी-‘‘कितनी श्रद्धा से, कितनी लगन से, हम लोग है माँ की पूजा करते हैं. परन्तु हर नवरात्रि में कुछ न कुछ अघटित घट ही जाता है .......क्या करूं ? आखिर मैं भी तो माँ हूँ।’’
‘‘तो तुम चली जाओ। उनका स्वर पहले की अपेक्षा सख्त हो गया था। शायद मेरे आँसुओं ने सख्त कर दिया था।
‘‘क्या जाना उचित होगा ?’’ मेरे मन में देवी पूजन से चले जाने का भय व्याप्त हो गया था। कभी अनुष्ठान छोड़कर नहीं जाना चाहिए, यह पढ़ा-सुना था मैंने।
‘‘सत्य जानना चाहती हो तो पूजा छो़ड़ कर जाना उचित नहीं हैं। वह भी पूर्णाहुति के दिन, दूसरा दिन होता तो सोचा जाता।’’
‘‘तब .......?’’ पति के मुँह से स्पष्ट बात सुनकर मैं उनका मुँह ताकने लगी। दुर्गा माँ के चित्र की ओर अपलक कुछ पल देखते रहने और सोचने के बाद वह बोले ऐसा करों नित्य की भाँति पूजन कर लो, देवी माँ का श्रृंगार कर दो, फिर क्षमा याचना करके चली जाओं।’’
मुझे पति की यह बात उचित लगी। मैं ने कहा ठीक है मैं पूजा करके ओमप्रकाश के साथ चली जाऊँगी। देवी मां से क्षमा माँग लूँगी, वे सब जानती हैं।’’
‘‘इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।’’ वे चटाई से उठते हुए बोले।
मैं भी गोद की बच्ची को ओमप्रकाश की गोद में देती हुई उठ गयी। मेरा हृदय उस समय इतना दुःखी था कि कुछ कह नहीं सकती। बेटी मरणासन्न हो और उसके पिता अपनी पूजा छोड़कर न जाने का निश्चय कर चुके हो। मैं भी पूजा छोड़ना नहीं चाहती थी, परन्तु दूसरी ओर बेटी की ममता पुकार रही थी। उठते-उठते मैंने पूछ ही लिया-आप पूर्णाहिति करके रात की ट्रेन से आ जाइयेगा। मै जानती हूँ रुचि पापा-पापा रट रही होगी।’’
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- यात्रा सूक्ष्म शरीर से
- प्रेतनी माया से मुलाकात
- रहस्यमय भैरवी
- रक्षक प्रेतात्मा माया
- सहयोगी पवित्र आत्मा
- अनिष्ट से मुक्ति
- वह आत्मायें बुलाती थीं
- प्रेम दीवानी तन्त्र साधिका
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- तन्त्र-साधक देवदत्त का अन्त
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- सम्मोहन का जादू
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अनुक्रम
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लोगों की राय
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