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जीवनी/आत्मकथा >> मदन मोहन मालवीय

मदन मोहन मालवीय

अशोक कौशिक

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5866
आईएसबीएन :81-288-1718-3

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भारत के महान क्रांतिकारी मदन मोहन मालवीय...

Madan Mohan Malveeya - A Hindi Book of Great Indian Personalities

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मानव जीवन में संस्कारों का बहुत बड़ा महत्त्व है। संस्कारों के द्वारा सद्गुणों का विकास करके समाज में उपयोगी बनना है। संस्कारों का अर्थ होता है व्यक्तित्व को सजाना, संवारना, उच्च और स्वच्छ बनाना। इन्हीं संस्कारों में पण्डित मदनमोहन मालवीय जी पले थे।

ऐसे संस्कारों से ही महामना मदनमोहन मालवीय जी अपने त्याग, धर्मरक्षा, भक्ति सात्विकता, पवित्रता धर्मनिष्ठा, आत्मत्याग आदि सद्गुणों के तो साक्षात् अवतार ही थे। मालवीय जी समाज के प्रति और देश को आजाद कराने में अनेक कष्ट सहन करते हुए अपने कर्तव्य से कभी विमुख नहीं हुए। मालवीय जी की हार्दिक इच्छा थी कि वह भारतीय संस्कृति हिंदू-मुस्लिम एकता और सभी प्राणियों पर दया करें।

यद्यपि मालवीय जी आज विद्यमान नहीं हैं, परंतु उनकी कीर्ति, उनके द्वारा रोपित पादप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आज भी वट वृक्ष का रूप धारण कर समस्त संसार में शिक्षा के रूप में प्रख्यात है। बड़े राजनीतिज्ञ उनके जीवन से प्रेरणा प्राप्त करते हैं, धर्मध्वजी मालवीयजी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए उनके पद चिह्नों पर चलने की प्रेरणा लेते हैं। इस पुस्तक में मालवीय जी के जीवन का पूरा विवरण प्रस्तुत है।

भूमिका


स्वर्गीय पण्डित मदनमोहन मालवीय केवल एक व्यक्ति ही नहीं अपितु वे स्वयं में अनेक संस्थाएं भी थे। ऐसे संस्थारूपी महापुरुष का जीवनचरित्र लिख पाना न तो साधारण सी बात है और न बहुत सरल ही। फिर भी इस दिशा में प्रयास किया गया है। उनका व्यक्तित्व अपने ढंग का अनूठा ही था। वे जैसे धवल वस्त्रधारी थे, वैसा ही उनका हृदय भी पवित्र था। उनको कभी किसी ने द्वेष और ईर्ष्या के वश में आकर काम करते हुए नहीं देखा। गांधीजी ने उनको सदा ही अपना बड़ा भाई माना और उनके परामर्श का उन्होंने सदा सम्मान किया। मालवीय जी नैतिकता के पुजारी थे। वास्तविकता तो यह है कि उनकी नैतिकता ने ही देशवासियों के हृदय में उनको श्रेष्ठतम स्थान प्रदान किया। वे देश के उन थोड़े से इने गिने महापुरुषों में से थे जिन्होंने देशवासियों का पथ प्रदर्शन किया और जिनको देश सदा स्मरण करता रहेगा।

भारत की तत्कालीन राजनीति को विशिष्ट दिशा में ढालने में मालवीय जी का बहुत बड़ा हाथ रहा है। मालवीय जी का अपनी प्राचीन संस्कृति के प्रति विशेष आकर्षण था। अपनी संस्कृति की अभिवृद्धि के लिए वे सदा यत्नशील रहे। मालवीय जी न किसी भाषा के विरोधी थे और न किसी मत अथवा सम्प्रदाय के। उनकी विशेषताओं का ही थोड़ा बहुत चित्रण इस पुस्तक में किया गया है। वे बिना किसी का विरोध किए अपना कार्य स्वयं करते थे।

मालवीय जी के जीवन काल में हमारे जो राजनीतिक नेता थे वे अनेक प्रकार के और अनेक विचारो के थे। वह ऐसा युग था जब कि हमारे देश में अनेक महापुरुष हुए। उनमें से अधिकांश जन उस समय की एकमात्र संस्था कांग्रेस की ओर खिंच गए थे। यद्यपि कांग्रेस को जन्म देने वाले एक सेवानिवृत्त अंग्रेज अधिकारी सर ए.ओ.ह्यूम थे, किन्तु मालवीय जी जैसे लोगों के कांग्रेस, में चले जाने से उस संस्था की अंग्रेजियत धीरे-धीरे कम होती गई और भारतीयता बढ़ती गई। जहां प्रारंभ में कांग्रेस अधिवेशनों में मंगलाचरण के स्थान पर सम्राट की सुख-समृद्धि की कामना के गीत गाए जाते थे वहां मालवीय जी के आने के कारण उसमें ‘वन्देमातम्’ का गान होने लगा था। अपनी प्राचीन संस्कृति की ओर कांग्रेस का सदा ध्यान रहे, मालवीय जी इसके लिए प्रयत्न शील रहते थे। पनपती हुई अंग्रेजियत पर मालवीय जी बहुत अंशों में अंकुश लागने में सफल हो गए थे।

इस संबंध में पण्डित नेहरु ने एक स्थान पर लिखा है-
मालवीय जी ने अपना सारा वजन हिन्दुस्तानियत पर, भारतीयता पर डाला और तराजू के पलड़े को कुछ बराबर करने पर। उस समय भी बहुत सारे लोग थे, बड़े विद्वान लोग थे, संस्कृति के बड़े पण्डित लोग भी थे, पर जहां तक मेरा विचार है, राजनैतिक नेताओं में बड़े नेताओं में मालवीय जी ही शायद इस मामले में सबसे आगे थे। वे रोकते थे अंग्रेजियत की बाढ़ को, पर विरोध करके नहीं बल्कि अपने काम से, अपने विचारों से और कोशिश करते थे अपनी संस्कृति को बढ़ाने की।’’

काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना में मालवीय जी का उद्देश्य भारतीयों को भारतीयता की शिक्षा देना और भारतीय संस्कृति की अभिवृद्धि करना था। उनके सम्मुख एक ही लक्ष्य था-आधुनिक युग के विज्ञान और टैक्नोलॉजी तथा औद्योगिक आदि को प्राचीन भारतीय संस्कृति के साथ जोड़ना।

मालवीय जी का जीवन आदर्श जीवन रहा है, इसका उल्लेख आगे के पृष्ठों में स्थान-स्थान पर किया गया है। आजकल के नवयुवक मालवीय जी के जीवन से बहुत कुछ सीख सकते हैं। सबसे बड़ी बात तो यही सीखनी चाहिए कि मनुष्य अपने सम्मुख एक लक्ष्य निर्धारित करे, एक उद्देश्य निर्धारित करे और फिर उसके लिए काम करना आरंभ कर प्राण पण से लग जाए तथा जब तक सिद्धि प्राप्त न हो जाए तब तक कार्य में लगा रहे। जैसा कि उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के अपने लक्ष्य और अपने उद्देश्य के लिए किया।

मालवीय जी ने राजनीति में भी इसी प्रकार अपना लक्ष्य निर्धारित किया और उस ओर चल पड़े। किन्तु एकाकी नहीं अपितु सब को साथ लेकर। केवल स्वयं आगे बढ़ जाना नेतृत्व की कसौटी नहीं है। अपितु सबको साथ लेकर चलना ही श्रेष्ठता की कसौटी है। मालवीय जी ने पुरानी और नई पीढी में सामंजस्य स्थापित किया, इस प्रकार दोनों पीढ़ियों का उन्होंने दिशा निर्देशन किया।

मालवीय जी न केवल स्वयं सम्मान से जिए अपितु उन्होंने अपने देशवासियों को सम्मानित जीवन की कला सिखाई। पत्रकार के रूप में उन्होंने जो गरिमा अर्जित की, वकील के रूप में भी उसी गरिमा को स्थाई रखा तथा राजनीति, जो वारांगना का एकरूप मानी जाती है, में भी वे जल में कमल के समान निर्लिप्त भाव से कार्य करते हुए अपने उद्देश्य की पूर्ति करते रहे।

मालवीय जी ने कभी स्वार्थ अथवा अपने परिवार आदि के लिए अपने नेतृत्व और वकृत्व का दुरुपयोग नहीं किया। वे यदि चाहते तो अपनी वकालत से ही भारत के धन कुबेरों में से एक हो सकते थे। उनका जो परिवार तिल-तिल और कण कण के लिए संघर्षरत रहा वह सम्पदा में लोट-पोट हो सकता था। किन्तु अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने अपनी चलती हुई वकालत को ठुकराया और कर्मक्षेत्र में उतरे। ऐसे मालवीय जी का जीवन हमारे पाठकों को अपनी जीवन की शुचिता कर्तव्य के प्रति निष्ठा और धर्मपरायणता की ओर कुछ भी प्रेरित कर सके तो मेरा यह छोटा-सा प्रयत्न समझा जाएगा।

इस प्रसंग में डायमण्ड पॉकेट बुक्स के संचालक, विशेषतया श्री नरेन्द्र जी का नामोल्लेख करना मैं आवश्यक समझता हूँ। श्री नरेन्द्र जी की यह प्रबल आकांक्षा है कि हमारा अतीत गौरव भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत बने, इस उद्देश्य से वे इस प्रकार की कृतियों के प्रकाशन में विशेष रुचि लेते हैं। उनकी यह आकांक्षा पूर्ण हो और हमारे पाठक उन कृतियों से लाभान्वित होते रहें, यही हमारी भी कामना है।

शिवरात्रि: 2045
7-एफ, कमला नगर, दिल्ली-110007

-अशोक कौशिक


आरंभिक परिचय



मालवीय का अभिप्राय है मालव का रहने वाला। किन्तु महापण्डित मदनमोहन मालवीय जी का परिवार मालव का रहने वाला नहीं था। हा, उनके पूर्वज कभी मालव देश के रहने वाले थे। किसी समय मालव, मध्य प्रदेश में कहीं एक छोटा- सा राज्य था। राज्य तो अब नहीं रहा, हां मालव अब भी है। बहुत प्राचीन काल की बात है कि उस प्रदेश का शासक मुसलमान था किन्तु उस राज्य का राजा कोई हिन्दू ही था। मालवीय जी के पूर्वज श्री गौड़ ब्राह्मण कहलाते थे। उन पूर्वजों ने राजा की किसी बात पर रुष्ट होकर उसकी किसी आज्ञा का पालन नहीं किया। इसके बाद कही राजा रुष्ट होकर उन्हें दण्ड न दे, इस आशंको से उन्होंने अपना वह पैतृक स्थान छोड़ दिया। उनमें से कोई कहीं गया, कोई कहीं और। इनमें से कुछ पटना तक भी जा पहुंचे। उन पटना जाने वालों में महामना के पूर्वज भी थे, जो कालांतर में प्रयाग पहुंच गए। उनमें से भी एक परिवार मिर्जापुर चला गया। इस प्रकार प्रयाग और मिर्जापुर में मालवीयों के ये दो परिवार बढ़कर अब सहस्त्रों की संख्या में हो गए हैं।

प्रयाग में जो परिवार आकर बसे वे सब अपनी मूल ब्राह्मणवृत्ति में ही लगे रहे। नौकरी अथवा व्यापार उन्होंने नहीं किया। क्योंकि ये सब ब्राह्मण मूलतया मालवा के निवासी थे अतः इनको प्रयाग की भाषा मे मलई अथवा मालवी कहा जाने लगा। कालांतर में इसका ही परिष्कृत रूप ‘मालवीय’ बना।
मालवीय जी के वंश में प्रयाग में रहने आने वालों में चतुर्वेदी विष्णु प्रसाद तथा उनके बाद की वंशावलि ही प्रचलित रही। ये महामना के प्रतितामह, अर्थात्, परदादा थे। इनके पितामह का नाम था पण्डित प्रेमधर, पं. प्रेमधर न केवल संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान ही थे अपितु वे भक्त शिरोमणि भी माने जाते थे।

तत्कालीन प्रयाग और आज के प्रयाग में बहुत अन्तर है। यह तथ्य प्रयाग के प्रसंग में ही नहीं अपितु भारत के किसी भी नगर के विषय में कहा जा सकता है। ज्यो-ज्यों नगरी सभ्यता का विकास होता गया त्यों-त्यों नगरों का भी विस्तार और विकास होता गया। उस समय के छोटे-छोटे से दिखने वाले तथा छोटे-छोटे मकानों वाले नगर आज महान् और उच्च अट्टालिकाओं से भर गए हैं। तब प्रयाग ही इसका अपवाद क्यों रहता। फिर प्रयाग का अपना विशेष महत्त्व था। न केवल त्रिवेणी अपितु ‘अक्षय वट’ भी वहाँ की विशेषता और आकर्षण का केन्द्र रहा है।

पर्व के दिनों में भारत के सुदूर प्रदेशों से पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सभी दिशाओं से तीर्थ यात्री प्रयाग में आकर त्रिवेणी में डुबकी लगाकर और अक्षय वट के दर्शन कर पुण्य लाभ करते। प्रयाग का वह अक्षय वट बहुत पहले ही किले के भीतर आ गया था। सत्रहवी शती में बादशाह अकबर ने प्रयाग में एक किला बनवाया था। उसी किले की परिधि के भीतर अब यह अक्षय वट है। भारत के कुछ तथा कथित उदारवादी नेता अकबर को उदारता का अवतार मानते हैं। किन्तु हिन्दुओं के पूज्य तीर्थ स्थान पर अपना किला बनवाना और उसकी परिधि में पवित्र वट को घेर लेना उसकी किस उदारता का परिचायक है, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है ? किन्तु आज भी कुछ लोग हैं जो अकबर की उदारता का गुणगान करने में थकते नहीं। अस्तु। विभिन्न पर्वों पर प्रयाग में प्रसिद्धि महात्मा, संत, विद्वान और धर्मध्वजी और साधुओ के एकत्रित होने पर वहां ज्ञान और अध्यात्म का संगम होता है।

चतुर्वेदी विष्णुप्रसाद जी के पुत्र प्रेमधर जी के चार पुत्रों में पण्डित ब्रजनाथ सबसे कनिष्ठ थे। शेष वरिष्ठ तीन पुत्र थे-लालजी, बच्चू लाल और गदाधर हमने ऊपर लिखा है कि पण्डित प्रेमधर प्रकाण्ड पण्डित और विद्वान व्यक्ति थे। पण्डित ब्रजनाथ भी उनकी ही भांति संस्कृत के विद्वान माने जाते थे। ज्योतिष विद्या का उन दिनों भी आज की ही भांति अत्यधिक प्रचलन था। पण्डित ब्रजनाथ उसमें पारंगत थे। यह साधारण बात नहीं कि चौबीस वर्ष का युवक श्रीमद्भागवत् गीता की व्याख्या लिख दे। किन्तु पण्डित ब्रजनाथ ने यह भी कर दिखाया था और वे प्रसिद्धि और रोचक कथावाचक के रूप में भी उसी आयु में प्रसिद्ध हो गए थे। भागवत कथा में उनको प्रवीणता प्राप्त थी। ईश्वर की कृपा से उनकी काया जहां बहुत ही भव्य थी वहां उनकी वाणी भी उतनी ही मधुर और प्रेमप्रवाहिनी थी। परिणामस्वरूप उनकी कथाओं में सर्वाधिक जन समूह एकत्रित होता था।



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