उपन्यास >> प्रतिसंसार प्रतिसंसारमनोज रूपड़ा
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प्रस्तुत है मनोज रूपड़ा का उपन्यास...
Pratisansar is a Hindi Novel by Manoj Rupada
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपने दो कहानी संग्रहों ‘दफ़न और अन्य कहानियाँ’ तथा ‘साज़-नासाज़’ के साथ मनोज रुपड़ा हिन्दी कथा-साहित्य में अपना महत्त्व सिद्ध कर चुके हैं। मनोज की कहानियों में जिस आख्यान वृत्ति को महसूस किया गया था उसी का विस्तार है उनका पहला उपन्यास—‘प्रतिसंसार’।
राजनीति, समाज, विचारधारा, विमर्श तथा चुनौतियों और समस्याओं के प्रति प्रचलित नारेबाज़ी और वितंडावाद के विरुद्ध ऐसे रचनाकार कम हैं जो इन जरूरी मुद्दों से अपनी रचना को असंपृक्त कुछ इस प्रकार करते हैं कि ऊपरी सतह पर ये दिखते नहीं बल्कि रचना का प्राण बनकर समुपस्थिति रहते हैं। ‘प्रतिसंसार’ इसका सशक्त उदाहरण है।
यह उपन्यास भूमण्डलीकरण, विस्फोटक सूचना क्रान्ति, बाज़ारवाद उपनिवेशवाद, नवफासीवाद से उत्पन्न कृत्रिम संसार को उसकी समस्त बीभत्सता और दुष्कांडों के साथ सजीव बनाता है, जिसकी प्रतिबद्धता असामाजिकता, संवादहीनता, संवेदना, स्मृति और स्वप्न के स्थगन अर्थात् निर्जीवता के प्रति है। संसार के बरक्स संसार की टकराहटों को मनोज रूपड़ा उपन्यास में अर्धविक्षिप्त नायक आनन्द के माध्यम से जिस सिनेमिटिक अन्दाज में व्याख्यतित करते हैं, वह संक्रमणकाल में जूझती हुई मनुष्यता का ‘क्रिटीक’ बनने से नहीं बच पाता।
सन्देह नहीं कि नये कथा शिल्प विधान के कारण यह उपन्यास पाठक को बहुत आकर्षित करेगा।
राजनीति, समाज, विचारधारा, विमर्श तथा चुनौतियों और समस्याओं के प्रति प्रचलित नारेबाज़ी और वितंडावाद के विरुद्ध ऐसे रचनाकार कम हैं जो इन जरूरी मुद्दों से अपनी रचना को असंपृक्त कुछ इस प्रकार करते हैं कि ऊपरी सतह पर ये दिखते नहीं बल्कि रचना का प्राण बनकर समुपस्थिति रहते हैं। ‘प्रतिसंसार’ इसका सशक्त उदाहरण है।
यह उपन्यास भूमण्डलीकरण, विस्फोटक सूचना क्रान्ति, बाज़ारवाद उपनिवेशवाद, नवफासीवाद से उत्पन्न कृत्रिम संसार को उसकी समस्त बीभत्सता और दुष्कांडों के साथ सजीव बनाता है, जिसकी प्रतिबद्धता असामाजिकता, संवादहीनता, संवेदना, स्मृति और स्वप्न के स्थगन अर्थात् निर्जीवता के प्रति है। संसार के बरक्स संसार की टकराहटों को मनोज रूपड़ा उपन्यास में अर्धविक्षिप्त नायक आनन्द के माध्यम से जिस सिनेमिटिक अन्दाज में व्याख्यतित करते हैं, वह संक्रमणकाल में जूझती हुई मनुष्यता का ‘क्रिटीक’ बनने से नहीं बच पाता।
सन्देह नहीं कि नये कथा शिल्प विधान के कारण यह उपन्यास पाठक को बहुत आकर्षित करेगा।
प्रतिसंसार
भूमिका
बचपन के प्रारम्भिक वर्षों की विस्मृति में कुछ स्पष्ट स्मृतियाँ छिपी रहती हैं, जो ज्यादातर घटनात्मक प्रतिबिम्बों के रूप में होती हैं। बड़े होने के बाद तो खैर हम घटना के महत्त्व के हिसाब से स्मृतियों को रखना और छोड़ना सीख जाते हैं लेकिन बचपन से याद बातों के बारे में यह स्थिति नहीं है। बचपन के स्मृतिनाश में कुछ चीजें जैव पिंडों की तरह बची रह जाती हैं जो न केवल अमर होती हैं बल्कि अपने दुष्ट आवेगों से नये नये स्वप्न विचारों और विजन को जन्म देती रहती हैं।
हमारी कहानी का नायक आनन्द जब छोटा था तब उनके सामने लगातार तीन ऐसी घटनाएँ घटी थीं, जिसका सन्दर्भ और पैटर्न हालाँकि अलग-अलग था मगर उसका असर एक केमिकल रिएक्शन की तरह उसकी चेतना को प्रभावित करता आ रहा था। जब भी उन घटनाओं से मिलती- जुलती कोई घटना होती या मिलता-जुलता दृश्य उपस्थिति होता, उसके दिमाग में तनाव और स्नायुओं में खिंचाव बढ़ने लगता। उसका शरीर पसीने से लथपथ हो जाता है और मुँहसे झाग निकलने लगता है। डॉक्टरों की यह सख्त हिदायत है कि ऐसी स्थितियों से दूर रखा जाए।
मगर हर तरह के एहतियात के बावजूद कोई न कोई हादसा घात लगाकर उस पर हमला कर देता है इसलिए उसे हमेशा एक सुरक्षित घेरे में रखा जाता है ताकि बाहरी दुनिया के खूनी कारनामे उस तक पहुँच न पाएँ। मगर उन बदअंदाज खयालों और खौफनाक आशंकाओं का कोई इलाज न था, जो उसके भीतर से उठती थीं और प्रचंड वेग से उसके मस्तिष्क को रौंद डालती थीं। उसे हमेशा एक सुख- शान्त और बहुत सुरक्षित वातावरण में रखा जाता था मगर एक अज्ञात शक्ति पता नहीं कहाँ से भेड़िये की तरह दबे पाँव या साँप की तरह रेंगती हुई उसके पास आती थी डरावनी कल्पनाओं की तरह, भयावह दिवास्वप्नों की तरह, जो या तो उसे डस लेती थी या दबोचकर जीवन और समाज के दुर्गन्धम य बीभत्स और डरावने दुष्कांडों की ओर घसीट लाती थी और उन दुष्कांडों का सिनेरियो एक अदृश्य और ऑटोमेटिक प्रोजेक्टर पर कभी भी और कहीं भी शुरू हो जाता था। उसके दिमाग में एक बेहिसाब लम्बी रील थी जिसमें न जाने कितनी सिचुएशन, कितने शॉट और किनती आवाजें कैद थीं, जिससे वह मुक्त नहीं हो सकता।
आनन्द के विचार और कल्पनाएँ चूँकि एक स्वप्न की तरह चलते हैं इसलिए चित्रण की बहुत यथार्थता की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। सपने के अमूर्त स्पेस को शब्द रूप में लाना बहुत कठिन है। जब हमारे सामने चित्रों के शब्द या शब्दों और विचारों के चित्र बनाने का प्रश्न उठता है तब हमारे पास ऐसे साधन नहीं होते जो प्रत्येक चित्र का शब्द से या शब्द का चित्र से या किसी चिह्न का दूसरे चिह्न से या एक ध्वानि का दूसरी ध्वनि से बिम्ब का बिम्ब ले अनुवाद कर सकें। इसके अलावा सपने में जो अर्थहीन बेतुकी बातें होती हैं उसे समझने के लिए हम कहाँ तक सिर खपाएँ ? ऐसा भी हो सकता है कि सारे अर्थ और स्थितियाँ उल्टी हो जाँए दृश्यों और घटनाओं का क्रम ही उलट जाए। पुरुष बच्चे पैदा करने लगें, औरत-मर्द के साथ बलात्कार करें। चिड़िया बहेलिये को फाँसने के लिए जाल फैला दे। खरगोश शिकारी का पीछा करने लगे। गीदड़ शेर को फाड़कर खा जाए। यानी कार्य-कारण का सारा विन्यास और सिलसिला ही उल्टा हो जाए। तब हम क्या कर सकते हैं ? आखिर किसी भी दृश्य, घटना या स्थिति की कोई संगति तो होनी चाहिए। लेकिन सपनों की उलझी हुई अटपटी, गुप्त ग्रन्थियों में से कोई संगति खोज निकालना क्या आसान है ?
यह थोड़ा मुश्किल काम है अपने पूर्वग्रहों और अनुभवों से अर्जित अपनी ठोस धारणाओं को छोड़कर मनोबिम्बों के रूप में व्यक्त विचारों का प्रतिगामी अनुवाद करना और किसी अर्ध विक्षिप्त स्वप्नद्रष्टा की संगतिहीन कल्पनाओं के साथ ऊँची उड़ानें भरना एक जोखिम भरा काम है।
जाहिर है इस कोशिश में हमें बाहरी क्रियाओं से आन्तरिक विचारों तथा प्लाट से चरित्र की ओर और खासतौर से सामाजिक सच्चाइयों से मनोवैज्ञानिक सच्चाइयों की ओर लौटना पड़ेगा। यह भी जाहिर है कि ये परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ अपनी कट्टर ध्रुवीयता में अपनी-अपनी जगह अडिग हैं लेकिन यह भी एक सच है कि ये दोनों प्रवृत्तियाँ समय- समय पर आपस में टकराती रहती हैं।
इस ‘टक्कर’ के गैर शाब्दिक अनुभव को पकड़ने के लिए यह जरूरी है कि वर्णात्मकता के परिचिच रूपों से बाहर निकलकर हम कुछ नये तरीके अपनाएँ। सबसे पहले हमें कथात्मक वर्णात्मकता का चाक्षुषीकरण करना पड़ेगा। क्योंकि आनन्द के दिवास्वप्न कोई शाब्दिक वस्तु नहीं है। यह विशिष्ट रूप से रूप से चाक्षुष हैं इसलिए यह वर्णना आंशिक रूप से सिनेमेटिक रूप में प्रस्तुत की जा सकती है। लेकिन तब सवाल यह उठेगा कि क्या शाब्दिक वर्णन की संरचना को छोड़कर किसी भी तरह का लेखन सम्भव है। जो लेखक एक कैमरा बनना चाहता है उसके लिए ज्यादा अच्छा यह होगा कि वह फिल्म बनाए और अगर फिल्म बनाने की ताकत नहीं है तो सिनेमेटिक आलेख लिखे। उसे कोई हक नहीं पहुँचता कि वह साहित्य की स्वायत्तता और उसकी व्याखात्मक समृद्धि पर सिनेमाई बिम्बों की क्षण भंदुर इनेज को अध्यारोपित करे और सब कुछ कुछ गड्डमड्ड कर दे।
दो अलग-अलग माध्यमों को निश्चय ही दो भिन्न किस्म की वर्णात्मकता की जरूरत होती है। इसलिए हम माध्यमो की सीमाओं का ध्यान रखते हुए फिलहाल फिल्म की आँख के प्रति स्थानगत अपील और कथा की मस्तिष्क के प्रति विचारगत अपील को एक-दूसरे में संलयित कर रहे हैं। हम अपनी वर्णना को पाठ पर भी आधारित करेंगे और उसे सेल्यूलाइड के स्वच्छन्द प्रवाह में भी बहने देंगे।
आनन्द के बचपन के एक हादसे का सचित्र विवरण
हम सब गहन अँधेरे में एक स्क्रीन के सामने बैठे हैं। प्रोजेक्टर रोशनी का दायरा स्क्रीन पर फेंकता है। हम कुछ देर तक रोशनी की शहतीर में धूल कणों को देखते हैं। फिर सेल्यूलाइड की रील अपने अग्रणी लूपिंग से गुजरती है और स्क्रीन पर हमें एक चकाचक और भव्य लॉन दिखाई देता है, जिसमें आनन्द एक गेंद को इधर-उधर उछालते हुए फुदक रहा है। उसने सफेद बाबा सूट पहन रखा है, जो हरी घास की पृष्ठभूमि में एक खरगोश की याद को ताजा करता है।
वह लड़कपन के बेधड़क उत्साह से गेंद को उछालता है। कैमरा गेंद के साथ मैन करता है। गेंद लुढ़कती हुई फेंस की झाड़ियों की तरफ बढ़ती है तभी पृष्ठभूमि से भूँकने की आवाज आती है और ऑफ स्क्रीन से एक लम्बी जबड़े वाली उम्दा नस्ल की खूबसूरत कुतिया झपटती हुई फ्रेम में आती है और गेंद को अपने लम्बे जबड़े में उठाकर वापस आनन्द की ओर लौटती है। आनन्द खुशी से ताली बजाता है। कुतिया गेंद को आनन्द के हाथ में सौंप देती है। वह फिर गेंद को हवा में उछाल देता है। कुतिया फिर गेंद की तरफ झपटती है।
यह खेल काफी देर तक चलता है। उसी क्रम में गेंद एक बार उछलती हुई लॉन के फाटक से बाहर चली जाती है। कुतिया गेंद के पीछे उसी रफ्तार से दौड़ती है। मगर फाटक के पास पहुँचकर वह ठिठक जाती है। वह ऑफ स्क्रीन में मौजूद किसी चीज को देखकर गुर्राती है। आनन्द आश्चर्य से फाटक की ओर देखता है। कुतिया फाटक से बाहर जाकर जोर जोर से भौकती है। आनन्द उसे आवाज देता है। आवाज सुनकर वह तेजी से पलटती है मगर आनन्द के पास पहुँचने से पहले ही मुड़कर फाटक के पास चली जाती है। अब वह एक विचित्र कूँ कूँ कूँ की आवाज निकालते हुए पूँछ हिलाती है। आनन्द एक बार फिर आवाज देता है जवाब में वह जबड़ा उठाकर किकियाते हुए ऑफ स्क्रीन इशारा करती है। आनन्द तेजी से फाटक की तरफ बढ़ता है।
दृश्य बदलता है और हम अब फाटक के बाहर एक लेंडी कुत्ते को देखते हैं कीचड़ और धूल से लिथड़ा वह काना कुत्ता बायीं आँख पर जख्म का ताजा निशान लिये अपनी इकलौती आँख से कैमरे की तरफ देखता है फिर धीमे कदमों से कुतिया की तरफ बढ़ता है। पास आकर वह झिझकते हुए पूँछ हिलाता है। जवाब में कुतिया भी पूँछ हिलाती है और और बेचैनी से किकियाते हुए उसके इर्द-गिर्द चक्कर काटती है। कुत्ता अचानक अपने पिछले पाँव के पंजे से अपने कान के ऊपर की खारिशजदा खाल को खुजाने लगता है। कुतिया पास जाकर उसे सूँधती है। वह खुजाते-खुजाते रुक जाता है।
वह खड़ा हो जाता है और बड़े आत्मविश्वास के सा पूँछ हिलाते है। जवाब में कुतिया भी पूँछ हिलाती है और बेचैनी से किकियाते हुए उसके इर्द-गिर्द चक्कर काटती है। कुत्ता अचानक अपने पिछले पाँव के पंजे से अपने कान के ऊपर की खारिशजदा खाल को खुजाने लगता है। कुतिया पास जाकर उसे सूँघती है। वह खुजाते-खुजाते रुक जाता है। वह खड़ा हो जाता और बड़े आत्मविश्वास के साथ पूँछ हिलाते हुए कुतिया के पास जाकर उसकी पूँछ के नीचे थूथन डालने की कोशिश करता है। कुतिया कतरा करते जी से फाटक के अन्दर चली जाती है। कुत्ता उसका पीछा करता है। अपने गन्दे शरीर से क्यारियों और गमलों की साफ-सुथरी सजावट को लथेड़ते हुए वह आगे बढ़ता है। कुतिया फिर बड़ी मस्ती से दौड़ती हुई वापस आती है और कुत्ते के थूथन से अपना थूथन सटा देती है।
कुत्ता गमले के पास जाकर अपनी दायीं टाँग उठाकर पेशाब की धार छोड़ता है। फिर कुतिया की पूँछ के नीचे थूथन डालकर अपनी लम्बी, लाल और लपलपाती हुई जीभ से चाटता है। कुतिया अचानक जोर से भौंककर उसे झिड़क देती है। कुत्ता सहमकर पीछे हटता है मगर अगले ही पल वह अपनी टाँगों को फन्दे की तरह गोल-मोड़कर उसके पिछले हिस्से को जकड़ लेता है। कुतिया कुछ देर गुर्राती है फिर एक विचित्र उत्तेतना से कराहने लगती है।
आनन्द के चेहरे का शॉट। वह चकित होकर चमत्कृत- सा देख रहा है। कुत्ते द्वारा किया जा रहा सधा हुआ काम।
एक ही लय में धक्के मारता उन्माद
एक ही लय में झटके झेलती उत्तेजना
हाँफती हुई मदकाल की पाशविक कँपकँपी
एक भयभीत मगर सुखद गुर्राहट
लाल किनारे वाली जख्मी आँख
औरजबड़े के टूटे -फूटे दाँतों पर
लपलपाती लार चुआती जबान
कुछ देर बाद कुत्ता रुक जाता है। अब एक मीडियम शॉट में हम देखते हैं कि दोनों के मुँह विपरीत दिशाओं में हैं। उनके शरीर के पिछले हिस्से आपस में फँसे हुए हैं और दोनों अपनी जबान बाहर लटकाये हाँफ रहे हैं।
हमकट करके फिर आनन्द की तरफ लौटते हैं। वह चेहरे पर भय और आश्चर्य का भाव लिये आगे बढ़ता है। और पास जाकर कुतिया को पुचकारने की कोशिश करता है। मगर कुतिया एक भयंकर गुर्राहट के साथ उसे पीछे धकेल देती है। वह घास पर गिर पड़ता है और एक भयभीत रुलाई उसके अन्दर से फूट पड़ती है। तभी पार्श्व से हमें एक ऊँची आवाज सुनाई पड़ती है।
रूबी।’’
कुतिया तेजी से आवाज की दिशा में सिर उठाती है। रोते- रोते आन्द भी अपना सिर घुमाता है जबकि कैमरा आवाज लगाने वाले को शॉट के केन्द्र में लाने के लिए पैन करता है।
अब हम देखते हैं आनन्द के पिता, महानगर के अमीर सेठ बालकिशन सेठिया को। जो बिफरे हुए अन्दाज में बड़े- बड़े डग भरते चले आ रहे हैं। वे सीधे जानवरों के मिथुनरत जोड़े के पास पहुंचकर खड़े हो जाते हैं और फाटक की तरफ सिर उठाकर आवाज देते हैं, मदनलाल...’’
कैमरा फिर फाटक की तरफ पैन करता है जहाँ से एक गार्ड दौड़ता चला आ रहा है। सेठ साहब के पास आकर वह हाँफने लगता है।
‘‘तुम कहाँ थे ?’’ वे उसकी आँखों में आँखें डालकर पूछते हैं।
‘‘जी मैं केबिन में था पर...’’
‘‘यह कुत्ता अन्दर कैसे चला आया ?
‘‘सर, मैं एक जरूरी फोन अटेंड कर रहा था। इस बीच शायद वह...’’
‘‘मैं नहीं चाहता कि रूबी एक गन्दी नस्ल के कुत्ते के पिल्लों को जन्म दे। कुत्ते को शूट कर दो।’’
गार्ड एक पल भी गँवाये बगैर अपनी कमर पेटी से रिवाल्वर निकालता है और हाँफते हुए कुत्ते के ठीक सामने खड़ा हो जाता है।
कमरा जूम करता है और कुत्ते की आँख एक गोल दायरे में फैलती हुई हमारी ओर बढ़ती है, स्क्रीन को पूरी भरती हुई। हम उसमें एक हिंस्र और कामोत्तेजक चमक देखते हैं। फिर उस आँख पर सेठ साहब का चेहरा अध्यारोपित होता है, फिर आनन्द का, फिर गार्ड का,फिर गोली की आवाज कौंधती है और कुत्ता एक चीत्कार के साथ घास पर लुढ़क जाता है। रूबी बहुत जोर से गुर्राती हुई अपने आपको कुत्ते के संसर्ग से छुड़ाने के लिए जोर लगाती है। वह एक झटके से अलग होकर तेजी से एक ओर भागती है। जबकि कुत्ता उसी शॉट के आधे बेक व्यू में अभी तक छटपता रहा है।
हमारी कहानी का नायक आनन्द जब छोटा था तब उनके सामने लगातार तीन ऐसी घटनाएँ घटी थीं, जिसका सन्दर्भ और पैटर्न हालाँकि अलग-अलग था मगर उसका असर एक केमिकल रिएक्शन की तरह उसकी चेतना को प्रभावित करता आ रहा था। जब भी उन घटनाओं से मिलती- जुलती कोई घटना होती या मिलता-जुलता दृश्य उपस्थिति होता, उसके दिमाग में तनाव और स्नायुओं में खिंचाव बढ़ने लगता। उसका शरीर पसीने से लथपथ हो जाता है और मुँहसे झाग निकलने लगता है। डॉक्टरों की यह सख्त हिदायत है कि ऐसी स्थितियों से दूर रखा जाए।
मगर हर तरह के एहतियात के बावजूद कोई न कोई हादसा घात लगाकर उस पर हमला कर देता है इसलिए उसे हमेशा एक सुरक्षित घेरे में रखा जाता है ताकि बाहरी दुनिया के खूनी कारनामे उस तक पहुँच न पाएँ। मगर उन बदअंदाज खयालों और खौफनाक आशंकाओं का कोई इलाज न था, जो उसके भीतर से उठती थीं और प्रचंड वेग से उसके मस्तिष्क को रौंद डालती थीं। उसे हमेशा एक सुख- शान्त और बहुत सुरक्षित वातावरण में रखा जाता था मगर एक अज्ञात शक्ति पता नहीं कहाँ से भेड़िये की तरह दबे पाँव या साँप की तरह रेंगती हुई उसके पास आती थी डरावनी कल्पनाओं की तरह, भयावह दिवास्वप्नों की तरह, जो या तो उसे डस लेती थी या दबोचकर जीवन और समाज के दुर्गन्धम य बीभत्स और डरावने दुष्कांडों की ओर घसीट लाती थी और उन दुष्कांडों का सिनेरियो एक अदृश्य और ऑटोमेटिक प्रोजेक्टर पर कभी भी और कहीं भी शुरू हो जाता था। उसके दिमाग में एक बेहिसाब लम्बी रील थी जिसमें न जाने कितनी सिचुएशन, कितने शॉट और किनती आवाजें कैद थीं, जिससे वह मुक्त नहीं हो सकता।
आनन्द के विचार और कल्पनाएँ चूँकि एक स्वप्न की तरह चलते हैं इसलिए चित्रण की बहुत यथार्थता की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। सपने के अमूर्त स्पेस को शब्द रूप में लाना बहुत कठिन है। जब हमारे सामने चित्रों के शब्द या शब्दों और विचारों के चित्र बनाने का प्रश्न उठता है तब हमारे पास ऐसे साधन नहीं होते जो प्रत्येक चित्र का शब्द से या शब्द का चित्र से या किसी चिह्न का दूसरे चिह्न से या एक ध्वानि का दूसरी ध्वनि से बिम्ब का बिम्ब ले अनुवाद कर सकें। इसके अलावा सपने में जो अर्थहीन बेतुकी बातें होती हैं उसे समझने के लिए हम कहाँ तक सिर खपाएँ ? ऐसा भी हो सकता है कि सारे अर्थ और स्थितियाँ उल्टी हो जाँए दृश्यों और घटनाओं का क्रम ही उलट जाए। पुरुष बच्चे पैदा करने लगें, औरत-मर्द के साथ बलात्कार करें। चिड़िया बहेलिये को फाँसने के लिए जाल फैला दे। खरगोश शिकारी का पीछा करने लगे। गीदड़ शेर को फाड़कर खा जाए। यानी कार्य-कारण का सारा विन्यास और सिलसिला ही उल्टा हो जाए। तब हम क्या कर सकते हैं ? आखिर किसी भी दृश्य, घटना या स्थिति की कोई संगति तो होनी चाहिए। लेकिन सपनों की उलझी हुई अटपटी, गुप्त ग्रन्थियों में से कोई संगति खोज निकालना क्या आसान है ?
यह थोड़ा मुश्किल काम है अपने पूर्वग्रहों और अनुभवों से अर्जित अपनी ठोस धारणाओं को छोड़कर मनोबिम्बों के रूप में व्यक्त विचारों का प्रतिगामी अनुवाद करना और किसी अर्ध विक्षिप्त स्वप्नद्रष्टा की संगतिहीन कल्पनाओं के साथ ऊँची उड़ानें भरना एक जोखिम भरा काम है।
जाहिर है इस कोशिश में हमें बाहरी क्रियाओं से आन्तरिक विचारों तथा प्लाट से चरित्र की ओर और खासतौर से सामाजिक सच्चाइयों से मनोवैज्ञानिक सच्चाइयों की ओर लौटना पड़ेगा। यह भी जाहिर है कि ये परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ अपनी कट्टर ध्रुवीयता में अपनी-अपनी जगह अडिग हैं लेकिन यह भी एक सच है कि ये दोनों प्रवृत्तियाँ समय- समय पर आपस में टकराती रहती हैं।
इस ‘टक्कर’ के गैर शाब्दिक अनुभव को पकड़ने के लिए यह जरूरी है कि वर्णात्मकता के परिचिच रूपों से बाहर निकलकर हम कुछ नये तरीके अपनाएँ। सबसे पहले हमें कथात्मक वर्णात्मकता का चाक्षुषीकरण करना पड़ेगा। क्योंकि आनन्द के दिवास्वप्न कोई शाब्दिक वस्तु नहीं है। यह विशिष्ट रूप से रूप से चाक्षुष हैं इसलिए यह वर्णना आंशिक रूप से सिनेमेटिक रूप में प्रस्तुत की जा सकती है। लेकिन तब सवाल यह उठेगा कि क्या शाब्दिक वर्णन की संरचना को छोड़कर किसी भी तरह का लेखन सम्भव है। जो लेखक एक कैमरा बनना चाहता है उसके लिए ज्यादा अच्छा यह होगा कि वह फिल्म बनाए और अगर फिल्म बनाने की ताकत नहीं है तो सिनेमेटिक आलेख लिखे। उसे कोई हक नहीं पहुँचता कि वह साहित्य की स्वायत्तता और उसकी व्याखात्मक समृद्धि पर सिनेमाई बिम्बों की क्षण भंदुर इनेज को अध्यारोपित करे और सब कुछ कुछ गड्डमड्ड कर दे।
दो अलग-अलग माध्यमों को निश्चय ही दो भिन्न किस्म की वर्णात्मकता की जरूरत होती है। इसलिए हम माध्यमो की सीमाओं का ध्यान रखते हुए फिलहाल फिल्म की आँख के प्रति स्थानगत अपील और कथा की मस्तिष्क के प्रति विचारगत अपील को एक-दूसरे में संलयित कर रहे हैं। हम अपनी वर्णना को पाठ पर भी आधारित करेंगे और उसे सेल्यूलाइड के स्वच्छन्द प्रवाह में भी बहने देंगे।
आनन्द के बचपन के एक हादसे का सचित्र विवरण
हम सब गहन अँधेरे में एक स्क्रीन के सामने बैठे हैं। प्रोजेक्टर रोशनी का दायरा स्क्रीन पर फेंकता है। हम कुछ देर तक रोशनी की शहतीर में धूल कणों को देखते हैं। फिर सेल्यूलाइड की रील अपने अग्रणी लूपिंग से गुजरती है और स्क्रीन पर हमें एक चकाचक और भव्य लॉन दिखाई देता है, जिसमें आनन्द एक गेंद को इधर-उधर उछालते हुए फुदक रहा है। उसने सफेद बाबा सूट पहन रखा है, जो हरी घास की पृष्ठभूमि में एक खरगोश की याद को ताजा करता है।
वह लड़कपन के बेधड़क उत्साह से गेंद को उछालता है। कैमरा गेंद के साथ मैन करता है। गेंद लुढ़कती हुई फेंस की झाड़ियों की तरफ बढ़ती है तभी पृष्ठभूमि से भूँकने की आवाज आती है और ऑफ स्क्रीन से एक लम्बी जबड़े वाली उम्दा नस्ल की खूबसूरत कुतिया झपटती हुई फ्रेम में आती है और गेंद को अपने लम्बे जबड़े में उठाकर वापस आनन्द की ओर लौटती है। आनन्द खुशी से ताली बजाता है। कुतिया गेंद को आनन्द के हाथ में सौंप देती है। वह फिर गेंद को हवा में उछाल देता है। कुतिया फिर गेंद की तरफ झपटती है।
यह खेल काफी देर तक चलता है। उसी क्रम में गेंद एक बार उछलती हुई लॉन के फाटक से बाहर चली जाती है। कुतिया गेंद के पीछे उसी रफ्तार से दौड़ती है। मगर फाटक के पास पहुँचकर वह ठिठक जाती है। वह ऑफ स्क्रीन में मौजूद किसी चीज को देखकर गुर्राती है। आनन्द आश्चर्य से फाटक की ओर देखता है। कुतिया फाटक से बाहर जाकर जोर जोर से भौकती है। आनन्द उसे आवाज देता है। आवाज सुनकर वह तेजी से पलटती है मगर आनन्द के पास पहुँचने से पहले ही मुड़कर फाटक के पास चली जाती है। अब वह एक विचित्र कूँ कूँ कूँ की आवाज निकालते हुए पूँछ हिलाती है। आनन्द एक बार फिर आवाज देता है जवाब में वह जबड़ा उठाकर किकियाते हुए ऑफ स्क्रीन इशारा करती है। आनन्द तेजी से फाटक की तरफ बढ़ता है।
दृश्य बदलता है और हम अब फाटक के बाहर एक लेंडी कुत्ते को देखते हैं कीचड़ और धूल से लिथड़ा वह काना कुत्ता बायीं आँख पर जख्म का ताजा निशान लिये अपनी इकलौती आँख से कैमरे की तरफ देखता है फिर धीमे कदमों से कुतिया की तरफ बढ़ता है। पास आकर वह झिझकते हुए पूँछ हिलाता है। जवाब में कुतिया भी पूँछ हिलाती है और और बेचैनी से किकियाते हुए उसके इर्द-गिर्द चक्कर काटती है। कुत्ता अचानक अपने पिछले पाँव के पंजे से अपने कान के ऊपर की खारिशजदा खाल को खुजाने लगता है। कुतिया पास जाकर उसे सूँधती है। वह खुजाते-खुजाते रुक जाता है।
वह खड़ा हो जाता है और बड़े आत्मविश्वास के सा पूँछ हिलाते है। जवाब में कुतिया भी पूँछ हिलाती है और बेचैनी से किकियाते हुए उसके इर्द-गिर्द चक्कर काटती है। कुत्ता अचानक अपने पिछले पाँव के पंजे से अपने कान के ऊपर की खारिशजदा खाल को खुजाने लगता है। कुतिया पास जाकर उसे सूँघती है। वह खुजाते-खुजाते रुक जाता है। वह खड़ा हो जाता और बड़े आत्मविश्वास के साथ पूँछ हिलाते हुए कुतिया के पास जाकर उसकी पूँछ के नीचे थूथन डालने की कोशिश करता है। कुतिया कतरा करते जी से फाटक के अन्दर चली जाती है। कुत्ता उसका पीछा करता है। अपने गन्दे शरीर से क्यारियों और गमलों की साफ-सुथरी सजावट को लथेड़ते हुए वह आगे बढ़ता है। कुतिया फिर बड़ी मस्ती से दौड़ती हुई वापस आती है और कुत्ते के थूथन से अपना थूथन सटा देती है।
कुत्ता गमले के पास जाकर अपनी दायीं टाँग उठाकर पेशाब की धार छोड़ता है। फिर कुतिया की पूँछ के नीचे थूथन डालकर अपनी लम्बी, लाल और लपलपाती हुई जीभ से चाटता है। कुतिया अचानक जोर से भौंककर उसे झिड़क देती है। कुत्ता सहमकर पीछे हटता है मगर अगले ही पल वह अपनी टाँगों को फन्दे की तरह गोल-मोड़कर उसके पिछले हिस्से को जकड़ लेता है। कुतिया कुछ देर गुर्राती है फिर एक विचित्र उत्तेतना से कराहने लगती है।
आनन्द के चेहरे का शॉट। वह चकित होकर चमत्कृत- सा देख रहा है। कुत्ते द्वारा किया जा रहा सधा हुआ काम।
एक ही लय में धक्के मारता उन्माद
एक ही लय में झटके झेलती उत्तेजना
हाँफती हुई मदकाल की पाशविक कँपकँपी
एक भयभीत मगर सुखद गुर्राहट
लाल किनारे वाली जख्मी आँख
औरजबड़े के टूटे -फूटे दाँतों पर
लपलपाती लार चुआती जबान
कुछ देर बाद कुत्ता रुक जाता है। अब एक मीडियम शॉट में हम देखते हैं कि दोनों के मुँह विपरीत दिशाओं में हैं। उनके शरीर के पिछले हिस्से आपस में फँसे हुए हैं और दोनों अपनी जबान बाहर लटकाये हाँफ रहे हैं।
हमकट करके फिर आनन्द की तरफ लौटते हैं। वह चेहरे पर भय और आश्चर्य का भाव लिये आगे बढ़ता है। और पास जाकर कुतिया को पुचकारने की कोशिश करता है। मगर कुतिया एक भयंकर गुर्राहट के साथ उसे पीछे धकेल देती है। वह घास पर गिर पड़ता है और एक भयभीत रुलाई उसके अन्दर से फूट पड़ती है। तभी पार्श्व से हमें एक ऊँची आवाज सुनाई पड़ती है।
रूबी।’’
कुतिया तेजी से आवाज की दिशा में सिर उठाती है। रोते- रोते आन्द भी अपना सिर घुमाता है जबकि कैमरा आवाज लगाने वाले को शॉट के केन्द्र में लाने के लिए पैन करता है।
अब हम देखते हैं आनन्द के पिता, महानगर के अमीर सेठ बालकिशन सेठिया को। जो बिफरे हुए अन्दाज में बड़े- बड़े डग भरते चले आ रहे हैं। वे सीधे जानवरों के मिथुनरत जोड़े के पास पहुंचकर खड़े हो जाते हैं और फाटक की तरफ सिर उठाकर आवाज देते हैं, मदनलाल...’’
कैमरा फिर फाटक की तरफ पैन करता है जहाँ से एक गार्ड दौड़ता चला आ रहा है। सेठ साहब के पास आकर वह हाँफने लगता है।
‘‘तुम कहाँ थे ?’’ वे उसकी आँखों में आँखें डालकर पूछते हैं।
‘‘जी मैं केबिन में था पर...’’
‘‘यह कुत्ता अन्दर कैसे चला आया ?
‘‘सर, मैं एक जरूरी फोन अटेंड कर रहा था। इस बीच शायद वह...’’
‘‘मैं नहीं चाहता कि रूबी एक गन्दी नस्ल के कुत्ते के पिल्लों को जन्म दे। कुत्ते को शूट कर दो।’’
गार्ड एक पल भी गँवाये बगैर अपनी कमर पेटी से रिवाल्वर निकालता है और हाँफते हुए कुत्ते के ठीक सामने खड़ा हो जाता है।
कमरा जूम करता है और कुत्ते की आँख एक गोल दायरे में फैलती हुई हमारी ओर बढ़ती है, स्क्रीन को पूरी भरती हुई। हम उसमें एक हिंस्र और कामोत्तेजक चमक देखते हैं। फिर उस आँख पर सेठ साहब का चेहरा अध्यारोपित होता है, फिर आनन्द का, फिर गार्ड का,फिर गोली की आवाज कौंधती है और कुत्ता एक चीत्कार के साथ घास पर लुढ़क जाता है। रूबी बहुत जोर से गुर्राती हुई अपने आपको कुत्ते के संसर्ग से छुड़ाने के लिए जोर लगाती है। वह एक झटके से अलग होकर तेजी से एक ओर भागती है। जबकि कुत्ता उसी शॉट के आधे बेक व्यू में अभी तक छटपता रहा है।
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