आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस प्रवचन पंचम पुष्प मानस प्रवचन पंचम पुष्पश्रीरामकिंकर जी महाराज
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प्रस्तुत है मानस प्रवचन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
।। श्री राम: शरणं मम ।।
प्रवचनमाला के निर्माण क्रम में यह पंचम पुष्प पिरोया जा रहा है। इसका
उपक्रम ‘बिरला अकॉदमी ऑफ आर्ट एण्ड कल्चर’ ने किया
है। यह
वागदेवी सरस्वती और राम कथा रसिकों के कर कमलों में समर्पित है। यह पूजन
बिरला दम्पति (श्री वसन्त कुमार जी बिरला एवं सौ. श्रीमती सरला जी बिरला)
की संयुक्त श्रद्धा का परिणाम है।
प्रवचन से लेकर इसके पुस्तकाकार रूप ग्रहण करने की प्रक्रिया में विभिन्न रूपों में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने अपनी सेवा समर्पित की है। टेप को लिखित रूप में प्रस्तुत करने का परिश्रम साध्य कार्य श्री जय प्रकाश भारद्वाज ने पूरा किया है। सम्पादन का कठिन कार्य मेरे प्रिय शिष्य उमाशंकर जी शर्मा द्वारा सम्पन्न हुआ है। पुनर्लेखन का कार्य श्री विष्णु कांत पाण्डेय, श्रीकान्त पाण्डेय, कु. रजनी तथा श्री गोविन्द नायडु ने बड़ी श्रद्धा भावना से किया है। ये सभी लोग साधुवाद और आशीर्वाद के अधिकारी हैं। अन्त में श्री बाबूलाल जी बियाणी विशेष साधुवाद के पात्र हैं, जिनकी श्रद्धा भावना और अथक कार्यशीलता के परिणाम स्वरूप यह ग्रन्थ समय पर प्रकाशित हो पाया है।
प्रवचन से लेकर इसके पुस्तकाकार रूप ग्रहण करने की प्रक्रिया में विभिन्न रूपों में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने अपनी सेवा समर्पित की है। टेप को लिखित रूप में प्रस्तुत करने का परिश्रम साध्य कार्य श्री जय प्रकाश भारद्वाज ने पूरा किया है। सम्पादन का कठिन कार्य मेरे प्रिय शिष्य उमाशंकर जी शर्मा द्वारा सम्पन्न हुआ है। पुनर्लेखन का कार्य श्री विष्णु कांत पाण्डेय, श्रीकान्त पाण्डेय, कु. रजनी तथा श्री गोविन्द नायडु ने बड़ी श्रद्धा भावना से किया है। ये सभी लोग साधुवाद और आशीर्वाद के अधिकारी हैं। अन्त में श्री बाबूलाल जी बियाणी विशेष साधुवाद के पात्र हैं, जिनकी श्रद्धा भावना और अथक कार्यशीलता के परिणाम स्वरूप यह ग्रन्थ समय पर प्रकाशित हो पाया है।
रामकिंकर उपाध्याय
।। श्री राम: शरणं मम ।।
1
पेम अमिअ मंदरु बिरहु भरतु पयोधि गँभीर।
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।। 2/238
मथि प्रगटेउ सुर साधु हित कृपासिंधु रघुबीर।। 2/238
भगवान श्री रामभद्र की महती अनुकम्पा से इस वर्ष पुन: यह अवसर मिला है कि
भगवान लक्ष्मीनारायण के पावन सानिध्य में एकत्र होकर हम लोग भगवान के
गुणों का वर्णन तथा श्रवण कर सकें। इसके निमित्त प्रति वर्ष बनते आये हैं
श्री बसन्त कुमार जी बिरला एवं सौजन्यमयी सरला जी बिरला, जिनकी मानस में
अटूट श्रद्धा है। पिछले वर्ष आप लोगों के समक्ष अयोध्याकाण्ड का पूर्वार्ध
लिया गया था जिसमें बताया गया था कि महाराज श्री दशरथ के अन्त:करण में
रामराज्य की स्थापना का संकल्प जाग्रत होता है, किन्तु उनका यह संकल्प
अधूरा रह जाता है। क्योंकि मंथरा के द्वारा कैकयी की मति परिवर्तित कर दी
जाती है और कैकयी राम-राज्य के स्थान पर महाराज श्री दशरथ से भगवान श्री
राघवेन्द्र के लिये चौदह वर्ष का बनवास और श्री भरत के लिये राज्याभिषेक
का वरदान माँगती हैं। फिर रामराज्य के इस संकल्प को साकार बनाने में श्री
भरत निमित्त बनते हैं, और रामराज्य की स्थापना होती है।
गोस्वामी जी भगवान श्री राघवेन्द्र के वनगमन को एक दूसरे संदर्भ में प्रस्तुत करते हुये अयोध्याकाण्ड में एक दोहा लिखते हैं, जिसमें उन्होंने यह प्रश्न उठाया है कि श्रीराम के वनगमन का मुख्य उद्देश्य क्या है ? कुछ लोगों की दृष्टि में श्री राम की वनयात्रा का मुख्य उद्देश्य पिता की आज्ञा का पालन करना था, कैकयी अम्बा की आकांक्षा को पूर्ण करना था। और कुछ लोगों की मान्यता यह है कि भगवान श्री राघवेन्द्र माता-पिता की आज्ञा के बहाने वन में जाकर रावण का वध करते हैं। लेकिन गोस्वामीजी उसके अन्तरंग में पैठकर तीसरा कारण प्रस्तुत करते हैं जो उनकी दृष्टि में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वह तीसरा कारण वे समुद्र-मन्थन के रूपक के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। पुराणों में समुद्र-मंथन की एक बड़ी विलक्षण गाथा आती है जो स्वयं गोस्वामीजी को अत्यन्त प्रिय है, और समुद्र-मंथन की इस गाथा को आधार बनाकर वे कई प्रसंगों में दिव्य ज्ञान और भक्ति की सृष्टि करते हैं।
वर्णन आता है कि देवता और दैत्यों में जब युद्ध होता था तो देवताओं की मृत्यु हो जाती थी। (उस समय देवता अमर नहीं थे।) जब वे बार-बार दैत्यों के सामने पराजित होने लगे तो उन्होंने भगवान का आश्रय लिया। देवता और दैत्यों के संघर्ष में दैत्यों की इस विजय का तात्पर्य क्या है ? कई लोग तो इसके द्वारा यह प्रेरणा प्राप्त करते हैं कि सफलता और विजय तो दैयत्त्व के द्वारा ही संभव और यही वह मार्ग है जिसके द्वारा हम शीघ्र सफलता तथा विजय प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से इसे भिन्न सन्दर्भ में देखा जायेगा।
देवताओं की यह पराजय आध्यात्म साधना के लिये अनिवार्य है। इसका तात्पर्य है कि ईश्वर की आवश्यकता का बोध व्यक्ति को तब होता है जब उसके मन में अपनी असमर्थता का भान होता है। जब तक व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य का बोध है, अपनी क्षमता का ज्ञान है, तब तक वह अपनी सामर्थ्य का तथा क्षमता का उपयोग समाज में करता है। लेकिन जब उसके जीवन में ऐसी स्थिति आ जाती है कि वह देखता है कि अपनी सामर्थ्य तथा क्षमता का उपयोग करने के बाद भी उसे यथेष्ट लाभ नहीं मिल रहा है तब वह विचार करता है उसे लगता है कि व्यक्ति की सामर्थ्य तथा क्षमता की भी कोई न कोई सीमा है। तथा उसके अन्त:करण में यह इच्छा उत्पन्न होती है कि क्या कोई ऐसा मूल है जिसके द्वारा हम अपनी अपूर्ण आकांक्षाओं को पूर्ण कर सकें।
इसका अभिप्राय है कि जो असमर्थता तथा अपूर्णता की अनुभूति है यह भक्ति साधना का एक पड़ाव है। इस दृष्टि में यदि विचार करके देखें तो भक्त अथवा अध्यात्म पथ को जो पथिक है उसके लिए पराजय कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसके द्वारा वह निष्कर्ष पर पहुँचे कि बुराई की विजय का तात्पर्य है कि हम भी बुराई का ही आश्रय लें। इसलिये रामचरितमानस तथा श्रीमद्भागवत् के विभिन्न प्रसंगों में इस असमर्थता की तीव्रतम अनुभूति का परिचय हमें मिलता है।
रामचरितमानस में यह वर्णन आता है कि जिस समय देवता रावण के अत्याचार से सन्त्रस्त होते हैं, उस समय उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी समस्त क्षमता का उपयोग करने के बाद भी वे रावण को पराजित करने में समर्थ नहीं हैं, बुराई को मिटा पाने में समर्थ नहीं हैं। तब उनके अन्त:करण में यह खोज प्रारम्भ होती है कि हमारी इस समस्या का समाधान कहाँ मिले ? इस समाधान के क्रम में सर्वप्रथम पृथ्वी मुनियों के पास जाती है। मुनि गण भी असमर्थता प्रकट करते हैं। फिर पृथ्वी और मुनि सब मिलकर देवताओं के पास जाते हैं। उसके पश्चात् देवता, मुनि तथा पृथ्वी सब मिलकर ब्रह्मा के पास जाते हैं। यही स्थिति प्रत्येक समाज की है। सबसे पहले पृथ्वी में व्याकुलता उत्पन्न होती है। और इसका अभिप्राय है कि बुराई के विनाश के लिये सबसे महत्वपूर्ण शर्त है कि व्यक्ति के जीवन में यह अनुभूति हो कि यह बुराई असह्य है। क्योंकि जब तक हम बुराई से समझौता कर सकते हैं, तब तक बुराई पूरी तरह नहीं मिटेगी।
कई बार लोग आश्चर्य करते हैं कि समाज की बुराई क्यों नहीं मिटती है ? इसका उत्तर यह है कि बुराई इसलिये नहीं मिटती है कि बुराई कि हम बौद्धिक दृष्टि से चाहे जितनी आलोचना करें पर उस बुराई ने हमारे और आपके जीवन में अभी यह स्थिति उत्पन्न नहीं की है कि हमें ऐसा प्रतीत हो कि अब स्थिति असह्य है। बुराई के बीच भी हम हँस रहे हैं, खेल रहे हैं, जी रहे हैं, हमारे सारे व्यवहार चल रहे है। हाँ। कभी-कभी सभा के मंच में अथवा वार्तालाप में हमारी चिन्ता केवल क्षणिक बौद्धिक विलास-मात्र है, उसमें अन्तर्हृदय की सच्ची व्याकुलता नहीं है। तो भई पृथ्वी की व्याकुलता का अभिप्राय है बुराई को मिटाने के लिए सबसे पहले अन्तर्हृदय में व्याकुलता उत्पन्न हो। उसके पश्चात् पृथ्वी मुनियों का आश्रय लेती है। मुनि मननशील है। इसका अभिप्राय है कि जब कोई ऐसी स्थिति आती है तो व्यक्ति मनन करता है, चिन्तन करता है कि इस समस्या का समाधान कहाँ मिलेगा। पर जब मनन से भी समस्या का समाधान नहीं मिलता है तो वह देवताओं का आश्रय लेता है, सद्गुणों का आश्रय लेता है। किन्तु जब देवत्त्व भी यह स्वीकार लेता है, कि नहीं-नहीं भई ! दुर्गुणों को मिटाने की पूरी क्षमता मुझमें नहीं है, तब वे सब उन ब्रह्मा के पास अपनी समस्या का समाधान ढूंढने के लिये जाते हैं। ब्रह्माजी बुद्धि के देवता हैं :-
गोस्वामी जी भगवान श्री राघवेन्द्र के वनगमन को एक दूसरे संदर्भ में प्रस्तुत करते हुये अयोध्याकाण्ड में एक दोहा लिखते हैं, जिसमें उन्होंने यह प्रश्न उठाया है कि श्रीराम के वनगमन का मुख्य उद्देश्य क्या है ? कुछ लोगों की दृष्टि में श्री राम की वनयात्रा का मुख्य उद्देश्य पिता की आज्ञा का पालन करना था, कैकयी अम्बा की आकांक्षा को पूर्ण करना था। और कुछ लोगों की मान्यता यह है कि भगवान श्री राघवेन्द्र माता-पिता की आज्ञा के बहाने वन में जाकर रावण का वध करते हैं। लेकिन गोस्वामीजी उसके अन्तरंग में पैठकर तीसरा कारण प्रस्तुत करते हैं जो उनकी दृष्टि में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वह तीसरा कारण वे समुद्र-मन्थन के रूपक के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। पुराणों में समुद्र-मंथन की एक बड़ी विलक्षण गाथा आती है जो स्वयं गोस्वामीजी को अत्यन्त प्रिय है, और समुद्र-मंथन की इस गाथा को आधार बनाकर वे कई प्रसंगों में दिव्य ज्ञान और भक्ति की सृष्टि करते हैं।
वर्णन आता है कि देवता और दैत्यों में जब युद्ध होता था तो देवताओं की मृत्यु हो जाती थी। (उस समय देवता अमर नहीं थे।) जब वे बार-बार दैत्यों के सामने पराजित होने लगे तो उन्होंने भगवान का आश्रय लिया। देवता और दैत्यों के संघर्ष में दैत्यों की इस विजय का तात्पर्य क्या है ? कई लोग तो इसके द्वारा यह प्रेरणा प्राप्त करते हैं कि सफलता और विजय तो दैयत्त्व के द्वारा ही संभव और यही वह मार्ग है जिसके द्वारा हम शीघ्र सफलता तथा विजय प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से इसे भिन्न सन्दर्भ में देखा जायेगा।
देवताओं की यह पराजय आध्यात्म साधना के लिये अनिवार्य है। इसका तात्पर्य है कि ईश्वर की आवश्यकता का बोध व्यक्ति को तब होता है जब उसके मन में अपनी असमर्थता का भान होता है। जब तक व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य का बोध है, अपनी क्षमता का ज्ञान है, तब तक वह अपनी सामर्थ्य का तथा क्षमता का उपयोग समाज में करता है। लेकिन जब उसके जीवन में ऐसी स्थिति आ जाती है कि वह देखता है कि अपनी सामर्थ्य तथा क्षमता का उपयोग करने के बाद भी उसे यथेष्ट लाभ नहीं मिल रहा है तब वह विचार करता है उसे लगता है कि व्यक्ति की सामर्थ्य तथा क्षमता की भी कोई न कोई सीमा है। तथा उसके अन्त:करण में यह इच्छा उत्पन्न होती है कि क्या कोई ऐसा मूल है जिसके द्वारा हम अपनी अपूर्ण आकांक्षाओं को पूर्ण कर सकें।
इसका अभिप्राय है कि जो असमर्थता तथा अपूर्णता की अनुभूति है यह भक्ति साधना का एक पड़ाव है। इस दृष्टि में यदि विचार करके देखें तो भक्त अथवा अध्यात्म पथ को जो पथिक है उसके लिए पराजय कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसके द्वारा वह निष्कर्ष पर पहुँचे कि बुराई की विजय का तात्पर्य है कि हम भी बुराई का ही आश्रय लें। इसलिये रामचरितमानस तथा श्रीमद्भागवत् के विभिन्न प्रसंगों में इस असमर्थता की तीव्रतम अनुभूति का परिचय हमें मिलता है।
रामचरितमानस में यह वर्णन आता है कि जिस समय देवता रावण के अत्याचार से सन्त्रस्त होते हैं, उस समय उन्हें ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी समस्त क्षमता का उपयोग करने के बाद भी वे रावण को पराजित करने में समर्थ नहीं हैं, बुराई को मिटा पाने में समर्थ नहीं हैं। तब उनके अन्त:करण में यह खोज प्रारम्भ होती है कि हमारी इस समस्या का समाधान कहाँ मिले ? इस समाधान के क्रम में सर्वप्रथम पृथ्वी मुनियों के पास जाती है। मुनि गण भी असमर्थता प्रकट करते हैं। फिर पृथ्वी और मुनि सब मिलकर देवताओं के पास जाते हैं। उसके पश्चात् देवता, मुनि तथा पृथ्वी सब मिलकर ब्रह्मा के पास जाते हैं। यही स्थिति प्रत्येक समाज की है। सबसे पहले पृथ्वी में व्याकुलता उत्पन्न होती है। और इसका अभिप्राय है कि बुराई के विनाश के लिये सबसे महत्वपूर्ण शर्त है कि व्यक्ति के जीवन में यह अनुभूति हो कि यह बुराई असह्य है। क्योंकि जब तक हम बुराई से समझौता कर सकते हैं, तब तक बुराई पूरी तरह नहीं मिटेगी।
कई बार लोग आश्चर्य करते हैं कि समाज की बुराई क्यों नहीं मिटती है ? इसका उत्तर यह है कि बुराई इसलिये नहीं मिटती है कि बुराई कि हम बौद्धिक दृष्टि से चाहे जितनी आलोचना करें पर उस बुराई ने हमारे और आपके जीवन में अभी यह स्थिति उत्पन्न नहीं की है कि हमें ऐसा प्रतीत हो कि अब स्थिति असह्य है। बुराई के बीच भी हम हँस रहे हैं, खेल रहे हैं, जी रहे हैं, हमारे सारे व्यवहार चल रहे है। हाँ। कभी-कभी सभा के मंच में अथवा वार्तालाप में हमारी चिन्ता केवल क्षणिक बौद्धिक विलास-मात्र है, उसमें अन्तर्हृदय की सच्ची व्याकुलता नहीं है। तो भई पृथ्वी की व्याकुलता का अभिप्राय है बुराई को मिटाने के लिए सबसे पहले अन्तर्हृदय में व्याकुलता उत्पन्न हो। उसके पश्चात् पृथ्वी मुनियों का आश्रय लेती है। मुनि मननशील है। इसका अभिप्राय है कि जब कोई ऐसी स्थिति आती है तो व्यक्ति मनन करता है, चिन्तन करता है कि इस समस्या का समाधान कहाँ मिलेगा। पर जब मनन से भी समस्या का समाधान नहीं मिलता है तो वह देवताओं का आश्रय लेता है, सद्गुणों का आश्रय लेता है। किन्तु जब देवत्त्व भी यह स्वीकार लेता है, कि नहीं-नहीं भई ! दुर्गुणों को मिटाने की पूरी क्षमता मुझमें नहीं है, तब वे सब उन ब्रह्मा के पास अपनी समस्या का समाधान ढूंढने के लिये जाते हैं। ब्रह्माजी बुद्धि के देवता हैं :-
अहंकार सिव बुद्धि अज, मन ससि चित्त महान।
मनुज बास सचराचर, रूप-राम भगवान।।
मनुज बास सचराचर, रूप-राम भगवान।।
इस तरह सबसे पहले अन्त:करण में तीव्रतम व्याकुलता और असह्य स्थिति के
पश्चात् मनन, मनन के पश्चात् सत्कर्म तथा सत्कर्म के पश्चात् विचार। लेकिन
सबसे दयनीय स्थिति तब आती है जब ब्रह्मा जी यह कह देते हैं-
‘मोरउ
कछु न बसाई’ हमारा भी बस नहीं है। लेकिन बुद्धि के देवता ने
निराश
नहीं किया। जब ब्रह्मा ने कहा कि मेरा भी कुछ बस नहीं है, तो पृथ्वी,
देवता तथा मुनि बड़े आश्चर्य से ब्रह्मा की ओर देखने लगे कि सारी सृष्टि
के रचयिता तो आप हैं और जब आप भी अपनी असमर्थता का वर्णन करते हैं तो हम
लोग कहाँ जायें ? तब ब्रह्मा (बुद्धि के देवता) ने एक सन्देश देते हुये
कहा है कि सृष्टि का रचयिता मैं हूँ, यह तो आप लोगों को दिखाई देता है पर
मेरा रचयिता कौन है इस पर शायद आप लोगों का ध्यान नहीं गया। वस्तुत: सत्य
यह है कि यह जो दिखाई देने वाला रचयिता है उसके पीछे भी एक ऐसा अव्यक्त
रचयिता है जो स्वयं अपने को कभी सामने नहीं लाता है। ब्रह्मा ने कहा-
जेहि सृष्टि उपाई त्रिविधि बनाई संग सहाय न दूजा।
इसका अभिप्राय है कि असमर्थता की तीव्रतम अनुभूति में जब व्यक्ति की
बुद्धि भी असमर्थ हो जाती है, तब उसे ईश्वर की स्मृति आती है। और ईश्वर की
स्मृति आने पर व्यक्ति को ऐसा प्रतीत होता है कि सचमुच हमारी सामर्थ्य की,
हमारी साधना तथा क्षमताओं की भी एक सीमा है। इस सृष्टि में देवताओं की एक
पराजय को उस अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिये, जिस अर्थ में समाज के
अधिकांश व्यक्ति लेते हैं।
रामचरितमानस के जो महानतम पात्र हैं उनके जीवन में भी पराजय का क्षण आता है। लेकिन उनकी विशेषता यह है कि वे पराजय को उस अर्थ में नहीं लेते हैं, जिस अर्थ में एक साधारण व्यक्ति लेता है। साधारण व्यक्ति तो विजय के लिए व्यग्र है, किन्तु पराजय से उसके अन्त:करण में निराशा उत्पन्न होती है तथा उसे बुराई की ओर बढ़ने की प्रेरणा प्राप्त होती है। लेकिन भक्त की जो पराजय है, वह उसके अन्त:करण में ईश्वर की स्मृति को अत्यन्त तीव्र बना देती है। लंका के प्रांगण में जब लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर हुई तो भगवान श्री राघवेन्द्र ने एकान्त में लक्ष्मण जी से थोड़े प्रेम भरे उलाहने के स्वर में कहा, ‘‘लक्ष्मण ! आज मैंने तुममें दो परिवर्तन देखे। एक तो मैंने यह देखा कि तुम्हारा स्वभाव तो इतना कोमल था कि तुम मेरा दु:ख देख नहीं सकते थे। मेरे लिये व्याकुल हो जाते थे।
रामचरितमानस के जो महानतम पात्र हैं उनके जीवन में भी पराजय का क्षण आता है। लेकिन उनकी विशेषता यह है कि वे पराजय को उस अर्थ में नहीं लेते हैं, जिस अर्थ में एक साधारण व्यक्ति लेता है। साधारण व्यक्ति तो विजय के लिए व्यग्र है, किन्तु पराजय से उसके अन्त:करण में निराशा उत्पन्न होती है तथा उसे बुराई की ओर बढ़ने की प्रेरणा प्राप्त होती है। लेकिन भक्त की जो पराजय है, वह उसके अन्त:करण में ईश्वर की स्मृति को अत्यन्त तीव्र बना देती है। लंका के प्रांगण में जब लक्ष्मण जी की मूर्च्छा दूर हुई तो भगवान श्री राघवेन्द्र ने एकान्त में लक्ष्मण जी से थोड़े प्रेम भरे उलाहने के स्वर में कहा, ‘‘लक्ष्मण ! आज मैंने तुममें दो परिवर्तन देखे। एक तो मैंने यह देखा कि तुम्हारा स्वभाव तो इतना कोमल था कि तुम मेरा दु:ख देख नहीं सकते थे। मेरे लिये व्याकुल हो जाते थे।
सकहु न दुखित देखि मोहि काऊ। बंधु सदा तब मृदुल सुभाऊ।।
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