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उपन्यास >> सूखा गुलाब

सूखा गुलाब

शिवानी

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5886
आईएसबीएन :9788170285199

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भावनाओं के उतार चढ़ाव और कहानियों की कुशल चितेरी शिवानी का उपन्यास

Shukha Gulab

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मूलन

कभी-कभी ज्योतिषी भी कैसा अनर्थ कर बैठते हैं ! बेचारी मूलन ने नन्हें जीवन में भी ज्योतिषी की ऐसी भविष्यवाणी ने विष घोल दिया था।
सेठ गुलाबशाह के कोई सन्तान नहीं थी। सन्तान के लिए उन्होंने पूरे भारत की परिक्रमा की। सब मनौतियाँ करके हार गए। फिर ओने-कोने के एक-एक मज़ार को ढूँढ-ढूँढ़कर डोरियाँ बाँधने लगे। जब उनसे भी कोई आशा नहीं बँधी, तो उन्होंने अपनी पत्नी सहित जागेश्वर के मन्दिर में, एक पैर पर खड़े हो, हाथ में दीपक लेकर अखण्ड जागरण का कठोर व्रत लिया। वह सोचते, ‘आखिर कब तक नहीं पसीजेंगे भगवान !’

इस बार भोले शंकर ने सचमुच ही उनकी सुध ली। सिर के बाल जब खिचड़ी हो गए, तब उनके घर पुत्री का जन्म हुआ। लड़की क्या थी, गुलाब का फूल ! गोरा रंग, सुतवाँ नाक, आम की फाँक-सी सुन्दर आँखें और काले भंवर केश। गोरी-उझली शाहनी धरमावती बेटी को देखकर पति से कहती, ‘‘तुम पर गई है।’’ और रोहिल्ला पठान-सा शाह कहता, ‘‘तुम पर !’’
जिस पर भी गई हो, लड़की का भविष्य उज्ज्वल था। ऐसी धूम-धाम से छठी हुई कि गाँव-भर को खस्ता, मोमन डली कचौड़ियाँ और मेवे की खीर दावत में खाने को मिली। दूर-दूर से भिखारी आते। उन्हें भी शाह से मुँह माँगी भीख मिलती। वे आशीर्वाद देते, लौट जाते, दरवाजे पर कुमाऊँ के रणबांके छोलिया राजपूत नगाड़े-तुतुरी के साथ अपना अनोखा छोलिया नृत्य कर रहे थे। उधर दास-दासियों की फरमाइशों का अन्त नहीं था। कोई कहती, ‘‘मैं तो दस तोले की नथ लूँगी शाह जी !’’ कोई कहती, ‘‘मुझे चन्द्रहार बनवाना होगा शाह जी !’’

उधर शाह जी अपनी सफ़ेद घनी मूँछों ही मूँछों में मुस्कराते चाँदी के थालों में ढाल से बड़े-बड़े बताशे लुटाते। अपनी उँजली हँसी का दर्पण चमकाते कहते, ‘‘अरी, जो मन में आए बनवा लेना। बावलियो, मैंने कब मना किया है।’’
लोग आपस में कानाफूसी करते, ‘‘निश्चय ही किसी देवी ने जन्म लिया है। नहीं तो यह खूसट कंजूस सेठ, जिसने कभी कानी कौड़ी भी भिखारी को नहीं दी, ऐसे अपना खज़ाना लुटा देता ?’’
मगर भाग्य का लिखा कौन जानता है ? ज्योतिषी के अनुसार तो वह लड़की शाह के लिए देवी नहीं, दानवी के रूप में ही जन्मी थी।

‘‘शाह जी, भला चाहते हो तो पलटकर बेटी का मुँह मत देखना। अभुक्त मूल में जन्मी है। वह भी कार्तिक के मूल में। इससे तो तुम्हारी शाहनी निपूती ही भली थी।’’ ज्योतिषी ने शाह से कहा।
शाह ने पण्डित मोतीराम के दोनों पैर पकड़ लिए, ‘गुरु, कोई शान्ति, कोई अनुष्ठान बताइए। आप जो भी कहेंगे मैं करूँगा। पचपन साल की उम्र में तो बेटी का मुँह देखा है। आँगन में खुशी की फसल की बाली झूमी है और आप कह रहे हैं, उसका मुँह न देखूँ।’’ शाह की आँखों से आँसू ढुलक पड़े। मखमल की रजाई में लिपटी अपनी फूल-सी बिटिया को कसकर कलेजे से चिपका लिया।

‘‘हाँ-हाँ, ठीक ही कह रहा हूँ जजमान ! उखाड़कर फेंक दो खुशी की इस मनहूस बाली को ! अगर ऐसा नहीं किया तो, प्राणों से हाथ धो बैठोगे। रही शान्ति और अनुष्ठान की बात, सो भगवान के दरबार में घूस नहीं चलती। शाह जी, मोतीराम पाण्डे कोई लम्पट और वंचक पण्डित नहीं है, जो इसी बहाने जजमान से पैसे ऐंठ ले। जो विषैला साँप हमें कुण्डली में दिखा, उसे तुम्हें दिखाना हमारा परम धर्म था। अब चाहे तुम उसका फन कुचलकर मौत से छुट्टी पा लो, चाहे आस्तीन में पालकर दूध पिलाओ। हमारी सीख मानो तो इसे या किसी घने जंगल में छोड़ आओ या फिर नदी-नाले में डुबोकर छुट्टी करो। समझे !’’

शाहनी एक चीख मारकर बेहोश हो गई। बच्ची लुढ़ककर गोदी से गिर गई। जो गुलाब शाह उसे दिन-भर पान के पत्ते-सी फेरता था, वह उसका बिलखना सुनकर भी पत्थर बना बैठा रहा। यह कैसा दण्ड दे गया उसे अन्तर्यामी ! अपना एक-एक पाप उसे किसी चलचित्र की पलटती तस्वीरों की भाँति नज़र आने लगा।

उसके दिवंगत मित्र दुर्गाशाह की पत्नी दयावती तीर्थ जाने से पहले अपनी मुहरों-भरी हुण्डियाँ कितने विश्वास से उसे सौंप गई थी। न कोई लिखत-पढ़त, न कोई हुण्डी। ‘‘तीर्थ से लौटकर ले जाऊँगी,’’ उसने कहा था। ‘‘क्या करोगी इतने रुपयों का भाभी?’’ सेठ गुलाब शाह ने फिर सामान्य-सी ठिठोली भी कर दी थी, ‘‘अगर इतनी मुहरें देख मेरी नीयत डोल गई तब?’’
‘‘तब क्या देवर, मैं क्या तुमसे लड़ने आऊँगी ! एक ही लड़का है मेरा। तुम्हारी नीयत बिगड़ना भी चाहेगी, तो उस बिना बाप के गऊ-से सीधे छोकरे को देखकर बिगड़ नहीं पाएगी।’’ दयावती ने कहा था।

लाखों में एक बेटा था दयावती साहनी का। गुणों में एक दम अपने बाप पर गया था। शान्त, भोला चेहरा। सिर झुकाए आता और चुपचाप माँ की धरोहर से फीस के रुपए ले जाता। माँ बेचारी कभी तीर्थयात्रा से लौट नहीं पाई। प्रयागराज के कुम्भ मेले की भीड़ में चटनी-सी पिस गई थी। तारक बेचारा धर्मशाला में रहता, अपना खाना आप बनाता। बर्तन भी मलता और स्कूल जाता। न किसी से झगड़ा, न किसी से मेल। पाँच-छह महीने तक, गुलाब शाह उसे फीस देता रहा। फिर एक दिन, जब अपने मुंशी मुसाहिबों से घिरा वह बही-खाता देख रहा था, तभी सिर झुकाए दयावती का निरीह बेटा तारक आकर खड़ा हो गया। डरे-सहमे स्वर में

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