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विवेकानन्द साहित्य >> भारत और उसकी समस्याएँ

भारत और उसकी समस्याएँ

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :100
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5889
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है स्वामी विवेकानन्द की पुस्तक भभारत और उसकी समस्याएँ..

Bharat Aur Uski Samasyayein a hindi book by Swami Vivekanand - भारत और उसकी समस्याए - स्वामी विवेकानन्द

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तावना

(प्रथम संस्करण)
‘भारत और उसकी समस्याएँ’, यहाँ हमारा नया प्रकाशन पाठकों के सम्मुख रखते हमें हर्ष हो रहा है।
रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन के एक मूर्धन्य ब्रह्मलीन संन्यासी स्वामी निर्वेदानन्दजी ने अद्वैत आश्रम, मायावती द्वारा प्रकाशित ‘The complete works of Swami Vivekananda’ (8 Vols.) से छाँटकर भारत से जुड़ी मुख्य समस्याओं के बारे में स्वामी विवेकानन्द के चुने हुए विचारों को उपयुक्त विषयों में वर्गीकृत करके ‘Swami Vivekananda on India and Her Problems’ नामक शीर्षक के अन्तर्गत इसका मूल संकलन किया गया था। प्रस्तुत प्रकाशन उसी का अनूदन है तथा उपरोक्त प्रकाशक द्वारा ही छापे गए ‘विवेकानन्द साहित्य’ (हिन्दी, दस खण्डों में), चतुर्थ संस्करण, नवम्बर 1995 के अनुदानित संस्करण पर आधारित है। सुधी पाठकों की रुचि तथा सुविधा के लिए इस पुस्तक के अन्त में उक्त ‘विवेकानन्द साहित्य’ के स्रोत्ररूप खण्डों तथा पृष्ठों की संदर्भ-सूची भी दी गई है।

इस पुस्तक में स्वामीजी ने बड़े आकर्षक ढंग से भारत के राष्ट्रीय ध्येयों की विवेचना की है तथा इस बात पर बल दिया है कि यदि भारतवासियों को अपने राष्ट्र का पुनरुत्थान वांछित है तो उन्हें यह प्रयत्न करना चाहिए कि उनमें नि:स्वार्थ सेवाभाव तथा आदर्श चारित्र्य आ जाए।
हमें विश्वास है कि यह पुस्तक भारतवासियों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होगी।

प्रकाशक

अध्याय 1
हमारी मातृभूमि

उसकी महिमा

यदि पृथ्वी पर ऐसा कोई देश है, जिसे हम पुण्य भूमि कह सकते हैं; यदि कोई स्थान है, जहाँ पृथ्वी के सब जीवों को अपना कर्मफल भोगने के लिए आना पड़ता है; यदि ऐसा कोई स्थान है, जहाँ भगवान् की ओर उन्मुख होने के प्रयत्न में संलग्न रहने वाले जीवमात्र को अन्तत: आना होगा; यदि ऐसा कोई देश है, जहाँ मानव-जाति में क्षमा, धृति, दया, शुद्धता आदि सद्वृत्तियों का सर्वाधिक विकास हुआ है और सर्वोपरि यदि ऐसा कोई देश है, जहाँ आत्मविद्या तथा आध्यात्मिकता का विकास हुआ है, तो वह देश भारत ही है।1....... यह वही प्राचीन भूमि है, जहाँ दूसरे देशों को जाने से पहले तत्त्वज्ञान ने आकर अपना निवास बनाया था; यह वही भारत है, जहाँ के आध्यात्मिक प्रवाह का स्थूल प्रतिरूप उसमें प्रवाहित हो रहे समुद्रकार नद हैं; जहाँ एक के पीछे एक उठती हुईं, चिरन्तन हिमालय की हिमशिखरें मानो स्वर्गराज्य के रहस्यों की ओर निहार रही हैं। यही वही भारत है, जिसकी भूमि पर संसार के सर्वश्रेष्ठ ऋषियों की चरण-रज पड़ चुकी है। सर्वप्रथम यहीं पर मनुष्य के स्वरूप तथा अन्तर्जगत् के विषय में जिज्ञासुओं के अंकुर उगे थे। सर्वप्रथम यहीं पर आत्मा के अमरत्व, और प्रकृति तथा मानव में व्याप्त एक विश्वसनीय ईश्वर के अस्तित्व विषयक मतवादों का उद्भव हुआ था। और यहीं धर्म तथा दर्शन के आदर्शों ने अपनी चरम उन्नति प्राप्त की थी।2

हमारा पवित्र भारतवर्ष धर्म तथा दर्शन की पुण्यभूमि है। यही बड़े बड़े महात्माओं तथा ऋषियों की जन्मभूमि है, यही संन्यास तथा त्याग की भूमि है और यहीं-केवल यहीं पर, आदि काल से लेकर आज तक मनुष्य के लिए जीवन के सर्वोच्च आदर्शों का द्वार खुला हुआ है।3 यह देश धर्म, दर्शन, नीतिशास्त्र, मधुरता, कोमलता और प्रेम की मातृभूमि है। ये सभी भारत में अब भी विद्यमान हैं। मुझे दुनिया के संबंध में जो भी जानकारी है, उसके बल पर मैं दृढ़तापूर्वक कह सकता हूँ कि इन बातों में पृथ्वी के अन्य देशों की अपेक्षा भारत अब भी श्रेष्ठ है।4

यह वही भारत है, जो शताब्दियों के आघात, विदेशियों के असंख्य आक्रमण और सैकड़ों आचार-व्यवहारों के हलचलों को झेलकर भी अक्षय बना हुआ है। यह वही भारत है, जो अपने अविनाशी वीर्य (बल) और जीवन के साथ अब तक पर्वत से भी दृढ़तर भाव से खड़ा है। आत्मा जैसे अनादि, अनन्त और अमृत-स्वरूप है, वैसे ही हमारी मातृभूमि का जीवन है, और हम इसी देश की सन्तान हैं।5 जब यूनान का अस्तित्व नहीं था, जो रोम भविष्य के अन्धकारमय गर्भ में छिपे रहते थे तथा अपने शरीर को नीले रंग से रँगा करते थे, तब भी भारत क्रियाशील था। उससे भी पहले, जिस समय का इतिहास में कोई लेखा नहीं है, जिस सुदूर धुँधले अतीत की ओर झाँकने का साहस परम्परा को भी नहीं होता, तब से लेकर अब तक न जाने कितने ही भाव एक के बाद एक भारत से प्रसारित हुए हैं, परन्तु उनका प्रत्येक शब्द आगे शान्ति और पीछे आशीर्वाद के साथ उच्चरित हुआ है।6 सारे संसार का इतिहास पढ़कर देख लो; जितने भी उच्च भाव हैं, वे सब पहले भारत में ही जन्मे हैं। चिरकाल से भारतवर्ष ही मानव समाज के लिये भावों की खान रहा है; उसने नये-नये भाव उत्पन्न कर सम्पूर्ण जगत् में वितरित किये हैं।7 धार्मिक शोधों से हमें यह भी ज्ञात होता है कि उत्तम नीतिशास्त्र से युक्त ऐसा कोई भी देश नहीं है, जिसने उसका कुछ-न-कुछ अंश हमसे न लिया हो और आत्मा के अमरत्व का ज्ञान रखने वाला कोई ऐसा धर्म नहीं है, जिसने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में वह हमसे ही न लिया हो।8 यह वही भूमि है, जहाँ से धर्म तथा दार्शनिक तत्वों ने उमड़ती हुई बाढ़ की भाँति पूरे जगत् को बारम्बार प्लावित कर दिया है और इसी भूमि से एक बार फिर वैसी ही तरंगें उठकर निस्तेज जातियों में शक्ति और जीवन का संचार कर देंगी।9

संसार हमारे देश का अत्यन्त ऋणी है। यदि विभिन्न देशों की आपस में तुलना की जाय, तो पता चलेगा कि सारा संसार सहिष्णु तथा निरीह हिन्दू का जितना ऋणी है, उतना अन्य किसी जाति का नहीं।10 जैसे कोमल ओसकण अनदेखे तथा अनसुने गिरकर भी परम सुन्दर गुलाब की कलियों को खिला देते हैं, वैसा ही भारत के दान का प्रभाव संसार की विचारधारा पर पड़ता रहता है। शान्त, अज्ञात, पर महाशक्ति के अदम्य बल से उसने सारे जगत् के विचारों में क्रान्ति ला दी है-एक नया युग ला दिया है; पर कोई भी नहीं जानता कि ऐसा कब हुआ।11

प्राचीन और वर्तमान काल में भी अनेक शक्तिशाली तथा महान् जातियों ने उच्च भावों को जन्म दिया है, पुराने समय में और आज भी बहुत-से अनोखे तत्त्व एक जाति से दूसरी जाति में पहुँचे हैं; फिर यह भी सत्य है कि किसी राष्ट्र की गतिशील जीवन-तरंगों ने महा-शक्तिशाली सत्य के बीजों को चारों ओर बिखेरा है। परन्तु भाइयो ! तुम यह भी देख पाओगे कि रणभेरी के निर्घोष तथा रण-सज्जा से सज्जित सैन्य-समूह की सहायता से ही ऐसे सत्यों का प्रचार हुआ है। बिना रक्त प्रवाह में सिक्त हुए, बिना लाखों स्त्री-पुरुषों के खून की नदी में स्नान किये, कोई भी नया भाव आगे नहीं बढ़ा। प्रत्येक ओजस्वी भाव के प्रचार के साथ-ही-साथ असंख्य लोगों का हाहाकार, अनाथों और असहायों का करुण क्रन्दन और विधवाओं का अजस्र अश्रुपात् होते देखा गया है। प्रधानत: इसी उपाय द्वारा अन्य देशों ने संसार को शिक्षा दी है, परन्तु भारत इस उपाय का आश्रय लिए बिना ही हजारों वर्षों से शान्तिपूर्वक जीवित रहा है।12

वे पश्चिमी देश वाले Survival of the fittest (योग्यतम की अतिजीविता) के नये सिद्धांतों के विषय में बड़ी लम्बी-चौड़ी बातें हाँकते हैं और सोचते हैं कि जिसकी भुजाओं में सबसे अधिक बल है, वही सर्वाधिक काल तक जीवित रहेगा। यदि वह बात सच होती, तो पुरानी दुनिया की कोई वैसी ही जाति, जिसने अपने बाहुबल से कितने ही देशों पर विजय पायी थी, आज अपने अप्रतिहत गौरव से संसार में जगमगाती हुई दिखायी देती और हमारी कमजोर हिन्दू जाति, जिसने कभी किसी जाति या राष्ट्र को पराजित नहीं किया है, आज पृथ्वी से विलुप्त हो गयी होती। पर अब भी हम तीस (अब लगभग सौ) करोड़ हिन्दू जीवित हैं।13........संसार के सभी देशों में एकमात्र हमारे देश ने ही लड़ाई-झगड़े करके किसी अन्य देश को पराजित नहीं किया है-इसका शुभाशीर्वाद हमारे साथ है और इसी कारण हम अब तक जीवित हैं।14

यूनान देश का गौरव आज अस्त हो चुका है। अब तो कहीं उसका चिह्न तक दिखायी नहीं देता। एक समय था, जब प्रत्येक पार्थिव भोग्य वस्तु के ऊपर रोम की श्येनांकित विजय-पताका फहराया करती थी, रोमन लोग सर्वत्र जाते और मानव-जाति पर प्रभुत्व स्थापित करते थे। रोम का नाम सुनते ही पृथ्वी काँप उठती थी, परन्तु आज उसी रोम का कैपिटोलाइन पहाड़ एक खण्डहर का ढूह मात्र है। जहाँ सीजर राज्य करता था, वहाँ आज मकड़ियाँ जाले बुनती हैं। इस प्रकार कितने ही परम वैभवशाली राष्ट्र उठे और गिरे।

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