धर्म एवं दर्शन >> परमार्थ प्रसंग परमार्थ प्रसंगस्वामी विरजानान्द
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प्रस्तुत है पुस्तक परमार्थ प्रसंग...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
निवेदन
पूज्यपाद श्रीमत् स्वामी विरजानन्दकृत ‘परमार्थ-प्रसंग’ नामक
पुस्तक हम अत्यन्त हर्ष के साथ प्रकाशित कर रहे हैं। श्रीमत् स्वामी
विरजानन्दजी सुदीर्घकाल तक श्रीरामकृष्ण संघ के अध्यक्ष रहे थे। उस समय
अनेकानेक जिज्ञासु भक्त उनके निकट आध्यात्मिक मार्गदर्शन की प्रत्याशा
रखते थे। किन्तु महाराजजी का शरीर सब समय स्वस्थ न रहने के कारण तथा
श्रीरामकृष्ण संघ के अनेक उत्तरदायित्वपूर्ण कार्यों में उनके व्यस्त रहने
के कारण जिज्ञासु भक्त उनके धार्मिक तथा आध्यात्मिक विषयों पर इच्छानुरूप
वार्तालाप करने की विशेष सुविधा नहीं पाते थे। इस कारण अनेक भक्त
प्रत्यत्र या परोक्ष में दुःख भी प्रकट करते थे। श्री महाराजजी भी अपनी इस
अक्षमता के कारण व्यथा का अनुभव करते थे। अतः इस परिस्थिति के कुछ
प्रतिकारस्वरूप वे धर्म एवं आध्यात्मिक साधना सम्बन्धी अपनी अन्तःस्फूर्त
विचारधारा को समय समय पर, विशेषतः अपनी दीक्षित सन्तानों के लिए लिपिबद्ध
कर रखते थे। तदुपरान्त, अनेक भक्तों के इस अनुरोध पर कि उदार भावधारा पर
आधारित इन सर्वकल्याणकारी उपदेशों से सभी धर्मपिपासुओं को साधना-पथ में
विशेष सहायता मिल सकेगी, उन्होंने उस समस्त विचारधारा को पुस्तक के रूप
में प्रकाशित करने की अनुमति दे दी।
सन् 1892 में सतरह वर्ष की अवस्था में संसार त्यागकर तथा श्रीरामकृष्ण संघ के वराहनगर स्थित प्रथम मठ में योगदान करने के पश्चात श्री महाराजी सुदीर्घ 60 वर्ष पर्यन्त, श्री स्वामी विवेकानन्द तथा भगवान् श्रीरामकृष्ण के अन्यान्य पार्षदों के साथ, समयानुसार, सेवानिव्रत तथा घनिष्ठ संग में रहे। इस दिव्य अवधि में श्री महाराजी के शास्त्रानुशीलन, तपस्या, योगसाधन एवं कर्ममय जीवन के फलस्वरूप उपलब्ध अनुभव एवं ज्ञानराशि का किंचित आभास इस पुस्तक में प्रकट हुआ है।
बड़ी बड़ी जटिल दार्शनिक समस्याओं पर विचार तथा तत्सम्बन्धी निष्कर्ष प्रतिपादित करना इस पुस्तक का उद्देश्य नहीं। जिनके अन्तःकरण में धर्मभाव तथा आध्यात्मिक प्रेरणा के स्फुरण के फलस्वरूप, कुछ प्रत्यक्ष उपलब्धि की तीव्र आकांक्षा जागृत हुई है, तथा जो संसार के नानाविध विघ्न-बाधा, घात-प्रतिघात एवं व्यर्थता, निःसारता के साथ युद्ध करते हुए अपनी क्षुद्र सामर्थ्य द्वारा साफल्यलाभ में स्वयं को कुछ निरुत्साहित तथा असहाय अनुभव करते हों, उन्हें श्रेय के पथ पर संस्थापित हो दृढ़ता से आगे बढ़ने के लिए मार्ग-प्रदर्शन तथा प्रोत्साहन-प्रदान में ही इन प्रसंगों की सार्थकता है। नये साधक को प्रतिदिन के व्यावहारिक जीवन में जिन समस्त चित्-विक्षेपकारी अनेक छोटे-बड़े संशय तथा समस्याओं का मुकाबला करना पड़ता है, उनकी सुसंगत तथा तद्विषयक व्यावहारिक समाधान भी इस ग्रन्थ का एक वैशिष्ट्य है। साथ ही, जैसा पाठक स्वयं अनुभव करेंगे, पुस्तक के आधारस्वरूप, कितने ही आध्यात्मिक सिद्धान्त, इसमें प्रचुर परिमाण में विद्यमान हैं।
श्री स्वामी विरजानन्दजी द्वारा युवावस्था में रचित श्रीरामकृष्ण-दशक-स्तोत्र भी ग्रन्थ में मंगलाचरण के रूप में दिया गया है।
श्री महाराजजी के शिष्य, मकड़ाई (म.प्र.) निवासी स्व. श्रीकृष्ण गंगराडे़ ने इस पुस्तक का मूल बंगला से अनुवाद किया है। उनका यह कार्य भक्ति एवं पवित्र भावना से तथा अत्यन्त सफलतापूर्वक हुआ है।
इस पुस्तक के साथ प्रसिद्ध अमेरिकन लेखक जेराल्ड हर्ड तथा क्रिस्टोफर इशरवूड द्वारा लिखित ‘परमार्थ-प्रसंग’ के अंग्रेजी संस्करण की भूमिका तथा प्राक्कथन के हिन्दी अनुवाद जोड़ दिये गये हैं। उनसे भारतीय पाठकों को ज्ञात होगा कि पाश्चात्य चिन्तक भारतीय आध्यात्मिक विचारों तथा आदर्शों को किस दृष्टि से ग्रहण करते हैं।
ये उपदेश बोलचाल की भाषा में होने से स्त्री-पुरुष, शिक्षित-अशिक्षित, युवा-वृद्ध, गृही-संन्यासी सभी के लिए सहज बोधगम्य तथा प्रत्यक्ष बातचीत के सदृश्य सरल एवं हृदयस्पर्शी हैं। हमारा दृढ़ विश्वास है कि श्री महाराजजी की इस ज्ञानगर्भ वाणी के पठन-पाठन से सभी का विशेष कल्याणसाधन होगा।
सन् 1892 में सतरह वर्ष की अवस्था में संसार त्यागकर तथा श्रीरामकृष्ण संघ के वराहनगर स्थित प्रथम मठ में योगदान करने के पश्चात श्री महाराजी सुदीर्घ 60 वर्ष पर्यन्त, श्री स्वामी विवेकानन्द तथा भगवान् श्रीरामकृष्ण के अन्यान्य पार्षदों के साथ, समयानुसार, सेवानिव्रत तथा घनिष्ठ संग में रहे। इस दिव्य अवधि में श्री महाराजी के शास्त्रानुशीलन, तपस्या, योगसाधन एवं कर्ममय जीवन के फलस्वरूप उपलब्ध अनुभव एवं ज्ञानराशि का किंचित आभास इस पुस्तक में प्रकट हुआ है।
बड़ी बड़ी जटिल दार्शनिक समस्याओं पर विचार तथा तत्सम्बन्धी निष्कर्ष प्रतिपादित करना इस पुस्तक का उद्देश्य नहीं। जिनके अन्तःकरण में धर्मभाव तथा आध्यात्मिक प्रेरणा के स्फुरण के फलस्वरूप, कुछ प्रत्यक्ष उपलब्धि की तीव्र आकांक्षा जागृत हुई है, तथा जो संसार के नानाविध विघ्न-बाधा, घात-प्रतिघात एवं व्यर्थता, निःसारता के साथ युद्ध करते हुए अपनी क्षुद्र सामर्थ्य द्वारा साफल्यलाभ में स्वयं को कुछ निरुत्साहित तथा असहाय अनुभव करते हों, उन्हें श्रेय के पथ पर संस्थापित हो दृढ़ता से आगे बढ़ने के लिए मार्ग-प्रदर्शन तथा प्रोत्साहन-प्रदान में ही इन प्रसंगों की सार्थकता है। नये साधक को प्रतिदिन के व्यावहारिक जीवन में जिन समस्त चित्-विक्षेपकारी अनेक छोटे-बड़े संशय तथा समस्याओं का मुकाबला करना पड़ता है, उनकी सुसंगत तथा तद्विषयक व्यावहारिक समाधान भी इस ग्रन्थ का एक वैशिष्ट्य है। साथ ही, जैसा पाठक स्वयं अनुभव करेंगे, पुस्तक के आधारस्वरूप, कितने ही आध्यात्मिक सिद्धान्त, इसमें प्रचुर परिमाण में विद्यमान हैं।
श्री स्वामी विरजानन्दजी द्वारा युवावस्था में रचित श्रीरामकृष्ण-दशक-स्तोत्र भी ग्रन्थ में मंगलाचरण के रूप में दिया गया है।
श्री महाराजजी के शिष्य, मकड़ाई (म.प्र.) निवासी स्व. श्रीकृष्ण गंगराडे़ ने इस पुस्तक का मूल बंगला से अनुवाद किया है। उनका यह कार्य भक्ति एवं पवित्र भावना से तथा अत्यन्त सफलतापूर्वक हुआ है।
इस पुस्तक के साथ प्रसिद्ध अमेरिकन लेखक जेराल्ड हर्ड तथा क्रिस्टोफर इशरवूड द्वारा लिखित ‘परमार्थ-प्रसंग’ के अंग्रेजी संस्करण की भूमिका तथा प्राक्कथन के हिन्दी अनुवाद जोड़ दिये गये हैं। उनसे भारतीय पाठकों को ज्ञात होगा कि पाश्चात्य चिन्तक भारतीय आध्यात्मिक विचारों तथा आदर्शों को किस दृष्टि से ग्रहण करते हैं।
ये उपदेश बोलचाल की भाषा में होने से स्त्री-पुरुष, शिक्षित-अशिक्षित, युवा-वृद्ध, गृही-संन्यासी सभी के लिए सहज बोधगम्य तथा प्रत्यक्ष बातचीत के सदृश्य सरल एवं हृदयस्पर्शी हैं। हमारा दृढ़ विश्वास है कि श्री महाराजजी की इस ज्ञानगर्भ वाणी के पठन-पाठन से सभी का विशेष कल्याणसाधन होगा।
प्रकाशक
भूमिका
इस पुस्तक के पढ़ने से पाश्चात्य पाठक के मन में यह भाव जागृत होगा कि यह
श्रीरामकृष्ण और स्वामी ब्रह्मानन्दजी की शिक्षा के अनुरूप धारा का यथार्थ
अनुसरण है। क्या रचना-शैली, क्या भावों का समावेश तथा वास्तविकता के
क्षेत्र में प्रयोग-कुशलता और समयोपयोगी प्रसंग-क्रम सब तरह से ही यह
पुस्तक श्री ‘म’ द्वारा लिपिबद्ध भगवान्
श्रीरामकृष्णदेव के
श्रीमुख से निःसृत उपदेशावली एवं सर्वजनपरिचित
(श्रीश्रीरामकृष्णकथामृत’ और ‘The Eternal Companion’
(नित्यसंगी) नामक पुस्तक में स्वामी ब्रह्मानन्दजी के धर्म-प्रसंगों की
बातों का स्मरण करा देती है। इस पुस्तक में पाठक पारमार्थिक विषय का
अस्पष्ट वर्णन या दीर्घछन्द-युक्त वाग्मिता-विन्यास का परिचय नहीं
पायेंगे।
भिन्न भिन्न श्रेणी के अधिकारी और विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ सत्यशोधक जिज्ञासुओं के एक तत्त्वदर्शी आचार्य के साथ प्रश्नोत्तर और प्रत्यक्ष चर्चा और आलोचना के रूप में ये प्रसंग निकले हैं, इसीलिए ये रसपूर्ण हैं। ऐसा जान पड़ता है मानो सम्मुख ही बातचीत चल रही हो। इसी कारण हर एक के लिए कुछ न कुछ शिक्षा का विषय इसमें पाया जाता है। फिर इसमें हैं—वह वैज्ञानिक तथ्य, वह आलोचना-पद्धति का शृंखला-बोध और वह विशिष्ट विषय-ज्ञान का उपयोगी अनुशीलन-जिनका अभाव अध्यात्म-विषयक पाश्चात्य पुस्तकों में सर्वत्र पाया जाता है।
भिन्न भिन्न श्रेणी के अधिकारी और विभिन्न विषयों के विशेषज्ञ सत्यशोधक जिज्ञासुओं के एक तत्त्वदर्शी आचार्य के साथ प्रश्नोत्तर और प्रत्यक्ष चर्चा और आलोचना के रूप में ये प्रसंग निकले हैं, इसीलिए ये रसपूर्ण हैं। ऐसा जान पड़ता है मानो सम्मुख ही बातचीत चल रही हो। इसी कारण हर एक के लिए कुछ न कुछ शिक्षा का विषय इसमें पाया जाता है। फिर इसमें हैं—वह वैज्ञानिक तथ्य, वह आलोचना-पद्धति का शृंखला-बोध और वह विशिष्ट विषय-ज्ञान का उपयोगी अनुशीलन-जिनका अभाव अध्यात्म-विषयक पाश्चात्य पुस्तकों में सर्वत्र पाया जाता है।
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लोगों की राय
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