धर्म एवं दर्शन >> जीने की कला जीने की कलास्वामी जगदात्मानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक जीने की कला...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रकाशकीय
सभी लोग जन्म लेते हैं और जीवन–यात्रा का निर्वाह करते हैं,
परन्तु
सबका जीवन सफल और सार्थक नहीं कहा जा सकता। जीने की कला के अभाव में
व्यक्ति सब कुछ होते हुए भी सुख-शान्ति और परमार्थ का लाभ नहीं
कर
पाता।
जीने की कला से सम्बन्धित मूलभूत बातों को सहज रूप में प्रस्तुत करने हेतु रामकृष्ण संघ के एक विद्वान संन्यासी स्वामी जगदात्मानन्द जी ने कन्नड़ भाषा में दो भागों में एक पुस्तक लिखी थी, जो विगत अनेक वर्षों से अतीव लोकप्रिय रही। हाल ही में उसका अंग्रेजी में अनुवाद भी ‘Learn to Live’ नाम से चेन्नै स्थिति रामकृष्ण मठ द्वारा प्रकाशित किया गया है।
उक्त पुस्तक का पहला भाग ‘जीना सीखो’ के नाम से हम पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं। उसका दूसरा भाग वाराणसी के श्री रामकुमार गौड़ द्वारा हिन्दी में अनूदित तथा रामकृष्णमिशन विवेकानन्द आश्रम, रायपुर, के स्वामी विदेहात्मानन्द जी द्वारा सम्पादित होकर ‘विवेक-ज्योति’ मासिक के सितम्बर 2001 से सितम्बर 2004 ई. के 37 अंकों में ‘जीने की कला’ शीर्षक के साथ धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। इस लेखमाला की अति लोकप्रियता को देखते हुए, अब हम इसे पुस्तकाकार में प्रस्तुत कर रहे हैं। पुस्तक का नामकरण तथा पुनः सम्पादन स्वामी विदेहात्मानन्द जी ने किया है। उनके हम विशेष आभारी हैं। श्रीमती मधु दर ने इसके प्रूफ-शोधन आदि में विशेषकर छात्रों के मार्गदर्शन में यह पुस्तक विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध होगी।
जीने की कला से सम्बन्धित मूलभूत बातों को सहज रूप में प्रस्तुत करने हेतु रामकृष्ण संघ के एक विद्वान संन्यासी स्वामी जगदात्मानन्द जी ने कन्नड़ भाषा में दो भागों में एक पुस्तक लिखी थी, जो विगत अनेक वर्षों से अतीव लोकप्रिय रही। हाल ही में उसका अंग्रेजी में अनुवाद भी ‘Learn to Live’ नाम से चेन्नै स्थिति रामकृष्ण मठ द्वारा प्रकाशित किया गया है।
उक्त पुस्तक का पहला भाग ‘जीना सीखो’ के नाम से हम पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं। उसका दूसरा भाग वाराणसी के श्री रामकुमार गौड़ द्वारा हिन्दी में अनूदित तथा रामकृष्णमिशन विवेकानन्द आश्रम, रायपुर, के स्वामी विदेहात्मानन्द जी द्वारा सम्पादित होकर ‘विवेक-ज्योति’ मासिक के सितम्बर 2001 से सितम्बर 2004 ई. के 37 अंकों में ‘जीने की कला’ शीर्षक के साथ धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ। इस लेखमाला की अति लोकप्रियता को देखते हुए, अब हम इसे पुस्तकाकार में प्रस्तुत कर रहे हैं। पुस्तक का नामकरण तथा पुनः सम्पादन स्वामी विदेहात्मानन्द जी ने किया है। उनके हम विशेष आभारी हैं। श्रीमती मधु दर ने इसके प्रूफ-शोधन आदि में विशेषकर छात्रों के मार्गदर्शन में यह पुस्तक विशेष रूप से उपयोगी सिद्ध होगी।
प्रकाशक
भूमिका
वर्तमान सामाजिक नैतिक परिवेश किसी भी व्यक्ति को बड़ी आसानी से भविष्य के
बारे में निराशावादी तथा सभ्य माने जाने वाले राष्ट्र जन-विनाश के ऐसे
हथियारों के निर्माण एवं संग्रह में एक दूसरे से होड़ कर रहे हैं, जो पलक
झपकते ही समग्र संसार का विनाश कर देने में सक्षम हैं। जन-विनाशक हथियारों
के निर्माण में अरबों रुपये खर्च किए जा रहे हैं। जोनाथन शेल अपनी पुस्तक
‘The Future of Earth’ (पृथ्वी का भविष्य’)
में बताते
हैं कि मानव-समाज बड़ी लाचारी के साथ आपदा के कगार पर लटक रहा है। यदि कुछ
ही दशकों पूर्व हिरोशिमा का सर्वनाश कर देनेवाले बम की तुलना आधुनिकतम
हथियारों से की जाए, तो वह बम वर्तमान हथियारों की संहारक-शक्ति की तुलना
में दस लाखवाँ भाग भी नहीं था। तो भी कई राष्ट्र ऐसे हथियारों का अधिकाधिक
संग्रह करते जा रहे हैं। जोनाथन शेल बड़ी कटु टिप्पणी करते हुए कहते हैं
कि इसके विरुद्ध किसी जनविरोध का अभाव यह प्रदर्शित करता है कि लोग मानवीय
कल्याण की भावना अथवा स्वयं अपने ही कल्याण की बात को बिलकुल ही विस्मृत
कर चुके हैं। मानव के भीतर का दानव इतनी तेजी से बढ़ता जा रहा है कि वह
दिन दूर नहीं जब जीवित लोग मृतकों से ईर्ष्या करने लगेंगे।
वैसे इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सम्पूर्ण मानव-जाति के कल्याण हेतु रचनात्मक कार्यक्रम चलाने वाले कुछ संगठन मनुष्य के अब भी विद्यमान सद्गुणों के जीवन्त साक्षी हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ और अन्य गैर-सरकारी संस्थाओं की ऐसी अनेक शाखाएँ, जो भूखों को भोजन प्रदान करने, रोग-निवारण, कर्मचारियों के हित-संरक्षण, संस्कृति, कला तथा शिक्षा की उन्नति और विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक तथा मनाव-निर्मित आपदाओं से ग्रस्त लोगों को राहत प्रदान करने में निरत हैं।
परन्तु ऐसा लगता है मानों आसुरी-शक्तियाँ आधुनिक विज्ञान की शक्तियों पर अधिकार जमाकर उनका साधिकार प्रयोग करते हुए अच्छाई की समस्त शक्तियों के मार्ग में रोड़े अटकाने पर तुली हुई हैं। जरा आतंकवादियों की उन गतिविधियों के बारे में तो सोचिए, जिनके कारण हजारों निर्दोष मारे जाते हैं। एक ओर हथियारों पर प्रभूत धनराशि व्यय की जाती है, जो न केवल पूर्णतः अनुत्पादक अपितु विनाशात्मक उद्देश्यों के लिए विश्व में मिलावटी खाद्यान्न, साहित्य तथा फिल्मों में अश्लीलता और नशाखोरी को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा देकर अकूत धन कमा रहा है।
पारिवारिक और नैतिक मूल्य स्वार्थपरायणता की चिता जलकर खाक होते जा रहे हैं। भविष्य के नेता, हमारे युवजन, आसुरी शक्तियों से प्रलोभित हो रहे हैं और समाज सर्वत्र विघटित होता दिख रहा है।
नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की उपेक्षा, इन्द्रिय-सुखों को अति महत्त्व देने वाले भौतिकतावादी आदर्श, सुखवाद को बढ़ावा देनेवाली तर्क -भावना और प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग—ये सब मिलकर मानवता को घोर दुर्भाग्य की ओर खींचकर ले जा रहे हैं। अपनी आत्मा को खोकर विश्व-विजय से क्या लाभ ? यदि मनुष्य अपने स्वयं के मन पर ही नियंत्रण न रख सके, तो उसके द्वारा कम्प्यूटरों या अद्भुत अन्तरिक्ष–यानों पर नियंत्रण करने में सफल होने से क्या लाभ ?
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में स्वामी विवेकानन्द ने चेतावनी दी थी—‘भौतिकवाद और उससे उत्पन्न क्लेश भौतिकवाद से कभी दूर नहीं हो सकते।...सारा पाश्चात्य विश्व मानो एक ज्वालामुखी पर स्थित है, जो कल ही फूटकर उसे चूर-चूर कर सकता है। केवल आध्यात्मिक तथा नैतिक संस्कृति ही राष्ट्र में गलत प्रवृत्तियों में सुधार ला सकती है।’ यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि इस चेतावनी पूर्ण उद्गार के बाद कुछ दशकों के दौरान ही दो विश्वयुद्धों ने मानवता का घोर विनाश किया और करोड़ों लोगों को धरती से मिटा दिया।
जब तक जीवन और वास्तविकता के प्रति हमारे मूलभूत दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं आता, तब तक सुख-प्राप्ति के साधनों तथा वस्तुओं के प्राचुर्य के बावजूद, सच्चा सुख एवं स्थायी सन्तुष्टि सर्वदा हमारे साथ आँख मिचौनी ही खेलती रहेगी। क्यों ? इसलिए कि भोग-सुख इन्द्रिय-उत्तेजना का परिणाम है, जबकि सच्चा आनन्द इन्द्रियों के सम्पर्क से स्वतंत्र और दीर्घस्थायी होता है। यह अन्तर से, हृदय की गहराई से उत्पन्न होता है। सुख स्वार्थ या अहं-केन्द्रित संवेगों पर आधारित होता है, जबकि आनन्द अहं से परे जाकर तथा अन्य लोगों के हित-साधन से प्राप्त होता है। इन्द्रिय-सुख कष्टप्रद प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं, जबकि आनन्द शान्ति एवं सन्तोष प्रदान करता है।
वैसे इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सम्पूर्ण मानव-जाति के कल्याण हेतु रचनात्मक कार्यक्रम चलाने वाले कुछ संगठन मनुष्य के अब भी विद्यमान सद्गुणों के जीवन्त साक्षी हैं। संयुक्त राष्ट्रसंघ और अन्य गैर-सरकारी संस्थाओं की ऐसी अनेक शाखाएँ, जो भूखों को भोजन प्रदान करने, रोग-निवारण, कर्मचारियों के हित-संरक्षण, संस्कृति, कला तथा शिक्षा की उन्नति और विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक तथा मनाव-निर्मित आपदाओं से ग्रस्त लोगों को राहत प्रदान करने में निरत हैं।
परन्तु ऐसा लगता है मानों आसुरी-शक्तियाँ आधुनिक विज्ञान की शक्तियों पर अधिकार जमाकर उनका साधिकार प्रयोग करते हुए अच्छाई की समस्त शक्तियों के मार्ग में रोड़े अटकाने पर तुली हुई हैं। जरा आतंकवादियों की उन गतिविधियों के बारे में तो सोचिए, जिनके कारण हजारों निर्दोष मारे जाते हैं। एक ओर हथियारों पर प्रभूत धनराशि व्यय की जाती है, जो न केवल पूर्णतः अनुत्पादक अपितु विनाशात्मक उद्देश्यों के लिए विश्व में मिलावटी खाद्यान्न, साहित्य तथा फिल्मों में अश्लीलता और नशाखोरी को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा देकर अकूत धन कमा रहा है।
पारिवारिक और नैतिक मूल्य स्वार्थपरायणता की चिता जलकर खाक होते जा रहे हैं। भविष्य के नेता, हमारे युवजन, आसुरी शक्तियों से प्रलोभित हो रहे हैं और समाज सर्वत्र विघटित होता दिख रहा है।
नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की उपेक्षा, इन्द्रिय-सुखों को अति महत्त्व देने वाले भौतिकतावादी आदर्श, सुखवाद को बढ़ावा देनेवाली तर्क -भावना और प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग—ये सब मिलकर मानवता को घोर दुर्भाग्य की ओर खींचकर ले जा रहे हैं। अपनी आत्मा को खोकर विश्व-विजय से क्या लाभ ? यदि मनुष्य अपने स्वयं के मन पर ही नियंत्रण न रख सके, तो उसके द्वारा कम्प्यूटरों या अद्भुत अन्तरिक्ष–यानों पर नियंत्रण करने में सफल होने से क्या लाभ ?
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में स्वामी विवेकानन्द ने चेतावनी दी थी—‘भौतिकवाद और उससे उत्पन्न क्लेश भौतिकवाद से कभी दूर नहीं हो सकते।...सारा पाश्चात्य विश्व मानो एक ज्वालामुखी पर स्थित है, जो कल ही फूटकर उसे चूर-चूर कर सकता है। केवल आध्यात्मिक तथा नैतिक संस्कृति ही राष्ट्र में गलत प्रवृत्तियों में सुधार ला सकती है।’ यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि इस चेतावनी पूर्ण उद्गार के बाद कुछ दशकों के दौरान ही दो विश्वयुद्धों ने मानवता का घोर विनाश किया और करोड़ों लोगों को धरती से मिटा दिया।
जब तक जीवन और वास्तविकता के प्रति हमारे मूलभूत दृष्टिकोण में परिवर्तन नहीं आता, तब तक सुख-प्राप्ति के साधनों तथा वस्तुओं के प्राचुर्य के बावजूद, सच्चा सुख एवं स्थायी सन्तुष्टि सर्वदा हमारे साथ आँख मिचौनी ही खेलती रहेगी। क्यों ? इसलिए कि भोग-सुख इन्द्रिय-उत्तेजना का परिणाम है, जबकि सच्चा आनन्द इन्द्रियों के सम्पर्क से स्वतंत्र और दीर्घस्थायी होता है। यह अन्तर से, हृदय की गहराई से उत्पन्न होता है। सुख स्वार्थ या अहं-केन्द्रित संवेगों पर आधारित होता है, जबकि आनन्द अहं से परे जाकर तथा अन्य लोगों के हित-साधन से प्राप्त होता है। इन्द्रिय-सुख कष्टप्रद प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं, जबकि आनन्द शान्ति एवं सन्तोष प्रदान करता है।
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