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विवेकानन्द साहित्य >> विवेकानन्दजी के सान्निध्य में

विवेकानन्दजी के सान्निध्य में

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5898
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक विवेकानन्दजी के सान्निध्य में

Vivekanand Ji Ke Sanniddhya Mein

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

‘विवेकानन्दजी के सान्निध्य में’ यह पुस्तक हम प्रसन्नता के साथ पाठकों के सम्मुख रख रहे हैं। स्वामी विवेकानन्दजी का उनके शिष्यों तथा विभिन्न व्यक्तियों के साथ समय पर विभिन्न महत्त्वपूर्ण विषयों पर वार्तालाप होता था। प्रस्तुत पुस्तक में जो सम्भाषण संकलित किये गये हैं, वे ऐसे व्यक्तियों द्वारा लिखे गये हैं जो स्वामीजी के सान्निध्य में आये थे। ये वार्तालाप धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक आदि विभिन्न विषयों पर हुए थे और उनके द्वारा स्वामीजी के उद्वोधक तथा स्फूर्तिदायी विचारों की जानकारी प्राप्त होती है।

हमारे देश का पुनरुत्थान किस प्रकार हो सकता है तथा वह फिर से अपने प्राचीन गौरव का स्थान कैसे प्राप्त कर सकता है, इसका भी दिग्दर्शन स्वामीजी ने अपनी ओजपूर्ण वाणी में इन सम्भाषणों में किया है। राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए व्यक्ति का पुनर्निर्माण पहले होना चाहिए-व्यक्तित्व का विकास होना चाहिए, इस सत्य का भी यथार्थ ज्ञान हमें इन सम्भाषणों से होता है। स्वामीजी के जो सम्भाषण प्रथम संस्करण के बाद उपलब्ध हुए हैं, वे भी अद्वैताश्रम, मायावती द्वारा प्रकाशित ‘‘विवेकानन्द साहित्य’’ से लेकर इस पुस्तक में समाविष्ट कर दिये गये हैं।

इस पुस्तक के अधिकांश का अनुवाद श्री हरिवल्लभ जोशी, एम.ए., ने किया है। उनके इस बहुमूल्य कार्य के लिए हम उनके कृतज्ञ हैं।
प्रस्तुत पुस्तक के कार्य में श्री श्रीकान्त जोशी, एम. ए., प्राध्यापक, श्री नीलकण्ठेश्वर कालेज, खण्डवा ने जो सहायता दी है उसके लिए हम उनके बड़े आभारी हैं।
हमें विश्वास है कि इस पुस्तक के द्वारा पाठकों का अनेक दिशाओं में हित होगा।

प्रकाशक

विवेकानन्दजी के सान्निध्य में

परिच्छेद 1

विषय-गुरुगृहवास की प्रथा-आधुनिक विश्वविद्यालय शिक्षाप्रणाली-श्रद्धा का अभाव-हमारा भी राष्ट्रीय इतिहास है-पाश्चात्य विज्ञानयुक्त वेदान्त-तथाकथित उच्च शिक्षा-यान्त्रिक शिक्षा की आवश्यकता-सत्यकाम की कथा-पुस्तकीय ज्ञान और त्यागियों के निरीक्षण में शिक्षाभ्यास-श्रीरामकृष्ण और पण्डित-समुदाय-ऐसे मठ की स्थापना जिसमें साधु अध्यापन कार्य करें- बच्चों के लिए पाठ्यपुस्तकें-बालविवाह बन्द करो- अविवाहित ग्रेज्युएटों को जापान भेजने का विचार- जापान की उन्नति का रहस्य-यूरोप और एशिया की कला-कला और उपयोगिता-वेशभूषा की प्रणालियाँ- अन्न का प्रश्न और गरीबी।

बेलुड़ मठ के निर्माण के दो वर्ष बाद की बात है। सभी स्वामी अब वहीं रहने लगे थे। इन्हीं दिनों मैं एक दिन सबेरे स्वामी विवेकानन्द के दर्शन करने वहाँ गया हुआ था। मुझे देखकर स्वामीजी मुस्कराये और बोले-आज तो यहीं रहोगे न ?
‘अवश्य’ मैंने कहा और इधर-उधर की कुछ बातें करने के बाद मैंने पूछा-महाराज, बच्चों की शिक्षा पद्धति कैसे होनी चाहिए ?
स्वामीजी-गुरुगृहवास-गुरु के साथ रहना।

प्रश्न-कैसे ?

स्वामीजी-जैसे प्राचीनकाल में होता था। किन्तु आज की शिक्षा पाश्चात्य विज्ञान का भी समावेश होना चाहिए। दोनों ही आवश्यक हैं।

प्रश्न-पर आज की विश्वविद्यालय की शिक्षा में क्या दोष है ?

स्वामीजी-इसमें दोष ही दोष भरे हैं। यह ‘बाबू’ पैदा करने की मशीन के सिवाय कुछ नहीं है। अगर इतना ही होता तब भी ठीक था, पर नहीं, इस शिक्षा ने मनुष्यों की श्रद्धा और विश्वास की भावनाएँ नष्ट कर दी हैं। वे कहते हैं कि गीता तो एक प्रक्षिप्त अंश है और वेद देहाती गीत मात्र हैं। वे भारतवर्ष के बाहर के देशों के संबंध में तो हर बात जानना चाहते हैं, पर यदि उनसे कोई अपने पूर्वजों के नाम पूँछे तो चौदह पीढ़ी तो दूर रही, सात पीढ़ी तक भी नहीं बता सकते।

प्रश्न-पर इससे क्या हुआ ? वे अपने पूर्वजों के नाम नहीं जानते तो क्या हानि है ?

स्वामीजी-नहीं, ऐसा मत सोचो। जिस राष्ट्र का कोई अपना इतिहास नहीं है, वह अत्यन्त ही हीन और नगण्य बना रहता है। क्या तुम सोचते हो कि कोई व्यक्ति जिसे सदैव इस बात का विश्वास और अभिमान है कि वह उच्च कुल में उत्पन्न हुआ, कभी दुश्चरित्र हो सकेगा ? ऐसा क्यों होता है ? उसमें जो आत्मविश्वास और स्वाभिमान का भाव है वह सदैव ऐसे व्यक्ति सत्मार्ग से च्युत होने की अपेक्षा हँसते-हँसते मृत्यु का आलिंगन कर लेगा। इसी तरह राष्ट्र का गौरवमय अतीत राष्ट्र को नियन्त्रण में रखता है, और उसका अध:पतन नहीं होने देता। पर मैं जानता हूँ, तुम कहोगे कि हमारा ऐसा कोई अतीत-कोई इतिहास ही नहीं है। जो तुम्हारी तरह सोचते हैं उन्हीं के लिए हमारे राष्ट्र का कोई इतिहास नहीं है; और तुम्हें विश्वविद्यालय के उन तथाकथित विद्वानों के लिए नहीं है-और उन लोगों के लिए नहीं है जो कि पाश्चात्य देशों का एक चक्कर मारकर, यूरोपीय वेश-भूषा से सुसज्ज हो भारत लौट आते हैं और बड़बड़ाने लगते हैं-हमारे पास कुछ नहीं है-हम तो बस जंगली है। हाँ, यह सच है कि दूसरे देशों का जैसा इतिहास है वैसा हमारा नहीं है, पर इसका यह अर्थ तो नहीं होता कि हमारा कोई इतिहास ही नहीं है।

जैसे हम भात खाते हैं और अंग्रेज लोग भात नहीं खाते-तो इस पर से क्या तुम यह निर्णय कर लोगे कि अंग्रेज भूखे मरते हैं और कुछ दिनों में नष्ट हो जायेंगे। उसके देश में, उनकी जलवायु के अनुकूल जो सरलता से वे उत्पन्न कर लेते हैं, वही खाकर वे पनपते और पुष्ट होते हैं। इसी तरह हमारे लिए जैसा आवश्यक है, वैसा हमारा भी अपना इतिहास है। और अपनी आँख बन्द कर लेने और चिल्लाने से कि हमारा कोई इतिहास ही नहीं है, वह क्या नष्ट हो जायेगा ? जिनके पास देखने के लिए आँखें हैं वे जानते हैं कि हमारा इतिहास कितना उज्ज्वल है, और वह देश को किस प्रकार जीवित रख रहा है। किन्तु आज उस इतिहास को फिर से लिखने की आवश्यकता है। पाश्चात्य शिक्षा से हमारे युवकों की बदली हुई विचारधारा और बुद्धि को सामने रखकर आज उस गौरवमय इतिहास को फिर से लिखना होगा, जिससे पाश्चात्य सभ्यता से चकित और चकाचौंध में भ्रमित हमारे युवक उसे समझ सकें।

प्रश्न-यह किस प्रकार करना होगा ?

स्वामीजी-यह एक बहुत बड़ा विषय है। इस पर कभी और चर्चा करेंगे। उसके लिए, पहले हमें गुरु-गृहवास और उस जैसी अन्य शिक्षाप्रणालियों को पुनर्जीवित करना होगा। आज हमें आवश्यकता है वेदान्तयुक्त पाश्चात्य विज्ञान की, ब्रह्मचर्य के आदर्श, और श्रद्धा तथा आत्मविश्वास की। दूसरी बात जिसकी आवश्यकता है, वह है उस शिक्षापद्धति का निर्मूलन, जो मार-मारकर गधों को घोड़ा बनाना चाहती है।

प्रश्न-इससे आपका क्या मतलब है ?

स्वामीजी-देखो, कोई भी किसी को कुछ नहीं सिखा सकता। जो शिक्षक यह समझता है कि कुछ सिखा रहा है, सब गुड़-गोबर कर देता है। वेदान्त का सिद्धान्त है कि मनुष्य के अन्तर में-एक अबोध शिशु में भी-ज्ञान का समस्त भण्डार निहित है, केवल उसके जागृत होने की आवश्यकता है, और यही आचार्य का काम है। हमें बच्चों के लिए बस इतना ही करना है कि वे अपने हाथ-पैर, आँख-कान का समुचित उपयोग भर करना सीख लें और फिर सब आसान है। पर इस सब का मूल धर्म-वही मुख्य है। धर्म तो भात के समान है, शेष सब वस्तुएँ कढ़ी और चटनी जैसी हैं।


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