धर्म एवं दर्शन >> मृत्यु के पार मृत्यु के पारस्वामी अभेदानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक मृत्यु के पार...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रकाशक का निवेदन
दीर्घ प्रतीक्षा के पश्चात् श्रीमत् स्वामी अभेदानंद महाराज के
विश्वप्रसिद्ध असाधारण अंग्रेजी ग्रंथ ‘लाइफ बियान्ड
डेथ’ का
हिन्दी अनुवाद ‘मृत्यु के पार’ प्रकाशित हो गया।
अंग्रेजी से
हिन्दी भाषा में अनुवाद स्वामी संशुद्धानन्द महाराज ने किया है एवं भूमिका
श्रीमत् स्वामी प्रज्ञानानन्द महाराज ने लिखी है। अन्य भाषाओं के
संस्करणों के समान हिन्दी संस्करण में भी प्रेतात्माओं के आलोक चित्र
(फोटोग्राफ) आदि दिये गये हैं। अंग्रेजी एवं बंगला भाषी पाठकों द्वारा
बहुप्रशांसित इस ग्रंथ के अनेक संस्करण मुद्रित हो चुके हैं। आशा है
हिन्दीभाषी ज्ञानलिप्सु पाठकों द्वारा भी यह ग्रंथ अंग्रेजी एवं बंगला के
समान ही समादृत होगा।
श्रीरामकृष्ण वेदान्त मठ
भूमिका
(एक)
भगवान श्री कृष्ण कहते हैः
1, वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोऽपरा्णि।
तथा शारीरिक विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
2. जातस्य हि ध्रुर्वोमृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपर्हार्यऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।
तथा शारीरिक विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
2. जातस्य हि ध्रुर्वोमृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपर्हार्यऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।
दोनों ही श्लोक गीता के द्वितीय अध्याय से उद्धृत हैं। पहला उक्त अध्याय
का 22 वां और दूसरा 23 वां श्लोक है। वीर अर्जुन धर्मक्षेत्र रूपी
कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हैं। पाण्डव एवं
कौरवों के मध्य युद्ध होना है। कौरव शत्रुपक्ष होते हुए भी आत्मीय स्वजन
एवं बंधु हैं लेकिन भाग्य का खेल ऐसा कि दोनों पक्ष युद्ध के लिए
आमने-सामाने खड़े हैं। पाण्डवों की ओर श्री कृष्ण हैं जो अर्जुन के सारथी
होंगे। अर्जुन युद्धक्षेत्र में आये हैं पर श्रद्धेय गुरुजनों को सम्मुख
देख युदिध विरत हो शस्त्र त्याग कर रथ में बैठ जाते हैं।
अर्जुन कहते हैं-
अर्जुन कहते हैं-
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सं समुपस्थितम्।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुयति।।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।।
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुयति।।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।।
एवमुक्त्वार्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः।।
यह अर्जुन विषादयोग अध्याय है। विषाद इसलिए कि अर्जुन को समस्त श्रद्धेय
एवं स्नेह के पात्र युद्धक्षेत्र में समुपस्थित होकर मृत्युलोक की यात्रा
को तत्पर हैं। उन सभी की मृत्यु अनिवार्य है। वास्तव में यह पश्चात्ताप
अर्जुन के हृदय में दया के कारण नहीं बल्कि माया से भ्रमिक होने एवं
मोहाच्छन्न होने के कारण हुआ। श्रीरामकृष्ण देव ने कहा हैः-
‘सभी प्राणियों में हमारे हरि हैं, यह समझ कर सभी के प्रति समान प्रेम, समान स्नेह रखों। दया और माया दोनों ही अलग वस्तुएँ हैं। माया का अर्थ है अपनों के प्रति ममता अर्था पिता माता, भाई, बहन स्त्री, पुत्र के प्रति प्रेम। सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और समदृष्टि ही दया है। किसी के मन में दयाभाव होना ईश्वर की दया है। दया ही समस्त जीवों की सेवा होती है ! माया भी ईश्वर की है। माया के द्वारा वे अपने स्वजनों की सेवा करा लेते हैं। परंतु एक बात है। माया से मुग्ध होकर व्यक्ति बंधन में आबद्ध होता है, जबकि दया से चित्त शुद्ध होता है तथा धीरे-धीरे बंधंनमुक्ति होती है।’’
तभी तो रणक्षेत्र में आत्मीय स्वजनों को देखकर अर्जुन के मन में मोह एवं माया उत्पन्न हुई। यह मोह एवं माया तो आत्मीय स्वजनों की देह सत्ता के ऊपर ही हुई, किन्तु यह शरीर तो अजर-अमर नहीं शाश्वत नहीं, इसका तो क्षय एवं नाश होता है, किन्तु शरीर के भीतर निवास करने वाली अशरीरी आत्मा का कभी नाश नहीं होता, वह तो जन्म-मृत्युहीन अमर एवं शाश्वत है। अर्जुन को भी शारीरिक मोह हुआ था। देहात्माबोध से ग्रसित होकर ही अर्जुन अपने आत्मीय बंधु-बांधवों को देख रहे थे तथा सोच-विचार कर रहे थे, उनकी अमर एवं शाश्वत आत्मा की ओर उनका ध्यान गया ही नहीं। इसलिए मोहाच्छान्न अर्जुन की ज्ञान दृष्टि जाग्रत करने के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था- ‘क्लैव्यं मास गमः पार्थ.....
क्षुद्रहृदयदौवेल्य त्यक्तिष्ठपरकन्तप
श्री कृष्ण ने कहा-
‘सभी प्राणियों में हमारे हरि हैं, यह समझ कर सभी के प्रति समान प्रेम, समान स्नेह रखों। दया और माया दोनों ही अलग वस्तुएँ हैं। माया का अर्थ है अपनों के प्रति ममता अर्था पिता माता, भाई, बहन स्त्री, पुत्र के प्रति प्रेम। सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और समदृष्टि ही दया है। किसी के मन में दयाभाव होना ईश्वर की दया है। दया ही समस्त जीवों की सेवा होती है ! माया भी ईश्वर की है। माया के द्वारा वे अपने स्वजनों की सेवा करा लेते हैं। परंतु एक बात है। माया से मुग्ध होकर व्यक्ति बंधन में आबद्ध होता है, जबकि दया से चित्त शुद्ध होता है तथा धीरे-धीरे बंधंनमुक्ति होती है।’’
तभी तो रणक्षेत्र में आत्मीय स्वजनों को देखकर अर्जुन के मन में मोह एवं माया उत्पन्न हुई। यह मोह एवं माया तो आत्मीय स्वजनों की देह सत्ता के ऊपर ही हुई, किन्तु यह शरीर तो अजर-अमर नहीं शाश्वत नहीं, इसका तो क्षय एवं नाश होता है, किन्तु शरीर के भीतर निवास करने वाली अशरीरी आत्मा का कभी नाश नहीं होता, वह तो जन्म-मृत्युहीन अमर एवं शाश्वत है। अर्जुन को भी शारीरिक मोह हुआ था। देहात्माबोध से ग्रसित होकर ही अर्जुन अपने आत्मीय बंधु-बांधवों को देख रहे थे तथा सोच-विचार कर रहे थे, उनकी अमर एवं शाश्वत आत्मा की ओर उनका ध्यान गया ही नहीं। इसलिए मोहाच्छान्न अर्जुन की ज्ञान दृष्टि जाग्रत करने के लिए ही भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था- ‘क्लैव्यं मास गमः पार्थ.....
क्षुद्रहृदयदौवेल्य त्यक्तिष्ठपरकन्तप
श्री कृष्ण ने कहा-
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैत न भविष्यामिः सर्वे वयमतः परम्।।
न चैत न भविष्यामिः सर्वे वयमतः परम्।।
हे अर्जुन ! तुम जिनके लिए देहबोध अर्थात् देह के नाश से मृत्यु होगी, ऐसा
समझ कर शोक कर रहे हो, वास्तव में उनमें से कोई जन्म से पहले नहीं थे, ये
समस्त नृपतिगण भी नहीं थे, और यदि कहते हो कि मृत्यु के बाद यह देह लेकर
तुम रहोगे अथवा ये सब रहेंगे, सही नहीं है, यह सब सोच कर तुम भारी गलती कर
रहे हो। श्रीकृष्ण ने और भी कहा ‘अर्जुन इस बात को भलीभाँति जान
लो
जिसक सत्ता है, जिसका अस्तित्व है उसका नाश कभी नहीं हो सकता, क्योंकि
सद्वस्तु की सत्ता सभी काल में सदैव विद्यमान रहती है और रहेगी इस
परिवर्तनशील जगत में आत्मा ही अपरिवर्तनीय एवं सत् है, अतः तुम देहदृष्टि
का त्याग करो, आत्मदृष्टि में प्रतिष्ठित होओ ! ‘नसतो विद्यते
भावों
नाभावों विद्यते सतः’ अतः आत्मा सर्वदा ही सत्य एवं अविनाशी है
जिसका जन्म नहीं, मृत्यु नहीं, जो देह सीमा में आबद्ध नहीं, जो समस्त
शरीरों एवं जगत में सर्वत्र चैतन्मय है अर्थात जो एक एवं अद्वितीय चैतन्य
रूप में विद्यमान है।
पूर्व वर्णित ‘वासांसिजीर्णानि’ तथा ‘जातस्यहि ध्रुवो मृत्युर्ध्रवं जन्म मृतस्य च’ आत्मा के अमरत्व तथा जन्मशील एवं मरणशील वस्तुओं के बार-बार जन्म लेकर समाप्त हो जाने के प्रसंग में कहे गये हैं। कहा भी जाता है ‘जो जन्मेगा वह मरेगा’ अर्थात जिसका जन्म होगा उसकी मृत्यु होगी ही। किंतु जो अजन्मा है उसकी मृत्यु भी नहीं। अजर-अमर के संबंध में जन्म एवं मत्यु का प्रश्न उठता ही नहीं। सांख्य दर्शन में कपिल मुनि भी यही कहते हैं- ‘नाश का अर्थ है कार्य का कारण अवस्था में लौट जाना’। कार्य न होने पर कारण रहेगा एवं कारण रहने पर उसका कार्य भी होगा। इसलिए कार्य-कारण संबंध भी मायारूपी जगत से ही संबंधित हैं। मायातीत जो राज्य है उससे संबंधित नहीं। इस ज्ञान रूपी आत्मा का सिंहासन जहा प्रतिष्ठित है वहाँ कार्य कारण नहीं है।
वह तो कार्यकारणातीत है। इस कार्य –कारण एवं जन्म-मृत्यु से अतीत जो वस्तु है वहीं सत्य एवं पारमार्थिक तत्व है। उसी तत्व की उपलब्धि हेतु जन्म के साथ –साथ मृत्यु पर भी विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि जन्म होने से मृत्यु होगी और मत्यु को स्वीकार करने से जन्म होगा-यह केवल व्यवहारिक एवं सांसारिक तत्व एक मात्र जन्म-मृत्युशील शरीर से ही संबंद्ध है, शाश्वत आत्मा के साथ इस सांसारिक एवं पार्थिक तत्व का कोई संबंध नहीं हैं।
स्वामी अभेदानन्द महाराज ने ‘मृत्यु के पार’ तत्व की विवेचना की है जिससे जन्म-मरणशील मायासक्त मानव उस जन्म-मरणातीत आत्मसत्ता के रहस्य को जान सके। प्रायः अधिकांश लोगों का विश्वास है कि मृत्यु के पश्चात मानव की सत्ता अथवा अस्तित्व रहता नहीं- वह शून्य में ही विलीन हो जाता है किंतु वास्विकता यह नहीं है कि मनुष्य ही क्यों प्राणी ही अपने-अपने संस्कार एवं कर्मफलानुसार इस भोगभूमि संसार में कुछ समय कर्मफल का भोग करते हैं और नवीन संस्कार एंव कर्मफल अर्जन करते हैं, और तात्कालिन भोग समाप्त होने पर पृथ्वीलोक से विदा लेते हैं। स्वामी अभेदानन्द महाराज कहते हैं कि यदि प्रवृत्ति एवं कामना वासना का मार्ग है तो यह विदा सर्वदा के लिए नहीं- क्षणभर के लिए है एवं यह विच्छेद और मिलन अनन्त काल तक चला रहता है किंतु निवृत्ति मार्ग अवलम्बन करने पर इस मिलन एवं विच्छेद नाटक का अंत हो जाता है। और तब केवल मात्र ब्राह्मी-स्थति ही रह जाती है।
तब समस्त मनुष्य एवं प्राणी उसी जन्ममृत्युहीन आत्मा में जो अविकृत एवं परिशुद्ध रूप में सर्वव्यापक सर्वानुस्युत शाश्वत परम सत्ता है, प्रतिष्ठित हो जाते हैं। तब मृत्यु लोक अथवा परलोक का प्रश्न उठता ही नहीं, तब तो केवल अमरात्मा की अमृतमय सत्ता ही रहती है। तब स्थिति और प्रकाश एक साथ ही रहता है, देश-काल आदि का कोई चिन्ह अथवा उपाधि रहती नहीं। इसी संबंध में आचार्य गौड़पाद ने कहा हैः-
पूर्व वर्णित ‘वासांसिजीर्णानि’ तथा ‘जातस्यहि ध्रुवो मृत्युर्ध्रवं जन्म मृतस्य च’ आत्मा के अमरत्व तथा जन्मशील एवं मरणशील वस्तुओं के बार-बार जन्म लेकर समाप्त हो जाने के प्रसंग में कहे गये हैं। कहा भी जाता है ‘जो जन्मेगा वह मरेगा’ अर्थात जिसका जन्म होगा उसकी मृत्यु होगी ही। किंतु जो अजन्मा है उसकी मृत्यु भी नहीं। अजर-अमर के संबंध में जन्म एवं मत्यु का प्रश्न उठता ही नहीं। सांख्य दर्शन में कपिल मुनि भी यही कहते हैं- ‘नाश का अर्थ है कार्य का कारण अवस्था में लौट जाना’। कार्य न होने पर कारण रहेगा एवं कारण रहने पर उसका कार्य भी होगा। इसलिए कार्य-कारण संबंध भी मायारूपी जगत से ही संबंधित हैं। मायातीत जो राज्य है उससे संबंधित नहीं। इस ज्ञान रूपी आत्मा का सिंहासन जहा प्रतिष्ठित है वहाँ कार्य कारण नहीं है।
वह तो कार्यकारणातीत है। इस कार्य –कारण एवं जन्म-मृत्यु से अतीत जो वस्तु है वहीं सत्य एवं पारमार्थिक तत्व है। उसी तत्व की उपलब्धि हेतु जन्म के साथ –साथ मृत्यु पर भी विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि जन्म होने से मृत्यु होगी और मत्यु को स्वीकार करने से जन्म होगा-यह केवल व्यवहारिक एवं सांसारिक तत्व एक मात्र जन्म-मृत्युशील शरीर से ही संबंद्ध है, शाश्वत आत्मा के साथ इस सांसारिक एवं पार्थिक तत्व का कोई संबंध नहीं हैं।
स्वामी अभेदानन्द महाराज ने ‘मृत्यु के पार’ तत्व की विवेचना की है जिससे जन्म-मरणशील मायासक्त मानव उस जन्म-मरणातीत आत्मसत्ता के रहस्य को जान सके। प्रायः अधिकांश लोगों का विश्वास है कि मृत्यु के पश्चात मानव की सत्ता अथवा अस्तित्व रहता नहीं- वह शून्य में ही विलीन हो जाता है किंतु वास्विकता यह नहीं है कि मनुष्य ही क्यों प्राणी ही अपने-अपने संस्कार एवं कर्मफलानुसार इस भोगभूमि संसार में कुछ समय कर्मफल का भोग करते हैं और नवीन संस्कार एंव कर्मफल अर्जन करते हैं, और तात्कालिन भोग समाप्त होने पर पृथ्वीलोक से विदा लेते हैं। स्वामी अभेदानन्द महाराज कहते हैं कि यदि प्रवृत्ति एवं कामना वासना का मार्ग है तो यह विदा सर्वदा के लिए नहीं- क्षणभर के लिए है एवं यह विच्छेद और मिलन अनन्त काल तक चला रहता है किंतु निवृत्ति मार्ग अवलम्बन करने पर इस मिलन एवं विच्छेद नाटक का अंत हो जाता है। और तब केवल मात्र ब्राह्मी-स्थति ही रह जाती है।
तब समस्त मनुष्य एवं प्राणी उसी जन्ममृत्युहीन आत्मा में जो अविकृत एवं परिशुद्ध रूप में सर्वव्यापक सर्वानुस्युत शाश्वत परम सत्ता है, प्रतिष्ठित हो जाते हैं। तब मृत्यु लोक अथवा परलोक का प्रश्न उठता ही नहीं, तब तो केवल अमरात्मा की अमृतमय सत्ता ही रहती है। तब स्थिति और प्रकाश एक साथ ही रहता है, देश-काल आदि का कोई चिन्ह अथवा उपाधि रहती नहीं। इसी संबंध में आचार्य गौड़पाद ने कहा हैः-
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