विवेकानन्द साहित्य >> भगवान श्रीकृष्ण और भगवद्गीता भगवान श्रीकृष्ण और भगवद्गीतास्वामी विवेकानन्द
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प्रस्तुत है पुस्तक भगवान श्रीकृष्ण और भगवद्गीता
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तावना
(प्रथम संस्करण)
स्वामी विवेकानन्दकृत ‘भगवान् श्रीकृष्ण और भगवदगीता’
पुस्तक
प्रकाशित करते हमें प्रसन्नता होती है। वृहत् विवेकानन्द साहित्य में
विभिन्न स्थलों पर भगवान् श्रीकृष्ण और भगवद्गीता के सम्बन्ध में जो विचार
प्रकट हुए हैं, उनका संकलन इस पुस्तक में किया गया है। स्वामीजी द्वारा
देश-विदेश में दिये गये व्याख्यानों, उनके सम्भाषणों और लेखों में ये
विचार अभिव्यक्त हुए हैं। श्रीकृष्ण के दिव्य व्यक्तित्व के यथार्थ स्वरूप
का तथा उनके जीवन में सर्वोच्च रूप में प्रकति ज्ञान, भक्ति, कर्म एवं योग
का स्वामीजी ने किया हुआ मौलिक विवरण इस पुस्तक में प्रस्तुत है।
किस प्रकार बुद्धि, हृदय एवं कर्मशक्ति का विकास करना चाहिए और इस विकास के द्वारा मोक्ष या पूर्णत्व की प्राप्ति कर लेनी चाहिए—यह भगवान ने गीता में दर्शाया है। भगवद्गीता का यही समन्वयात्मक उपदेश हमारे सामने रखते हुए, स्वामीजी ने बड़े सुंदर ढंग से दर्शा दिया है कि गीता में निहित शक्तिदायी एवं जीवनदायी उपदेश भारत की वर्तमान स्थिति में अत्यन्त आवश्यक है। श्रीकृष्ण के जीवन का केन्द्रीय भाव है अनाशक्ति; और इसी अनासक्ति से युक्त होकर ही ईश्वरार्पणबुद्धि द्वारा यथार्थ लोकहित किया जा सकता है—यही उनका बहुमूल्य उपेदेश है। स्वामी विवेकानन्द ने अपनी अलौकिक प्रतिभा से श्रीकृष्ण का जो सर्वांगसम्पूर्ण परिणामकारक शब्दों तथा आकर्षक शैली में प्रस्तुत किया है, उसका प्रत्येक पाठक के हृदय तथा मन पर गहरा प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है। हमें विश्वास है कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले व्यक्तियों को इस पुस्तक में अभिव्यक्ति विचारों द्वारा निश्चित मार्गदर्शन का लाभ होगा।
किस प्रकार बुद्धि, हृदय एवं कर्मशक्ति का विकास करना चाहिए और इस विकास के द्वारा मोक्ष या पूर्णत्व की प्राप्ति कर लेनी चाहिए—यह भगवान ने गीता में दर्शाया है। भगवद्गीता का यही समन्वयात्मक उपदेश हमारे सामने रखते हुए, स्वामीजी ने बड़े सुंदर ढंग से दर्शा दिया है कि गीता में निहित शक्तिदायी एवं जीवनदायी उपदेश भारत की वर्तमान स्थिति में अत्यन्त आवश्यक है। श्रीकृष्ण के जीवन का केन्द्रीय भाव है अनाशक्ति; और इसी अनासक्ति से युक्त होकर ही ईश्वरार्पणबुद्धि द्वारा यथार्थ लोकहित किया जा सकता है—यही उनका बहुमूल्य उपेदेश है। स्वामी विवेकानन्द ने अपनी अलौकिक प्रतिभा से श्रीकृष्ण का जो सर्वांगसम्पूर्ण परिणामकारक शब्दों तथा आकर्षक शैली में प्रस्तुत किया है, उसका प्रत्येक पाठक के हृदय तथा मन पर गहरा प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है। हमें विश्वास है कि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले व्यक्तियों को इस पुस्तक में अभिव्यक्ति विचारों द्वारा निश्चित मार्गदर्शन का लाभ होगा।
प्रकाशक
भगवान श्रीकृष्ण और भगवद्गीता
भगवान श्रीकृष्ण तथा उनका सन्देश
हिन्दुओं के मतानुसार विश्व चक्राकार तरंगों की भाँति गतिमान है। वह एक
बार उठता है और उन्नति की पराकाष्ठा प्राप्त कर लेता है; तदनन्तर उसका पतन
प्रारम्भ होता है—कुछ समय तक वह इसी प्रकार अवनति के गर्त में
पड़ा
रहता है, मानों पुनः उत्थान के लिए शक्ति संग्रह कर रह हो ! सागर की
भीमकाय तरंगों के समान निरन्तर उत्थान और पतन, पतन और
उत्थान—यही
विश्व की गति है। समष्टि के लिए जो विधान सत्य है, वही व्यष्टि के लिए भी
सत्य है। मनुष्यसमाज के सभी व्यापारों में भी यही तरंगवत् उत्थान और पतन
की गति है; राष्ट्रों के इतिहास भी इसी उत्थान और पतन की कहानियाँ हैं; वे
उठते हैं और गिरते हैं—उत्थान के बाद पतनकाल आता है और पतन के
पश्चात् पहले की अपेक्षा और भी अधिक शक्ति के साथ पुनरुत्थान होता है।
निरन्तर यही उत्थान और पतन का चक्र चलता रहता है। धार्मिक जगत् में भी
अनवरत रूप से यही क्रिया चल रही है।
प्रत्येक जाति के आध्यात्मिक जीवन में पतन और उत्थान के युग होते हैं। जब जाति की अवनति होती है, तो प्रतीत होता है कि उसकी जीवनशक्ति नष्ट हो गयी है—वह छिन्न-भिन्न हो गयी है। किन्तु वह पुनः बल संग्रह करती है—उन्नति करने लगती है—जागृति की एक विशाल लहर उठती है, और सदैव यह देखा जाता है कि इस विशालकाय तरंग के उच्चतम शिखर पर कोई दिव्य महापुरुष विराजमान है। एक ओर जहाँ वे उस तरंग—उस जाति के अभ्युत्थान—के शक्तिदाता होते हैं, वहीं दूसरी ओर वे स्वयं उस महती शक्ति के फलस्वरूप होते हैं, जो (शक्ति) उस अभ्युदय—उस तरंग का मूल है। इस प्रकार वे एक दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया करते रहते हैं—परस्पर के स्रष्टा एवं सृष्ट हैं—जनक एवं जन्य हैं। वे एक ओर समाज को अपनी महान् शक्ति से प्रभावित एवं अभिभूत करते हैं और दूसरी ओर समाज ही उनकी इस प्रचण्ड शक्ति के आविर्भाव का कारण होता है। ये ही संसार के महान् विचारक एवं मनीषी होते हैं, ये ही दुनिया के पैगम्बर, जीवन-दर्शन के सन्देशवाहक ऋषि और ईश्वर के अवतार कहलाते हैं।..
हम देखेंगे कि मानवजाति के इतिहास में विश्व कल्याण के लिए जो अवतार हुआ है, उनका जीवनकार्य प्रारम्भ से ही निश्चित रहा है। उनके जीवन का सारा नक्शा सारी योजना उनकी आँखों के सामने थी, और उससे वे एक इंच भर भी न डिगे। चूँकि वे अपने जीवन के लिए एक कार्य लेकर आते हैं, अतः वे एक सन्देश भी लाते हैं; और उसके सम्बन्ध में तर्क-वितर्क नहीं करते। क्या तुमने अपने उपदेशों को युक्ति का आधार दिया हो ? उनमें से किसी ने अपने विचार तथा कार्य की पुष्टि तर्क द्वारा नहीं की। और वे करते भी क्यों ? वे तो सीधे शब्दों में सत्य को व्यक्त करना जानते हैं। उनमें सत्य के दर्शन करने की क्षमता है—और है उसे दूसरों को दिखाने का सामर्थ्य। यदि तुम मुझसे पूछो कि ईश्वर है या नहीं, और मैं कह दूँ कि हाँ, ईश्वर है, तो तुम झट मुझे अपनी युक्तियाँ बताने के लिए बाध्य करोगे, और मुझ बेचारे को कुछ युक्तियाँ पेश करने के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देनी पड़ेगी। किन्तु यदि कोई ईसा से यही प्रश्न पूछता, तो ईसा तत्काल उत्तर देते, ‘हाँ, ईश्वर है।’ और यदि तुम ईश्वर से इसका प्रमाण माँगते, तो निश्चय ही ईसा ने कहा होता, ‘लो, यह ईश्वर तुम्हारे सम्मुख खड़ा है, दर्शन कर लो।’
इस प्रकार हम देखते हैं कि इन महापुरुषों की ईश्वरविषयक धारणा साक्षात् उपलब्धि, प्रत्यक्ष दर्शन पर आधारित है, वह तर्कजन्य नहीं। अन्धकार में नहीं टटोलते, उनके कथन में प्रत्यक्ष दर्शन का बल होता है। जब मैं इस मेज को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, तो फिर कोई भले ही शत शत युक्तियों द्वारा चेष्टा क्यों न करे, इस मेज के अस्तित्व में मेरा विश्वास नष्ट नहीं हो सकता। इसी प्रकार इन महापुरुषों की अपने आदर्शों, अपने जीवन-कार्य और सर्वोपरि स्वयं अपने में अटल श्रद्धा होती है। इन दिव्य पुरुषों को जितना आत्मविश्वास होता है, उतना अन्य किसी को भी नहीं।.....
मानवजाति के इन महान् आचार्यों में तुम्हें यह एक लक्षण सर्वत्र दिखेगा कि उनमें प्रचण्ड आत्मविश्वास भरा होता है। उनका यह आत्मविश्वास असाधारण है, इसलिए हम उसे पूर्णतया नहीं समझ सकते। इसीलिए इन महापुरुषों के आत्मविषयक वचनों कथनों को हम कई प्रकार से व्याख्या करके उड़ा देने का प्रयत्न करते हैं, तथा उन्होंने अपने साक्षात्कार, अपनी ईश्वरोपलब्धि के सम्बन्ध में जो बातें कहीं हैं, उनका अर्थ लगाने के लिए सहस्रों मतवादों की सृष्टि कर लेते हैं। हम अपने विषय में उन महापुरुषों के समान नहीं सोच सकते, और इसीलिए, स्वभावतः, हम उन्हें समझ भी नहीं पाते।
जब इन महापुरुषों के मुख से शब्द निकलते हैं, जो सारे विश्व को विवश होकर सुनना पड़ता है। जब वे बोलते हैं, तो एक-एक शब्द सीधे हदय में प्रवेश करता है, वह बम के समान फूट पड़ता है और सुनने वाले पर अपना असीम प्रभाव जमा लेता है। निरी वाणी में क्या है, यदि वाणी के पीछे वक्ता की प्रचण्ड शक्ति न हो ? तुम किस भाषा में बोलते हो और किस प्रकार अपनी भाषा में शब्दविन्यास करते हो—इससे किसी को क्या मतलब ? तुम अच्छी लच्छेदार, ओजपूर्ण भाषा का प्रयोग करते हो, या व्याकरण-सम्मत भाषा बोलते है, अथवा तुम्हारी भाषा अलंकारपूर्ण है या नहीं—इससे भी किसी का क्या प्रयोजन ? प्रश्न तो है—तुम्हारे पास लोगों को देने के लिए कुछ है या नहीं ? यहाँ केवल कहानी किस्से सुनने की बात नहीं है, बात है देने और लेने की। क्या तुम्हारे पास देने के लिए कुछ है ? यही पहला और मुख्य प्रश्न है। यदि है, तो दो। शब्द तो केवल तुम्हारी देन को लोगों तक पहुँचा देंगे, ये तो केवल एक माध्यम है। कभी कभी हम देखते हैं कि मौन रहकर भी एक व्यक्ति दूसरे में भाव संचारित करता है। दक्षिणामूर्तिस्तोत्र में कहा है
प्रत्येक जाति के आध्यात्मिक जीवन में पतन और उत्थान के युग होते हैं। जब जाति की अवनति होती है, तो प्रतीत होता है कि उसकी जीवनशक्ति नष्ट हो गयी है—वह छिन्न-भिन्न हो गयी है। किन्तु वह पुनः बल संग्रह करती है—उन्नति करने लगती है—जागृति की एक विशाल लहर उठती है, और सदैव यह देखा जाता है कि इस विशालकाय तरंग के उच्चतम शिखर पर कोई दिव्य महापुरुष विराजमान है। एक ओर जहाँ वे उस तरंग—उस जाति के अभ्युत्थान—के शक्तिदाता होते हैं, वहीं दूसरी ओर वे स्वयं उस महती शक्ति के फलस्वरूप होते हैं, जो (शक्ति) उस अभ्युदय—उस तरंग का मूल है। इस प्रकार वे एक दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया करते रहते हैं—परस्पर के स्रष्टा एवं सृष्ट हैं—जनक एवं जन्य हैं। वे एक ओर समाज को अपनी महान् शक्ति से प्रभावित एवं अभिभूत करते हैं और दूसरी ओर समाज ही उनकी इस प्रचण्ड शक्ति के आविर्भाव का कारण होता है। ये ही संसार के महान् विचारक एवं मनीषी होते हैं, ये ही दुनिया के पैगम्बर, जीवन-दर्शन के सन्देशवाहक ऋषि और ईश्वर के अवतार कहलाते हैं।..
हम देखेंगे कि मानवजाति के इतिहास में विश्व कल्याण के लिए जो अवतार हुआ है, उनका जीवनकार्य प्रारम्भ से ही निश्चित रहा है। उनके जीवन का सारा नक्शा सारी योजना उनकी आँखों के सामने थी, और उससे वे एक इंच भर भी न डिगे। चूँकि वे अपने जीवन के लिए एक कार्य लेकर आते हैं, अतः वे एक सन्देश भी लाते हैं; और उसके सम्बन्ध में तर्क-वितर्क नहीं करते। क्या तुमने अपने उपदेशों को युक्ति का आधार दिया हो ? उनमें से किसी ने अपने विचार तथा कार्य की पुष्टि तर्क द्वारा नहीं की। और वे करते भी क्यों ? वे तो सीधे शब्दों में सत्य को व्यक्त करना जानते हैं। उनमें सत्य के दर्शन करने की क्षमता है—और है उसे दूसरों को दिखाने का सामर्थ्य। यदि तुम मुझसे पूछो कि ईश्वर है या नहीं, और मैं कह दूँ कि हाँ, ईश्वर है, तो तुम झट मुझे अपनी युक्तियाँ बताने के लिए बाध्य करोगे, और मुझ बेचारे को कुछ युक्तियाँ पेश करने के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देनी पड़ेगी। किन्तु यदि कोई ईसा से यही प्रश्न पूछता, तो ईसा तत्काल उत्तर देते, ‘हाँ, ईश्वर है।’ और यदि तुम ईश्वर से इसका प्रमाण माँगते, तो निश्चय ही ईसा ने कहा होता, ‘लो, यह ईश्वर तुम्हारे सम्मुख खड़ा है, दर्शन कर लो।’
इस प्रकार हम देखते हैं कि इन महापुरुषों की ईश्वरविषयक धारणा साक्षात् उपलब्धि, प्रत्यक्ष दर्शन पर आधारित है, वह तर्कजन्य नहीं। अन्धकार में नहीं टटोलते, उनके कथन में प्रत्यक्ष दर्शन का बल होता है। जब मैं इस मेज को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, तो फिर कोई भले ही शत शत युक्तियों द्वारा चेष्टा क्यों न करे, इस मेज के अस्तित्व में मेरा विश्वास नष्ट नहीं हो सकता। इसी प्रकार इन महापुरुषों की अपने आदर्शों, अपने जीवन-कार्य और सर्वोपरि स्वयं अपने में अटल श्रद्धा होती है। इन दिव्य पुरुषों को जितना आत्मविश्वास होता है, उतना अन्य किसी को भी नहीं।.....
मानवजाति के इन महान् आचार्यों में तुम्हें यह एक लक्षण सर्वत्र दिखेगा कि उनमें प्रचण्ड आत्मविश्वास भरा होता है। उनका यह आत्मविश्वास असाधारण है, इसलिए हम उसे पूर्णतया नहीं समझ सकते। इसीलिए इन महापुरुषों के आत्मविषयक वचनों कथनों को हम कई प्रकार से व्याख्या करके उड़ा देने का प्रयत्न करते हैं, तथा उन्होंने अपने साक्षात्कार, अपनी ईश्वरोपलब्धि के सम्बन्ध में जो बातें कहीं हैं, उनका अर्थ लगाने के लिए सहस्रों मतवादों की सृष्टि कर लेते हैं। हम अपने विषय में उन महापुरुषों के समान नहीं सोच सकते, और इसीलिए, स्वभावतः, हम उन्हें समझ भी नहीं पाते।
जब इन महापुरुषों के मुख से शब्द निकलते हैं, जो सारे विश्व को विवश होकर सुनना पड़ता है। जब वे बोलते हैं, तो एक-एक शब्द सीधे हदय में प्रवेश करता है, वह बम के समान फूट पड़ता है और सुनने वाले पर अपना असीम प्रभाव जमा लेता है। निरी वाणी में क्या है, यदि वाणी के पीछे वक्ता की प्रचण्ड शक्ति न हो ? तुम किस भाषा में बोलते हो और किस प्रकार अपनी भाषा में शब्दविन्यास करते हो—इससे किसी को क्या मतलब ? तुम अच्छी लच्छेदार, ओजपूर्ण भाषा का प्रयोग करते हो, या व्याकरण-सम्मत भाषा बोलते है, अथवा तुम्हारी भाषा अलंकारपूर्ण है या नहीं—इससे भी किसी का क्या प्रयोजन ? प्रश्न तो है—तुम्हारे पास लोगों को देने के लिए कुछ है या नहीं ? यहाँ केवल कहानी किस्से सुनने की बात नहीं है, बात है देने और लेने की। क्या तुम्हारे पास देने के लिए कुछ है ? यही पहला और मुख्य प्रश्न है। यदि है, तो दो। शब्द तो केवल तुम्हारी देन को लोगों तक पहुँचा देंगे, ये तो केवल एक माध्यम है। कभी कभी हम देखते हैं कि मौन रहकर भी एक व्यक्ति दूसरे में भाव संचारित करता है। दक्षिणामूर्तिस्तोत्र में कहा है
‘‘चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्या
गुरुर्युवा ।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः।।
गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः।।
—’आश्चर्य ! इस वटवृक्ष के नीचे युवक गुरु एवं वृद्ध
शिष्य
आसीन हैं। मौन ही गुरु का शास्त्र-व्याख्यान है और उसी से शिष्यों की
शंकाएँ नष्ट होती जा रही है।’
इस प्रकार वे कभी कभी शब्दों का प्रयोग भी नही करते, किन्तु फिर भी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति का संचार करते जाते हैं। वे देने के लिए आते हैं। वे आदेश देते हैं, ईश्वर के दूत होते हैं, हमारा कार्य है उनके आदर्शों को ग्रहण करना। क्या तुम्हें याद नहीं, स्वयं ईसा ने तुम्हारे शास्त्रों में किस अधिकारपूर्ण वाणी से लोगों को आज्ञा दी है, अतएव तुम जाओ और दुनिया की सभी जातियों को उस सब पर चलना सिखाओ, जिसका आदेश मैंने तुम्हें दिया है।’ ‘मुझे जगत् को विशेष कुछ देना है’, इस बात में प्रचण्ड विश्वास ईसा की समस्त उक्तियों में देखा जाता है और यही प्रबल विश्वास तुम्हें संसार के उन सब महापुरुषों की वाणी में मिलेगा, जिन्हें दुनिया पैगम्बरों और अवतारों के रूप में पूजती आ रही है।
ये महान् शिक्षक इस पृथ्वी पर जीवन्त ईश्वरस्वरूप हैं। इनके अतिरिक्त हम और किसी की उपासना करें ? मैं अपने मन में ईश्वर की धारणा करने का प्रयत्न करता हूँ और अन्त में पाता हूँ कि मेरी धारणा अत्यन्त क्षुद्र और मिथ्या है। वैसे ईश्वर की उपासना करना पाप होगा। फिर जब मैं अपनी आँखें खोलकर पृथ्वी की इन महान् आत्माओं के चरित्र देखता हूँ, तो मुझे प्रतीत होता है कि ईश्वरविषयक मेरी उच्च से उच्च धारणा से भी वे कहीं उच्चतर और महान् हैं।...
इस प्रकार वे कभी कभी शब्दों का प्रयोग भी नही करते, किन्तु फिर भी एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति का संचार करते जाते हैं। वे देने के लिए आते हैं। वे आदेश देते हैं, ईश्वर के दूत होते हैं, हमारा कार्य है उनके आदर्शों को ग्रहण करना। क्या तुम्हें याद नहीं, स्वयं ईसा ने तुम्हारे शास्त्रों में किस अधिकारपूर्ण वाणी से लोगों को आज्ञा दी है, अतएव तुम जाओ और दुनिया की सभी जातियों को उस सब पर चलना सिखाओ, जिसका आदेश मैंने तुम्हें दिया है।’ ‘मुझे जगत् को विशेष कुछ देना है’, इस बात में प्रचण्ड विश्वास ईसा की समस्त उक्तियों में देखा जाता है और यही प्रबल विश्वास तुम्हें संसार के उन सब महापुरुषों की वाणी में मिलेगा, जिन्हें दुनिया पैगम्बरों और अवतारों के रूप में पूजती आ रही है।
ये महान् शिक्षक इस पृथ्वी पर जीवन्त ईश्वरस्वरूप हैं। इनके अतिरिक्त हम और किसी की उपासना करें ? मैं अपने मन में ईश्वर की धारणा करने का प्रयत्न करता हूँ और अन्त में पाता हूँ कि मेरी धारणा अत्यन्त क्षुद्र और मिथ्या है। वैसे ईश्वर की उपासना करना पाप होगा। फिर जब मैं अपनी आँखें खोलकर पृथ्वी की इन महान् आत्माओं के चरित्र देखता हूँ, तो मुझे प्रतीत होता है कि ईश्वरविषयक मेरी उच्च से उच्च धारणा से भी वे कहीं उच्चतर और महान् हैं।...
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