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भक्तियोग

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : रामकृष्ण मठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :95
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 5903
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है पुस्तक भक्तियोग....

Bhaktiyog a hindi book by Swami Vivekanand - भक्तियोग - स्वामी विवेकानन्द

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वक्तव्य

(द्वितीय संस्करण)

भक्तियोग का दुहराया हुआ यह संस्करण आपके सम्मुख रखते हमें बड़ी प्रसन्नता होती है। इस पुस्तक में स्वामी विवेकानन्द ने भक्ति के भिन्न भिन्न प्रकार के साधनों का विवेचन अनेकानेक धर्मग्रंथों तथा आत्मानुभूति के आधार पर किया है। मूल अंग्रेजी पुस्तक का अनुवाद हमारे मित्र साहित्यशास्त्री डा. विद्याभास्करजी शुक्ल, एम्.एससी.पीएच.डी, पी.ई.एस., प्रोफेसर कॉलेज ऑफ साइन्स, नागपुर ने किया है। डा. शुकलजी हिन्दी संसार के विख्यात एवं लब्ध प्रतिष्ठित लेखक हैं। इस पुस्तक को इस रूप में लाने के लिए उन्होंने जो कष्ट उठाया है उनके लिए हम उनके विशेष आभारी हैं। प्रस्तुत अनुवाद में मुख्य बात यह है कि उसमें मूल भाषण के भाव ज्यों के त्यों रहे हैं। श्री शुक्लजी के अनुवादों में यही बड़ी खूबी है। भाषा की शैली एवं ओज की सुन्दरता भी मूल ग्रन्थ के सदृश्य ही है।
हमें विश्वास है कि हिन्दी साहित्य के इस नवीन पुष्प से भक्तजनों को विशेष लाभ होगा।

श्रीरामकृष्ण जयन्ती,
नागपुर, ता. 23-2-1947

-प्रकाशक

भक्तियोग


प्रार्थना


स तन्मयो ह्यमृत ईशसंस्थो
ज्ञ: सर्वगो भुवनस्यास्य गोप्ता।
य ईशेऽस्य जगतो नित्यमेव
नान्यो हेतु: विद्यते ईशनाय।
यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं
यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै।
तं ह देवम् आत्मबुद्धिप्रकाशं
मुमक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये।।

‘‘वह विश्व की आत्मा है, अमरणधर्मा और ईश्वररूप से स्थित है, वह सर्वज्ञ, सर्वगत और इस भुवन का रक्षक है, जो सर्वदा इस जगत् का शासन करता है; क्योंकि इसका शासन करने के लिए और कोई समर्थ नहीं है।’’
‘‘जिसने सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा को उत्पन्न किया और जिसने उसके लिए वेदों को प्रवृत्त किया, आत्मबुद्धि को प्रकाशित करनेवाले उस देव की मैं मुमुक्षु शरण ग्रहण करता हूँ।

-श्वेताश्वतर उपनिषद्, 6/17-18

भक्ति के लक्षण


निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज को भक्तियोग कहते हैं। इस खोज का आरम्भ मध्य और अन्त प्रेम में होता है। ईश्वर के प्रति एक क्षण की भी प्रेमोन्मत्तता हमारे लिए शाश्वत मुक्ति देनेवाली होती है। भक्तिसूत्र में नारदजी कहते हैं, ‘‘भगवान के प्रति उत्कट ही प्रेम की भक्ति है।’’ जब मनुष्य इसे प्राप्त कर लेता है, तो सभी उसके प्रेम-पात्र बन जाते हैं। वह किसी से घृणा नहीं करता; वह सदा के लिए संतुष्ट हो जाता है।’’ ‘‘इस प्रेम से किसी काम्य वस्तु की प्राप्ति नहीं हो सकती, क्योंकि जब तक सांसारिक वासनाएँ घर किये रहती हैं, तब तक प्रेम का उदय ही नहीं होता।’’ ‘‘भक्ति कर्म से श्रेष्ठ है और ज्ञान तथा योग से भी उच्च है,’’ क्योंकि इन सबका एक न एक लक्ष्य है ही पर ‘‘भक्ति स्वयं ही साध्य और साधनस्वरूप है।’’*

हमारे देश के साधु-महापुरुषों के बीच भक्ति की चर्चा का एक विषय रही है। भक्ति की विशेष रूप से व्याख्या करनेवाले शाण्डिल्य और नारद जैसे महापुरुषों को छोड़ देने पर भी, स्पष्टत: ज्ञानमार्ग के समर्थक, व्याससूत्र के महान् भाष्यकारों ने भी भक्ति के संबंध में हमें बहुत कुछ दर्शाया है। भले ही उन भाष्यकारों ने, सब सूत्रों की न सही, पर अधिकतर सूत्रों की व्याख्या शुष्क ज्ञान के अर्थ में ही की है, किन्तु हम यदि उनसे सूत्रों के, और विशेषकर उपासना-काण्ड के सूत्रों के अर्थ पर निरपेक्ष भाव से विचार करें तो देखेंगे कि उनकी इस प्रकार यथेच्छ व्याख्या नहीं हो सकती।

* सा तु अस्मिन् परमप्रेमरूपा। नारदभक्तिसूत्र, अनुवादक 1, सूत्र 1
सा न कामयमाना, निरोधरूपत्वात्। नारदभक्तिसूत्र, अनुवादक 2, सूत्र 7
सा तु कर्मज्ञानयोगेभ्य: अपि अधिकतरा। नारदभक्तिसूत्र, अनुवादक 4, सूत्र 25
स्वयं फलरूपता इति ब्रह्मकुमारा:। नारदभक्तिसूत्र, अनुवाक 4, सूत्र 30

वास्तव में ज्ञान और भक्ति में उतना अन्तर नहीं, जितना लोगों को अनुमान है। पर जैसा हम आगे देखेंगे, ये दोनों हमें एक ही लक्ष्य-स्थल पर ले जाते हैं। यही हाल राजयोग का भी है। उसका अनुष्ठान जब मुक्तिलाभ के लिए किया जाता है- भोले-भाले लोगों की आँखों में धूल झोंकने के उद्देश्य से नहीं (जैसा बहुधा ढोंगी और जादू-मन्तरवाले करते है)- तो वह भी हमें उसी लक्ष्य पर पहुँचा देता है।

भक्तियोग का एक बड़ा लाभ यह है कि वह हमारे चरम लक्ष्य (ईश्वर) की प्राप्ति का सब से सरल और स्वाभाविक मार्ग है। पर साथ ही उससे एक विशेष भय की आशंका यह है कि वह अपनी निम्न या गौणी अवस्था में मनुष्य को बहुधा भयानक मतान्ध और कट्टर बना देता है। हिन्दू, इस्लाम या ईसाईधर्म में जहाँ कहीं इस प्रकार के धर्मान्ध व्यक्तियों का दल है, वह सदैव ऐसे ही निम्न श्रेणी के भक्तों द्वारा गठित हुआ है। वह इष्ट-निष्ठा, जिसके बिना यथार्थ प्रेम का विकास सम्भव नहीं, अक्सर दूसरे सब धर्मों की निन्दा का भी कारण बन जाती है। प्रत्येक धर्म और देश में जितने सब दुर्बल और अविकसित बुद्धिवाले मनुष्य हैं, वे अपने आदर्श से प्रेम करने का एक ही उपाय जानते है और वह है अन्य सभी आदर्शों को घृणा की दृष्टि से देखना। यही इस बात का उत्तर मिलता है कि वही मनुष्य, जो धर्म और ईश्वर संबंधी अपने आदर्श में इतना अनुरक्त है, किसी दूसरे आदर्श को देखते ही या उस संबंध में कोई बात सुनते ही इतना खूँख्वार क्यों हो उठता है।

इस प्रकार का प्रेम कुछ-कुछ, दूसरों के हाथ से अपने स्वामी की सम्पत्ति की रक्षा करनेवाले एक कुत्ते की सहजप्रवृत्ति के समान है। पर हाँ, कुत्ते की वह सहज प्रेरणा मनुष्य की युक्ति से कहीं श्रेष्ठ है, क्योंकि वह कुत्ता कम से कम अपने स्वामी को शत्रु समझकर कभी भ्रमित तो नहीं होता- चाहे उसका स्वामी किसी भी वेष में उसके सामने क्यों न आये। फिर, मतान्ध व्यक्ति अपनी सारी विचार-शक्ति खो बैठता है। व्यक्तिगत विषयों की ओर उसकी इतनी अधिक नजर रहती है कि वह यह जानने का बिलकुल इच्छुक नहीं रह जाता है कि कोई व्यक्ति कहता क्या है- वह सही है या गलत; उसका एकमात्र ध्यान रहता है यह जानने में कि वह बात कहता कौन है। देखोगे, जो व्यक्ति अपने सम्प्रदाय के- अपने मतवाले लोगों के प्रति दयालु है, भला और सच्चा है, सहानुभूतिसम्पन्न है, वही अपने सम्प्रदाय से बाहर के लोगों के प्रति बुरा काम करने में भी न हिचकेगा।

परन्तु यह आशंका भक्ति की केवल निम्नतर अवस्था में रहती है। इस अवस्था को ‘‘गौणी’’ कहते हैं। परन्तु जब भक्ति परिपक्व होकर उस अवस्था को प्राप्त हो जाती है, जिसे हम ‘परा’ कहते हैं, तब इस प्रकार की भयानक मतान्धता और कट्टरता की फिर आशंका नहीं रह जाती। इस ‘परा’ भक्ति से अभिभूत व्यक्ति प्रेमस्वरूप भगवान के इतने निकट पहुँच जाता है कि वह फिर दूसरों के प्रति घृणा-भाव के विस्तार का यन्त्रस्वरूप नहीं हो सकता।

यह सम्भव नहीं कि इसी जीवन में हममें से प्रत्येक, सामंजस्य के साथ अपना चरित्रगठन कर सके; फिर भी हम जानते हैं कि जिस चरित्र में ज्ञान, भक्ति और योग- इन तीनों का सुन्दर सम्मिश्रण है, वही सर्वोत्तम कोटि का है। एक पक्षी के उड़ने के लिए तीन अंगों की आवश्यकता होती है- दो पंख और पतवारस्वरूप एक पूँछ। ज्ञान और भक्ति मानो दो पंख है और योग पूँछ, जो सामंजस्य बनाये रखता है। जो इन तीनों साधानाप्रणालियों का एक साथ, सामंजस्य-सहित अनुष्ठान नहीं कर सकते और इसलिए केवल भक्ति को अपने मार्ग के रूप में अपना लेते हैं, उन्हें यह सदैव स्मरण रखना आवश्यक है कि यद्यपि वाह्य अनुष्ठान और क्रियाकलाप आरम्भिक दशा में नितान्त आवश्यक है, फिर भी भगवान के प्रति प्रगाढ़ प्रेम उत्पन्न कर देने के अतिरिक्त उनकी और कोई उपयोगिता नहीं।


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