धर्म एवं दर्शन >> श्रीरामकृष्णवचनामृतसार श्रीरामकृष्णवचनामृतसारमहेन्द्रनाथ गुप्त
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प्रस्तुत है पुस्तक श्रीरामकृष्णवचनामृतसार
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
वक्तव्य
प्रथम संस्करण
‘श्रीरामकृष्णवचनामृत-सार’ यह नवीन ग्रन्थ प्रकाशित
करते हुए हमें आनन्द हो रहा है।
भगवान् श्रीरामकृष्णदेव अपने शिष्यगणों एवं भक्तों के साथ वार्तालाप के क्रम में अपने दिव्य अनुभवों को बड़े ही सरल ढंग से बतलाया करते थे, जिससे उनके आध्यात्मिक जीवन के कई बुनियादी सिद्धान्त स्पष्ट होते थे। उनकी अमृतमयी वाणी को उनके एक प्रख्यात गृहस्थ भक्त श्री महेन्द्रनाथ गुप्त (श्री ‘म’) ने दैनन्दिनी के रूप में लिपिबद्ध कर लिया था। मूलतः यह बँगला में ‘श्रीरामकृष्णकथामृत’ ग्रन्थ के रूप में पाँच भागों में प्रकाशित हुआ, जिसमें ई.1882 से ई.1886 तक के वार्तालाप समाविष्ट हैं।
यही सम्पूर्ण ग्रन्थ हिन्दी में तीन भागों में ‘श्रीरामकृष्ण वचनामृत’ इस नाम से प्रकाशित हुआ है। हिन्दी में यह अनुवाद कार्य प्रसिद्ध (साहित्यकार) पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ जी ने अत्यन्त रोचक ढँग से सम्पन्न किया है।
पाठकों की सुविधा के लिए इसी बृहद् ग्रन्थ को समक्षिप्त-रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। यह चयन रामकृष्ण-संघ के वरिष्ठ संन्यासी स्वामी निखिलानन्दजी द्वारा किया गया था, जो मूल-रूप से अंग्रेजी में उपलब्ध है।
ईश्वरीय प्रसंगों के क्रम में स्वभावतः उच्च आध्यात्मिक एवं दार्शनिक तथ्य उजागर होते हैं अतः भाषा की सरलता ही उसे सुगम्य एवं सुग्राह्य बना सकती है यह इस ग्रन्थ की मौलिकता एवं विशेषता है।
वर्तमान युग के अध्यात्म पिपासुओं के लिए यह ग्रन्थ सर्वांगीण रूप से कल्याणकारी होगा ऐसी हमारी आशा ही नहीं विश्वास भी है।
भगवान् श्रीरामकृष्णदेव अपने शिष्यगणों एवं भक्तों के साथ वार्तालाप के क्रम में अपने दिव्य अनुभवों को बड़े ही सरल ढंग से बतलाया करते थे, जिससे उनके आध्यात्मिक जीवन के कई बुनियादी सिद्धान्त स्पष्ट होते थे। उनकी अमृतमयी वाणी को उनके एक प्रख्यात गृहस्थ भक्त श्री महेन्द्रनाथ गुप्त (श्री ‘म’) ने दैनन्दिनी के रूप में लिपिबद्ध कर लिया था। मूलतः यह बँगला में ‘श्रीरामकृष्णकथामृत’ ग्रन्थ के रूप में पाँच भागों में प्रकाशित हुआ, जिसमें ई.1882 से ई.1886 तक के वार्तालाप समाविष्ट हैं।
यही सम्पूर्ण ग्रन्थ हिन्दी में तीन भागों में ‘श्रीरामकृष्ण वचनामृत’ इस नाम से प्रकाशित हुआ है। हिन्दी में यह अनुवाद कार्य प्रसिद्ध (साहित्यकार) पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ जी ने अत्यन्त रोचक ढँग से सम्पन्न किया है।
पाठकों की सुविधा के लिए इसी बृहद् ग्रन्थ को समक्षिप्त-रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। यह चयन रामकृष्ण-संघ के वरिष्ठ संन्यासी स्वामी निखिलानन्दजी द्वारा किया गया था, जो मूल-रूप से अंग्रेजी में उपलब्ध है।
ईश्वरीय प्रसंगों के क्रम में स्वभावतः उच्च आध्यात्मिक एवं दार्शनिक तथ्य उजागर होते हैं अतः भाषा की सरलता ही उसे सुगम्य एवं सुग्राह्य बना सकती है यह इस ग्रन्थ की मौलिकता एवं विशेषता है।
वर्तमान युग के अध्यात्म पिपासुओं के लिए यह ग्रन्थ सर्वांगीण रूप से कल्याणकारी होगा ऐसी हमारी आशा ही नहीं विश्वास भी है।
प्रकाशक
तव कथामृतं तप्तजीवनं
कविभिरीडितं कल्मषापहम्।
श्रवणमंगलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ये भूरिदा जनाः।।
कविभिरीडितं कल्मषापहम्।
श्रवणमंगलं श्रीमदाततं
भुवि गृणन्ति ये भूरिदा जनाः।।
-प्रभो, तुम्हारी लीलाकथा अमृतस्वरूप है। तापतप्त जीवों के लिए तो
जीवनस्वरूप है। ज्ञान महात्माओं ने उसका गुणगान किया है। वह पापपुंज को
हरनेवाली है। उसके श्रवणमात्र से परम कल्याण होता है। वह परम मधुर तथा
सुविस्तृत है। जो तुम्हारी इस प्रकार की लीलाकथा का गान करते हैं, वास्तव
में इस भूतल में वे ही सर्वश्रेष्ठ है।
(श्रीमद्भागवत्, 10/31/9)
‘श्रीरामकृष्णवचनामृत’
पर
स्वामी विवेकानन्द के पत्र
(1)
द्वारा-लाला हंसराज
रावलपिण्डी
अक्तूबर, 1897
रावलपिण्डी
अक्तूबर, 1897
प्रिय ‘म’,
मेरे मित्र, यह हुई न कोई बात—अबकी बार आपने कर दिखाया। जरा अपने को प्रकट कीजिए ! सारा जीवन नींद में न बीते ! समय भाग रहा है। शाबास ! यही रास्ता है।
आपके प्रकाशन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। खाली यही सोच रहा हूँ आपने ट्रैक्ट के रूप में यह जो निकला, उससे उसका खर्चा निकलेगा या नहीं।...
जो हो, लाभ हो या न हो, वह प्रकाशन में तो आ जाए। आपको असंख्य आशीर्वाद मिलेंगे और ततोधिक अभिशाप—पर यह तो वैसा ही सब काल चलता, साहेब ! यही समय है।
मेरे मित्र, यह हुई न कोई बात—अबकी बार आपने कर दिखाया। जरा अपने को प्रकट कीजिए ! सारा जीवन नींद में न बीते ! समय भाग रहा है। शाबास ! यही रास्ता है।
आपके प्रकाशन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। खाली यही सोच रहा हूँ आपने ट्रैक्ट के रूप में यह जो निकला, उससे उसका खर्चा निकलेगा या नहीं।...
जो हो, लाभ हो या न हो, वह प्रकाशन में तो आ जाए। आपको असंख्य आशीर्वाद मिलेंगे और ततोधिक अभिशाप—पर यह तो वैसा ही सब काल चलता, साहेब ! यही समय है।
भगवादाश्रित,
विवेकानन्द
विवेकानन्द
(2)
देहरादून
24 नवम्बर, 1897
24 नवम्बर, 1897
प्रिय ‘म’,
आपके दूसरे ट्रैक्ट के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ! यह सचमुच आश्चर्यजनक है। यह पहल नितान्त मौलिक है। किसी महान आचार्य का जीवन-चरित्र लेखक के मनोभावों की छाप पड़े बिना जनता के सामने कभी नहीं आया, जैसा कि आप करके दिखा रहे हैं।
भाषा की भी जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी ही है—इतनी वह ताजा, इतनी पैनी और सर्वोपरि इतनी स्पष्ट और सरल है।
मैं यह पूरी व्यक्त नहीं कर सकता कि मैंने उनका कितना आनन्द लिया है। सचमुच, जब मैं उनको पढ़ता हूँ विभोर हो जाता हूँ। यह विचित्र है न ? हमारे गुरु और प्रभु कितने मौलिक थे ! और हममे से प्रत्येक को या तो मौलिक होना होगा या फिर कुछ नहीं। मैं अब समझ रहा हूँ कि उनकी जीवनी लिखने का प्रयत्न हममे से किसी ने क्यों नहीं किया। यह महान् कार्य आपके लिए सुरक्षित था। वे निश्चय ही आपके साथ हैं।
समूचे प्यार और नमस्कार के साथ,
आपके दूसरे ट्रैक्ट के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ! यह सचमुच आश्चर्यजनक है। यह पहल नितान्त मौलिक है। किसी महान आचार्य का जीवन-चरित्र लेखक के मनोभावों की छाप पड़े बिना जनता के सामने कभी नहीं आया, जैसा कि आप करके दिखा रहे हैं।
भाषा की भी जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी ही है—इतनी वह ताजा, इतनी पैनी और सर्वोपरि इतनी स्पष्ट और सरल है।
मैं यह पूरी व्यक्त नहीं कर सकता कि मैंने उनका कितना आनन्द लिया है। सचमुच, जब मैं उनको पढ़ता हूँ विभोर हो जाता हूँ। यह विचित्र है न ? हमारे गुरु और प्रभु कितने मौलिक थे ! और हममे से प्रत्येक को या तो मौलिक होना होगा या फिर कुछ नहीं। मैं अब समझ रहा हूँ कि उनकी जीवनी लिखने का प्रयत्न हममे से किसी ने क्यों नहीं किया। यह महान् कार्य आपके लिए सुरक्षित था। वे निश्चय ही आपके साथ हैं।
समूचे प्यार और नमस्कार के साथ,
विवेकानन्द
पुनश्च-सुकरात के वार्तालाप में प्लेटो ही प्लेटो की छाप है, पर आप तो
पूरी तरह छिपे हैं। फिर उसका नाटकीय पक्ष अतीव सुन्दर है। यहाँ हो या
पश्चिम में, सभी उसे पसन्द करते है।
वि.
माँ सारदा का ‘म’ को पत्र
ज्यरामवाटी
4 जुलाई, 1897
4 जुलाई, 1897
प्रिय बेटे,
तुमने उनसे जो सुना था, वह सत्य ही है। इसमें तुम्हारे भय की कोई बात नहीं। एक समय उन्होंने तुम्हारे पास से ये सब बातें (धरोहर के रूप में रखवायी थीं, और अब आवश्यकतानुसार वे ही इन्हें प्रकाशिक करा रहे हैं। यह जान रखना कि इन सब बातों को प्रकाशित न करने से लोगों की चेतना नहीं जागेगी। तुम्हारे पास उनकी जितनी भी बातें हैं, वे सब की सब सत्य हैं। एक दिन जब तुम मुझे वह पढ़कर सुना रहे थे, मुझे ऐसा लगा मानो वे ही बोल रहे हैं।
तुमने उनसे जो सुना था, वह सत्य ही है। इसमें तुम्हारे भय की कोई बात नहीं। एक समय उन्होंने तुम्हारे पास से ये सब बातें (धरोहर के रूप में रखवायी थीं, और अब आवश्यकतानुसार वे ही इन्हें प्रकाशिक करा रहे हैं। यह जान रखना कि इन सब बातों को प्रकाशित न करने से लोगों की चेतना नहीं जागेगी। तुम्हारे पास उनकी जितनी भी बातें हैं, वे सब की सब सत्य हैं। एक दिन जब तुम मुझे वह पढ़कर सुना रहे थे, मुझे ऐसा लगा मानो वे ही बोल रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण
संक्षिप्त जीवन-चरित्र
श्रीरामकृष्ण का जन्म हुगली जिले (पश्चिम बंगाल) के कामारपुकुर नामक गाँव
में बुधवार, 18 फरवरी 1836 को हुआ था। उस दिन फाल्गुन के शुक्ल पक्ष की
द्वितीया तिथि थी। जिस ब्राह्मण-परिवार में उन्होंने जन्म लिया, वह यद्यपि
निर्धन था, पर बड़ा ही सम्मानित था। कामारपुकुर ग्राम आरामबाग अनुविभाग
से, जो पहले जहानाबाद कहलाता था, लगभग 12 किलोमीटर पश्चिम और वर्धमान से
लगभग 42 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है।
श्रीरामकृष्ण के पिता क्षुदीराम चटर्जी बड़े निष्ठावान भक्त थे। उनकी माता चन्द्रमणि देवी सरलता और दया की प्रतिमूर्ति थी। पहले वे लोग देरे नामक गाँव में रहते थे, जो कामारपुकुर से 5 किलोमीटर की दूरी पर है। उस गाँव के जमींदार के मुकदमें में क्षुदिराम झूठी गवाही देने से इनकार कर दिया। अतः जमींदार ने उनका गाँव में रहना दूभर कर दिया। फलस्वरूप उन्होंने अपने परिवार के साथ देरे गाँव को छोड़ दिया और कामरपुकुर में आकर बस गये।
श्रीरामकृष्ण के बचपन का नाम गदाधर था। गाँव की पाठशाला में उन्होंने थोड़ा-बहुत पढ़ना, लिखना और अंक गणित का पाठ सीखा। पर ‘शुभंकरी’1 को पढ़ते ही उनका सिर चक्कर खाने लगता।
श्रीरामकृष्ण ने गाँव की पाठशाला तो छोड़ दी, पर उन्हें घर में चुपचाप बैठने नहीं दिया गया। वे गृहदेवता रघुवीर की नित्य सेवा करते। वे प्रातःकाल उठकर भगवान का नाम लेते और शुद्ध वस्त्र पहन फूल चुनते और फिर देवता की पूजा करते। वे सुन्दर भजन गाया करते—उनका गला अत्यन्त मधुर था। धार्मिक नाटक-नौटंकियों के गीत सुनकर वे अधिकांश गीतों को शुरू से आखिर तक दुहरा दिया करते। बचपन से ही वे सदानन्दी थे। गाँव के आवालवृद्धवनिता, सभी उन्हें प्यार करते थे।
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1. ‘शुभंकरी’ सुप्रसिद्ध गणितज्ञ शुभंकर की अंकगणित पर पुस्तक है, जिसका बंगाल में बहुत ही प्रचलन है।
श्रीरामकृष्ण के पिता क्षुदीराम चटर्जी बड़े निष्ठावान भक्त थे। उनकी माता चन्द्रमणि देवी सरलता और दया की प्रतिमूर्ति थी। पहले वे लोग देरे नामक गाँव में रहते थे, जो कामारपुकुर से 5 किलोमीटर की दूरी पर है। उस गाँव के जमींदार के मुकदमें में क्षुदिराम झूठी गवाही देने से इनकार कर दिया। अतः जमींदार ने उनका गाँव में रहना दूभर कर दिया। फलस्वरूप उन्होंने अपने परिवार के साथ देरे गाँव को छोड़ दिया और कामरपुकुर में आकर बस गये।
श्रीरामकृष्ण के बचपन का नाम गदाधर था। गाँव की पाठशाला में उन्होंने थोड़ा-बहुत पढ़ना, लिखना और अंक गणित का पाठ सीखा। पर ‘शुभंकरी’1 को पढ़ते ही उनका सिर चक्कर खाने लगता।
श्रीरामकृष्ण ने गाँव की पाठशाला तो छोड़ दी, पर उन्हें घर में चुपचाप बैठने नहीं दिया गया। वे गृहदेवता रघुवीर की नित्य सेवा करते। वे प्रातःकाल उठकर भगवान का नाम लेते और शुद्ध वस्त्र पहन फूल चुनते और फिर देवता की पूजा करते। वे सुन्दर भजन गाया करते—उनका गला अत्यन्त मधुर था। धार्मिक नाटक-नौटंकियों के गीत सुनकर वे अधिकांश गीतों को शुरू से आखिर तक दुहरा दिया करते। बचपन से ही वे सदानन्दी थे। गाँव के आवालवृद्धवनिता, सभी उन्हें प्यार करते थे।
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1. ‘शुभंकरी’ सुप्रसिद्ध गणितज्ञ शुभंकर की अंकगणित पर पुस्तक है, जिसका बंगाल में बहुत ही प्रचलन है।
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लोगों की राय
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